कवियर ओऔ सनन्‍्तलालख जी विरचित श्री सिद्धचक्त विधान प्रकाशक : श्री राजकष्ण जेन चेरिटेबल ट्रस्ट अहिसा मन्दिर १५ वरियाषंज, नई विज्ञी-११०००२ अन्य केन्द्र : (हरिद्वार, कुरुक्षेत्र व पिलानो) मूल्य : तो रष्प्रे प्रकाशक ; ३ श्री राजकृष्ण जेन चेरिटेबल ट्रस्ट अहिसा भन्दिर, १ दरियागंज, नई दिल्‍ली अन्य केन्द्र : (हरिद्वार, कुरुक्षेत्र, पिलानी) सुल्य : तोस रुपये कातिक कृष्णा ४ बोर निर्वाण सं० २५११ मुद्रक : बीता प्रिंटिंग एजेंसी, हो-१०४, न्यू सौलमपुर, दिल्ली-५ ३ हमारे झ्न्य प्रकाशन « भक्ति गृच्छक- (स्तोत्र, पाठ और पूजा आदि का अपूव संग्रह) २. १०. ११. १२. १३. ६३९ पृष्ठ का गुटका । मूल्य ५ रुपये अध्यात्म तरंगिणी---रचयिता, आचार्य सोमदेव, संस्कृत टीकाकार आ० गणधरकी ति, हिन्दी टीकाका र--पं० पन्‍नालाल साहित्याचार्य मूल्य ४ रुपये , युगवीर भारती-- पं० जुगलकिशो रजी मुख्तार की कविताओं का संग्रह मुल्य ३ रुपये . भगवान महावीर---(लेखिका रमादेवी जैन) मूल्य ३ रुफ्ये , हरिवंजश्ञ कृथा--मूल लेखक : आचार जिनसेन, रुपान्तरकार: श्री माई दपाल जैन पृष्ठ संखघधा ३४० सजिल्द मूल्य १४५ रुपये . प्रशुस्तन चरित्र--(बाल संस्करण) श्रीमती पद्चा जेन हे रुपये - हरियंत कथा--- हे न ३४ ३ रुपये - तन से लिपटो बेल (उपन्यास)--- लेखक--श्री आनन्द प्रकाश जैन (सजिल्द) मूल्य १० रुपये पुराने घाट नई सीढ़ियां--डा० नेमिचन्द जैन, ज्योतिषाचार्ये पी-ए१० डी०, डी० लिद्‌ सजिल्द मूल्य १० रुपये नित्य निमरभ पूजन, अल विश्नत्धि बाढ़, तोथंक्षेत्र पुजन थ स्तोत्र संग्रहू--भी बन्द,वन जी कृत “३० रुपये सिद्ध चक्र विधान-- श्री सन्‍तलाल जी कृत ३० रुपये समयसार--आचाये कुम्दकुन्दाचाये कृत “श्री राजकृष्णजी जैन” द्वारा गाथाओं के अग्रेजी रूपान्तर सहित । (जैस में) नियमसार-- आचार्थ कुन्दकुन्दाचार्य कृत “श्री राजकृष्णजी जैन” द्वारा माधाओं के अंग्रेजी रूपान्तर सहिन । (प्रेस में) फोन : इप्ररहार २७7 दाराफ्राष्ाप उप श28/02757, [0८7एफए 5छाराट्छ उग्ा। सक्तांट्शं वावतात00$ कात ॥0$ (९॥९४७॥०९ ॥08 ॥॥6 उधो। (एा८०लछांणा ० (तणजल्तएट थाए॑ रिट्वा(ए शांत ॥$ ६९९५ जक्ाएट [0 5$ठ55चागीए काणएन्‍शञा 99. एा 6. ९ शिक्रा42५. एछऊ- जा (॥2ग्९०ी००, रिव्वुंवध्घाद्या पएशाआा9, गशेएपा- 25-00 8076 व॥ठ00शा६ णा. $टांसा०९ & रिशाडांणा 99 श06550 छा. 0. $. €णाक्षा, ि"-एबीायधिदा एारएणकआाए छाध्ा।5 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बोर निर्वाण सं० २५११ १-११-१६८५ ६० 67 4 &छ _# उद ७ +्छ 0 ७ £2| विषय-सची हर] विषय प्रकाशकीय आद्य-मिताक्षर मंगलाष्टक बज अभिषेक पाठ शान्तिघारा की सिद्धाचक्र विधान का महत्व व विधि ... यंत्र पूजा मंगलाचरण प्रथम पूजा द्वितीय पूजा तृतीय पूजा चतुर्थ पूजा पंचम पूजा षष्ठम पूजा सप्तम पूजा अष्टम पूजा हवन विधि शांति पाठ विसर्जन भाषा स्तुति पाठ न्न्न सिद्ध-चक्र आरतो पृष्ड भर ७ १३ श्डं १७ २० सर्द १-२ ३--८ ६--१४ १५--२३े २३--३५ ३६--२७ ४८--५७ ६८--१६३ १६४--२८१ २०२- २६२ २६२--२६३ २६४-- २६४--२९६ २६६--२९८ पु भी लि चक्राबिपतये नमः _५ प्रकाशकीय सिद्धपरमेष्ठी आत्मा के शुद्धरूप में विराजमान हैं और उनका पद पंचपरमेष्ठियों में सर्वोच्च है। तीर्थंकर जेसे महान भी उनके नमन पूर्वक दीक्षा ग्रहण करते हैं--“नमः सिद्ध कह सब ब्रत लेय।” लोक रीति भी कार्य सिद्ध करने की होने से 'सिद्ध/ नाम यथागुण है। यही कारण है कि जैन समाज में सिद्ध समूह के ग्रगान को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जाती रही है। प्रस्तुत 'सिद्धचक्र विधान! सिद्ध परमेष्ठी की पुजा का विधान है और अष्टाह्लिका पर्व में इस पाठ के करने की परिपाटों प्रचलित है। सिद्ध- यंत्र की मान्यता, आराधना व पूजा श्वेताम्बर जेन समाज में भी प्रच- लित है। इसको आराधना से अणिमा आदि अनेक महान सिद्धियाँ प्राप्त होती है ऐसी मान्यता है । अब तक इस पाठ के विभिन्‍न-संस्क रण, विभिन्‍न स्थानों से प्रकाशित हुए हैं। उन्हीं की श्ंंखला मे प्रस्तुत संस्ककरण प्रकाशित करने के हमारे भाव विरकाल से थे। हम चाहते रहे कि एक ऐसा संस्करण प्रकाशित हो, जिसमें अ।द्यन्त शुद्धता ओर सर्वाद्धभीणता हो । इसी उद्देश्य को लेकर हमने अनेकों संस्करण एकत्रित कर, अनेकों विद्वानों के परामशे से छत पाठ प्रकाशित कराया है। इसमें प्रारम्भ से हृवन-शान्ति-विसर्जन पयंन्‍्त सभी विधियों का क्रमपृर्वक समावेश किया गया है। हमें आशा है पा5-वाचक पूजक ओर श्रोताओं को इससे लाभ होगा। सिद्धों को आराधना का सच्चा फल तो वीतराग भाव को वृद्धि होना है, क्योकि वे स्वयं वीतराग हैं। सिद्धों का सच्चा भक्त उनसे लौकिक लाभ की चाह नहीं रखता, फिर भो पुष्य बंध होने से उसे लोकिक अनुकूलता सहज ही प्राप्त होती है। सिद्धों का स्वरूप जानकर उन जेसी अपनी आत्पा को पहचान कर, उसमें ही लोन श ँ | सिद्ध चक्रविधांत हो जाने पर मोह-राग-ठेष और जन्म-मरण जैसे महान रोग भी नष्ट हो जाते हैं । हमारे पिता जी को इस पाठ पर बहुत श्रद्धा थी, उन्होंने जीवन में अनेकों बार इस पाठ किया। प्रस्तुत पाठ को कविवर सन्तलाल जी नुकड़ (सहारनपुर) द्वारा रचा गया है। इसके माध्यम से कवि महहोदय मे सिद्ध भगवन्तों के गुणानुवाद के साथ-साथ उनका स्वरूप एवम्‌ सिद्धपद प्राप्ति की प्रक्रि] का भी वर्णन किया है। जो कवि के गहन अध्ययन एवं आध्यात्मिक रुचि का परिथायक है। इस विधान की एक शुद्ध की हुई प्रति नुकड निवासी श्री प्रेमचन्द जी जैन ठेकेदार ज्वालापुर ने मुझे हरिद्वार मन्दिर निर्माण के समय दी थी। उनसे भी बहुत सहायता मिली | वे भी धन्यवाद के पात्र हैं। ट्रस्ट का प्रमुख उद्देश्य धर्म संरक्षण एवं संवर्धन की दिशा में रहा है। दुलंभ ग्रन्थों के उद्धार, साहित्य प्रकाशन के कार्य, जिन मन्दिरों के निर्माण ओर धर्म प्रचार की दिशा में ट्रस्ट से जो कुछ बन पा रहा है; कर रहा है। हमारी भावना है कि--प्रस्तुत-विधान जन-जन में धर्म-भावना का संचार करे और भव्य-जीव सिद्ध-पद--मुक्ति के द्वार तक पहुंचें। पाठ संशोधन प्रकाशन में विशेषक्र वीर सेवा मन्दिर के विद्वानों ने दिशा-बोध दिया है ओर भी जिन विद्वानों से हमें सहयोग मिला है--ट्रस्ट उन सभी का अत्यन्त आभारी हैं। शुभमस्तु : कारतिक कृष५ ४ -प्रेस चन्द्र जन बी० नि० सं० २५११ आद्यमिताक्षर दिगम्बर जेन आगम परम्परा में पूजा विधि विधान को ध्ावक का प्रमुख आचार घ॒र्मं बताया गया है। श्रावक के नित्य षट्ट कर्मों में सबसे पहले देव पूजा का ही उल्लेख है जैसा निम्न लिखित इलोक से स्पष्ट है 4-- देवपुजा गुरूपास्त स्वाष्यायः संयमस्तपः । बान चेतिगृहस्थानां घट कर्मारित दिने बिने ।॥॥ अर्थात्‌ भगवान की पूजा, गुरुचरणों की उपासमा, स्वाध्याय, संयम- पालन, शबत्यनुसार तप, पात्रदान, इन षट्‌ कर्मों में देव पूजा ही प्रमुख है। देवपूजा से अभिप्राय वीतराग स्वंज्ञ अरहंत, अष्टकर्म निर्मुक्त सिद्ध भगवान एवं आचार्य, उपाध्याय साधु इन पांच परमेष्ठियों की पूजा इनके साथ ही जिनवाणी (शास्त्र) पूजा भी सम्मिलित हो जाती है। यह देव पूजा ही हमारी परम्परा की प्रतीक है। और इस परम्परा को ही सम्यग्दर्शन कहा या है। अतः कहना होगा कि देवश्ास्त्रगुरू की परम भक्ति ही सम्यक दशन है । जो इस परमभक्त से वंचित है वह सम्यरदुष्टि नहीं होता । इस सम्बन्ध में पूजा शास्त्रों में ही लिखा है। जिनेभक्तिलिनेभ क्तिजिने भक्ति: सदास्तु से। सम्यकत्वसेव संसार बारण मोक्षकारणम्‌ ॥ अर्थ--भगवान जिनेन्द्र में मेरी सदा भक्ति हो, सदा भक्ति हो सदा भक्ति ही, क्योकि यह सम्यवत्व (भक्ति) ही संसार का निव्रारण करने वाला मोक्षका कारण है। आचाय समन्तभद्र के अनुसार भी सच्चे देवश्यास्त्र गुरू के श्रद्धान को ही सम्यर्दर्शन कहा ण्या है ओर श्रद्धा भवित का;ही पर्यायवाची शब्द है । शा | [ सिद्धचक्र विधान इसी तरह एकीभाव स्तोत्र में भी वादिराज आचार्य ने लिखा है :-- शुद्धेशनि शुचिनि चरिते सत्यपि त्व्यनोचा, भक्तिनों चेन्तिरवधि सुखा बंधिका कुब्चिकेयं शक्योद्धाट भवति हि कर्थ मुक्तिकासस्य पुसः॥ घुक्तिद्वारं परिवृढ़ महामोहमुद्रा कपाठम्‌ अर्थ--शुद्धज्ञान शुद्ध चारित्र होने पर भी हे प्रभो ! यदि अनन्त सुखप्रदाता उत्कृष्ट भक्ति रूपी ताली मुमुक्षु के पास नहीं है तो मोक्ष का दरवाजा जिस पर मिथ्यात्व रूपी ताला लगा हुआ है कंसे खुलेगा । इस इलोक से स्पष्ट है कि यह उत्कृष्ट भक्ति रूप ताला सम्यर्दर्शन ही है क्योंकि शुद्ध ज्ञान और शुद्ध चारित्र का सम्बन्ध सम्यग्दशंन से ही है, उस शुद्ध सम्यग्दर्शन को ही स्तुतिकार ने यहां अनीचा (उत्कृष्ट) भक्ति साम से लिखा है।इस तरह हम देखते हैं कि यह पूजा विधि विधान ' सम्यग्दर्शन के ही रूपान्तर हैं। अन्तर केवल इतना द्वी है कि देव पूजा नामक नित्यकर्म है और विधि विधान उसके नेमित्तिक कर्म हैं नित्य पूजा में विधि विधान का उपयोग नहीं किया जाता जितना उपयोग नेमित्तिक पूजा में होता है। यह पिद्धवक्रपूजा नैभित्तिक पूजा है।इस विधान का उपयोग प्रायः आषाढ़, कातिक एवं फाल्गुन मास की शुबल पक्ष की अष्टमी पै लेकर पूर्णनासी तक आठ दिन में सम्पूर्ण होता है। पहले दिन सिद्ध भगवान के आठगुणों को लेकर आठ भर चढ़ाए जाते हैं। इसके बाद प्रत्येक दिन दूने दूने अर्घ चढ़!कर अन्त में १०२४ अभर्घ चढ़ाए जाते हैं। इन अ्ों के अतिरिक्त नित्य पूजा के क्रम भी प्रत्येक दिन रहता है। विधान के अन्त में चतुविशति तीथंकद पूजा, जिनवाणी पूजा एवं गुरूपजा भी को जाती है। उसके बाद में हवन प्रक्रिया प्रारम्भ होती है। विधि विधानों में यह प्रक्रि] भी अत्यन्त आवश्यक होती है। इसके बिना कोई भी यज्ञ आदि कर्म अधूरा है । आदि पुराण में जिन १६ संस्कारों का उल्लेख है उन सब संस्कारों में पूजा के साथ हवन विधि का भी उल्लेख है और यदि हवन नहीं किया जाता है तो वह संस्कार वस्तुतः पूरा संस्कार नहीं कहा जा सिद्धचक्त विधान ] [ ॥£ सकता । ओर उसके फल की प्राप्ति में बाधा भी आ सकती है। इस हवन प्रक्रिया में मन्त्र पूर्वक आहुतियां दी जाती हैं। ये मन्त्र भी पीठिका मन्त्र, जातिमन्त्र, निस्तारक मन्त्र आदि अनेक प्रकार के होते हैं। इन अनेक मन्‍्त्रों में प्रत्येक के अन्त में तीन काम्य मन्त्र बोलकर भी आहुति दी जाती है। काम्य मन्त्र का अभिप्राय है कामनाएं करना। ये कामनाए सांसारिक सुखों की इच्छाओं को लेकर नहीं होतीं प्रत्युत उनका सम्बन्ध आत्मकल्याण से ही है। ये मन्त्र निम्न प्रकार है :-- १-सेवा फल षट्‌ परमस्थानं भवतु । २--अपमृत्यु विनाशनं भवतु। --समाधि मरणं भवतु। इनमें पहले मन्त्र का अर्थ इस प्रकार हैं भगवन्‌ ! आपकी पूजा करने से मुझे ६ उत्कृष्ट स्थानों की प्राप्ति हो । इन स्थानों का व्योरा शास्त्र में इस प्रकार लिखा है :--सज्जाति २--सद्गृह- स्थता ३--पारिब्राज्य ४--सुरेन्द्रता (--चक्रवरतित्व ६--आहुन्त्य ७-- निर्माण--ये सात परम स्थान हैं। इन सात परम स्थानों में सज्जातित्व नामका पहिला परम स्थान तो प्राप्त ही है क्योंकि जो सज्जातित्व को प्राप्त नहीं है उसको १६ संस्कारों में से किसी भी संस्कार के करने का अधिकार नहीं है। क्योंकि ये १६ संस्कार त्रिवर्णों के ही होते हैं। अतः त्रिवर्ण ही धघक्त ६ परमस्थानों की कामना करता है। दूसरे मन्त्र का अर्थ है:--मेरी बुरी मोत न हो अर्थात्‌ अपमृत्यु (बुरी मोत) होने से इस जीव को दुर्गंति मिलनी है, दु्गंति मिलने से आत्मा का अहित होता है । तीसरे मन्त्र का अर्थ है मेरा समाधि मरण हो, क्‍योंकि यह जीव अनन्तों बार मरा है लेकिन समाधिमरण इस जीवको आज तक नहीं मिला॥ शास्त्रों में लिखा है कि उत्तम समाधिमरण होने पर इस जीव को उसी भव से मोक्ष मिल जाता है, जघन्य भी समाधि हो जाय तव भी चौथे भव में मुक्ति प्राप्त हो जाती है । जीवों के अनादिकाल से आधि, व्याधि, उपाधि लग्री हुई है। बाधि का अर्थ है मानसिक पीडा, व्याधि का अर्थ है शारीरिक पीडा, उपाधि का अर्थ है पीडा का निमित्त पर पदार्थ, जहां यह तीनों प्रकार की पीडायें सम- अर्थात्‌ शांत हो जाती हैं उसे समाधि कहते हैं। यह समाधि हो जाय अर्थात्‌ मोक्ष की प्राप्ति हो जाय यह समाधि मरण है। इसलिए “समाधि मरणं भवतु” यह अन्तिम काम्य मन्त्र है।इन कामनाओं के साथ यह हवन प्रक्रिया समाप्त होती है। सिद्ध चक्र विधान की तरह शास्त्रों में त्रेजोक्य माडल विध।न, इन्द्र- ध्वज विधान आदि अनेक विधानो की चर्चा है, पर सिद्धचक्र विधान अपने रूप में बहुत कुछ प्रचलित है। तथा वर्ष में तीन बार इस विधान का उप- क्रम किया जाता है जिन्हें अष्टान्हिक कहते हैं, लेकिन अन्य विधानों का प्रायः ऐसा कोई समय निश्चित नहीं है। यही कारण है कि धामिक जगत्‌ में जेनों के द्वारा सिद्धचक्र विधान ही अधिक किया जाता है। दूसरा कारण यह भी हैँ कि इस विध,न के द्वारा मना सुन्दरी ने अपने पति कोटिभट्ट राजा श्रीपाल का कुष्ठ रोग दूर किया था । और यह कथा पुरुष, महिला, बच्चों आदि सभी क हृदयगत है । स्व० पं० मक्खनलाल जी प्रचारक दिल्ली के शब्दों में इस कथा को यों भो गाया जाता है :--“सिद्धचक्र का पाठ क्रो दिन आठ ठाठ से प्राणी, फल पायो मना रानी” । प्रस्तुत पुस्तक “श्री सिद्धचक्र विधान” कविवर पं० सन्तलाल जी कवि कृत है । जो हिन्दी भाषा रचित होने से सर्व साधारण जनत।; के लिए उपयुक्त है । इस विधान में जिन गुणों को लेकर अर चढ़ाए गए हैं वे भी बड़े सुन्दर और पठनीय हैं, चतुर्थ पूजा में जहां ६४ अ्घ चढ़ाए गए हैं वे ६४ ऋट्धियां हैं जो सर्व साधारण के लिए पठनीय एव ज्ञातब्य है। नित्य- पूजाओ में आम जनता जिस “स्वस्ति क्रियासु:” पर “स्वस्ति पाठको पढ़ती है वह संस्कृत के पढ़े-लिखे लोगों के अतिरिक्त अन्य किसी की समझ में नहीं आती जबकि इस सिद्ध चक्र पूजा विधान में अध॑ चढ़ाते समय उनका बड़ी सरल भाषा में उल्लेख किया गया है जिसे पढ़कर तपः साधना के प्रति बिशेष उत्सुकता हीती है। खिदचक्र विधान | [शा पुस्तक के अन्त में हृवन की विधि का भी उल्लेख है उसमें हवन कुंढों के नाम उनकी लम्बाई-चौड़ाई गहराई के माप दण्ड का भो उल्लेख किया गया है। कंडों की कटनियों पर खूंटो कलावा आदि लपेटने का विधि विधान भी दिया गया है, सभी प्रकार की आहुतियों को लेकर हवन-सामग्री बनाने का सुन्दर उल्लेख किया गया है, एवं अग्नि प्रज्वलता को उचित लकड़ियों का भी उल्लेख किया गया है। इस प्रकार पुस्तक द्वारा विधान कर्ताओं के लिए विधान की प्रक्रिया को बहुत कुछ सरल बना दिया गया है। पुस्तक का प्रकाशन श्री राजकृष्ण जैन चेरिटेविल ट्रस्ट अहिंसा मन्दिर १ दरियागंज, नई दिल्‍ली के अन्तगंत लाला राजकृष्ण के सुपुत्र श्रों प्रेमचन्द्रजी द्वारा हुआ है। श्री प्रेमचंद्रजी अपने आप में बड़े कमंशील, निष्ठावान, सेवापरायण एवं परिभ्रमशील व्यक्ति हैं, आपने अब तक अनेक धार्मिक पुस्तकों जेसे समयसार, युग वी र- भारतों, पुरानेघाट नई सीढ़ियां, भगवान महावोर, अध्यात्म तरंगणी, भवित गुच्छक, तन से लिपटी वेल, चतुविश्ञति तीथंकर व निर्वाण क्षेत्र पूजन आदि का प्रकाशन किया है। दिल्‍लो विश्वविद्यालय में श्री राजकृष्ण जेन स्मृति व्याख्यान माला की स्थापना कर ख्याति प्राप्त विद्वानों के हर वर्ष प्रेरक व्याख्यान कराते हैं। अब तक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के कुलाधिपति डा० दोलत सिहजी, कोठारी राजस्थान विश्वविद्यालय के कुल- पति प्रो० जी० सो ० पाण्डे बंगलोर विश्वविद्यालय के कुलपति न्यायमूर्ति श्री टी० के० तुकोल, मायसौर विश्वविद्यालय में जेन दशंन व प्राकृतिक विभाग के प्रो० डाक्टर टी० जी० कलघटमगी, स्थाद्वाद महाविद्यालय वाराणसी के प्रस्िद्धविद्वान्‌ सिद्धांताचार्य पं० केलाशचन्द्रजी शास्त्री, इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रो० डा० बाबूराम जी सक्सेना, जन विश्व भारती लाडनूं के डा० नथमल टांटिया, सागर विश्वविद्यालय के डा० कृष्णदत्त वाजपेयी आदि के व्याख्यान हो चुके हैं, और उनका सुन्दर प्रकाशन किया गया है । स्वर्यीय लाला राजक्ृष्ण जी ने श्री राजकृष्ण जैन चेरिटेबल ट्रस्ढ श्र] [ शिद्ध चक्र विधान की स्थापना कर दिल्‍ली दरियागंज में अहिंसा मन्दिर का निर्माण कराया जिसमें श्री दिगम्बर जैन मन्दिर, धर्मशाला, वाचनालय, भोषधालय व नसिंग होम आदि चल रहे हैं। उन्होंने १६५४ में मूडविद्री से धवलादि ग्रन्थों को दिल्‍ली लाकर जीर्णोड्धार कराया। १६५६ में मध्य प्रदेक्ष में जो मूर्ति ध्वंस करवाई हुई उसमें से ८० मूर्तियों के सड दिल्ली स्थित मोहनजीदारो फर्म के मालिक श्री वत्ना के यहां से पकड़वा कर आतताइयों को सजा दिलाई व अनेकों कार्य किये। उनके पुत्र श्री प्रेमचन्द्रजी ने अनेकों जगह शीतल जल प्याउओं का निर्माण कराया। हरिद्वार, पिलानी, कुरुक्षेत्र आदि व दिल्‍ली के आसपास जहां जैन मन्दिर नहीं थे वहां अनेक जन मन्दिरों का निर्माण कराया है। जम्बूद्वीप हस्तिनापुर में सुमेरु में एक चैत्यालय का निर्माण कराया आदि ! मूडविद्रीके सिद्धांत बस्ती (मन्दिर) में श्रीमती कृष्णादेवी--राजकृष्ण जैन घवलोद्धार कक्ष का निर्माण कराया, श्रवणवेल में श्रीमती पद्मावती प्रेम चन्द्र जेन सावंजनिक पुस्तकालय का निर्माण, मायसोर विश्व विद्यालय में जैन दर्शन व प्राकृत पढ़ने वाले छात्रों के लिए श्री राजहृष्ण जैन छिष्य बृत्ति कोषकी स्थापना की । भारतीय व विदेशी विश्व विद्यालयों में व जेलों में जेन साहित्य भेंट किया। बाहर से आने वाले प्रायः सभी सामाजिक कार्यकर्ताओं को अपने यहां ठहराते हैं ओर उनके विश्वाम की सभी प्रकार की व्यवस्था करते हैं। सच्चाई तो यह है कि श्री प्रेमचन्द्र जी अपने आप में एक चलती- फिरतो संस्था है। अन्य संस्थाएं जो काम नहीं कर पातीं वे आप स्वयं करते हैं। धर्म प्रचार की आपको अच्छी लगन है। इस पुस्तक का प्रकाशन कर आपने साहित्यिक क्षेत्र में एक कमी को पूरा किया है। इस उपलक्ष में हम उनका साधुवाद करते हैं । (पं०) लाल बहादुर शास्त्री शानयोगी पण्डिताबाय भट्टारक अध्यक्ष, भा० दि० जैन शास्त्री परिषद जारुकोति स्वासी गांधी नगर, देहली थी दि० जैन मठ, मूडविद्री (आओ) पश्चचन्द्र शास्त्रों (द० कन्नड़) वीर सेवा मन्दिर, ३१, दरियागंज, दिल्‍ली > जड़े दुश्आयं है 2 8: का ड़ हू 8 ४; हट, 2५ जा श्रीमतों कृष्णा देवों जेन, श्रोमतो पद्मावती जेन वे श्री प्रेमचन्द्र जेन पूजन करते हुए । श्री राजकृष्ण जी जेन तिद्धचऋ विधान में प्रहस्थाचाय को भूमिका में । मंगलाष्टलम्‌ श्रीमननस्रसु रा--पुरेच्र-मुकुट-प्रदोतरत्न-प्रभा--- भास्वतपादनखेन्दव:ः प्रवचनास्भोधषोन्दवः स्थायिनः। ये सर्वे जिनसिद्धसुयंनुगतास्ते पाठकाः: साधवः । स्तुत्या योगिजनेइ्च पठचगुरवः कुव॑न्तु ते मड्भलम्‌ ॥९१॥ नाभेयादिजिना:ः प्रशस्तवदना:, रुयाताइचतुविद्ञति: । श्रोमन्‍्तो भरतेश्वरप्रभतयो, ये चक्रिणो द्वादश ॥ ये विष्णुप्रतिविष्णु-लाज़ूलधराः सप्तोत्तरा विशति। अलोक्ये प्रथितास्त्रिषष्टिपुरुषा: कुबंन्तु ते मंगलम्‌ ७२७ ये पञ्चौषधिऋद्यः श्रुततपो-ब्रृद्धिगता: पञ्च ये। ये चाष्ठांगमहानिसित्तकुशलाइचाष्टो विधाहवारिसण:ः ॥ पञ्चज्ञानधराइश्रयोपि वलिनो, ये बुद्धि-ऋद्धी बवराः । सप्तेते सफकलाचिता मुनिवराः कुर्वन्तु ते मंगलम्‌ ॥३॥ ज्योतिव्यंन्तर-भावनाम र-गृहे, मेरो कुलादो स्थिताः । जम्बुशञाल्मलिचेत्यशालिषु तथा, वक्षार-रूप्यादरिधु ॥ हृदवाकारणिरों च कुण्डलनगे, द्वीपे च नन्‍्दीशवरे। शैले ये मनुजोत्तरे जिनशूहाः कुर्वन्तु ते मंगलम्‌ ७४॥ कलाशे वृषभस्यथ निव त्ति-मही, वीरस्य पावापुरे। चम्पायांवासुपूज्यसज्जिनपतेः सम्मेदश्श लेडहताम्‌ ॥ शेषाणामपि चोजंयन्तशिखरे नेसीश्वरस्थाहुँतः । निर्वाण-वनयः प्रसिद्धविभवाः, कुर्वन्तु ते मंगलम ॥५॥ सर्पो हारलता मवत्यसिलता, सत्पुष्षदामायते । सम्पद्येत रसायन विषप्रषि, प्रोति विधतते रिपुः ७ आए ] [ सिद्धचक्र विधान देवा यान्ति वहां प्रसन्‍नमनतः, किवा बहु बूमहे । धर्मादेव नभोडषि वर्षति तरां, कुर्वन्तु ते मंगलम्‌ ॥६७ यो. गर्भावतरोत्सवे. भगवतां, जन्माभिषेकोत्सवे । यो जात: परिनिष्क्मेण विभवो, यः केवलज्ञानभाक्‌ ५ यः कंवल्यपुरप्रवेशमहिमा, सम्पादितः स्वगिभिः । कल्याणानि व तानि पञ्च सत्ततं, कुर्वन्तु ते मंगलम्‌ ॥७॥ झ्राकाशं मुत्यंभावा-दघकुलदहना-दग्निरुवी क्षमाप्त्या। ने:संगादायुराप:-प्रगुणशमतया, स्वात्मनिष्ठे: सुयज्वा ॥ सोम: सोम्यत्वयोगा-द्रविरति च विदुस्तेजलः सन्निधानाद । विश्वात्मा विश्चक्षुवितरतु भवतो, मंगल श्री जिनेश: ॥८॥॥ इत्थं श्री जिनमंगलाष्टकमिंदं, सौभाग्य-सम्पत्करं। कल्पारणंषु महोत्सवेषु सुधियस्तीर्थड्भराणां मुखाः ॥ ये श्ृण्वण्ति पठन्ति तेइ्च सुजनेः धर्माथंकामान्विता: । लक्ष्मोराश्रियते व्यपायरहिता, निर्वाणलक्ष्मीरपि ॥६॥ ॥ इति मंगलाष्कम्‌ ॥ अभिषेक पाठ दोहा--जय जय भगवन्ते सदा, मंगल मूल महान । बोतराग पर्वज्ञप्रभु, नमो जोरि जुगपान ॥ (छन्द श्राडिल्ल और गीत) श्री जिन जग में ऐसो, को बुधवन्त जू, जो तुम गुरा वरननि करि पाव श्रन्त जू। इन्द्राविक सुर चार ज्ञानधारी मुनो, कहि न सके तुम गुणागरा हे त्रिभुवनधनो ॥ भ्रनुपम भ्रमित तुम गुरणनि वारिधि, ज्यों प्रलोकाकाश है। क्िमि धरे हम उर कोष में सो श्रथक गुणमणिराश हे.॥ ज़िदकक! विदान ]ु [ हुए, प॑ जित प्रयोजन सिद्धि को तुम नाम में ही शक्ति हे , यह चित्त सें सरधान याते नाम हो में भक्ति हूँ ॥ शानवररी दर्शन झ्रावरणी भने। कर्म मोहिनी श्रन्तराय चारों भने ॥॥ लोकालोक विलोक्यों केवलशान में । इन्द्रादिक के मुकुट नये सुरथान में ॥ तब इन्द्र जान्यो श्रवधितें उठि सुरन युत वंदत भयो । तुम पुन्य को प्रेरयों हरो हू सुदित धनपति सौं कहो ५ प्रब बेगि जाय रचो समवसृति सफल सुरपद को करो । साक्षात श्री भ्रहंत के दर्शन करो फल्मष हरो ॥र॥। ऐसे बचन सुने सुरपति के धनपत्तो। चल श्रायो ततकाल मोद धार श्रतों॥ बोतराग छवि देखि शब्द जय जय कहो । दे प्रदच्छिना बार-बार बंदत भयो॥ भ्रति भक्ति भीनो नम्न चित्त ह्लूं समवरण रच्यो सही ताको श्रतरुपम शुभगती को कहन समरथ कोऊ नहों ४ प्राकार तौरणा सभा मण्डप कनकमरिससय छाजहो । नगजड़ित गंध कुटो मनोहर मध्य साग विराजही 0३७ सिहासन तासध्य बनन्‍्यों श्रदूभधुत दिये। तापर बारिज रच्यो प्रभा दिनकर छिपे ॥ तोनछन्न सिर शोभित चौंतसठ चमर जी । महाभकित युत ढोरत हैं तहाँ श्रमर जी । प्रभु तरत तारन कमल ऊपर, श्रंतरीक्ष विराजिया। यह वोतराग दक्शा। प्रत्यक्ष विलोंकि भविजन सुख लिया ॥ अंश | [| सिद्षचक विचार्थ मुनि भ्रादि दादश सभा के भवि जीव सत्तक नायक । बहुभाँति बारंबार पूजे, नरम गुरागरा गायक ॥४७ परमौदारिक दिव्य वेह पावन सहो। क्षुपा तृधा चिता भय गद तृषणा नहों ॥ जन्म जरा मृति धरति शोक विस्मव नसे । राग द्रष निद्रा मद सोह सब खसे॥। श्रमबिना श्रमजल रहित पावन उप्रमल ज्योतिस्वरूपजी । शरणागतनि को प्रशुचिता हरि करत विमल श्रनूपजी ॥ ऐसे प्रभु को शांति सुद्रा को न्हवन जलते कर। जस' भक्तिवश मन उत्तितें हम मानु ढिय दोपक धरें ॥४५॥ तुमतों सहज पवित्र यही निश्चय भयो। तुम पविन्नताहेत नहों मज्जन ठयो ॥ में मलींन रागाबिक मलते हु रहो । महामलिन तनमें वसुविधिवश दुख सझो ॥ वीत्यो प्रनस्‍्तो काल यह मेरी श्रशुचिता ना गई। तिस प्रशुचिताहर एक तुमहो हरहु बांधा चित ठई ॥ श्रव श्रष्टकर्म विनाश सब मल रोषरोगादिक हुरो। तनरूप कारागेहसें उद्धार शिबवासो फरो॥६॥ में जानत तुम श्रष्टकर्म हरि शिव गये। प्रावागमन विमुकक्‍्त रागव्जित भये ॥ पर तथापि मेरी मनोरथ पुरत नही। नय प्रमानते जानि महा स्राता लहों॥ पापाचरण तजि नहवन करता जित्त में ऐसे धरूं। साक्षात श्री प्वरहुंत का मानो नुवन परसन करूं ॥ (यहां पर जलाधिषेक करें) संकचक फिशामे ] [ ईशा ऐसे विमल परिणाम होते ग्रशुम नसि शुभ बंध तें । विधि बझ्लशुभ नसि शुभवंधतें हूं शर्म सब विधि तासतें ॥७॥ पावन: सेरे नयन सय्ये तुम दरसतें। पायन पानि भये तुम -चरनन परसतें ॥ पावन मन हू गयो तिहारे ध्यान तें। पावन रसना मानी, तुम गुरण गानते ॥ पावन भई परजाय मेरी, भयो में प्रणधनी । मैं शक्तित पूर्वक भक्ति कोनी, पुरांभक्ति नहों बनो ॥ धन्य ते बड़भागि भवि तिन नोव शिवधर की धरी। वर क्षीरसागर ध्ादि जल मरिगक्‌ भ भरि भक्ति करी ॥४८॥ विधनसघनवनदाहन-दहुन प्रचण्ड हो । मोह महातमदलन, प्रबल मारतण्ड हो ॥ ब्रह्मा विष्णु महेद् श्रादि संज्ञा धरो। जगविजयी जमराज नाश ताको करो ॥ झानन्दकारण दुखनिवारण, परम संगलमय सही। मो सों पतित नहिं श्रोौर तुमसो, पतिततार सुनन्‍्यो नहीं ॥ चितामजी पारस कलपतरु, एकभाव सुखकार हो । ' तुम भक्तिनोका जे चढ़े ते, मये भवदधि पार ही ॥६॥ दोहा--तुम भवदधितें तरि गये, भये निकल भ्रविकार । तारतस्य इस भक्ति को, हमें उतारो पार ७ ॥ बहुत शान्तिधारा पाठ *ड्डींश्रीक्लीएंजहँबंमंहंसंतंपंवंव मंमंहंहं संसंतंतं पं पं ञ्च॑झं श्वीं इवीं क्वीं क्षवीं द्वां द्वां द्रीं दीं द्रावव-द्रावव नमो5हँते भगवते बोमते। &* हीं क्रों मम पापं खण्डय खण्डय जहि-जहि दह-दह पच-पच श्णा ] [ लिदसक विधान पाचय २ # नमो अहुंन्‌ झ॑ क्ष्वीं क्ष्वीं हूं संझं व हु: पः ह: क्षांक्षीं क्ष क्षें क्षेक्षों क्षों क्ष॑क्षःकषवीं हां हीं छह, हं हं हों हों ह छः द्वांद्री द्रावय द्रावव नमोहँते भगवते ध्ोमते ठ: 5: अस्माक श्रीरस्तु वृद्धिरस्तु तुष्टिरस्तु पुष्टिरस्तु शान्तिरस्तु कान्तिरस्तु कल्याणमस्तु स्वाहा । एवं अस्माक कार्य- सिद्धार्थ सर्वविष्ननिवारणारथ श्रोमद्धूगवरदहंत्सवेज्ञ-रमेध्ठिय रमपवित्राय नमोनमः। अस्माक श्रीशान्तिभट्टारकपादप्मप्रसादात्‌ सद्धमं॑ श्रोबलायुरा« रोग्येश्वर्याभिवृद्धिरस्तु सद्वमंस्वशिष्यपरश्िष्यवर्ग: प्रसोदन्तु नः । # वृषभादय: श्रीवद्धंवान्‌पयेन्ताश्चतुविशत्यहन्तो भगबन्त: स्वज्ञाः परममंगलनामधेया: अस्माक इह्मुत्र च॒ सिद्धि तन्वन्तु कार्यषु चेहामुत्र च सिद्धि प्रयच्छन्तु नः । 5$ नमो5हेते भगवते थ्ीमते भ्रीमत्पाश्वेतीर्थंकराय श्रीमद्रत्नश्नतरूपाय दिव्यतेजोमूर्तये प्रभामण्डलमण्डिताय द्वादशगणसहिताय अनन्तचतुष्टछय- सहिताय समवशरणकेवलज्ञानलक्ष्मीशोभिताय अष्टादशदोषरहिताय षट्‌- चत्वारिशद्गुणसंयुक्ताय परमेष्ठिपवित्राय सम्यग्ज्ञानाय स्वयंभुवे सिद्धाय बुद्धाय परमात्मने परमसुखाय त्रेलोक्यमहिताय, अनंतसंसार--चक्रमदंनाय अनन्तज्ञानदशनवीयंसुबास्पदाय त्रेलोक्तवशडद्ू राय सत्यज्ञानाय सत्यब्रह्मणे, उपसगंविनाशनायधातिकर्मक्षयंक राय, अजराय, अभवाय, अस्माकं--(अमृक राशिनामधेयानां) व्याधि ध्वन्तु। ध्ोजिनाभिषेकपूजनप्रसादात्‌ अस्माक सेवकानां सवंदोषरोगशोक भयपीड़ाविनाशनं भवतु । & नमो5हंते भगवते प्रक्षोणाशेषदोषकल्मषाय दिव्यतेजोमूतंये श्री- शान्तिनाथाय शान्तिकराय सबंविध्नप्रषाशनाय सबंरोगापमृत्युविनाशनाय सर्वपरक्तक्षद्रोपद्रवविनाशनाय सर्वारिष्टशान्ति-कराय | *हां हीं हं्‌ हाँ हः अ सि आ उसा नमः सम स्ंविध्तशान्ति कुरु कुरु तुष्टि पृष्टि कुर कुरु स्वाहा। मम काम छिन्धि छिन्धि भिन्धि भिन्‍्ध | रतिकामं छिन्धि छिन्धि भिन्धि भिन्धि । बलिकामं छिन्धि छिन्धि भिन्धि भिन्धि। क्रोध पापं बेरं च छिन्धि छिन्धि भिन्धि भिन्धि। अग्निवायुभयं छिन्धि २ भिन्धि। सर्वेशत्र विध्नं छिन्धि २ भिन्‍न्धि २। सर्वोपसर्ग छिन्धि २ 'भिन्धि २। सर्वे- विध्न॑ छिन्धि २ भिन्धि । स्वराज्यभयं छिन्धि २ भिन्धि । सर्वचोरदुष्ट भय॑ छिन्धि २ भिन्धि। सर्वसपंवृश्चिकसिहादिभयं छिन्धि २ भिन्‍्धि। सर्वप्रहमत् ऊऋाडइ ] [ सिद्धणक् वियात छिम्धि २ भिन्दि २। सर्वदोव॑ व्याधि डामरं च छिरिध २ भिन्धि । सर्वपर- मंत्र छिन्धि २ भिन्धि २। सर्वात्मघातंपरघातं च छिन्धि २ भिन्दि २ । सर्वसूलरोगं कृक्षिरोगं अक्षिरोगं शिरोरोगं ज्वररोगं च छिन्धि २ भिन्धि २। 'सर्वंनरमारि छिन्धि २ भिन्‍न्दि । सवंगजादबंगोमहिष अजमारि छिस्धि २ चिन्धि २। सर्वेसस्थधान्य वृक्षलतागुल्मपत्रपुष्पफलमॉरि छिन्धि २ भिन्धि । सर्वराष्ट्रमारि छिन्धि २ भिन्धि २। सर्वक्र्वेतालशाकिनी डाकिनी भयानि छिन्धि २ भिन्धि | स्ववेदनोयं छिन्धि २ भिन्धि २। सर्वभोहनीयं छिन्धि २ भिन्धि २। सर्वापस्मारि छिन्धि २ भिन्धि २। अस्माक अशुभकर्मं जनित- दुःखानि छिन्धि २ भिन्धि २। दुष्टजनकतान्‌ मंत्रतंत्रदुष्टिमुब्टिछलछिद्र- दोषान्‌ छिन्धि २ भिन्धि २१ सर्वेदुष्टदेवदानववीरनर नाहरसिहयोगनी- कृतदोषान्‌ छिन्धि २ भिन्धि २। सर्वेअष्टक्लीनागजनितविषभयानि छिन्धि छिन्धि भिन्धि २। सर्वस्थावरजंगमवश्चिकसर्पादिकृतदोषान्‌ छिन्धि २ भिन्धि २ । सर्वे्िहाष्टापदादिकृतदोष।न्‌ छिन्धि २ भिन्धि २। परशत्रुकृत- मारणोच्चाटन विद्वेषणमोहनवशीकरणादिदोषान्‌ छिन्धि २ भिन्धि। # हों अस्मम्यं चक्रिक्रम सत्वतेजोबलशोयंशान्तो: पुरय पूरय। सर्वजीबा- नन्दनं जनानन्दनं भव्यानंदन गोकुलानंदनं च कुरु कुह। स्वराजानंदलं कुरु कूर। सर्वग्रामनगर बेडाकव डमं डवद्रो णमुखसंवाहनानंदनं कुरु कुरु। सर्वा- अंदन कुरु कुरु स्वाहा । यत्सुख्॑ त्रिषु लोकेषु व्याधिव्यसनवर्जितं । अभय क्षेममारोग्यं स्वस्ति- रस्तु विधोयते ॥ श्रीशान्तिरस्तु । शिवमस्तु । जयोस्तु नित्यमा रोग्यमस्तु । अस्माक पुष्टिरस्तु । समृद्धि रस्तु । कल्याणमस्तु । सुखमस्तु । अभिवृद्धिरस्तु। दोर्धायुरस्तु। कूलगोत्रधनानि सदा सन्तु । सद्धमं--श्रो बलायुरा रोग्येश्वर्या भि- वृद्धिरस्तु । 5 हों श्रीं क्लीं अहँँ असि आ उसा अनाहतविद्याये णमो अरहंताणं हों सर्व शान्ति कुरु कुरु स्वाहा । आयुर्वल्ली विलासं सकलसुखफलेद्रघियित्वा श्वनल्पं धघीरंवीरं शरीरं॑ निरुपमुपनयत्वातनोत्वच्छकीति ।। सिद्धि व॒द्धि सर्माद्धि प्रथयतु तरणिः स्फूयेदुच्चे: प्रत्तापं कान्ति शान्ति समाधि वितरतु भवतामुत्तमा घान्तिधारा॥ ॥ इति बृहत्‌ ब्यान्तिधारा ॥ अर | [ सिद्धचक्र विधास - श्री सिद्धचक्र विधान का महत्व एवं उसकी विधि ' जैनों की आवश्यक क्रियाओं में देव पूजा का प्रमुख स्थान है4 आचार्य कुम्दकुन्द ने दान और पूजा को श्रावक की मुख्य क्रियाक्रों में गिनाया है। जैन शास्त्रों में अनेक पूजा विधान वर्णित हैं, उन सबका उद्देश्य मानव की शांति के लिए है। शुद्ध भावों से की गई पूजा-आराधना से भाषों में निमंलता आती है जो मनुष्य को वीतरागता की ओर ले जाती है तथा इस लोक एवं परलोक में सुख शान्ति प्राप्त कराती है। सिद्धचक्र पूजा भी उनमें से एक है। वैसे यह पूजा पर्व विशेष की न होकर नित्य पूजा हो है। पूजा के पांच भेढों में से नित्य पृजा में ही इसको समझा जाना चाहिए किन्तु सिद्धचक्र विधान को अष्टाहिका पवं में ही करने का समाज में प्रचलन है। ये दिन पवित्र होते हैं। सती मैना सुन्दरी ने इस विधान को अष्टाह्िका पर्व में किया था और उससे श्रीपाल आदि का कुष्ठ रोग दूर हुआ था । इसीसे लोग इसे अष्टाह्लिका पर्व में करने लग गये है। वेसे अष्टा- छ्िका का सम्बन्ध नन्‍्दीश्वर विधान से है। अस्तु ! पूजा किसी भी समय में की जाय, शुभ फल देने वाली हो है । यह पूजा स्रिद्ध भगवान के ग्रुणों की पूजा है। सिद्धचक्र का अर्थ मुक्त ग्रात्माप्रों का चक्र-सण्डल-समुह' । सिद्ध भगवान के “आठ गुणों को लेकर प्रथम पूजा है। फिर कर्म-प्रकृतियों की व्युच्छित्ति की अपेक्षा से द्विगुणित द्विगुणित अधघ बढ़ते जाते हैं। अर्थात्‌ दूतरे दिन १६, फिर ३२, ६४, १२८, २५६, ५१२, एवं १०२४ क्रमशः बढ़ते जाते हैं। अष्टाह्िका में अष्टसी से लेकर पूर्ण भासों तक यह पूजा की जाती है और नवें दिन जाप्य, धांति विसर्जन होम आदि किया जाता है । पूर्ण विधान करने वाले सज्जनों को पूजन प्रारम्भ करते के साथ ही जाप्य पहले प्रारम्भ कर देना चाहिए। उत्कृष्ट जाप्य सबालाख माना गया है । जाप्य एक व्यक्ति अथवा कई व्यक्ति कर सकते हैं। प्रतिदिन निश्चित संख्या में जाप्य करके “नें दिन पूर्ण! करके हवन करना चाहिए। जाप्य करने वाला शुद्ध वस्त्र पहन कर मनसा वाचा कमेंणा शुद्ध होकर जाप्य करे । इन दिनों संयम व 'ब्रह्मचर्य पुबंक रहे, भर्या।दत भोजन करे! तथा जमीन या तख्त पर सोवे । जाप्य प्रातः एवं साथ दोनों बार किये जा सकते हैं । जाप्य प्रारम्भ करने में जो बेठें उन्हें ही जाप्य पूरे करमे चाहिए । यदि सवा सिडचक चिंघार्म ] | छा लाख न कर सर्क तो एक लाख अथवा ५१ हजार अथवा कम से कम ८००० तो करें ही । जाप्य मंत्र--“5» ह्रीं मसि आ उ सा अनाहत विद्याये नमः” अथवा '# हीं प्र सि आ उ सा मसा' होने चाहिए । मंडल गोलाकार बनाना चाहिए जैसे छपे हुए नवशे में दिखाया गया है। त्रिकोण मंडल भी होते हैं। मंडल के बीच में सिंहासन में यंत्रराज स्थापित चरना चाहिए और चारों कोनों में चार अक्षत सुपारी हल्दी आदि माँगलिक द्र॒व्यों से घुकषत मंगल कलश रखने चाहिए। वे लाल कपड़े और श्रीफल से ढके हुए होना चाहिए। मंडप को अष्ट प्रातिहाय॑, छत्र, चंवर आदि से सजाया जा सकता है। पूजा आंभषेक पूर्वक यदि करता हो तो अभिषेक पाठ पढ़कर अभि- षेक करें, फिर देनिक पूजा करके यह पूजा प्रारम्भ करें। 'सामग्रो मंडल पर न चढ़ा कर थाल रकाबो में ही चढ़ाना चाहिए |” आठ दिन तक मंडल पर सामग्री पड़ी रहने से जीवोत्पत्ति हो जाती है । आठ दिन पूजा करने के पश्चात्‌ नवें दिन पूर्णाहुति करे । उस दिन कुंड बनावे १ चोकोर (तोथंकर) कुंड एक हाथ (मुद्ठिबांधे) लम्बा चोड़ा ओर गहरा होना चाहिए। इसमें तीन कटनियां हों:--पहली पांच अंगुल की ऊँची चोड़ी, दूसरी ४ अंगुल ऊची चौड़ी तथा तीसरी ३ अंगुल की हो। चौकोर कुंड बीच में हो, उसके उत्तर की ओर गोल कुंड (गणधर कृण्ड) हो और दक्षिण की ओर त्रिकोण कृण्ड (सामान्य केबली कृण्ड) हो । यदि ऐसा सम्भव न हो तो एक कुण्ड में भी तीनों आकार बनाए जा सकते हैं। क्ण्डों के चारों ओर लकड़ी की खटियाँ गाड़कर अथवा कलश रखकर मोौलोी बांधता चाहिए। “उस समय ४० हीं प्रहूँ पंचवरखेन सृत्रेण त्रिवारान्‌ बेष्टयामि यह मंत्र पढ़ना चाहिए । जितने जाप्य किये जावें उसके “दशमांश जाप्य मंत्र को श्राहुतियां दी जानो चाहिए।' यदि सवालाख जाप्य किये हों तो साढ़े बारह हजार आहुतियां दी जानी चाहिए। हवन की सामग्री शुद्ध आक, ढ।क, पलास आदि को समिथ, दश्शांग धूप, छाड़, छबीला, खस आदि सुगन्धित द्रव्य, मेवा बूरा, घृत आदि शक्त्यिनुतार लेता चाहिए। यह संक्षेप में इस विधान की विधि है। क्् ] [लिदवणक विकार अभिषेक पूवंक विधान सिद्धचक्र विधान की विधि ऊपर बताई जा चुकी है। जिन्हें अभिषेक आदि पूर्वक विधान करना हो वे निम्त प्रकार से करें:-सर्व प्रथम जल शुद्धि करना चाहिए। ॥ जल शद्धि मंत्र ॥ #»हां हीं हु, हो हः नमोडहंते भगवते भ्रीमते पद्च-महापश्च- तिग्िछ-कैसरि-पुण्डरीक-महापुण्ड रीक-गंगा-सिधु-रोहिदो हितास्था - हरिद्धरिकांता-सी ता-सोतोदा-ना री-न रकां ता-सु व रप॑ रूप्यकूला - रक्‍ता-रक्‍्तोदा-पबोधि-शु द्ू-जल-सुव रों-घट- प्र क्षिप्त-न व रत्न- गंधा क्षत-पुष्पाचितमामोदक पवित्र कुरु कुरु #॑ # भों भोंव॑ ब॑ हूं हुंसंसंतंतं पंप ं द्रांद्रांदरींद्रीं हूं सं स्वाहा । भ्रद्भ शुद्धि सोगंध्य-संगत-मधुत्रत-भंकृतेन संवण्यंघ्रानमिव गं धम निनदमादो । श्रारोपयासि विबुधेशवर-वुन्द-वन्ध पादारविदसभिवंद्य जिनोत्तमानाम्‌ ॥ हीं अमृते अमृतोड्रवे अमृतवर्षिणि अमृतं स्रनावय ल्रावय सं स॑ क्लीं क्‍लीं ब्लू ब्लू द्वांद्रां दीं द्रीं द्रावय द्वावय सं हूं क्षवीं क्षवीं ह॑ं सः स्वाहा । 3» हां हीं हं, हो हः असिआउसा अस्य सर्वाज़ुशुद्धि कुरु कूरु स्वाहा ॥ गन्धं आरोपयामि ॥ (सारे शरीर पर हाथ फेरे)। वस्त्र शुद्धि धौताभ्तरीय॑ विधु-कान्ति-सूत्रैः सदग्रस्धितं धोौत-नवीन-दुद्धम । मरनत्व-लब्धिन॑ भवेचचयावत्‌ संधायंते.. भूषणमृरभ्म्या: ॥ सिंडबकदिधान | हू हां संव्यानमंचद्बशया विभान्त- मंखंड-धौताभिनवं-सृदुत्वम्‌ू। संधार्यते पीत-सितांशु-वर्णमं- शोपरिष्टाद्‌ धुत-भूषणांकम्‌ ॥ तिलक पात्रेपतं चंदनमौषधीशं शुत्र सुगंधाहत-चंचरीक॑ । : सथाने नवांके तिलकाय चच्य॑ न केवल देह-विकार-हेतों: ७ 5 हां हीं ह॑ हो हः: असिआउसा मम सर्वाज़शुर्द्धि कुरु कुरुस्वाहा । रक्षा बन्धन(कटक ) सम्यक्‌्-पिनद्ध-तव-निमल-रत्नव डिः- रोचिव ह॒ठ लय-जात-बहु-प्रकार' कल्पाणनिर्मितमहूं कटक॑ जिनेश- पुजा-विधान-ललिते स्वकरे करोमि। ३» ह्वीं णगमो अरहंताणं रक्ष रक्ष स्वाहा इति कंकर्ण अवधारयामि। (पुद्धिका धाररण) प्रत्युप्त-नील-कुलिशोपल-पद्म-राग निर्यत्‌कर-प्रकरबद्ध-सुरेन्द्रचापम्‌ू । जनाभिषेक-समये5 गुलि-पर्व -मुले रत्नांयुलीयकमह विनिवेशयासि ॥ 3# हीं रत्नमुद्रिकां अवेधारयामि स्वाहा । (अनामिका में अंगूठीं पहरे) । (यजश्ोपबीतधाररा ) पूर्व पविश्रतर-सूत्र-विनिर्भितं यत्‌ प्रोत: प्रजापतिरकल्पयदंगसंगि । ऋ़ाए ] [ सिद्धवाह लिश्नाम सद्भूषणं जिनमहे निजकन्धरायां यज्ञोपवोतमहमेष तवा5तनोमि।॥। *% नमः परमशान्ताय धान्तिकराय पवित्रीकृताग्राहं रत्नत्रयस्व॒रूप॑ यज्ञोपवीतं दधामि, मम गात्र पवित्र' भवतु अहँ नमः स्वाहा । (मुकुटधा रण) ह पुन्ताग चंपक-पयोरहू-किकरात जाति-प्रसुन-नव-कैसर-कुन्दमांचम्‌ । देव! त्वदीय-पद-पंकज-सत्प्रसादात्‌ मुध्नि प्रशामवरति शेखरक॑ दधेडहम्‌ ॥ ३४ हीं मुक्‌टं अवधारयामि स्वाहा । कुण्डल धारण एकत्र सास्वानपर त्र सोम: सेवां विधातु जिनपस्य भकत्या। रूपं परावुत्य च कुण्डलस्य मिषादवाप्ते इब क्ुण्डले हे ॥ 5 ही कुण्डल अवधा रयामि स्वाहा । हार धारण मुक्तावली-गोस्तन-चन्द्रमाला विभूषणान्युत्तम नाक भाजां । यथाहुं-संसगंमतानि यज्ञलक्ष्मी-समालिगन-कृह घेहहुम ॥ ३ हीं हारं अवधारयामि स्वाहा । इस प्रकार अलकार आभूषण धारण करके स्नान योग्य भूमि का प्रक्षालन निम्न प्रकार करना चाहिए । भूमि शुद्धि विधान डाभ के पूले से निम्न प्रकार मंत्र पढ़कर भूमि का शोघन करें। & हीं वातकुमाराय सर्य--विध्नविनाशाय महीं पूततां कूर कुरु छह” फट स्वाहा । इसके पश्चात्‌ निम्न इलोक एवं मंत्र पढ़कर डाभ के पूल को जल में भिगोकर भूमि पर छिड़कते समय यहू मंत्र पढ़ें । हिड्चक विभान | 5224 ये संति केचिदिह दिव्य-कुल-प्रसता तागाः प्रभूत-बल-दर्ष-युता विदोधा: । संरक्षणार्थ भभ्तेन शुभेन तेषां प्रक्षालयामि पुरतः स्नपनस्य भूमिम्‌ ॥ >क्षांक्षी क्षू क्षों क्षः * हीं बह मेघक्माराय धरा प्रक्षालय: प्रक्षालय र अं हुं त॑ स्व॑ं झ॑ य॑ क्ष: पट स्वाहा । इसके बाद मंडप रक्षार्थ चार प्रकार के देव तथा दिकपालों को बुलावे और मंडप के चारों ओर पुष्पक्षेपण करे। चतुरिकायाम रसंघ एप श्रागत्य यज्ञे विधिना नियोगम्‌ । स्वीकृत्य भकक्‍त्या हि यथाहुँदेशे सुस्था भव॑त्वारििक- कल्पानायाम्‌ ॥ हमारे इस निज पूजा विधान में हे भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिष्कः एवं कल्पवासी देवो ! पधार कर अपने नियोग को स्वीकार करो और जिन सेवा में तत्पर हो तिष्ठो । (पुष्पक्षेपण करे) पत्पदचातु वास्तुकुमार जाति के देवों को कहें ओर पुष्पक्षेपण करे । ग्राथात वास्तुविधिष-डूट-स न्रिवेशा योग्यांश भाग-परिपुष्ट-बपु: प्रदेशा: । प्रस्मिन्मखे रुचिर-सुस्थित-भूषरणांके सुस्था यथाहुँ-विधिना जिन-मक्ति'माजः ॥ हे वास्तु कुमार जाति के देवों ! हमारे इस पूजा विधान में स्वकीय योग्न अंश भाग से परिपुष्ट शरीर युक्त एवं सुन्दर आशभूष॒णों को धारण करके भगवान की भक्ति से संलग्न हो पधारों एवं समुचित स्थान पर विराजो । बाद में पत्रनकुमार जाति के देवों को कहेँ और पुष्पक्षेपण करें। ग्रायात मारुतसुरा: पवनोद्भुटाशा! संघटू-संलसित"निर्मलतांतरीक्षा: । इ्ंड्शं | [ लिद्ध॑चक विधान वात्यादिदोष-परिभूत-वसुन्धरायां, प्रत्ययूह-कर्म- निखिल परिसाजंयन्तु ॥ आकाश एवं दिशाओं को पवन द्वारा शुद्ध करने वाले हे वायुकुमार देवो ! हमारे इस पूजा विधान यज्ञ में आकर वायु सम्बन्धी विघ्तों को दूर करो। के फिर मेधकुमार जाति के देवों से कहें ओर पुष्पक्ष पण करें । भ्रायात निर्मलन मःकृतस न्निवेतञा मेघासुराः प्रमदभारनमच्छिरस्का: । प्रस्मिन्मसे विकृतविक्रियया नितांते सुस्था भवन्तु जिनभक्तिमुदाहरन्तु ॥ स्वच्छ आकाश से युतत हे मेघकुमार जाति के देवो ! हमारे इस पूजा विधास में आकर तिष्ठो एवं मेघ सम्बन्धी समस्त उपद्रवो को दूर करो। तत्पश्चात्‌ अग्निकुमार देवों से कहें और पुष्पक्ष पण करे । श्रायात पावक-सु राः सुर-रा जपुज्य, संस्थापना-विधिषु संस्क्ृत-विक्नि या: । सथाने यथोचितकृते परिबद्ध-कक्षा: संतु श्रियं लभत पुण्य-समाज-भाजां ॥ है अग्निकुमार जाति के देवो ! इन्द्रों द्वारा पृुजनीय भगवान के इस पूजा विधान में आकर तिष्ठो एवं अग्नि सम्बन्धी उपद्रवों को दूर करो। फिर नामकुमार के देवों को कहे ओर पुष्पक्ष पण करे। नागाःसमाविशत भूलल-सनिवेशाः स्वां भक्तिमुछ्ठसित-गात्रतया-प्रकाइय ! ध्राशी-विषादि-कृत-विध्नविनाश-हेतो: स्वस्था मवतु निज-योग्य-महासनेषु ॥ भूतल में निवास करने वाले हे तागकुमार जाति के देवो ! हमारे इस पूजा बिधान में भाशीविष आदि सर्व विध्तों को दूर करो एवं उचित स्थान पर तिष्ठो । सिंडचंक़र विधान ] [ जज भूमि शोधत के पश्चात्‌ जहां भी श्री जो लाकर विराजमान करना हो वहां पीठ प्रक्षाल निम्न इलोक बोलकर करें। क्षीराणंवस्प पयरसा शुच्िभः प्रवाहैः प्रक्षालित सुर-वरेयदनेक-वारम्‌ । भ्रत्युधमद्य तदहूं जिनपाद-पीठ प्रक्षालयामि भवसंभव-ताप-हारि ७ पीठ स्थापन के पश्चात्‌ उसके आगे दस दिग्पालों की स्थापना निम्न इलोक बोलकर करे और दस दिशाओं में पुष्पक्षेपण करे । इन्द्रस्ति-दंडधर-न ऋत-पाशपा रिए- वायूत्त रेए-श शिमो लि-फरीन्द्र-चन्द्रा: । ग्रागत्य यूयमिह सानुचराः सचिन्हा: स्वं स्व॑ प्रतीच्छत बलि जिनपाभिषेके ॥ 5७ इन्द्र | आगच्छ इन्द्राय स्वाहा, 5* अग्ने ! आगच्छ अग्नये स्वाहा, हक यम ! आगच्छ यमाय स्वाहा, ऋ% नेऋत्य ! आगच्छ नेऋत्याय स्वाहा, * वरुण ! आगच्छ वरुणाय स्वाहा, && पवन ! आगच्छ पवनाय स्वाहा, ढ घनद ! आगच्छ धनदाय स्वाहा, <& ईशान ! आग्रच्छ ईशानाय स्वाहा, 5 धरणेन्द्र | आगच्छ घरणेन्द्राय स्वाहा, ४ सोम ! आगउछ सोमाय स्वाहा । तत्पचाइत्‌ जिनेन्द्र भगवान की मूर्ति लाकर पूजा स्थान पर रकाहीं' या जलोठ में विराजमान करे और प्रासुक जल से निम्न श्लोक बोलकर हवन करे । तत्पचात्‌ वेदों में विराजमान करे । दूरावनस्र-सुरमाथ-किरीटकोटी- संलग्न-रत्न-कि रण-च्छवि-धूसरां त्िम्‌ । प्रस्वेद-ताप-मलमुक्तसपि प्रकृष्टे- भंक्‍त्या जल जिनर्पात बहुधा भिर्षिचे 4 # हीं श्रीमंतं भगवन्त कृपा लुसन्त वृषभादिमहावीरपय॑तचतुविशति- तीर्थंकर-परमदेवाभिषेकसपये आशद्यानां आये जम्बूद्वीपे भरतक्षेत्र आयंखण्डे ०»» «देश ****** नास्नि नगरे भीशुभसम्वत्सरे ००००० मासानामुसतमे “मात प्फ्श्मा त [ लिद्धचक विधान “९” पक्षे"" पर्वणि'**'शुभदिने मुनिज्ञाथिकाश्रावकश्नाविकाणां सकल- कर्म-क्षयार्थ जलेनाभिषिचे नमः (भगवान के शिरपरजलधारा) इसके बाद सिद्धयन्त्र प्रक्षाल निम्न मंत्र पढ़ते हुए करना चाहिए । क भूभु व: स्वरिह् एतद्विष्नोधवारक यन्त्रमहं परिषिचयामि । इस प्रकार कछ्ूवत करके यन्त्र को मडल में सिंहासन पर विराजमान करदे । तत्पश्चात्‌ जपस्थान में बैटकर जो जाप्य जपना हो उसकी एक माला फेरे। जाप्य मंत्र निम्न दो में से कोई एक हो । '# हां हीं हं, हों हः असिआउसा सर्वशारित कर कु स्वाहा! अथवा '& हीं भहँ असिआउसा नम: । फिर निम्न प्रकार रलोक बोलकर नित्यनियम पृजा, बेदी में विराज- मान भगवान की पूजा, पंचमेर नंदीश्वर आदि पूजायें करके सिद्धचक्रयंत्र पूजा प्रारंभ करे । ८ दिन तक पूजा करके नवें दिन होम करे । श्रीमन्मंदरमस्तके शुचिजलंधोंते सदभक्षिते, पीठे मुक्तिवरं निधाय रचित त्वत्पादपुष्पस्नजं । इंद्रोहें निजभूषणाथ्थंममलं यज्ञोपवीतं दचे, मुद्राकंकरा-शेखराण्यपि तथा जेनाभिषेकोत्सवे ॥ यब्त्र पूजा परमेष्ठिन्‌ जग्रत्ताण-करणे मज़लोत्तम। शरण्येतश्तिष्ठतु भे सन्नि+ हिंतो5स्तु पावन । ३* हीं अहँनू असिआउसा मंगलोत्तमसरणभूताः अभबावतरतावर- तरत संवोषद आह्वाननम्‌ । %**हीं महंन्‌ अतिजाजसा मड्भलोत्तमशरणभूताः अन्न तिष्ठत तिष्ठत 6: 5: स्थापनम्‌ । हीं अहंन्‌ असिआउसा मडूलोत्तमशरणभूता: अत्र मम सब्निहिता भवत २ वषद सन्निघापनम्‌ । पंकेरहायात-पराग-पुरज: सौगन्धयमद्भिः सलिलेः पवित्रे: । ह अहंत्पदाभाषित-मंगलादीन्‌ प्रत्यूह-नाशार्थमहं यजामि ॥ #*हीं मंगलोचम-सरणभूतेभ्य: पंचपरमेष्ठिभ्य: जल॑ निर्बपामीति स्वाहा । काइमीर-कपू र-कुत-द्रवेण, संसार-तापापहुतो युतेन । खलिहनक बियान ] [| का अहुत्पदाभाषित-मं गलादी न प्रत्यू ह-ताशार्थ महं यजामि ॥ ४9 हीं मंगलोत्तम-श रणभूतेभ्य: पंचपरमेष्ठिभ्य: चंदननिवंपामीति स्वाहा । शाल्यक्षते रक्षत-मूति मद्धि- रब्जादि-व।सेन सुगन्धवद्धि: । ५ ८ अहंधदाभाषित-मगलादोन्‌ प्रत्यूहनाशार्थंमह यजामि ॥ & हो मंगलोत्तम-धरणभतेभ्य: पंचपरमेष्ठिस्य: बक्षतं निवेपाभोति स्वाहा:। कदम्ब-जात्यादिभवे: सु रद्रुमे जिम नोजात-विपाश-दक्षे: । अहंत्पदाभाषित-मंगलादीन्‌ प्रत्य्‌हनाशार्थ महू यजामि ।! 55 हीं मंगलोत्तम-शरणभूतेभ्य: पंचप रमेष्ठिम्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा”। पीयूष-पिण्डेद्च शशांक-कांति - स्प [द्धिरिष्टैनंयन-प्रियेश्च । अहुत्पदाभाषित-मंगलादोन्‌ प्रत्यूहनाशार्थमहं यजामि ॥ # हीं मड़ुलोत्तम-श रणभतेभ्य: पंचपरमेष्ठिध्य: न॑वेद्यं निवंपामीति स्वाहा5। ध्वस्तांधका र-प्रसरे: प्रदीपेक् तो द्भवे-रत्न-विनिर्मितेर्वा । अहेत्पदाभाषित्र-मज्भु लादोन्‌ प्रत्यहनाशार्थमहूं यजामि ॥ # ढ्वों मड्भलोत्तम-श रणभूतेभ्य: पंचपरमे्ठिभ्य: दोपं निरवंपरामीति स्वाहा ॥ स्वकोय-धूमेन नभोवकाश-व्यात्तैस्चहुयेरच सुगन्ध-धूपेः 2 अहंत्पदाभाषित-मज्भलादोन्‌, प्रत्यूहनाशाथंमहं यज्ञामि ॥ 5 ही मज्भलोत्तम-शरणभ्तेभ्य पंचपरमेष्ठिभ्य: धूपं निवंपामीति स्वाह्ा4 नारंग-पूगादि-फले रनध्येंह न्‍्मानसादि-प्रियतर्पकेश्च । अहेत्पदाभाषित-मद्भलादीन्‌, प्रत्यूहनाशा्थमहं यजामि ॥ # हीं मज़लोत्तम-शरणभतेभ्य: पंचपरमेष्ठिभ्यः फल निवंपामीति स्वाहा १ (शादू ल वि०)--अंभरचंदनतन्दुलाक्षत--तरूद भू त निवेद वंरे: । दीपैध्‌ प-फलोत्त मै: समुदितरभि: सुबर्ण-स्थितैः ॥ भहँत्‌-सिद्ध-सुसू रि-पाठक-मुनी नू, लोकोत्तमान्‌ मंगलान्‌ । प्रत्य होघ-निवृत्तये शुभकृतः, सेवे शरण्यानहम्‌ ॥ ४ हीं मंगलोत्तमशरणभूतेभ्य: पंचपरमेष्ठिभ्य: अध्य निबंपामोति स्वाहा । श्रथ प्रत्येक पुजनम्‌ कल्याण-पञ/्चक-कृतो दयमाप्तमीश,-महँतमच्युत-चतुष्टय-भासु रांगम्‌ । स्थाद्ाद-वागमत-सिन्ध-शशांक-कोटि,-मर्चे जलादिभिरनंत-गुणाययं तम्‌ ॥ # हीं अनन्तचतुष्य-समवसरणादि-लक्ष्मीं विश्वते अहँत्परमेष्ठिने अर्ध्य निर्देपामीति स्वाहा । 'कर्साब्टकेध्मचयमुत्पथमाशु हुत्वा, सदृध्यानवद्लिविसरे स्वयमात्मवन्तम्‌ । निःश्रेयासामृतसरस्यथ संनिनाय, त॑ सिद्धमुच्चपदद परिपृजयामि ॥॥ $ छी अष्टकर्म-काष्ठगण-भस्मीकृते सिद्धररसेष्ठिने अध्यं निर्केषाभीधि स्वाहा ! स्वाचारपंचकमरपि स्वयमाचरंति, ह्याचारयंति भविकान्‌ निज-शुद्धिभाज: | तानचंयामि विविधेः सलिलादिभिश्च, प्रत्य ह-ताशन-विधो निपुणान्‌ पवित्र: 5» हीं पंचाचार-परायणाय आचायपरमेष्ठिने अध्य॑ निर्वेपामीति स्वाहा । अंगांग-वाह्म-परिपाठन-लालसाना,--मष्टांग-श्ञान-परिशी लन-भाविता ना म््‌ पादारविन्द.युगलं खलु पाठकानाँ, शुद्धेजेलादि-वसुभिः परिपूज्रयामि ।। ७ छी दवादशांग-पठनपाठनोयताय उपाध्यायप रमेष्ठिने अध्यें निर्बपामीति स्वाहा 4 आराधना-सुखबिलास-महेर्वराणां, सद्धम-लक्षणमयात्मविकस्वराणां । स्तोतु गुणान्‌ गिरिवनादि-निवासिनां वे एषो5घ॑तः: चरणपीठ-भुवंयजामि ।। 8 छी त्रयोदश-प्रकार-चारित्राराधक-साधुपरमेष्ठिने अध्य निर्वप/मीति स्वाहा । अहुन्मज्ू लमर्चामि जगन्मंगलदायकम्‌। प्रारब्ध-कर्म-विष्नोध-प्रलय- प्रदमब्मुखे: ॥ & हीं अहेन्मड्रलाय अध्य निवंपामीति स्वाहा । चिदानन्द-लसद्वी चिमा लिन गुणशालिनम्‌ ) सिद्ध-मगलमर्चेहूं सलिलादिभि- रुज्ज्वलै 0 5७ हीं सिद्धमंगलाय अध्य॑ निर्वपामीति स्वाहा । बुद्धि-क्रिया-रस-तपोविक्रियौषधि-मुख्य का: । ऋद्धयों यं न मोहन्ति साधु-मंगलमर्चये ॥ ७ ह्वीं साधुमंगलाय अध्य निर्वषामीति स्वाहा । लोकालोक-स्वरूपज्ञ-प्रज्ञत्तं धरममंगलम्‌ । अचें वादित्र-निर्धोष-पूरिताशं बनादिधि: ॥॥ & हुं केवलिप्रशप्त-धर्ममंगलाय अध्य॑ निवंपामीति स्वाहा । लोकोत्तमो5हंन्‌ जगतां भव-बाधा-विनाशकः | ब्च्येतेः्ष्येंग स मया कुकर्मे-यण-हानये ॥ 5 हीं बहे-लोकोन्तमाय अध्यं निर्वपामीत्ति स्वाहा । विश्वाअ-शिख र-स्थायी सिद्धो लोकोत्तमो मया। मझते महसामंदचविदानन्दथु-मेदुर: ॥॥ ४ जड्डीं सिद्धलोकोत्तमाय अध्यँ निवंपामोति स्वाहा । राग-द्वेष-परित्यागी साम्यभावावबोधकः । साधुलोकोत्त मो5ष्येंण पूज्यते सलिलादिभि: ॥॥ 3* ह्रीं साधुलोकोत्त माय अध्ये निर्बंपाम ति स्वाहा । उत्तम-क्षमया भास्वान्‌ सद्धर्भो विष्टपोत्तमः । अनंत-सुख-संस्थानं यज्यते5म्भोडक्षतादिभि: ॥ ४ हीं केवली-प्रज्ञप्त-धमं-लोकोत्त माय अध्यं निर्वंपामीति स्वाहा । सदाहंन्‌ शरणं मन्‍्ये नान्‍यथा शरणं मम । इति भाव-विज्वद्धयर्थ महंयामि जलादिभि:। ३ ह्वीं अहेच्छ रणाय अध्यँ निवंपामीति स्वाहा । ब्रजामि पिद्ध-शरणं परावतेन-पंचक । भित्त्वा स्वसुख-संदोह-संपन्न मिति पूजये ॥॥ ४ ही सिद्धश रणाय अध्य निबेपरामीति स्वाहा । आश्रये साधू-शरणं सिद्धांत-प्रतिपादने: । न्यक्कृताज्ञान-तिमिरमिति शुद्धव्या यजामि तम्‌ ॥ ४» हीं साधुशरणाय अर्य॑ निर्वंपामीति स्साहा । धर्म एव सदा बन्धुः स एवं दारणं मम। इह वान्यत्र संतारे इति त॑ पूजयेउघुना ॥। ३* ह्लीं केवलि-प्रज्ञप्त-धमं श रणाय अध्य॑ निरवेपामोति स्वाहा । (बसंततिका)--ससा र-दुख-हनने निपु्णं जनानां, नाइन्त-चक्रमिति सप्त-दश-प्रमाणम्‌ ॥ संपूजये विविध-भक्तिभ रावन म्रः शांतिप्रद॑ भुवन-पुख्य-पदार्थ-साथें: ॥ ४ ह्वों अहंदादि-सप्त-दश-मन्‍्त्रेभ्यो महाध्य॑ निर्वेपामीति स्वाहा । अथ जयमाला विघ्त-प्रणाशन-विधो सुरमत्थ॑ताथा, अग्रेसरं जिन वदंति भवंतमिष्टम्‌ । आनाचन्त-यु व-व तिनभत्र कार्ये, ग्राहुस्थ्य-धर्म-विहिते5हमपि सम रामि ॥ शा! ] [ सिदचक वियाने विनायकः सकल-धममि जनेषु धर्म ढेधा नयत्यविरतं दृढ़-सप्त-भंग्या | यद्धघानतो नयन-भाव-सथुज्ञनेन, बुद्ध: स्वयं सकल-नायक-इत्यवाप्ते ॥ (झूजंगप्रयात)-गणानां मुनीनामधीशस्त्वतस्ते, गणेशाख्यया ये भवन्त स्तुवंति। सदा विष्न-संदोह-शांतिजेनानां, करे संलुठत्यायत-श्रेयसानाम्‌ ॥ त्वं मंगलानां परम जिनेन्द्र | समादतं मंगलमस्ति लोके । त्वत्‌ पूजकानामपयान्ति विध्ना: क्षिप्रं एरुन्मत्सविधेव सर्पा:। तव प्रसादात्‌ जगतां सुखानि, स्वयं समायान्ति न चात्र चित्रम्‌। सूर्योदये नाशमुपैति नूनं तमो विशाल प्रबल च लोके ॥ यतस्त्वभेवासि विनायको मे दृष्टेष्ट-योगानवरुद्ध-भाव: । त्वन्नाम-मात्रेण पराभवंति विध्नारयस्तहि किमन्र चित्रम्‌ ॥ घत्ता-जय जय जिनराज त्वद्गुणान्को भवित, यदि सुरगुरिन्द्र: कोटि-वर्ष-प्रमाणम्‌ ॥। वदितुमभिलषेद्वा पारमाप्नौति नो चेत्‌, कथमिह हि मनुष्य: स्वल्प-ब॒द्ध्या-समेतः ॥ 9 हीं अहंदादि-सप्तदश-मस्त्रेभ्यों अध्य निर्वषामीति स्वाहा । श्रियं बुद्धिमनाकलयं प्रमं-प्रीति-विवद्धंनं । गृहि-धर्मे स्थितिभ्‌ यात्‌ श्रेयांसि मे दिशत्वरा ॥ इत्यादीर्वाद: । ४4) रफकाहणु भय आापड,+ मूड श? १ श््मः तक 5 पडशिर ह४ - बट ५5 ड्जक एप 7 कील ओ प्रमच जल अपनी शाला ररीसनी कल्णा मर वे पतन आोमतली फशावनी जन के साय मिद्वजक विणान बरसे ह्दाः ॥ % नमः सिद्धम्पः ।। कविवर पं० सन्तलालजो कृत श्री सिद्धाचक्र विधान ५“ मड्भलाचररा दोहा जिनाधीश शिवईश नमि, सहसगुरिगत विस्तार । सिद्धचक्र पूजा रचों, शुद्ध त्रियोग संभार ॥१॥ नीत्याश्रित धनपति सुधी, शीलादिक गुरण खान । जिनपद श्रम्बुज भ्रमर मन, सो प्रशस्त यजमान ॥२॥ देश काल विधि निपुरतमति, निर्मेल भाव उदार । सधुर बेन नयना सुघर, सो याजक निरधार ॥३॥ रत्नत्रयमंडित महा, विषय-कषाय न लेश । संशयह€रण सुहितकरन, करत सुगुरु उपदेश ॥४॥॥ छुप्पय निर्मल मंडप सूसि दरव--मंगल करि सोहत। सुरभि सरस शुभ पुष्प-जाल मंडित मन मोहत 0 यथायोग्य सुन्दर सनोज्ञ, चित्राम अनुपा । दोरछ मोल सुडोल, बसन भखभोल सरूपा ॥ हो वित्तसार प्रासुक दरब, सरब श्रंग मनको हरे । सो महाभाग आ्ानंद सहित, जो जिनेन्द्र श्र्चा करे ॥५॥ २] [ लिद्धचक्त विधान दोहा सुर-सुनि सन प्रातन्दकर, ज्ञान सुधारस धार। सिद्धचक्र सो थापहूँ, विधि दव-जल उनहार ॥६॥ अडिल्ल अहँ शब्द प्रसिद्ध श्रद्ध -मात्रिक कहा, ग्रकारादि स्वर मंडित श्रति शोभा लहा। अ्रति पवित्न श्रष्टांग श्रघध करि लायके, प्रबदिशि पूजों श्रष्टांणय. नमायके ॥७॥ +>हठींग्रहँ श्रश्मा इई उ ऊ ऋ ऋल ल एऐ सश्रो श्रौ अ्र॑ श्र: भ्रना- हतपराक्रमाय सिद्धाधिपतये नमः पुवंदिशि श्रध्यं निवंपामोति स्वाहा । सोरठा वर्ण कवर्ग महान, श्रष्ट पूर्व निधि श्रघ॑ ले । भक्ति भाव उर ठान, पुजों हों श्राग्नेय दिशि ॥४॥ ३ हीं श्रह क ख गघ॒ 5 प्रनाहत पराक्रम्राय सिद्धाधिपतये श्राग्नेय- दिशि झ्ध्य० । वर्ण चवर्ग प्रसिद्ध, वसुविधि श्रघ॑ उतारिके । मिलि है वसुविधि रिद्धि, दक्षिण दिल्लषि पुजा करों ॥६॥ 3* हीं भ्रहँ चछ ज भर ज अनाहुत पराक्रमाय सिद्धाधिपतये दक्षिख- विशि श्रष्यें० । वर्ण टवर्ग प्रशस्त, जलफलादि शुभ श्रघं ले। पाऊं सब विधि स्वस्ति, नेऋत्य दिशि श्रर्चा करों ॥१०॥ ३ हों भ्रहं ट 5 ड ढ़ रा भ्रनाहतपराक्रमाय सिद्धाधिपतये नेऋत्य- दि्ि भ्रध्यें० । वर तवर्ग मनोग, यथायोग्य कर श्रधं॑ धरि। मिलि है सब शुभ योग, पूजन करि पश्चिम दिज्ञा ॥ ११॥ ३> ह्रीं श्रह त थ द घ त अ्रनाहुतपराक्रमाय सिद्धाधिपतये पश्चिम- दिशि अ्रध्य ५ । सिद्धथक्र विधान ] [३ वर पवर्ग सुभाग, .करू शआरतो श्र ले। सब विधि श्रारत त्याग, वायब दिशि पूजा करों ॥ १२।॥। ३» हीं प्रह प फ ब भ म अनाहुतपराक्रमाय सिद्धाधिपतये वायद्य- दिशि झच्ये० । वर्ण यवर्गों सार, दर्व-प्र्ध वसु द्रव्य करि | भाव श्रर्घ उर धार, उत्तर दिशि पूजा करों ॥१३॥ 35 हों श्रह॑ पघ र ल व श्रनाहुतपराक्रभाय सिद्धाधिपतये उत्तरदिश्ि प्रध्यं ० । शेष वर्ण चउ अन्त, उत्तम श्रर्घ बनाइक । नशे कर्म बसु भंत, पूजों हो ईशान दिशि ॥१४॥ 3 हों ग्रह श ष स हु ग्रनाहृत पर/क्रपाय पिद्धाधिपतये ई शानदिशि प्रध्य ०। प्रथम पूजा (श्राठ गुण सहित) छप्पय ऊरध श्रधों सु रेफ बिंदु हकार विराजं। प्रकारादि स्व॒र लिप्त कश्णिका अ्रन्त सु छाज !॥ वरगंनिपुरित वसुदल श्रंब्रुज तत्व संधिधर । अंग्रभाग में मंत्र श्रनाहत सोहत अ्रतिवर ॥ पुनि श्रंत हीं बेद्यो परम, सुर ध्यावतञ्नरि नागकों। हू केहरि सम पुजन॒ निमित, सिद्धाचक्र मंगल करो ॥१५॥ ३> छू। रामो सिद्धार्ण श्री सिद्धप रभे पठने नमः भ्रत्रावतरावतर संबोषद आाह्वाननम्‌ । अ्रत्र तिष्ठ तिष्ठ 5: 5: स्थापनम्‌ । अन्न मम सन्निहितो भव भव वषट, सन्निधिक रणम्‌ । पृष्पाजलि क्षिपेत्‌ । दोहा-सुक्ष्मादिक गुर सहित है, कर्म रहित निःशोग । सकल सिद्ध पूजों सदा, मिटे उपद्रव योग ॥ इति यंत्रस्थापनार्थ पुष्पार्जाल क्षिपेत्‌ । ४] [ सिद्धचक्र विधान अयाष्ट्रक (चाल नन्दीह्वरद्गीप पुजा की ) शोतल शुभ सुरभि सु नीह, कंचन कुम्भ भरों। पाऊं मवसागर तीर, श्रानंद भेंट धरों ॥ प्रन्तरगत श्रष्ट-स्वरूप, गुशमई राजत हैं। नम सिद्धधक शिव-भूष, श्रचल विराजत हैं ॥१॥ 3* ह्वों गमो सिद्धाणं सिद्धचक्राधिपतये श्रो गिद्धगरसेष्ठिने नस: श्री सम्भत्तरारण दंसागवोरज सुहृफत्तहिव श्रवगाहरं अ्रगुरुलघुमव्वात्राहूं अ्रट्गुणासंयुत्ताणं सिद्धाणं जन्म-जरामृत्युविनाशनायथ जल॑ निर्वपामोति स्वाहा ॥१॥ चन्दन तुम बंदन हेत, उत्तम पान्य गिता। तातर सब काप्ठ समेत, इंधन ही बना ॥ न्तरगत अ्रष्ट स्वरूप, गुशमई राजत हैं । नम्‌ं सिद्धचक्त शिवभूप, अचल विराजत हैं ॥२॥ चन्दनं० दीरघ शशि किरण समान, श्रक्षत ल्यावत हूं । शशिमंडल सम बहुमान, पूज रचावत हूँ ॥ अन्तरगत श्रष्ट स्वरूप, गुर्मई राजत हैं। तमूं सिद्धाचक्र शिव-भुप, श्रचल विराजत हैं ॥३॥ श्रक्षतं० तुम चरसाचन्द्र के पास, पुष्प धरे सोहें। मानूं नक्षत्रकी रास, सोहत मन मोहें ॥ श्रन्तरगत अ्रष्ट स्वरूप, ग्रुणमई राजत हैं। नमूं सिद्धचक्र शिव-भूप, अचल विराजत हैं ॥४॥ पुष्पं ० उत्तम नेवज बहुभाँति, सरस सुधा साने । प्रहिसिनद्रन सन ललचाय, भक्षर उसगाने ७ प्रथम पूजा | [५ श्रन्तरगत श्रष्ट स्वरूप, गुरामई राजत हैं । नम्‌ं सिद्धचक्र शिव-भूष, अचल विराजत हैं ॥५॥ ३ हीं मो सिद्धारां श्रोसिद्धपरमेष्ठिने श्रीसम्यक्त्वादि भ्रष्टगुण- संयुक्ताय नेबेययं ० ॥५॥ फंली दीपन की जोति, श्रति परकाश करे । जिम स्यादृवाद उद्योत, संशय तिमिर हर ॥ श्रन्तरगत भ्रष्ट स्वरूप, गुरणमई राजत हैं । नम सिद्धचक्र शिव-भूष, अ्रचल विराजत हैं ॥६॥ दीपं० धरि अ्रग्नि ध्रृूषके ढेर, गंध उड़ावत हूं। कर्मों का प्वप बखेर, ठोंक जरावत हूं ॥ प्रन्तरगत अ्रष्ट स्वरूप, गुराभई राजत हैं। नमूँ सिद्धचक्र शिव-भुप, श्रचल विराजत हैं ॥७॥ ध्रृप॑ं० जिन धर्म वक्ष की डाल, शिवफल सोहत हैं । इम धरि फल कंचन थाल, भविजन मोहत हैं ॥ प्रस्तरगत भ्रष्ट स्वरूप, गुरशमई राजत हैं । नम्‌ं सिद्धाचक्क शिव-भूष, भ्रचल विराजत हैं ॥८॥ फलं० करि दर्व श्रघं वसु जात, यात॑ ध्यावत हुं। श्रष्टांग सुगुरर॒ विख्यात, तुम ढिग पावत हूं ७ प्रन्तरगत भ्रष्ट स्वरूप, गुणमई राजत हैं। नमूं सिद्धाचक्र शिव-भूष, श्रचल विराजत हैं ॥६॥ श्रध्य॑० गीता निर्मल सलिल शुभवास चन्दन, धवल श्रक्षत युत श्रनी । शुभ पुष्प सधुकर नित रसें, चरु प्रचु रस्वाद सुविधि घनी ॥ करि दीपमाल उजाल घृपषापन, रसायन फल भले। करि श्र सिद्धसमृह पूजत, कमं-दल सब दलमले ७१७ ६] [ सिद्धचक्र विधान ते क्रमावर्त नशाय युगपत, ज्ञान निमंलरूप हैं । दुख जन्म टार श्रपार गुणा, सुक्षम सरूप श्रनतप हैं ॥ कर्माष्ट बिन त्रेलोक्य पूज्य, भ्रछेद शिव कमलापतोी । मुनि ध्येय सेय श्रभेय, चहुंगुण गेह, दो हम शुभमती ॥२॥ 5 हीं भ्रो सिद्धचक्राधिपतये सम्मत्तरा।रतादि अ्रष्टगुरा।ारा प्रनध्ये- पदप्राप्तथे महाश्रध्यं०। श्रथ अष्टगुरा भ्रघ॑ । चौपाई । मिथ्या-त्रय चउ आदि कषाया, मोह नाशि छायक गुण पाया । निज श्रनुभव प्रत्यक्ष सू्पा, नमूं सिद्ध समकित गणभूपा ॥१ ३ हीं सम्यक्त्वाय नम: श्रर्घ्य ० ॥१॥ सकल त्रिधा षट्‌ द्रव्य अभ्रनन्ता, युगपत जानत हैं भगवन्ता । निर आ्रावरण विषद स्वाधीना, ज्ञानानंद परम रस लोना ॥२॥ 3> हीं झ्नन्‍्तज्ञानायथ तम: श्रध्य॑ं० ॥२॥ चक्षु भ्रचक्षु श्रवधि विधि नाशी, केवल दर्श जोति परकाशी । सकल ज्ञेय युगपत श्रवलोका, उत्तम दर्श नम्‌ं सिद्धोंका ॥३॥ ३» हीं भ्रनन्तदशनाय नम: श्रध्य॑ं० ।३॥। अ्रन्तराय विधि प्रकृति श्रपारा, जीवदशक्ति घाते निरधारा । ते सब घात श्रतुल बल स्वामी, लसत श्रखेद सिद्ध प्रशभामी ॥४।॥ ऊ हीं प्रतन्‍्तवोर्याय नम: प्रध्यं० ॥४॥ रूपातीत मन इन्द्रिय ताहीं, मनपर्यंय हु जानत नाहीं । प्रलख श्रनतुप अमित भ्रविकारी, नम्‌ सिद्ध सुक्षम गुरणाघारी ॥५॥ ३> हों सुक्ष्मत्वाय नमः श्रध्यें० ॥॥५॥॥ एक क्षेत्र-अ्रवगाहु स्वरूपा, भिन्न-भिन्न राज चि6द्रपा। निज परघात विभाव विडारा, नमूं सुहित भ्रवगाह श्रपारा ॥६॥ &% ह्रीं प्रवगाहनत्वाय नमः श्रघ्यं ० ॥६॥ प्रथम पूजा | [७ परक्गृत ऊँच नीच पद नाहों, रमत निरंतर निजपद माहों । उत्तम अगुरुलघु गुण भोगी, सिद्धचक्र ध्याव नित योगी ॥७॥ ३ हों अगु रुलघत्वात्मकाय नमः: श्रघ्यं० ॥७॥ नित्य तिरामय भवभयभंजन, अ्रतल निरंतर शुद्ध निरंजन । श्रव्याबाध सोई गरण जानो, सिद्धचक्त पुृजत॒ सन आनो ॥६८॥ ३» हों भ्रव्याबाधत्वाय नमः अ्रध्यं० ॥॥८॥। बध्रथ जयमाल दोहा-जग आ्रारत भारत महा, गारत करि जय पाय। विजय श्रारती तिन कहूं, पुरुषारथ गुणंगाय ॥। पद्धरी छन्द जय कररा कृपाण सु प्रथम बार, मिथ्यात सुभट कीनो प्रहार । दृढ़ कोट विपयेय मति उलंघ, पायो समकित थल थिर शअ्रभड़ ॥१ निज-पर विवेक अंतर पुनीत, श्रातम रुचि वरतो राजनीत । जग विभव विभाव श्रसार एह, स्वातम सुखरस विपरीत देह ॥२ तिन नाहन लोनो दृढ़ संभार, शुद्धोपपोग चित चरण-सार । निग्रंग्ध कठिन मारग श्रनूष, हिसादिक टारत सुलभ रूप ॥३ दृयबीस परोीसह सहभ वीर, बहिरंतर संयम धरण धोर। द्वादशा भावन, दशा भेद धर्म, विधि नाशन बारह तप सु पर्म ४ शुभ दयाहेत धरि समिति सार, सन शुद्धकर रा त्रय गुप्ति घार। एकाकी निर्भव निःसहाय, विचरो प्रमत्त नाशन उपाय ॥५ लखि मोहशन्नु परचंड जोर, तिस हनन शुकल दल ध्यान जोर । झ्ाननन्‍्द वोररस हिये छाय, क्षायक श्रेणी श्रारम्भ थाय ।॥।६ बारस गुराथानक ताहि नाश, तेरस पायो निजपद प्रकाश । नव केवललब्धि विराजमान, देदीप्यमान सोहे सुभान ॥७ तिस मोह दुष्ट श्राज्ञा एकांत, थी कुमति स्वरूप श्रनेक भाँति । जिनवाणी करि ताको विह॒ंड, करि स्याह्वाद श्राज्ञा प्रचंड ॥८ बरतायो ज्ञग में सुमति रूप, भविजन पायो श्ानन्द श्रनूप । थे मोह नुपति उप करण देष, चारों भ्रघातिया विधि विशेष ॥६ है नुपति सनातन रीति एह&, श्ररि बिमुख न राखे नाम तेह। यों तिन नाशन उद्यम धुठानि, भ्रारंभ्यो परस शुकल सु ध्यान ॥१० तिस बलकरि तिनकी थिति विनाश, पायो निर्मंथ सुखनिधि निवाश। यह अ्रक्षय ज्योति लई श्रबाध, पुनि श्रंडा न व्याथों दात्रु व्याध॥११ शास्वत स्वाशित सुखश्रेय स्वामि, है ज्ञाति संत तुम को प्रणाम । गअ्रन्तिम पुरषारथ फल विशाल, तुम विलसो सूखसों श्रस्ित काल ॥१३ % हीं सम्मत्तराणादि श्रट्गुणासंजुत्तसिद्ध भ्यो महाघ्यं निबंपामोति स्वाहा ॥१॥। घत्ता परसमय विदृरित पूरित निशन्चसुख समयसार चेतनरूपा ॥ नानाप्रकार पर का विकार सब टार लसे सब गुर भुपा ॥ ते निरावर्ण निर्देह निरूपम सिद्धचक्र परसिद्ध जजूं। सुर मुनि नित ध्याव श्रानन्द पावे, मैं पूजत भवभार तजूं॥ इत्याज्ीवरदि: । (यहां १०८ बार '# हों श्रहूं झसिश्नाउसा नमः” मंत्र का जाप करें ।) द्वितीय पूजा (सोलह गरासहित) छ्प्पय ऊरध श्रधो स्‌ रेफ बिंदु हकार बिराजे। ग्रकारादि स्व॒रलिप्त करिणा श्रन्त सु छाजे ॥। बग्गनिप्रित वस॒दल श्रम्बुज तत्त्व संधिधर । अ्रग्रभाग में मंत्र श्रनाहुत सोहत अतिवर ॥; पुनि श्रंत ह्लीं बेदयो परम, सुर ध्यावत श्ररि नागको। हाँ केहरिसम पुजन निमित, सिद्धाचक्र मंगल करो ॥१॥ ३* ह्वीं रामो सिद्धाणं श्रीसिद्धपरमेष्ठिने नमः षोडगठागुणसंयुक्त सिद्ध- परमेष्ठिन श्रत्राववरावतर संवोषद आ्राह्भाननम्‌ । श्रत्र तिष्ठ तिप्ठ 5: 5: स्थापनम्‌ । भ्रत्न मम सबन्निहतो भव भव वषद सन्निधिकरणम्‌। पुष्पाजलि क्षिपेत्‌ । दोहा--सुक्ष्मादि गुण सहित हैं, कम रहित नोरोग । सिद्धाचक्र सो थापहूँ, मिट उपद्रव योग ॥२॥ इति यंत्रस्थापनाथे पुष्पांजलि क्षिपेत्‌ । झ्रथाष्टक गीता हिमशल धोल महान कठिन पाषाराण तुम जस रासतें। शरसाय अरु सकुचाय द्रव हूं बही गंगा तासतें ॥ सम्बन्ध योग चितार चित भेटार्थ भारी में भरूं। षघोड़श गुणान्वित सिद्धधक्क चितार उर पूजा करूँ ॥१॥ & ह्वीं णमो सिद्धारं षोड्शगुरासंयुक्ताय श्रीसिद्धपरमेष्ठिने जलं- निर्वषासीति स्वाहा । १० ] [ सिद्धचक्र धान काइमोर चन्दन प्रादि श्रन्तर-बाह्य बहुविधि तप हरे । यह कार्य-कारएण लखि नमित मम भाव हू उद्यम करें।। मैं हुं दुखी भवताप से घसि मलय चरतन ढिग धरूं । षोडश गुणान्वित सिद्धधक्त चितार उर पूजा करूँ ॥२॥ ३ ह्वों णमो सिद्धाणं घोड्शगुण संयुक्ताय श्री सिद्धपरमभेह्चिने चन्दन निबं० स्वाहा । सौरभ चमक जिस सह न सकि श्रम्बुज बस सरताल में । दशि गगन बसि नित होत कृश श्रहिनिशि भ्रम इस रुयालमें ।। सो भ्रक्षतौघ अ्रखण्ड भ्रनुपम पूंज धरि सन्मुख धरूं। षोडश गुणान्वित सिद्धचक्त चिंतार उर पूजा करू ॥्रक्षतं॥ ३॥। जग प्रगट काम सुभट बिकट कर हट करत जिय घट जगा। तुम शील कटक सुघट निकट सुरचाप पटक सुभट भगा ॥ इम पुष्पराशि सुवास तुम ढिग कर स्‌ यश बहु उच्चरूं । षोडश गुणान्दित सिद्धचक्र चितार उर पुजा करूं ।पुष्पं।।४॥ जीवन सतावत नह श्रधावत क्षुधा डाइन सी बनी । सो तुम हनी, तुम ढिग न श्रावत, जान यह विधि हम ठनी ॥ नैवेद्यके संकेत करि निज क्षधानाशन विधि करूँ। घोडदा गुरणान्वित सिद्धाचक्र चितार उर पूजा करू । ने बेचं।। ५१) में मोह-अ्रन्ध भ्रशक्त श्ररु यह विषम भवबन है महा । ऐसे रुले को ज्ञानदुति बिन पार निवरणण हो कहाँ ॥ सो ज्ञानचक्षु उधार स्वामी दोप ले पायनि परूं। षोडश गुणान्वित सिद्धचक्र चितार उर पुजा करूँ ॥दीपं॥६॥ प्रासक सुगंधित द्रंव्य सुन्दर दिव्य प्राण सुहावनो । धरि अग्नि देश दिश वास पूरित ललित धृम्र सुहावनो ॥ तुम भक्ति भाव उमंग करत प्रसंग धूप सु विस्तरूं । द्वितीय पूजा | [ ११ घोडश गुणान्वित सिद्धचक्त चितार उर पुजा करूं ॥७॥ 3 हीं णमो सिद्धाणं षोडशगुएसंयुक्ताय श्रीसिद्धपरमेष्ठिने घूप॑ निर्ब० स्वाहा ॥७9! चित हरन अचि सुरंग रसपुरित विविध फन् सोहने । रसना लुभावन कल्पतरुके सुर श्रसुर सन मोहने ॥। भरि थाल कंचन भेंट धरि संसार फल तृष्णा हुरूं । षोडश गुणान्वित सिद्धचक्र चितार उर पूजा करूँ ॥फलं।।८॥। शुभ नोर वर कइमीर चंदन धवल श्रक्षत युत श्रनी । वर पुष्पणाल विज्ञाल चरु सुरमाल दीपक दुति सनो ॥ वर धूप पक मधुर सुफल ले श्रघं ग्रठ विधि संचरूं । षोडश गुर/न्वित सिद्धचक्र चितार उर पूजा करूं ॥|श्रध्यं।॥६॥ गीता निर्मल सलिल शुभवास चन्दन धवल अ्रक्षत युत अनी । शुभ पुष्प मधुकर नित रमे चरु प्रचुर स्वाद सुविधि घनी ॥ बर दीपमाल उजाल ध्रृपायन रसायन फल भले । करि श्रर्घ सिद्ध-समृह पुजत कमंदल सब दलमले ॥१०॥ ते क्रमावर्त नशाय युगपत ज्ञान निर्मल रूप हैं । दुख जन्म टाल अपार गुण सुक्ष्न सरूप श्रनूप हैं॥। कर्माष्ट ब्रित अ्लोक्य पृज्य भ्रदूणज शिव कमलापती। मुनि ध्येय सेय श्रभेय, चहूं गुरप गेह, जो हम शुभभती ॥११॥ 3» हीं सिद्धचक्राधिपतये पाड्शगुरण संयुक्ताय श्रोसिद्धपरसेषण्ठिने महांघें०। सोलहगुण सहित श्र त्रोटक दर्शन आवरण प्रकृति हनी, अथिता अ्वलोक सुभाव बनो। इक साथ समान लखो सब हो, नम सिद्ध श्रनंत हगन भ्रबही ॥।१॥॥ &# हों प्रनन्‍्तदर्शनाय नमः प्रध्य । १२ ] [ सिद्धचक्र विधास विधि ज्ञानावर्ण विनाश कियो, निजज्ञान स्वभाव विकाश लियो । समयांतर स्व विशेष जनों, नम्‌ँ सिद्ध भ्रनंत सु सिद्ध तनों ॥२॥ ३* ह्वीं प्रनन्तज्ञानाय तमः अध्य । सूख अमृत पीवत स्वेद न हो, निज भाव विराजत खेद न हो । ग्रसमान महाबल धारत हैं, हम पुजत पाप बिडारत हैं ॥३॥ 3 हो ग्तुलवोर्याय नमः श्रध्य । विपरीत सभोत पराश्चितता, अतिरिक्त धरे न करें थिरता। परकी अ्रभिलाष न सेवत हैं, निज भाविक आ्रानन्द बेवत हैं ।४;॥ 3> ह्रीं श्रनन्‍त ;खाय नमः श्रध्यं । निज श्रात्म विकाशक बोध लक्ष्यों, श्रमको परवेद्य न लेश रह्यो। निजरूप सुधारस मग्त भये, हम सिद्धन शुद्ध प्रतोति नये ॥५॥ 3 हों प्रनन्‍्तसम्थक्त्वाय नमः अध्यं० । निज भाव विडार विभाव न हो, गमनादिक भेद विकार न हो। निजथान तिरूपम नित्य बसे, नमूं सिद्ध अ्रनाचल रूप लसे ॥६॥ 35% हीं श्रचलाय नमः अ्रध्य । चौपाई गुणा पयंय पररुतिके भेद, श्रति सुक्षम अ्रसमान अखेद । ज्ञान गहे, न कहे जड़ बेन, नसों सिद्ध सुक्षम गुणा ऐन ॥७॥ ३» ह्लीं प्रनन्‍्तसुक्ष्मत्वाय नमः श्रध्य ०। जन्म-मररप युत धरे न हाय, रोगादिक संक्लेश न पाय । नित्य निरंजन निर-अविकार, श्रव्याबाध नमों सुखकार ॥८॥ 3& ह्वीं अव्याबाधाय नमः प्रध्य ० । एक पुरुष श्रवगाह प्रजंत, राजत सिद्ध-समृह श्रनंत । एकमेक बाधा नह लहें, भिन्‍न-भिन्‍न निजगुरा में रहैं ॥६॥ ३ हों भ्रवगाहनगुणाय नमः श्रध्य ०। द्वितीय पूजा ] [ १३ काययोग पर्यापति प्रान, श्रतवधि छित छित होवे हात। जरा कष्ट जग प्रानी लहेँ, नमों सिद्ध यह दोष न गहै ॥१०॥ 3 हों प्रजराय नमः अ्रध्य ० । काल-श्रकाल प्राण को नाश, पावे जीव मरन को त्राप । तासों रहित भश्रमर अविकार, सिद्ध-समृह नमूं सुखकार ॥११॥ 3» हीं प्रमराय नमः भ्रध्य ० । गुरण-गुरा प्रति है भेद श्रनन्‍्त, यो श्रथाह गुणयुत भगबंत । है परमाणु श्रगोचर तेह, अ्रप्रमेय गुर/ः बन्दूं एह॥१२॥ ३ हीं श्रप्रसेययय नम: अ्रध्य ० । भुजंगप्रयात ग्रनुकम्मतें फसं वर्णादि जानो, किसो एक वोशेबकों कि प्रमानों । पराधीन आवरणों श्रज्ञान त्यागी, नम्‌ं सिद्ध विपतेन्द्रिय ज्ञान भागी ॥ % हों प्रतोन्द्रियक्षानधारकाय नमः भ्रध्य ० । त्रिधा भेद भावित महाकष्टकारे, रसरा भावसों आकुलित जीव सारे। निजानंद रमरणीय शिवनार स्वामी, नमों पुरुष श्राकृति सबे घिद्ध नामों ४१४३ 3 ह्वीं अवेदाय नमः अध्य ० । विशेष॑ सकल चेतना धार मांहो, भये ले भलो विधि रहो भेद नाहों। तथा हीन श्रधिकाय को भाव टारी, नमों सिद्ध पुरण कला ज्ञानधारी ॥१५॥ # हों ग्रभेदाय नमः अ्ध्य ० । निजानन्द रस स्वादमें लोन श्रंता, सगन हो रहे राग वर्जित निरंता। कहांलों कहूं श्रापो पार नाहों, धरो आपको आपही आपमाहों ॥१६॥ $* हीं तिजाधीनजिताय नमः श्रध्ण ० । १४ ] [ सिद्धचक्र विधान जयमाल दोहा--पंच परम परमात्मा, रहित कर्म के फंद। जग प्रपंच विरहित सदा, नमो सिद्ध सुखकंद ॥ त्रोटक दुखकारन ठेष विडारन हो, वश डारन राग निवारन हो । भवितारन पुरणकारण हो, सब सिद्ध नमों सुखकारत हो ॥१॥ समयामृत पूरित देव सही, पर श्राकृत परति लेश नहों । विपरीत विभाव निवारन हो, सब सिद्ध नमों सुखकारन हो ॥२॥ अ्रखिना श्रभिना अछिना सुपरा, अभिदा श्रखिदा भ्रविनाशवरा । यमराज जरा दुखजारन हो, सब पस्िद्ध नमों सुखकारन हो ॥३॥ निर-आश्रित स्वाश्रित वासितहो, पर-ग्राश्रित खेद विनाशित हो । विधि धारन हारन पारत हो, सब सिद्ध नमों सुखकारन हो ॥४॥ प्रमुषा श्रछुधा श्रद्विधा श्रविध॑, श्रकुष्ध सुसुदा सुबुधा सुसिधं । विधि कानन दहन हुताशन हो, सब धिद्ध नमों सुखकारन हो ॥५॥ शरने चरने वरने करने, धरन चरने सरन हरनं। तरनं भव-वारिधि तारन हो, सब सिद्ध नमों सुख कारन हो ॥६॥ भववारिधि त्रास विनाशन हो, दुखरास विनास हुताशन हो । निज दासन त्रास निवारवन हो, सब सिद्ध नमों सुखकारन हो ।।७॥ तुम ध्यावत शाइवत व्याधि वहै, तुम पूज्नत ही पद पुजि लहै। दरखागत 'संत' उभारन हो, सब सिद्ध नमों सुखक्ारन हो ॥८॥ 3 हीं प्रनन्‍्तदशनज्ञानादि षघोडम गुणयुकत-सिद्धेम्प्रों महाध्य०। दोहा--सिद्धवर्ग गुरा श्रगम हैं, शेब न पा पार। एम किह विधि वरशन कर, भक्तिभाव उर धार ॥€॥ इत्याशोर्वादः (यहां १०८ बार “३ हूं श्रहूं श्रसि श्राउसा नमः' मंत्र का जाप करें।) तृतीय पूजा (बत्तोस गुरासहित) छप्पय ऊरध अ्रधो सु रेफ सबिदु हकार विराजे, ग्रकारादि स्वर लिप्त करिका प्रंत सु छाजे । वर्ग्गनिपूरित वसुदल श्रम्बुज तत्व संधिधर, श्रग्रभागमें मंत्र श्रनाहत सोहत भ्रतिवर। पुनि प्रंत हीं बेढदयो परम, सुर ध्यावत श्ररि नागको । हूँ केहरि सम पूजन निमित, सिद्धचक्र मंगल करो ॥१॥ ३ ह्वीं णगमो सिद्धाणं द्वांत्रिशवृगुणवहितविराजमान श्रोसिद्धपरसे- छिठन्‌ प्रत्रावतरावबतर संशैषट झाह्वाननम्‌। अ्रत्र तिष्ठ तिष्ठ 5: 5ः स्थापतम्‌ । प्रत्न सतत सरितहितो भव भव वषट सन्तिधिकरशणस्‌ । दोहा-सुक्ष्मादि गुण सहित हैं, कर्म रहित नोरोग। सकल सिद्ध सो थापहूं, घिटे उपद्रव योग ॥ इति य त्रस्थापनार्थ पुष्पार्जाल क्षिपेत्‌ । ग्रयाव्नक भव त्रासित श्रकुलित रहे भवि, कठिन मिटन दुखताई ॥ विसल चररण तुम सलिल धार दे, पायो सहज उपाई ॥ ठुम पूजोरे भाई, सिद्धचक्र बत्तोसगुरण, तुम पूजोरे भाई 0टेक।॥। $* ही णत्रो घिद्धाणं द्वत्रिशतृगुणसंयुक्ताप श्रोत्तिड़परमेष्ठिने अन्मजरारोगविनाशनाय जल॑ ॥१॥ १६ ] [ सिद्ध विधान जगवंदन परसत पद चन्दन, महामाग उपजाई । हरिहर भ्रादि लोकवर उत्तम, कर धर शीश चढ़ाई ॥प्रभ पूजोरे० 3 हो एामो पिद्धाणं द्वात्रिशत्‌गुएसंयुक्ताय श्री सिद्धप रमेप्ठिने संसार- तापबविनाजशनाय चन्दनं० 0२॥ शिवनायक पूजन लायक है, यह महिमा श्रधिकाई । ग्रक्षयपद दायक ग्रक्षत यहू, साँचो नाम धराई ॥प्रभु पूजोरे०॥। श्रक्षतं ० ।।३॥ कामदाह श्रति हो दुखदायक, मस उरसे न टराई। ताहि निवारण पुष्प भंट धरि, मागं वर शिवराई ॥प्रभ्‌ पृजोरे० पुष्प॑ ५ ॥४॥ चरुवर प्रचुर क्षधा नहिं मेंटत प्र परो इन ताई। भेंट करत तुम इनहूं, रहें चिरकाल श्रधाई ॥प्रभु पूजोरे०॥ नेवेश्० । ४ दिव्य र॒ःन इस देश-काल में, कहै कौन है नांई। तुम पद भेंट दीप प्रकट यह चितामरि पद पाई ॥ प्रभु पूजोरे० से दीप॑ं ॥६॥ धूप हुताशन वासन में धरि, दसदिशि वास बसाई । तुम पद पूजत या विधि, वसु विधि इंधन जर हो जाई ॥प्रभु०॥॥ नि घृषं ० ॥७ पर्वोत्तम फल द्रव्य ठान मन, पूजूं हूं तुम पाई । जासों जर्ज सुक्तिपद पहये, सर्वोत्तत फलदाई ॥प्रभु पूजोरे०॥ है फल ० ॥८ वसुविधि श्र देडः तुम मम दो वसुविधि गुण सुखदाई । जासू पाय वसु ज्ञास न पाऊं, “सस्त” कहे हर्षाई ॥प्रभु पूजोरे० धष्य० गीता निर्मल सलिल शुभ बास चन्दन धवल श्रक्षत युत श्रनी । शुभ पुष्प मधुकर नित रमें चर प्रचुर स्वाद सुविधि घनो ॥ तृतीय पूजा ]] [ १७ वर दोपमाल उजाल धृपायन रसायन फल भले। करि अ्रधं सिद्ध-समूह पूजत, कमंदल सब दलमले। ते क्रमावतं नसाय युगपत, ज्ञान निम्मल रूप हैं । दुख जन्म टाल श्रपार गुणा, सुक्षम स्वरूप अनूप हैं ॥ कर्माष्ट बिन त्रलोक्य पृज्य, श्रदूज शिव कमलापती । मुनि ध्येय सेय श्रमेय चहुं गुण गेह, थो हम शुभमती ॥ % हों णमोसिद्धारां द्वात्रिशत॒गुणसंयुक्ताय थी सिद्धपरमेष्ठिने महारध्य ० । अथ बत्तोत्त गुण अध्यं पड़ड़ी चेतन विभाव पुदू्गल विकार, है शुद्ध बुद्ध तिस निमित टार। हगबोध सुरूप सुभाव एहू, नमूं शुद्ध चेतना सिद्ध देह ॥१॥॥ ३» ह्रीं शुद्ध चेतनाय नमः श्रध्य॑० । मति ग्रादि भेद विच्छेद कोन, छायक विशुद्ध निज भाव लीन । निरपेक्ष निरन्तर निविकार, नमूं शुद्ध ज्ञाममय सिद्ध सार ॥२॥ $* हीं शुद्धत्नानाय नमः भ्रध्य॑०। सर्वांग चेतना ब्याप्तरूप, तुम हो चेतन व्यापक सरूप । पर लेश न निज परदेश माँहि, नम सिद्ध शुद्ध चिद्रप ताहि ॥३॥ ३ हों शुद्धचिद्र पाय नम: अध्यं० । प्रन्तरविधि उदय विपाक टार, तुम जातिभेद बाहिज विडार । निज परिणतिमें नहि लेश शेष, नम शुद्धरूप गुरागरा विशेष ॥४॥ ३ छी शुद्धसब्वरूपाय नमः अध्यं० । रागादिक परिणतिकों विध्वंश, भ्राकुलित भाव राखो न अ्रंद् । पायो निज शुद्धस्वरूप भाव, नमूं सिद्धवर्ग धर हिये चाव ॥५७ & हों परम शुद्ध ्वरूपभावाय नमः भ्रध्य॑०। श्द्द ] [ सिद्धचक्र विधान दोहा--तिहूं काल में ना डिगें, रहें निजानन्द थात । नम्‌ं शुद्ध हृढ़ गुण सहित, सिद्धराज समवान ॥६0॥ ४ हों शुद्धवृढ़ाय नमः प्रघ्य ० । निज आवतंकमें बसे, नित ज्यों जलधि कलोल । नम्‌ं शुद्ध आवतंकी, करि निज हिये श्रडोल ॥७॥ 3 हीं शुद्धम्रावत्तकाय नमः झ्र्य ० । प्रकृत कर उपज्यो नहों, ज्ञानादिक निज भाव | नमों सिद्ध निज भ्रमलपद, पायो सहज सुभाव ॥८॥ 5 हों शुद्धस्वगं भवे नमः भ्रध्य ० । पड़ड़ो निभ सिद्ध श्रनन्त चतुष्ट पाय, निज शुद्ध-चेतनापुँज काय । निज शुद्ध सब पायो संयोग, तुम सिद्धराज सु शुद्ध जोग ॥६॥ ३# हीं शुद्धयोगाय नमः भ्रध्य ० । एकेन्द्रिय श्रादिक जातिभेद, होनाधिक नामा प्रकृति छेद । संपूरण लब्धि विशुद्ध जात, हम पूज हैं पद जोर हाथ ॥१०॥ ३# हीं शुद्धनाताय नम: भ्रध्य ० । दोहा--महातेज श्रानन्दधन, महातेज परताप। नमों सिद्ध निजगुरा सहित, दीप ग्रनुपम आप ॥१ ९॥॥ 3» ह्वीं शुद्धतपसे नमः भ्रध्य । पड़ड़ो वर्शादिकको अ्रधिकार नांहि, संस्थान श्रादि श्राकार नाहि। श्रति तेजापड चेतन श्रखंड, नमूं शुद्ध मृतिक कर्मखंड ॥॥ श्शा $+ हों शुद्धमुतंये नम: श्रध्य । तृतीय पूथा ] [| १६ बाहिज पदार्थ को इष्टमान, नहि रमत मस्त तासों जु ठान । निज अनुभवरस में सदालीन, तुम शुद्ध सुखी हम नमत कोन ॥१ ३ ढ* हीं शुद्धधतुखाय नमः श्रष्य । दोहा-धर्मे प्र श्ररु काम बिन, श्रन्तिम पोरुष साध । भये शुद्ध पुरुषारथो, नमूं सिद्ध निरबाध ॥१४॥ ४ हों शुद्धपौरुषाय नमः श्रध्य ० । पड़ड़ी पुदुगल निरमापित वरं युक्त, विधि नाम रचित तासों विमुक्त । प्रुषांकित चेतनमय प्रदेश, ते शुद्ध शरीर नमूं हमेश ॥१५ # हीं शुद्धशरी राय नमः भ्रष्य ० । दोहा प्रणा केवलज्ञान-गम, तुम स्वरूप निर्बाध । झोर ज्ञान जाने नहीं, नमों सिद्ध तज श्राध 0१६७ 5 हीं शुद्धप्रभेघाय तमः भ्रष्य ० । दरशन ज्ञान सुभेद है, चेतन लक्षरा योग । पूरण भई विशुद्धता, नमों शुद्ध उपयोग ॥१७॥ 3* हीं शुद्धोपपोगाय नभः श्रध्य ० । पड़ड़ी परद्रव्य जनित भोगोपभोग, ते खेदरूप प्रत्यक्ष योग । निजरस स्वादन है भोगसार, सो भोगो तुम हम नमस्कार ॥१८ * हीं शुद्धभोगाय नमः अ्रध्य ० । दोहा-निमंमत्व युगपत लखो, तुम सब लोकालोक । शद्ध ज्ञान तुमको लखों, नमों शुद्ध श्रवलोक ॥१६॥ # हीं शुद्धावलोकाय नमः भ्रष्य ० । [ सिद्धचक्र विधान पड़ड़ी निरइच्छुक मत वेदो महान, प्रज्वलित प्ररिन है शुक्लध्यान । निर्भेद श्रपं दे मुनि महांत, तुम ही पूजत अहँत जान ॥२० # हों प्रज्वलितशुक्लध्यानाग्तिजिनाय तसः झ्रध्य ० । दोहा श्रावि-श्रन्त वजित महा, शुद्ध द्रव्य को जात । स्वयंसिद्ध परमात्मा, प्रणमं शुद्ध निपात ॥२१॥ # हीं शुद्धनिषाताय नमः भ्रध्य ० । लोकालोक भ्रनन्तवें, भाग वसो तुम आन । ये तुमसों श्रति भिन्न हैं, शुद्ध गर्भ यह जान ॥२२॥ ऊ हुं शुद्धगर्माय नमः श्रष्य ० । लोकशिखर शुम थान है, तथा निजातम वास । शुद्ध वास परमात्मा, नमों सुगुण को रास ॥२३॥ # हीं शुद्धधासाय नमः अ्रध्यं ० । अ्रति विशुद्ध निज धर्म में, बसत नशत सब खेद । परमवास नि सिद्धको, वासी वास श्रभेद ॥२४॥ $% हो विशुद्धपरमवासाय नमः भ्रध्य ० । बहिरंतर है विधि रहित, परमातम पद पाय। निरविकार परमात्मा, नम्‌ नम सुखदाय (२५७ # हीं शुद्धपरमात्मने नमः अ्रध्य ० । हीन अधिक इक देशको, विकल विभाव उछेद । शुद्ध अनन्त दशा लई, नम्‌ं सिद्ध निरभेद ५२६॥ %# हीं शुद्धप्ननन्ताय नमः भ्रध्य ० । तृतीय पूजा ] [२१ त्रोटक तुम राग-विरोध विनाश कियो, निजज्ञान सुधारस स्वाद लियो। तुम प्रण श्ञांति विशुद्ध धरो, हमको इकदेश विशुद्ध करो ॥२७ उ* हीं शुद्धशांताय नमः श्रध्यं०। विद पंडित नाम कहावत है, विद श्रन्त जु अन्तहि पावत है। निजज्ञान प्रकाश सु श्रन्त लहो, कुछ भ्रंश न जानन माहि रहो ॥२८ ३* हीं शुद्धविदन्‍्ताय नमः भ्रध्य० । वरणादिक भेद विडारन हो, परिर्याम कषाय निवारन हो । मन इन्द्रिय ज्ञान न प्रावत हो, श्रति शुद्ध निरूपम ज्योति मही ॥२६ # ह्वीं शुद्धच्योतिजिनाय नम: प्रध्य० ॥॥५॥॥ जन्मादिक व्याधि न फेरि धरो, भमरसण्णादिक ग्रापद नाहि वरो। निर्वाणा महान विशुद्ध श्रहो, जिन-शासन में परसिद्ध कहो ॥॥३० 3# हीं शुद्धनिवणिाय नस: श्रष्यें०। करि श्रन्त न गर्भ लियो फिरके, जनमे शिववास जनम धरके । जिनको फिर गर्भ न हो कबहूं, शिवराय कहाय नमूं अबहूँ ३१ % हीं घुद्धसन्दर्भगर्भाय नम: भ्रध्यं० । जग जीवन पाप नशायक हो, तुम श्राप महा सुखनायक हो । तुम मंगल मूरति शांति सही, सब पाप नशं तुम पूुजत ही ॥३२ 3 हीं शुद्धशांताय नमः भ्रघ्यें०। अथ जयमाल दोहा पंच परमपद ईश है, पंचमगति जगदोश । जगत प्रपंच रहित बसे, तमूं सिद्ध जग ईश ॥ परम ब्रह्म परमातमा, परम ज्योति शिव थान । परसातस पद पाइयो, नमों सिद्ध भगवान ॥१॥ ५२ ] | सिद्ध चक्त विधान छुन्द कामिनी मोहन जन्म मरणण क॒ट्ठ को टारि अमरा भये, जरादिरोग-व्याधि परिहार शप्रजरा भये। जय द्विविधि कर्ममलजार श्रमला भये; जय दुविधि टार संसार अचला भये ७ जय जगतवास तज जगतस्वामी भये, जय विनाश नाम थिर परमनामी भये। जय कुबुद्धिर्प तजि सुबुद्धिरूपा भये, जय निषधदोष तज सुगुर भपषा भये॥ कर्मरिपु नाशकर परम जय पाइए, लोकत्रयपूरि तुम सुजस घन छाइये। इन्द्रनागेत्न घर शीश्ष तुम पद जजें, सहा बेरागरसपाग सुनिगश भर्ज ॥ विघनवन दहुन को श्रघन घन पौन हो, सघन गुणरास के वास को भौन हो। शिवतिय वशकरन मोहिनोी मंत्र हो, काल क्षयकार बेताल के यंत्र हो॥ कोटिथित क्लेश को मेटि शिवकर रहो, उपलकी नकल हो श्रचल इकथल रहो । स्वप्न में हुं न निजश्रथ को पावहीं, जे महा खल न तुम ध्यान धरि ध्यावहों ॥ भ्रापके जाप बिन पाप सब भेंट ही, पापकी तापकों पाप कब मेंटही । 'संत' निज दास की श्रास पूरी करो, जगत ते काढ़ निज चरण में ले धरो॥ 5» हीं सिद्धचक्राधिपतये नम: दात्रिशतुगुरासंयुक्तसिद्धेम्यो तमः पूर्राघ०। शं चैतुये पूजा | [ २३ धत्ता जय श्रमल श्रनृप, शुद्ध स्वरूपं, निखिल निरूप॑ धर्मंघरा। जय विघन नहायक, मंगल दायक, तिहुं जगनायक परमपरा 0 ॥ इत्याशोर्वादः ॥। यहां १०८ बार '३+ हीं श्रह भ्रसि श्राउस नम: मंत्र को जाप करें। ४ चतुर्थ पूजा (चौंसठ गुण सहित) छप्पय अरध श्रधो सु रेफ सबिदु हकार विराजे, श्रकारादि स्व॒र लिप्त करिका श्रन्त सु छाजे। वग्गंनिपुरित ब्रसुदल श्रम्ब॒ज तत्त्व संधिधर, श्ग्रभागमें मंत्र श्रनाहत सोहत श्रतिवर ॥ पुनि श्रंत हीं बेढयो परम, सुर ध्यावत श्ररि नागको । हूँ केहरि सम पूजन निसित, सिद्धचक्क मंगल करो0 3 हां णमो घिद्धा्ं भ्रो सिद्धपरमेष्ठिन्‌ अ्त्रावतरावतर संबोषद्‌ धाह्वाननम्‌ । श्रत्र तिष्ठ तिष्ठ 5: 5: स्थायनम्‌। श्रशत्र मम सन्निहितो भव भव वषद्‌, सन्निधिकरणम्‌ । पुष्पॉर्जाल क्षिपेत्‌ । दोहा--सुक्ष्मादिक गुरण सहित हैं, कमंहित नोरोग । सिद्धाचक्र सो थापहूँ, मिटे उपद्रव योग ७ इति यंत्रस्थापनारथ पुष्पार्जाल क्षिपेत्‌ । $२ ! [ सिद्धचक्र विधान अ्रथाष्टकं सिद्धगणा पूजो हरषाई, चौंसठि गुणनामा विधि माला- सुमरों सुखदाई, सिद्धनश पूजोरे भाई॥ भ्रचरी ॥ त्रिभुवन उपमा वास लखे, तुम पद-प्रम्ब॒ज के माई । निर्मल जलको धार देहु, श्रवशेष कररा ताई ॥ सिद्ध ० ॥ 3* हों चतुःषष्ठिगुणसहित श्री सिद्धपरमेष्ठिने जन्मजरारोगविना- शनाय जल ॥१!। तुम पद भ्रम्बुज वास लेन सनु, चन्दन सन साई। निजसों गुणाधपिक्य संगतिको, लहि सन हर्षाई ॥ सिद्ध ० ॥ 3» हों चतु.षष्ठिगुणसहित थ्रो सिद्धपरमेष्ठिने संसारतापविनाश- नाय चंदन ० ॥३२)। क्षोरण धान सुवासित नीरज, करसों छरलाई। प्रंगुलसे तंदुलसों पुजत, श्रक्षय पद पाई ॥ सिद्ध ० ॥ |. $% हों चतुःषष्ठिगुरासहित श्रीसिद्धपरसेथ्ठिने अ्रक्षयपदश्राप्तये प्रक्षत० ॥॥३॥। धूलिसार छवि हरण विर्वाजत, फूलमाल लाईं। कामशूल निरमूल करराकों, पूजहूं तुम पाई ॥ सिद्ध० ॥ , ३ हों चतु:षाष्ठ गुशसहित श्रीसिद्धपरमेष्ठिनि कामवाशाविनाशनाय पुष्पं ॥४॥ भूखा गार श्रक्षीए। रसो हूं, पूरति है नाई। चरुलाय तुम॒ पद पूजत हों, पुरन शिवराई ॥ सिद्ध० ॥ $ हीं चतुःषष्ठिगुएसहित श्रोसिद्धपरसेष्ठिने क्षुघारोगविनाशनायथ नेवेद्यं० ॥५॥ है दीपनि प्रति तुम पद नित पूजत, शिवमारण दरशाई । घोर अ्रंध संसार हरण की, भलो सूझ पाई ॥ सिद्ध ० ॥ . हुं चतुःषष्ठिगुरा/सहित शोसिद्धपरमेष्ठिने मोहांधका र वन/शनाय दीपं० ॥६॥ शर्तु्ष पूणा ] | २५ कृष्णागर कर्पूर पुर घट, श्रगनोी से प्रजलाई । उरू धरम यह, उड़े किधों जर करमत को छाई ॥ सिद्ध ० ॥ 5» हीं चतु:षष्ठिगुरसहित श्रीस्िद्धपरमेष्ठिने भ्रष्टकर्मदहनाय घृप॑० ॥७॥। सधुर मनोग सु प्रासुक फलसों, पूजों शिवराई। यथायोग विधि फलको दे गुण, फलकी श्रधिकाई ॥ सिद्ध ० ॥ 55 ह्रीं चतुःषष्ठिगुरासहित-भ्रीसिद्धपरमेट्ठिते मोक्षफलप्राप्तये फलं ० ॥५॥। निरघ उपावन पावन वसुविधि, श्र हष॑ ठाई। भेंट धरत तुम ,पद में, पाऊं पद निर-श्राकुलताई॥ सिद्ध० ॥ 3» ह्वीं चतु:घध्ठिगुणसहित-श्री सिद्धपरसेष्ठिने सर्वेसुखप्राप्तये भ्रध्यं ० ॥६ गोता छन्द निर्मल सलिल शुभ वास चन्दन, धवल श्रक्षत युत श्रनी । शुभ पुष्प मधुकर नित रमें चरु, प्रचुर स्वाद सुविधि घनी ॥ बर दीप माल उजाल ध्रपायन, रसायन फल भले। करि श्रघं सिद्ध-समूह पुजत, कमंदल सब दलमले ॥१॥ ते क्रमाव्तं नसाय युगपत, ज्ञान निर्मल रूप हैं, दूख जन्म टाल श्रपार गुर, सुक्षम स्वरूप श्रन्प हैं । कमष्टि बिन त्रेलोक्य पुज्य, भ्रदूज शिव कमलापती, मुनि ध्येय सेय श्रमेय, चहुं गुरा गेह, थो हम शुभमती ॥२॥ ३» हीं प्रहेतजिनादिसिद्धेम्यो नम: पुराध्य। अथ चौसठ गुण अधघ्य॑ (चाल श्रलोचना पाठ) चउ घातो कर्म नज्ञायो, अ्रहंत परम पद पायो। हैं धर्म कह्यो सुखकारा, नमूं सिद्ध भए श्रविकारा ॥ १॥ 3# हों भ्ररहुंत-जिनसिद्धेम्यो नम: प्रध्यं० । २६ ] [ सिद्षपक्/विंधाति संक्लेश भाव परिहारी, भए श्रमल अ्रवधि बलधारी । सो श्रतिशय केवलज्ञाना, उपजाय लियो शिवथाना ॥२॥ # हीं श्रवधिजिनधिद्धेम्यो नमः भ्रध्यँ० । निर्मल चारित्र समारा, परमावधि पटल उधारा। केवल पायो तिस कारण, नम सिद्ध भये जग तारण ॥३१ 3७ ह्लीं परभावधिनिन सिद्धें म्यो नमः अध्यें ० । वद्धमान विशद परिणामी, सर्वावधि के हो स्वामी । प्रन्तिस बसुकर्स नसाया, नम्‌' सिद्ध भये सुखदाया ॥४॥ 5» ह्रीं सर्वावधिजिनसिद्धेभ्यों नमः भ्रध्यें० । जिस श्रन्त श्रवधि को नाहों, तुम उपजायो पद ताहीं । निर्मल श्रवधी गुणधारी, सब सिद्ध नम सुखकारी ॥५॥ 3 ह्वीं प्रनन्तावधिजिनसिद्ध म्यो नमः भ्रध्यं० । तप बल महिमा श्रधिकाई, बुद्धि कोष्ठ रिद्धि उपजाई। श्रुत ज्ञान कोष्ठ भंडारो, नम सिद्ध भये श्रविकारी ॥६॥ 3 ह्वीं कोष्ठबुद्धऋट्धि सिद्ध भ्थो नमः अ्ध्य० । ज्यों बीज फले बहुरासो, त्यों छिनही बहु श्रम्यासी । यह पावत हो योगीज्ञा, भये सिद्ध नम शिव ईशा ॥७॥ * हीं बीजदृद्धि ऋद्धिसिद्ध भ्यो नम: श्रध्य॑० । पदमात्र समस्त चितारे, है रिधि यह पद श्रनुसारे। यह पाय यतीह्वर ज्ञानो, भये सिद्ध नयू' शिवथानों ॥४७ $* हीं पादानुसारिरिफऋ:द्धिसिद्धे सो नम: भ्रध्यं० । जो मिन्‍न-भिन्‍न इक लारे, दाब्दन सुन अर्थ बिचारें। यह ऋद्धि पाय सुखदाता, नम्‌' सिद्ध भये जगन्नाता ॥६॥ ४+ हीं संनिन्‍नसंभोतृऋद्धिसिद्ध स्यो नमः भ्रध्यं ० । शर्तुर्थ पूजा | [ २७ सति श्रत श्र श्रवधि भ्रनूपा, बिन गुरुके सहज सरूपा। भये स्वयंबुद्ध निज ज्ञानों, नमू सिद्ध भये सुखदानी ॥॥१०७ ३» हीं स्वयंबु््ध स्पो नमः श्रघ्य॑० । जो पाय न पर उपदेदा, जाने तप ज्ञान विशेषा । प्रत्येकबुद्ध गुण धारो, भये सिद्ध नम हितकारी ॥११॥ 3 हीं प्रत्येकबुद्ध-छद्धिसिद्ध मयो नमः श्रध्य॑० । गणधर से समकित धारो, तुम विव्यध्वनि प्रनुसारी । ज्ञानिनि सिरताज कहाये, भये सिद्ध सुजस हम गाये ॥१२॥। ३ ह्वीं बोधितबुद्ध भ्यो नम: श्रध्य ० । समन योग सरलता धारं, तिस श्रन्तर भेद उधार। जो होय ऋजुमति ज्ञानी, नम सिद्ध भये सुखदानो ॥१३॥। # हों ऋज्ञुमति-ऋद्धिसिद्ध भ्यो नमः भ्रध्य ० । बांके मन की सब बाता, जाने सो बिपुल कहाता। तुम पाय भये शिवधासों, नम्र॒ सिद्धराज अभ्रभिरामी ॥१४।॥ 3» ह्रीं विपुलमति-ऋद्धिसिद्ध भ्यो नमः अ्रध्य ० । सुर-विद्या को नहीं चाहैं, निज चारित विरद निवाहैं । दस पु ऋद्धि यह पायो, भये सिद्ध सुनिन गुण गायों ॥१५॥ 5 ह्वीं दशपुव ऋद्धिसिद्ध भ्यो नमः श्रष्य ० । चौदह पूरव श्रुतज्ञानोा, जाने परोक्ष परमानी। प्रत्यक्ष लखो तिस सारूं, भये सिद्ध हरो श्रध म्हारू ॥१६॥ ३» हीं चोवहपुर्व-ऋद्धिसिद्ध भयो नमः भ्रध्य ० । सुन्दरी ज्योतिषादिक लक्षण जानक शुभ अ्रशुभ फल कहुत बखानिक। निर्मित ऋडद्धि प्रभाव न भ्रन्यथा, होय सिद्ध भये प्रणम्‌ं यथा ॥ १७ # हीं प्रष्टांगनिमित्त-ऋद्धिसिद्ध सथो नम: प्रध्य ० । रच] [ लिद्चक्त विधाने बहु विधि श्ररिमादिक ऋद्धि जू, तप प्रभाव भई तिन सिद्धिज्ू । निष्प्रयोजन निजपद लोन हैं, तमूँ सिद्ध भये स्वाधीन हैं ॥१८ &# ह्रीं विवर-ऋद्धिसिद्ध म्यो नम: भ्रध्य ० । भू जल जंतु जिय ना हर, नमूं ते मुनि शिव कासिनि वरे। नेकु नहीं बाधा परिहार हो, नमूं सिद्ध सभी सुखकार हो ॥१६ ३ ह्वीं विज्जाहुरण-ऋद्ध सिद्धेभ्यो नमः अष्य ० । जंघ पर दो हाथ लगावहों, ञ्रन्तरोक्ष पवनवत जावहीं । पाय ऋद्धि महाम्ुनि चारणो, यथायोग्य विशुद्ध विहारणी ॥२० 3* हीं चारए-ऋद्धिसिद्ध भ्यो तमः अ्रध्य ० । खग समान चले आकाद में, लीन नित निज धर्म प्रकाश में । शुद्ध चारण करि निज सिद्धता, पाइयो हम नमन करें यथा ॥२१ 3* हीं श्राकाशगामिनि-ऋद्धिसिद्ध स्थो नमः श्रध्य॑० । वाद विद्या फुरत प्रमानही, वत्लसम परमतगिरि हानही। सब कुपक्षी दोष प्रगट करें, स्थादवाद महादुतिकों धर ॥२२ 5* हीं परामर्श-ऋद्धिसिद्ध मयो नमः भ्रघ्यं० । विषम जहर मिला भोजन करें, लत ग्रार्साह तिस शक्तो हर। ते महाम्‌नि जग सुखदाय जू, हम नमें तिन शिवपद पाय कु ॥२३ ३० ह्रीं श्राश्षी विष-ऋद्धि सिद्ध सथो नमः श्रध्यं०। जो महाविष भ्रति परचण्ड हो, दृष्टि करि तिन कीने खण्ड हो। सो यतीह्वर कम विडारक, भये सिद्ध नम उर धारक ॥२४ 3 हों हृष्टिविषं विष-ऋद्धिसिद्ध स्यो तम: भ्रध्य॑ं० । प्रनश्नादिक नित प्रति साधना, मरणाकाल तईं न विराधना। उप्र तप करि वकुविधि नासत, हम नमें शिवलोक प्रकाशते ॥ २५ 3* हों उप्रतप-ऋद्धि सिद्ध सयो नम: श्रध्य॑० । बढ़ति नित प्रति सहज प्रभावना, उग्र तप करि क्लेश न पावना। दीप्ति तप करि कर्म जरायके, भये सिद्ध नमू' सिर नायकें ॥२ # हीं दीप्ततप-ऋद्धिसिद्ध स्यो नमः श्रध्य॑० । चतुर्थ पूजा ] [ २६ श्रन्‍्तराय भये उत्सव बढ़े, बाल चन्द्र समान कला चढ़े । वृद्ध तपकी ऋद्धि लहैं यतोी, मये सिद्ध नमत सुख हो श्रती ॥२७ ३* हीं तपोवद्धि-ऋद्धिसिद्ध मपो नमः भ्रध्यं० । सिहक़ीडित श्रादि विधानतें, नित बढ़ावत तप विधि हानतें । महामुनीदवर तप परकाशतें नम मुक्त भये जगवासतें ॥२८ उ* हीं महातपो-ऋद्धिसिद्धेम्यो नमः भ्रघ्ये० । शिखर-गिरि प्रीषम,हिस सर-तटें, तरु निकट पावस निजपद रटें। घोर परिषह करि नाहीं हटें,भये सिद्ध ननत हम दुख कटें ॥२६ उ& हीं घोरतपो-ऋद्धिसिद्धे म्यो नमः श्रष्यं० । महाभयकर निमित मिले जहां, निरविकार यती तिष्ठे तहां । महापराक्रम गुणकी खान हैं, नमो सिद्ध जगत सुखदान हैं ।॥३० 3 ह्वीं घोरगुण-ऋद्धिसिद्धे म्यो नमः श्रध्यं० । सघन गुणकी रास महा यती, रत्नराशि समान दिपे श्रति । शेष जिन वर्शान करि थकि रहै, नमूं सिद्ध महापदको लहै ॥३१ 3» हीं घोरगुणपरिक्रमाणं-ऋद्धिधिद्धे भ्यो नमः श्रध्यं० । ब्रतुल बीयं धनो हन कामको, चलत मन न लखत सुर वाम को । बालब्रह्मचारी योगीहवरा, नमूं सिद्ध भये वसुविधि हरा ॥३२ ३ हों ब्रह्मचयं-ऋद्धिसिद्धे मयो नमः श्रध्यं० । सकल रोग मिटें संस्पर्शते, महा यतीश्वर के प्रार्मर्शते । श्रौषधी यह ऋद्धि प्रभावना, भये सिद्ध नमत सुख पावता ७३२ # हुं भ्रामषंऋद्धि सिद्धेम्यों नसः अ्रध्यें० । मृत्रमें ग्रमृत अतिशय बसे, जा परसतें सब व्याधी नस । झ्रौषधी यह ऋद्धि प्रभावना, भये सिद्धि नमत सुल्ल पावना ॥३४ $* हों प्रामोसिय-प्रोषधि-ऋद्धि सिद्धेभ्यो नमः भ्रध्यं० । ३० ] [ लिद्चक विधान तन पसीजत जल-करण लगतही, रोग व्याधि स्व जन भगतही । प्रौषधी यह ऋद्धि प्रभावना, भये सिद्ध नमत सुख पावना ॥३५ $% हों जलोसियऋद्धि सिद्धे्थो तमः भ्रध्यं० । हस्त पादादिक नखकेश में, स्व श्रौषधि हैं सब देशसें । झ्योषधी यह ऋद्धि प्रभावना, भये सिद्ध नमत सुख पावना ॥३६ 5 हीं सर्वोसियऋद्धि सिड्धे म्यो नमः श्रष्य॑० । अ्रडिल्ल मन सम्बन्धी वोय बढ़े प्रतिशय महा एक महूरत श्रन्तर श्रुत चितवन लहा । मनोबलो यह ऋद्धि भई सुखदाइ जू भये सिद्ध सुखदाय जज तिन पांय जू ॥३७॥ & ह्वीं मनोबलो-ऋद्धि सिद्धे भयों नमः प्रध्य॑० । भिन्‍न-भिन्‍न अ्रति शुद्ध उच्च स्व॒र॒ उच्चरें, एक मुहरत-प्रन्तर श्रूत वर्णन करे। बचनबली यह ऋषद्धि भई सुखदाय जू, भये सिद्ध सुखदाय जजूं तिन पांय जू ॥३८॥ 3 ह्रीं बचनबली-ऋद्धि सिद्धेभ्यों नम: श्रध्य॑० । खड़गासन इक श्रंग मास हंमासलों अचलरू प थिर रहें छिनक खेदित न हो। कायबलो यह ऋद्धि भई सुखदाय जू, भये सिद्ध सुखदाय जजों तिन पांय जू ॥३९॥ ३» हों कायबलो-ऋष्धि सिद्धे भ्यो तम: प्रध्यं० । भ्रति श्ररस चरु क्षोर होय कर धरत ही, प्रचन खिरत पर-अवरा तुष्टता करत हो । चतुर्थ पूजा ] [३१ क्षीरश्रावि यह रिद्धिभई सुखदाय जू, भये सिद्ध सुखदाय जजूं तिन पॉय जूं ॥॥४०॥ ३ हों क्षोरक्रावो-ऋद्धि सिद्धे भ्यो नम: श्रघ्यें० । रूखे भोजनसे कर में घृतरस श्रवे, बचन सुनत परको घृतसम स्वादित हव॑ । सरपितश्रावि यह रिद्धि भई सुखदाय जू, भये सिद्ध सुखदाय जजू तिन पांय जू ॥४१॥ 3& हीं सपिश्नावी-ऋद्धि सिद्धे भ्यो नम: श्रष्यं० । हस्तकमलमें श्रन्न मधूर रस देत है, सधुकर सम जिय वचन गंधको लेत है। मधुश्रावी यह रिद्धिभई सुखदाय जू, भये सिद्ध सुखदाय जजू' लिन पांय जू ॥४२॥ 3 हों मधुस्नावी-ऋद्धि सिद्धे भ्यो नमः श्रष्ये ० । श्रमृत सम भ्राह्दार होय कर श्रायके, वचनासृत दे सुक्ख श्रवणसें जायके । ग्रामियरस यह रिद्धि भई सूखदाय जू, भये सिद्ध सुखदाय जजू्‌ तिन पांय जू ॥४०॥ 3* हीं प्रामियरसऋद्धिसिद्धे भ्यो नमः भ्रच्यें० । जिस बासन जिस थान आहार कर यती, चक्रो सेना खाय श्रख होवे श्रतों। प्रक्षोणएसी यह रिद्धि भई सुखदाय जू, भये सिद्ध सुखदाय जजू तिन पांय जू ॥४४॥ उ* हों प्रक्षीण रस-ऋद्धि सिद्धेम्यो नम: प्रघ्ये० । ३२ ] [ सिद्धचक् विधास सोरठा सिद्धरास सुखदाय, वर्धभान नितप्रति लसे । नम्‌ ताहि सिर नाथ, बुद्ध रूप गुण श्रगम है ॥४५॥ &# हों बड़ढमारा सिद्धेम्पो नमः प्रध्यं० । रागादिक परिणाम, श्रन्तरके श्ररि नाशके । लहि प्ररहंत सु नाम, नमों सिद्ध पद पाइया ॥४६॥ 3 हों भ्ररहन्तसिद्धेभ्यो नमः अध्यं० । दो भ्रन्तिम गुराथान, भाव-सिद्ध इस लोक सें । तथा द्रव्य-शिवथान, स्व सिद्ध प्रसम्‌' सदा ॥४७॥। 3% हों जमो लोए सर्वसिद्धेभ्यो नमः अध्यें० । वात्रु व्याधि भय नाहि, महावोर धोरज धनो। नम्‌' सिद्ध जिननाह, संतनिके भवभय हरे ॥॥४८॥ 3& हीं भगषते सहावीरवड्ढमाणाय नमः ग्रध्य॑० । क्षपकश्न रिए ग्रारढ़, निजभावी योगी तथा । निदचय दर्श श्रम॒ढ़, सिद्ध योग सब ही जजों ॥४६॥ $% को रामो योगसिद्धाय नमः भ्रध्यं० । बीतराग परधान, ध्यान करें तिनको सदा । सोई ध्येय महान, रामो सिद्ध हम श्रघ हरो ॥५०॥ ३* हों ध्येय सिद्धारयं नमः भ्रध्य॑० । लोक शिखर शिव थान, भ्रचल विराजत सिद्ध जन । लोकवास सर्वाने, भये सिद्ध प्रसम' सदा ४५१ ३& हों समो तव्यसिद्धारं नमः श्रध्ये० । ध्रोरत करत कल्पारा, श्राप स्व कल्याणमय । सोई सिद्ध महान, मंगलहेतु नम सदा ॥५२॥ $* हो णमो स्वस्तिसिद्धारां नम: भ्रध्यं० । खतुर्ण पूजा ] [ ३३ तीन लोक के पूज, सर्वोत्तम सुखदाय हैं। जिन सम श्रौर न दूज, तिनपद पूजों भावयुत ॥५३॥। ऊ हीं प्रहे सिद्धाणं नमः प्रध्य॑० । लोकोत्तम परधान, तिन पद पुूजत हैं सदा । तातें सिद्ध महान, सर्व पूज्य के पूज्य हो ॥५४॥ 35 हीं भ्रह सिड्डसिद्धाएं नमः प्रध्यं० । परम धरम निज साध, परमातस पद पाइयो । सोई धर्म - श्रबाध, पुजत हमको दोजिये ॥५५॥ उ> ही परसात्मसिद्धारएं नस: श्रघ्ये० । सर्व रिद्धि नव निद्ध, सिद्ध मये नह सिद्ध हो। निजपद साधत सिद्ध, होत सही तिनको नमो ॥५६॥ 5 हों परमसिद्धाणं नमः भ्रध्यं० । प्रमागसकी शाख, परम श्रगम गुणणमण सहित । सोई मनमें राख, श्रद्धायुत पूजा करो ॥४७॥ 3 हीं परमागमसिद्धारं नमः भ्रध्यें० । गुरा श्रनंत परकाश, सहा विभवसय लसत है । ग्रावरित पद नाहा, ते पूजू प्रस्म्‌' सदा ॥५८॥ ऊ हुं प्रकाशमानसिद्धारं नमः श्रघ्यं । स्वयं सिद्ध भगवान, ज्ञानसृुत परकाशमय । लसत नम्‌ मन श्रात, सम उर चिता दुख हरो ५६९७ 3» हों णमो स्वयंभूसिद्धाय नमः अ्रष्ये० । मन इन्द्रियसों भिन्न, मन इन्द्री परकाश कर । सोई ब्रह्म श्रशिन्न, साधित सिद्ध भये नम ॥६०७ 3» ह्लीं णमोम्रह्म 7 द्धाय नमः अध्यं० । द्रव्य अ्रनन्‍्त गुणात्म, परणामी परसिद्ध के । सोई पद निज-आत्म, साधत सिद्ध अनन्त गुण ॥६१॥ %# ह्रीं जमो भ्रनन्तगुरासिद्धाय नम: श्रध्यें० । ३४ ] [ सिद्धचक्र विधान सर्व तत्वमय पमं, गुण श्रनंत परमातमा। सो पायो निजधर्म, परण सिद्ध तिनको नम्‌ ॥६२॥ ३» ह्वीं रमो परमानन्तसिद्धाय नम: श्रध्यं० । लोक शिखर के वास, पायो श्रविचल थान निज । सर्व लोक परकादह, ज्ञानज्योति तिनको नम्तों ॥६३॥॥ & ह्लों लोकाग्रवासिसिद्धाय नम: श्रध्यं० । काल विभाग श्रनादि, शास्वत्‌ रूप विराजते। यातें नहिं सो श्रादि, नमि अनादि सिद्धान को ॥६४॥ हों णमो श्रनादिसिद्धाय नमः श्रष्यं ० । सिद्धन के जु भ्रनन्त गुण, कहि न सके गणाराय । तिन सिद्धनको मैं जजू, प्रण श्रधं चढ़ाय ॥ ३* हीं श्रनन्‍्त गुणात्मक सिद्धं परमेष्ठि नम: अर्घ्य ० । अथ जयमाल दोहा तोथंकर त्रिभुवन धनो, जापद करत प्रणाम । हम किह मुख वर्णन करें, तिन महिमा झ्रभिराम ॥ १॥ चौपाई जय भवि-कुमुदन मोदन चंदा, जय दिननद त्रिभुवन श्ररविदा । भव-तप-हरण शरण रस-कुृपा,मद ज्वर जरन हररण घनरूपा ॥२ प्रकथित महिमा अमित श्रथाई, निर-उपभेय सरसता नाई । भावलिग बिन कर्म खिपाई द्रव्यलिंग बिन शिव पद पाई ॥ ३ नय विभाग बिन वस्तु प्रमाणा, दया भाव बिन निज कल्याणा । पंगु सुमेर चुलिका परसे, गुंग गान आ्रारस्भे स्वर से ॥४ चतुर्थ पूजा ] [ ३४ यों श्रजोग कारज नहीं होई, तुम गुर कथन कठिन है सोई । सर्व जेन-शासन जिनमाहीं, भाग श्रनन्त धर तुम नाहों ॥५ गोखर में नहिं सिधु समावे, वायस लोक श्रन्त नहीं पाव । तातें केवल मक्ति भाव तुम, पावन करो श्रपावन उर हम ॥६ जे तुम यश निज मुख उच्चारे, ते तिहुँ लोक सुजस विस्तार । तुम गुणगान मात्र कर प्रानी, पावे सुगुर महा सुखदानी ॥७ जिन चित ध्यान सलिल तुम धारा, ते मुनि तोरथ है निरधारा । तुम्॒ गुणा हंस तुम्हीं सरवासो, वचन जाल में लेत न फांसी ॥८ जगत बंधु गुणसिध्‌ दयानिधि, बोजमृत कल्यारा सवंसिधि। अ्रक्षय शिव-स्वरूप श्रिय स्वामी, पुरण निजानन्द विश्रामी ॥& शरणागत सर्वस्व सुहितकर, जन्म सरण दुख आधि-व्याधि हर । 'संत भक्ति तुम हो भ्रनु रागी, निशचे भ्रजर भ्रमर पद मागी ॥ १० 3 ह्वी चतुःबष्ठिदलोप रिस्थितसिद्धे भ्यो नमः महाध्ये ० । घृतानन्द जय जय सृखसाग र, सुजस उजागर ,गुरणगरा) श्रागर, तारण हो । जय संत उधाररा, विपति विडारण,सुख विस्तारण, कारण हो ॥ तुम गुरुगान परम फलदान, सो मंत्र प्रमान विधान करूँ । जहूरी कर्मनि बरी की कहरी, श्रसहरी भवकी व्याधि हरूं ॥ ॥ इत्याशीर्वाद: ॥ यहाँ १०८ बार 'उ& हों भ्रहें झ्नसि झा उ सा नमः मंत्र का जाप करना चाहिए । फपक पंचम पूजा (एक सौ अट्ठाईस गृण सहित) छ्प्पय अरध श्रधों सुरेफ सविदु हकार विराजे। ग्रकारादि स्वर लिप्त करिका श्रन्त सु छाज 0 वग्गंनिपुरित वसुदल भ्रम्बुज तत्व संधिधर । श्रग्रभागमें मंत्र श्रगाहत सोहत अतिवर ॥ पुनि भ्रस्त हीं बेदयो परम, सर ध्यावत श्ररि नागको । ह्वं केहरि सम पूजन निमित, सिद्धाचक्त मंगल करो ॥१॥ 5 हीं रमो सिद्धारां भ्रष्टाविशत्यधिक शत--(१२८)ग्रणस हितबिराज- मान श्रो सिद्धपरमेष्ठिन्‌ अत्रावतरावतर संवोषद श्राह्माननम्‌, श्रत्र॒ तिष्ठ तिष्ठ 5: ठ: स्थापतम्‌। भत्र सम सस्निहितो सब शव वषट्‌ सन्तिधिक रणाम्‌ । दोहा सुक्ष्मादि गुण सहित हैं, कम रहित नौरोग। सिद्धचक्त सो थापहूं, मिटे उपद्रव योग ।॥॥ इति यंत्र स्थापनाथ पृष्पांजाल क्षिपेत्‌ । अथाष्टक (घाल बारहमासा छन्द) चन्द्रवर्ण लखि चन्द्रकांतमर्ण, मनतें श्रवे हुलसधारा हो । कंज सुवासित प्रासक जलसों, पूजु' अ्रंतर श्रनुसारा हो ॥ लोकाधीश श्ञीश् चूड़ामणि, सिद्धचरण उरधारा हो। चौसठि दुगुरा सुगुरा मरित सुवरण सुमिरत हो मवपारा हो ॥१७ 5 हो णमो सिद्धार्ण श्रोप्तिउपरमेष्ठिने अष्टर्विवार्त्या' ह ५ के बा घकशतगुण- सयुक्ताय जन्मजरारोगविनाशनाय जल निर्वेप' मीति स्वाहा ॥ १॥। पंचम पूणा ] [ ३७ सुरगर सश्धिर जास वास लहि, सद तजि गंध लुभावत हैं । सो चंदन नंदनवन भूषरप, तुम पदकमल चढ़ावत हैं॥ लोकाधीश शीश चूड़ामरि, सिद्धाचक्त उरधारा हो। चॉसठि दुगरा सुगुरा मरिप सुवरन, सुमरत ही भवपारा हो ॥ ॥लोका ०१। 3 हों णमो सिद्धारं श्रोसिद्धपरमेष्ठिने भ्रष्टविशत्यधिकशतगुरण- संयुक्ताय संसारतापबिना शनाय चन्दन ॥२॥॥ चंपक ही के भ्रम भ्रमरावलि, भ्रमत चकित चकराज भए । शशि मण्डल जानो सो श्रक्षत, पुजधार पद कंज नये ॥लोका०॥॥ 3 ह्वों रामो सिद्धारं श्रोतिद्धपरसेष्ठने श्रष्टविशत्यधिकशतगुण- सहिताय श्रक्षयपदश्राप्तये भ्रक्षत॑ ० ॥३॥ मदन वदन दुतिहरन वरन रति, लोचन अलिगरा छाय रहे । पुष्पमाल वासित विज्ञा । सो, भेंट धरत उर काम दहे ॥लोका० 3» ह्वीं रमो सिद्धाणं भ्रोतिद्धपरमेष्ठने भ्रष्टविशत्यधिक ३ तगुण- संपुक्ताय क.सवाण विनाशनाय पुष्प॑ ० ॥४॥ चितवन मन, वरणत रसना, रस स्वाद लेत हो तृप्त थये । जन्मातर हूं को छुधा निवारे, सो नेवज तुस भेंट धरे ॥लोका० ३> ही रमो द्वाणं श्रोसिधपरमेष्ठिने अ्रष्टविशत्यधिकशतगुर/त- सहिताय क्षुधारोग विनाशनाय नेबेथं० ।५॥॥ लबमणिप्रभा अनुपम सुर निज शोश् धरणकी रास कर। या बिन तुच्छु विभव निज जानें, सो दीपक तुम भेंट घरें ॥लोका० 5 हों रामो सिद्धाणं श्रीसिद्धपरष्ठिने भ्रष्टविशत्यधिकशतगुण- संयुक्ताय मोहांघका रविना उनाय दीप ० ॥ ९॥। निलंजसा सुरो नभमें ज्यों, ऋषभ मक्ति कर नृत्य कियो । सो तुस सन्मुख ध्रृप उड़ाबत, तिस छविको नहों भाव लियो ॥लोका ० 3+ हीं शमो सिद्धाणं शोसिडपरमेष्ठिने भ्रष्टविद्वत्यघिकशतगुण- संयुक्ताय अ्रष्टकर्सदहनाय धूप ० ३७॥॥ शैष ] [ सिद्धाचक्र विभाग सेव रंगीले श्रनार रसीले, केलाकी ले डाल फली । डालो हू नुपमालो हूँ, नातर प्रासुकताका रीति भली ॥ लोकाधीश शीश चूड़ामणि, सिद्धचक्त उरधारा हो। चौंसठि दुगुणा सुगुरा मरिग सुवरन सुमिरित ही भवपारा हो ॥ ॥लोका ०१ 5» ह्लीं गमो सिद्धाणं श्रोसिद्धपरमेष्ठिने भ्रष्टवशत्यधिकशतगुरण- संयुक्ताय मोक्षफलप्राप्तये फलं० ॥८।। एकसे एक श्रधिक सोहत वसु-जाति श्रधं करि चररा नम्‌ । श्रानंद श्रारति प्रारत तजिक, परमारथ हित कुमति बमूं ॥लोका ०१ ३* हीं णमो सिद्धाणं श्रोसिद्धपरमेष्ठिने श्रष्टावशत्यधिकशतगुरा- सयुक्ताय अनध्यंपदप्राप्तये श्रध्यं ० ॥॥६॥ गीता निर्मेल सलिल शुभ वास चन्दन, धवल श्रक्षत युत श्रनी, शुभ पुष्प मधुकर नित रमें, चरु प्रचुर स्वाद सुविधि घनी । वर दोपसमाल उजाल धृपायन रसायन फल भले, करि अ्रघं सिद्ध-समूहू पुजत, कम सब दलमले |, ते क्रमावत नसाय युगपत्त, ज्ञान निर्मल रूप हैं, कर्माष्ट बन अलोक्य पुज्य, भ्रदूज शिव कमलापति, मुनि ध्येय संय अ्रमेय, चहुं गुणा गेह, द्यो हम शुभसति ॥ उ> हीं भ्रष्टाविशति भ्रधिकशतगुणयुक्तसिद्धे भ्यो नम: पूर्णाघ्यं ० ॥१०॥। एक सो अट्ठाईस गुण सहित अध्य॑ त्रोटक निरबाध सु तत्व सरूप लखो, इक लेश विशेष न शेष रखो । प्रति शुद्ध सुभाविक छायक है, नम्‌' दर्श महासुखदायक है ॥१॥ $* हीं सम्यग्दशनाय नमः भ्रध्य॑०। पंथम पूजा | [ ३६ निरमोह भ्रकोह अ्रबवाधित हो, परमाव थकी न विराधित हो । निरभ्रंस चराचर जानत हैं, हम सिद्ध सु ज्ञान प्रमानत है ७२॥ 5» हों सभ्यग्जञानाय नमः अ्रध्य ० । सब राग-विरोध निवारन है, तिज माव थकी निज धारन है । परमें न कबहू निज भाव वहै, भ्रति सम्यक्चा रित्र नाम यहै ॥३॥ ४» ह्वीं सम्यक्चारित्राय नमः भ्रध्य ० । उतपाद विनाश न बाघ धरे, परताम सुमाव नहों निसर । तुम धारत हो यह धर्म महा, हम पृजत हैं पद ज्ञोश यहाँ ॥४॥॥ ३» हीं प्रस्तित्वर्माय नमः भ्रध्य ० । निज भावनतें व्यतिरिक्त न हो, प्रणमों गुरारूप गुणात्मन हो। यह वस्तु सुभाव सदा विलसो, हम पुजत हैं सब पाप नसो ॥५॥ # ह्वीं वस्तुत्वधर्माय नमः शभ्रध्यं० । परमार न जानत हैं तिनको, छिन रोग न श्रावत है जिनकों । श्रप्रमेय महागरुण धारत हैं, हम पुजत पाप बिडारत हैं ॥६॥ ३» हीं भ्रप्रमेयर्माय नमः भ्रध्य । गुणपज्ं प्रमाण दसानित ही, निजरूप न छांड़त हैं कित ही । जिन वन प्रमाण सु धारत हैं, हम पूजत पाप विडारत हैं ॥७॥॥ $ हीं प्रगुरलघुधघर्मायनम: भ्रध्य । जितने कछु हैं परिणाम विष, सब चित्त स्वरूप सुजान तिसे। मुख चेतनता गुण धारत हैं, हम पुजत पाप बिडारत हैं ॥८॥ # हों चेतनत्वधर्माय नमः श्रध्य । जिन श्रंग उपंग शरोर नहीं, जिन रंग प्रसंग सु तीर नहीं । नभसार अ्रमुरति धारत हैं, हम पूजत पाप विडारत हैं ॥६॥ 5» ह्लीं भ्रमुतित्वधर्माय नमः अ्रध्य ० । परको न कदाचित धर्म गहेँ, निजधर्म स्वरूप न छांड़त हैं । भ्रति उत्तम धर्म सु धारत हैं, हम पूजत पाप विडारत हैं ॥१०॥ # हीं समकितघर्माय नमः भ्रष्य ० । | [ सिद्धचक्र विधान जितने कछ हैं परिणाम विष, सब ज्ञान स्वरूप सु जान तिसे। सुख-ज्ञानमई गुण धारत हैं, हम पूजत पाप विडारत हैं ॥११॥ # हीं शञानधर्माय नमः भ्रध्य ० । बिन्सय चिन्म्रति जीव सही, श्रति पुरणता बिन भेद कही । निज जीव सुमाव सु धारत हैं, हम पूजत पाप विडारत हैं ॥१२॥ क हीं जोव्धर्माय नमः अ्ध्य ० । सनको नह बेग लखावत हैं, जिस बिन नहीं बतलावत हैं । प्रति सुक्षष भाव सु घारत हैं, हम पूजत पाप बिडारत हें ॥१३४ ४ ह्रीं सुक्ष्मधर्साय नमः श्रध्य ० । परघात न श्राप व घात कर, इक खेत समूह भ्रनन्त वरें। प्रवगाह सरूप सु धारत हैँ, हम पूजत पाप विडारत हें ॥१४॥ ४* हों श्ररगाह॒धर्माय नमः श्रध्य ० । श्रविनाश सुभाव विराजत हें, बिन बाध स्वरूप सु छाजत हैं। यह धर्म महागुण धारत हैं, हम पूजत पाप विडारत हें ॥१४॥ ३४ ह्रीं प्रव्याब,घधर्माय नमः भ्रष्यें० । निजसों निजको श्रनुभूति करें, अपनों परसिद्ध सुभाव बरें। निज ज्ञान प्रतीति सु धारत हैं, हम पूजत पाप विडारत हैं ॥१६॥ ३* ह्लीं स्वसंवेदनलानाय नमः अध्ये० | निज ज्योति स्वरूप उद्योतमई, तिसमें परदीप्त रहें नित ही । यह ताप स्वरूप उधारत हैं, हम पूजत पाप बिडारत हैं ॥१७॥ ३० हो स्वरूपतापतपसे नमः अ्रध्यं० । निजश्नंत चतुश्य राजत हैं, दृग ज्ञान बला सुख छाजत हैं । यह श्राप महागुरा धारत हैं, हम पजत पाप बिडारत है ॥१५॥ ३» हों प्रनन्‍्तचतुष्टयाय नम: अध्यं० । पंश्चम पृथा ] [ ४१ सुख समकित श्रादि महागुरा को, तुम साधित सिद्ध भये प्रबहो । यह उत्तम भाव सुधारत हैं, हम पूजत पाप विडारत हैं ॥१६॥ उ* हीं सम्यकत्वाविगुणात्मकरसिद्धेभ्यो तम: प्रध्यं० । दोहा निशचय पंचाचार सब, भंद रहित तुम साथ । चेतनकी श्रति शक्तिमें, सुचत सब निरबाध ॥२०॥ 5 हो पंचाचाराचारेम्यो नमः भ्रध्यं० । चौपाई सब विकलप तजि भेद स्वरू रो, निज श्रनभूतिसर्न चिद्रपी । निईचय रत्नत्रय परकासो, पूजूं भाव भेद हम नासो ॥२१॥ ३* हीं रत्नत्रयप्रकाशाय नमः श्रध्य॑ ० । करण भेद रत्नत्रय धारी, कर्म भेद निज-भाव संवारो। करता भेद श्राप परणामो, भेदाभेद रूप प्रणमामी ॥२२॥। 5» हीं स्वस्वरूपसाधकसर्वंसाधुभ्यो नमः श्रध्य॑० । मनोयोग कृत जिय संसारो, क्रोधारस्म करत दुख्कारी । तासों रहित सिद्ध भगवाता, अंतर शुद्ध करूं तिन ध्याना ॥२३॥ ३» हीं प्रकृतमनःक्रोधसं रम्भसनोगुप्तये नमः भ्रध्यं ० । परके मन क्रोधी संरम्भा, करत सूढ़ नाना आ्रारम्भा । सिद्धराज प्रणमु' तिस त्यागी, निविकल्प निजगुणा के भागी ॥ २४॥ # हों प्रकारितमनःक्रोधसंरम्भनिर्वेकल्पर्साय नमः भ्रध्ये० । भ्रुजंगप्रयात समनोयोग रंभा प्रशंं सीक कोधा, निजानंद को मान ठाने श्रवोधा । महानिदनी भावको त्याग दीना, निजानंदको स्वाद ही श्राप लीना॥। & हीं नानुमोदितमनःक्रोषसं रम्भसानन्दर्धर्साय नमः श्रध्यं० ॥२५॥ ४२ [ सिद्धचक्र विधान मनोयोग क्रोधो समारंभ धारो, सदा जोव भोगे महाखेद भारी । महानंद श्रास्यातको भाव पायो, नम्तों सिद्ध सो दोष नाहीं उपायो ॥ 5 हुं ग्रकृतम नःक्रो धसमा रम्भपरमानन्दाय नमः अध्ये> ॥२६॥ दोहा समारम्भ क्रोधित सु मन, परकारित दुख नाहि। परमातम पद पाइयो, नम सिद्ध गुर ताहि ॥२७॥ 3» हों प्रकारितमन:क्रोधसमारम्भपरमानन्दाय तमः अ्रध्य॑०। भुजंगप्रयात समारंभ क्रोधी मनोयोग माहीं, धरे मोदना भाव को जीव ताहीं । भये श्राप संतुष्ठ ये त्याग भावा, नम सिद्धसों दोष नाहीं उपावा ॥ २८ 3» हों नानुमोदितमनःक्रोधसम।रम्भ परमानन्दसंतुष्टाय नमः श्रध्यं० । पद्धरी निज क्रोधित मन श्रारस्भ ठान, जग जिय दुखमें सुख रहे मान । सो श्राप त्याग संक्लेश भाव, भये सिद्ध नमूँ धर हिये चाब ॥२६ & ह्वीं प्रकृतमन:क्रोधा रम्भस्वसंस्थानाय नमः अध्ये० । क्रोधित मनसों श्रारम्भ हेत, पर प्रेरित निज श्रपराध लेत । जग जीवनको विपरीत रीति, तुम त्याग भये शिव पर पुनीत ॥३० 3* हो अ्रकारितसन:क्रोघारस्भयन्धसं ध्यानाय नस: अच्य० । क्रोधित मनसों भ्रारम्भ देख, जिय मानत है आनन्द विशेष । तुम सत्य सुखी इह भाव क्षार, भये सिद्ध नमूं उर हर्ष धार ॥३१ 5» हों नानुमोदितमनः:क्रोधा रम्भसंस्थानाय नम: अध्यं० । दोहा मान योग मन रंभमें, वरतत जग जीव । भये सिद्ध संक्लेश तजि, तिन पद नम सदीव ॥३२॥ # हो प्रकृतमनोमाना रम्भसाधर्माय नस: श्रष्यं० । पंचम पूजा ] [ ४३ सान उदय सन थोगतें, परको रम्भ करान । त्याग भये परसाता, नम सरन पर हान ॥३३॥ 5& ह्रीं प्रकारितमनोमानसंरम्भग्रनन्यशरणाय नम: श्रध्यं७ । समान सहित मन रंभमें, जग जिय राख चाब । नमों सिद्ध परमातमा, जिन त्यामो इह भाव ॥३४॥ 3& ह्लों नानुम'दितमनोमानसंरस्भसुगत भावाय नम: श्रष्यं०। अडिल्‍ल समारम्भ' परिवतंमान युत सन धरे। विकलपमई उपकरशा विधि इकठे कर ॥ महाकष्टको हेत भाव यह ना गहो। प्रणम्‌ सिद्ध श्रनंत सुखातम गुण लहोँ ॥३४॥ ३» हीं प्रकूरमनोमान समारम्भसुखात्मगुणाय नमः श्रघ्य॑० । मान सहित सनयोग द्वार चितवन कर। समारम्भ पर कृत्य. करावन विधि वर ७ तहां कष्ठको हेत भाव यह ना गहो। प्रशमु सिद्ध श्रनन्तगुणातम पद लहौ ॥३६॥ ३> हीं श्रकारितमनोमानससारम्भ-प्रतन्‍्यगताय नमः अर्ध्यं ० । जोड़े चित न समाज विविध जिस काजमें । समारम्भ तिस नाम सोम जिनराजमें ॥ माने सानी सन श्रानन्द सु निमित्तसे। नम सिद्ध हैं श्रतुल वोये त्यागत तिसे ॥३७॥ 3& हीं नानुम|दितमनोमानससारम्भ-प्रनन्तवीर्याय नम: भ्रध्यं० । अरशभकाज परिवर्त नाम आरम्भको। सान सहित मन द्वार तास उद्यम गहो॥ ४४ | [ सिद्धचक्र विधांत जगवासी जिय नितप्रति पाप उपाय हैं। णमो सिद्ध या रहित प्रतुल सुखराय है ॥३८४ 3४ हो झघरकृतमनोमानारम्भ-प्रनन्‍्तसुलाय नमः प्रध्यं ० बोहा मनो मान आरभ्भके, भये शझ्रकारित श्राप । ग्रतुल ज्ञानधारी भये, नमत नर्से सब पाप ॥३६॥ क* हीं प्रकारितमनोमातारम्भ-प्रनन्तज्ञानाय नमः प्रध्यं० । सनो मान श्रारस्भमें, तानुमोदि भगवंत । गुण अनन्त युत सिद्ध पद, पूजत हैं नित संत ॥४०॥ # ह्रीं नानुमोदितमनोसाना रस्भ-अनंतगुखाय नमः अध्यें० । गीता जो श्रशुभ काज विकल्‍प हो, सरम्भ मनयुत कुठटिलता । कर कर अ्रनादित रंक जिय, बहु भांति पाप उपावता ॥ सो त्याग सकल विभाव यह तुम, सिद्धब्रह्मस्वरूप हो । हम पू्जि हैं नित भक्तियुत, तुम भक्त वत्सलरूप हो ॥४१ % हों प्रकृतमनोमायासंरम्भब्रह्मस्वरूपाय नम: श्रध्य० दोहा सायावो मनतें नहों, कबहुं श्रारम्भ कराय । सिद्ध चेतना गुण सहित, नमूं सदा सन लाथ ४४२॥ # हों प्रकारितमनोमायासं रम्भचेतनाय नमः प्रध्य० । सायावोी मनतें कभी, रम्भानन्द न होय । सिद्ध श्रनन्‍्य सुभाव युत, नमृ' सदा मद खोय ॥४ ३४ # हु तानुसोदितमतोमायासंरस्भ प्रनन्यस्वभावाय «सम: प्रध्ये० । पड़ड़ों मायावी मनतें समारंभ, नह करत सदा हो भ्रचल खंभ । तुम स्वानुभृति रमरतीय संग, नित रसन करो धरि सन उसंग ।।४४ $ हों प्रकृतमनोमायासमारम्भ्स्वानुभूतिरताय नमः अध्यें ० | पंचस पूजा ] | ४५ मन वक्त हार उपकर्र ठान, विधि समारंमभ को नहें करान। निज साम्यधर्म में रहो लिप्त, तुम सिद्ध नमों पद धार चित्त ॥४५ 3» हों अक्षारितमनोम/या- पमारम्भ वास्यधर्माय नमः अध्ये ० । दोहा सायावी मनसमें नहीं, समारम्भ श्रानन्द । नमों सिद्धपद परमसगुरु, पाऊं पद सुखबन्द ।३४६॥ ३& हो नानुमोदितमनोसायाससारंभगुरवे नमः अध्ये० । | पड़ड़ी बहु विधिकर जोड़ प्रशुभ काज, श्रारम्भ नाम हिसा समाज । मायावी मन हार॑ करेय, तुम सिद्ध नम' यह विधि हरेय ॥४७॥ 3+ हों अकृतमनोसाया55२म्न्षप रमशांताय नभः अध्यें० । पूर्वोक्त श्रकारित विधि सरूप, पायो निर झाकुल सुख अनूप । सर्वोत्तम पद पायो महान, हम पुजत हैं उर भक्ति ठान ॥४८॥ 5» ह्वों अकारित मनोमाया55२म्प्न-निराकुलाय नमः अध्ये० । दोहा मायावोी झारम्भ करि, मन में आ्रानन्‍्द समान । सो तुम त्यागो भाव यह, भये परम सुख खान ॥४६॥ ३» हो नानुमोदितमनो माया55रम्भ-अनन्तसुखाय नमः अध्यें० । लोभो मन दह्वारे नहों, कर सदा समरम्भ । हम प्रनन्त-दृग सिद्धपद, पूजत हैं मनथंभ ॥५०॥॥ उ* हीं भक्ृतमनोलोभर्स रम्भ-अनन्तहगाय नमः अध्ये० । लोभी सन समरम्भ को, पर सों नाहि कराय। दुगानन्द भावातमा, नम्‌ सिद्ध सन लाय ॥५१॥ ३४% हों अकारितसनोलोभसंरम्भह्गानन्टस्ाव! य नभः अध्यें० । लोभो सन समरंभमें, मान नहिं आनन्द । नमूं नमूं परमात्मा, भये सिद्ध जगवंद ॥५२॥ # हो तानुमोदितमनोलो मसंरम्मसिद्धभावाय नमः भ्रध्यं० । ४६ ) <% ह्वीं नानुमोदितमनोलोभसमा रम्भ साकाराय नमः अध्ये० । [ सिद्चचक्र विधान समारम्म नहिं करत हैं, लोभी मनके द्वार । चिदानन्द चिहेंव तुम, नम लहू पद सार ॥५३॥ $ छ्वीं श्रकतमनोलोभसमारम्भचिददेवा . नमः अ्रष्य॑ं० । पर सों भी पूर्वोक्त विधि, कबहूँ नहीं कराय । निराकार परमात्मा, नम सिद्ध हर्षाय ॥५४॥ # ह्लीं भ्रट/रिमनोलो भसमारम्भ-निराकाराय नमः अध्यें० । ऐसे हो पुर्वोक्त विति, हित होवे नाहि । चित्सरूप साकारपद, धारत हूं उरमाहि ॥५५॥ रचना हिसा काजकी, लोभी मनके द्वार । नहीं कर हैं ते नमूं , चिदानन्द पद सार ॥५६॥ % ह्वों अकृतमनो लोभारम्भचिदानन्दाय नमः प्रध्ये०। लोभी मन प्रेरित नहीं, परको श्रारम्भ हेत । चिन्मय रूपी पद धरें, नमूं लहूं निज खेत ॥५७॥ 3+ हों अकारितमनोलोभा रम्भच्िन्सयध्व्रूपाय नम: श्रध्यं० । मन लोभी श्रारस्भमें, श्रानन्द लहे न लेश। निजपदमें नित रमत हैं, ध्याऊं भक्ति विशेष ॥५८७ उ*हीं नानुमोर्तिमनोलोभारंभस्वरूपाय नमः अध्ये० । ग्रडिलल क्रोधित जिय वचयोग द्वार उपयोगको। रचना विधि संकल्प नाम सभरंभ सो। तामें धर प्रवृति पाप उपजावते । नमूं सिद्ध या बिन वचगुप्ति उपावते ॥७५६॥ ३ हीं अकृतवचनक्रोधसंरम्प्रवारगुप्तये नम: श्रघ्ये० । क्रोध श्रग्नि करि निज उपयोग जरावहीं, ब्रचनयोग करि विधि संरस्भ करावहों । पंचम पूजा ] [ ४७ सो तुम त्याग विभाव सुभाव सरूप हो, तमूं उरानन्द धार चिदानन्द रूप हो ॥६०॥ ३ हीं अकारितवचनक्रोधर्स रस्भस्वरूपाय नमः श्रघ्यं० । सोरठा क्रोधित निज बच द्वार, मोदित हो संरम्भमे । सो तम भाव विडार, नम्‌ स्वानुभव लब्धियुत ॥६१॥ 3» ह्वीं नानुमोदितवचनक्रोधस रम्भस्वानुभवलब्धये नमः अध्यं० । दोहा क्रोध सहित बारी न हीं, समारम्भ परक्रत । स्वानुभूति रमरगी रमण, नम्‌ सिद्ध कृतकृत्य ॥६२॥ 3 ही अकृतबचनक्रोधसमा रस्भस्वानुभूतिरसणाय नमः अध्ये० । समारम्भ क्रोधित जिये, प्रेरित पर बच द्वार । नम्‌ सिद्ध इस कर्म बिन, धर्मंधरा साधार ॥६३७ ३* हीं अका रितवचनक्रोधसमा रस्भपरमशांताय नमः प्रष्यें० । समारंभ मय वचन करि, हषषित हो युत क्रोध । नम्‌ सिद्ध या बिन लहो, परस शांति सुख बोध ॥६४॥ 3» हक्वीं नानुमोदितवचनक्रोधतमारंभपरमशांताय नम: श्रध्यें ० । मोतियादाम बेर वचयोग धर जियरोष, करें विधि भेद श्रारम्भ सदोष । तजो यह सिद्ध मये सुखकार, नम्‌' परमाश्मत तुष्ठ अवार ॥६५॥। 5 ह्वीं अकृतवचनक्रोधा रम्भपरमामृततुष्टाय नमः भ्रष्ये० । झ्रकारित बेन सदा युत क्रोध, महा दुखकार अरम्भ श्रबोध । भये समरूप महारस धार, नमें हम सिद्ध लहें भवपार ॥६६।॥ ४# ही अकारितवचनक्रोधारम्भसमरत्ताय नमः अ्रध्यें० । [ सिद्धचकआ विधान वोहा नानुमोद श्रारम्भमें, क्रोध सहित बच द्वार । परम प्रीति निज श्रात्मरति, नमू सिद्ध सुखकार ॥६७॥ ४ हीं नानुमोवितवचनक्रोधारम्भपरमप्रोतये मनमः भ्रध्य ० । अ्डिल्ल बचन द्वार संरस्भ मानयुत जे करें, जोड़ करण उपकरण मानसो ऊचरें। नानाविधि दुखभोग निजातमको हरें, नम्‌' सिद्ध या विन भ्रविनश्वर पद धरें ॥६८॥ ३ ह्वीं अकृतवचमानसंरम्भ-अ विनम्रधर्माय नमः श्रष्य ० । मान प्रकृति करि उर्द कराव॑ ना कवा, वचनन करि संरम्भ भेद वरण यदा। मन इन्द्रिय श्रव्यक्तस्वरूप श्रत्तुप हो, नम्‌ सिद्ध गुणासागर स्वातमरूप हो ॥६९॥ 3 हों अहारित वचनमानसंरस्भ अव्यक्तस्वरूपय नस: भ्रध्य ० । सोरठा नानूमोद वच योग, मान सहित संरम्भ मय । दुलंभ इन्द्रो भाग, परम सिद्ध प्रणाम सदा ॥७०॥ # हीं तानुमोदितवचनमानसंरस्भ्दुलंभाय नमः श्रष्य ० । चौपाई समारम्भ निज वनन द्वार, करत नहीं है मान संभार । ज्ञान सहित चिन्म्रति सार, परम गम्य है निर-झाकार ॥७१॥ ढ हीं अकृतवचनमानसमारंभपर मगस्यनिर। काराय नमः भ्रध्य ० । वचन प्रवृति मानयुत ठान, समारस्भ विधि ना/हि करान । शुद्ध स्वभाव परम सुखकार, नम सिद्ध उर आनन्द धार ॥७२७ %# ह्वों अकारितववनमानसमारंभपरमस्वभावाय नम:प्रध्य ० । पंचस पूजा | [| ४९ वचन प्रवति मानयुत होय, समारम्भभय हषित सोय । त्यागत एक रूप ठहराय, नम्‌' एकत्व गतो सुखदाय (॥७३॥ % हो नातमोदितवचनसमारम्भ-एकत्वगताय नमः श्रष्य ७ । मानो जिय निज वचन उचार, वरतत है श्रारभ्भ मंभार । परमातम हो तजि यह भाव नम धर्मपति धर्मस्वभाव ॥७४॥ 3+ हों अकृतवचतमानारम्त परसात्मधर्म राजधर्मत्वभावाय नम: प्रध्ये० । सोरठा सानी बोले बेन, पर-प्रेरण शआ्रारम्भ में। सो त्यागो तुम ऐन, झञाइवत सुख श्रातम नमूं ॥७४॥ ७ हो प्रकारितवचनमाना रम्भशाश्वतानन्दाय तस: प्रध्यं० । हषित बचत उचार, मान सहित आझ्रारम्भभय । सो तुम भाव विडार, निजानन्द रस घन नम ॥७६॥ # ही नातुमो दितवचनमानारम्भ-प्रमुतपुरणाय नमः अर्य॑ ० । पद्धड़ी धरि कुटिल भाव जो कहत बन, संरम्भ रूप पापिष्ट एन । तुम धन्य धन्य यह रीति त्याग, हो बेहद धर्मस्वरूप भाग ॥७७॥ ४ ह्रीं भ्रकृतवचन मायासं रम्भ -अनन्तधर्मेक रूपाय नम: श्रध्यं० । मायायुत वचननको प्रयोग, संरम्भ करावत अ्रशुभ भोग । तुम यह कलंक नि घरो लेश, हो श्रमृत शशि पुजूं हमेश ।॥॥७८॥ # हों अकारितवचनसायासंरम्भ-अमृतचन्द्राय नमः प्रध्यें० । वच सायायुत संरमभ्भ कीन, सो पापरूप भाषी मलीन | तिस त्याग प्रनेक गुरगात्मरूप, राजत श्रनेक मूरत प्रनूप ॥७६॥ # हों तानुमोदितवचनमायासंरम्भ-श्रनेकसू्तेये नमः श्रध्यं० । तुम समारम्मकी विधि विधान, नहिं करत कुटिलता भेद ठांन । हो नित्य निरंजन भाव-युक्त, में नमूं सदा संशय विमुक्त ॥८०॥ # हों अकृतवच्रनमाघासमारंभनित्यनिरंजनस्वभावाय नमः भ्रध्य ० । ५० ] [ तिद्धचक्र विज्ञान दोहा मायायुत निज बनतें, समारम्भके हेत। नह प्रेरित परको नमूं , निजगुरा धर्म समेत प८१॥ 9 हर श्रकारितवचनमायासमा रम्भप्रात्मकधर्माय नमः प्रध्य ० सायाकरि बोलत नहों, समारम्म हर्षाय । सुक्ष्म भ्रतीन्द्रिय बृष नम, नमूं सिद्ध मम लाय "८२४ ३» हों नानुमोदितवचनमायासमारम्भ-प्रात्मेकधर्माय नमः अध्य ० मायायुत झ्रारम्भ की वचन प्रवृत्ति नशाय। नम्‌ भ्रनन्त श्रवकाश गुण, ज्ञान द्वार सुखदाय ध८३७ ७ हु श्रकृतबचनमाया रम्भ-अतन्तावकाशाय नमः फ्रध्य ० । मायायुत श्रारम्भ सय, मेंट वचन उपदेश । भये भ्रमलगुण ते नम्‌, रागदेष नहीं लेश ॥८४॥ ३ हीं अकारितवचनमाया रस्भ-अम लगुणाय नमः अध्य ० । सायायुत श्रारम्भ मय, सेंट वचन आनन्द । भये अ्रनन्‍त सुखी नम, सिद्ध सदा सुखबन्द ।८५॥ 3» हीं नानुमोदितवच्नमायारस्मनिरवधिसुखाय नमः श्रष्य ० । श्रडिलल छुन्द जो परिग्रह को चाह लोभ सो मानिये, विधि-विधान-ठानत संरम्भ बखानिये। वचन द्वार नहिं करें नम परमातमा, सब॒ प्रत्यक्षषख व्यापक धर्मातमा (८ ६॥ 3७ हछ्लीं अकृतवचनलोभसंरम्भव्यापकधर्माय नमः श्रध्य ० । वर्तावन संरम्भ हेत परके तई, लोभ उद करि वचन कहै हिसामई । नम सिद्ध पद यह विपरीति सु जिन हरो सकल चराचर ज्ञानी व्यापक गुण बरो ॥८७॥॥ ड्छ्ठीं अक्ारितचतलोभप्रस्मव्यापकगुणा व नमः अष्य ० । अंतुर्थ पूजा | | ४१ लोसी वच संरंभ हंथष॑ परकाशनं, नाना विधि संचरे पाप दुख नाहशनं। सो तुम नाशत शाइवत क्रवपदपाइयो, नम्‌ अचलगुरासहित सिद्ध मन भाइयों ॥८८॥ 35 हों नानुमोवितवचनलोभसंरम्भ-अचलाय नमः भ्रध्यं० । सोरठा समारम्भ के बन, लोभ सहित पर आसरें। तज निरलम्बी ऐन, नम्तू सिद्ध उर धारिके ॥८६॥ 3३% ह्रीं श्रकरततचनलोभ समारम्भनिरालंवाय नमः प्रघ्ये० । समारम्भ उपदेश, लोभ उर्द थिति मेटिक । पायो अ्रचल स्वदेश, नम निराश्चय सिद्ध गुरण ॥६०॥ 5 हीं अकारितवचन लोभ समारम्भ नि राश्रयाय नमः श्रध्यं० । नानुमोद बच लोभ, समारम्भ परवकत्त में। नम्‌ तिन्‍हें तजि लोभ, नित्य श्रखण्ड विराजतें ॥६१॥ ३3 हीं नानुमोदितवचचनलो भसमारम्भ-प्रसण्डाय नमः अध्य ० । दोहा लोभ सहित श्रारम्भ को, करत नहीं व्याख्यान । नृतन पंचम गति लहो, नमूं सिद्ध भगवान ॥&२॥ ३ हीं श्रकृतचनलोभा रम्भपरीतावस्थाय नमः श्रघ्य ० । लोभ वचन आझ्रारम्भ को, कहत न पर के हेत । समयसार परमातमा, नमत सदा सुख देत ॥€३॥ 3» हों शभ्रकारितवचनलोभारम्भ समयसाराय नमः भ्रध्य ० । सोरठा नानुमोद बच द्वार, लोभ सहित झारम्भसय । झजर मर सुखदाय, नमूं निरन्तर सिद्धपद ॥६४॥। 3 हो मानुमो दितवचन लोभा रस्भनिरन्तराय नमः श्रध्यं० । [ सिद्धचचक विधान झडिल्ल क़्ोधित रूप भयंकर हस्तादिक तनी, करत समस्या सो संरम्भ प्रकाशनों। सो तुम नाहो काय गुप्ति करि यह तदा, दृष्टि श्रगोचर काय गुप्ति प्रशमं सदा ॥६५॥ # हीं प्रकृतकायक्रो धसं रम्भकायगुप्तये तमः भ्रध्य॑० । सोरठा पर प्रेररण निज काय, क्रोध सहित संरम्भ तज । चेतन सूरति पाय, शुद्ध काय प्रणम्‌ सदा ॥६६॥ 3 हीं श्रकारितकायक्रोधसं रम्भ शुद्धकाय।य नमः भ्रष्य॑० । हृषित शीश हिलाय, क्रोध उदय संरम्भ में । त्यागत भये श्रकाय, नम सिद्ध पद भावयुत ॥६७॥॥ ३* हीं नानुमोदितकायक्रोधसं रम्भ-प्रकायाय तमः भ्रष्य॑० । समारम्म विधि मेटि, कायिक चेष्टा क्रोध को । स्‍्वे गुणपर्य समेट, भक्ति सहित प्रणमृ' सदा ॥६८॥ ३ ह्वीं प्रकारितकायक्रोधतमा रम्भस्वान्वयगुणाय नमः भ्रध्यं० । दोहा समारम्भ विधि क्रोध युत, तनसों नहीं कराय । नित-प्रति रति निजभावष में, बंदू' तिनके पांय ॥६९॥ ३# हीं श्रकारितकायक्रोधसमा रम्भभाव रतये नम: अ्रघ्यं० । समारम्भ सो कायस्तों, क्रोध सहित परसंस । स्वे अभिन्न पद पाइयो, नमू त्याग सरवंस ॥१००॥ 3 हीं वानुमोदितकाय क्रोधसमारम्भस्वान्वयधर्माय नम: श्रध्यें० । क्रोधित कायारम्भ तजि, परसों रहित स्वभाव । शुद्ध द्रव्य में रत नमू , निज सुख सहज उपाव ॥१०१॥ # हो प्रकरतकायक्रोधारम्भशुद्धवरव्यरताय नम: भ्रध्य॑०। पंचम पूछा ] [ ५३ क़ोधित कायारम्भ नह, रंच प्रपंच कराय । पंचरूप संसार हुनि, नम पंचमगति राय ॥१०२॥ & हीं भ्रकारितक्ायक्रोधारम्भसंसार-छेदकाय नमः भ्रध्य०। क्रोधित कायरम्भ में हुं विधाद विडार। अनेकांत वस्तुत्व गुण, धरे नमों पद सार ॥१०३॥ 3 हीं नानुमोदितकायक्रोधारम्भजनधर्माय नमः ग्रध्य ० ॥ समान सहित संरम्भकी, तनसों रचना त्पाग । पर प्रवेश बित रूप जिन, लियो नम्‌' बढ़माग ॥१०४॥ # हो पग्रकृतफायमानसंरस्मस्वरूपगुप्तये नमः श्रध्य॑०। मान उदय सरम्भ विधि, तनसों नहीं कराय। निज कृत पर उपकार बिन, लियो नम तिन पाय ॥१०५॥ 3 हीं श्रकारितकायमानसंरम्भनिजकृ तथे नमः श्रध्य॑० । मान सहित संरम्भ में, तनसों हर्ष न लेश । ध्यान योग निज ध्येय पद, भावित नमृ' श्रदेष ॥१०६॥ ३ ह्वीं नानुमो दितकायमानसंरम्भ-ध्येयभावाय तमः अध्यं० । मदयुत तनसों रंच भो, समारम्भ विधि नाहि। परमाराधन योगपद, पायो प्रणाम्‌' ताहि ॥१०७॥ ३ ही अकृतकायमानसमारम्भ-परमाराधनाय नमः अर्ध्य ० | समारम्भ निज कायसों, मदयुत नहीं कराय। ज्ञानानन्द सुभाव युत, प्रणम्‌ शोश नवाय ॥१०८७ 3» हीं प्रकारितकायानसमा रम्भानन्दगुणाय नमः अध्यं० ॥| समारम्म मय विधि सहित, तनसों हुए न होय । निजानन्द नन्दित तिन्‍हें, नम सदा सद खोय ॥॥१०६। ३ हीं नानुमोदितकायमानसमा रम्भस्व/नव्दानन्दिताय नमः अध्ध्य ८ । अ्रद्धं चोपाई भ्रकृत मानारम्भ शरीर, पर श्रनिद्य बन्दू' घर घोर ॥११०॥ ३ हीं अक्ृतकायमाना रम्भसंतोषाय नमः अध्ये० । भ्र्ड |] [ सिद्धलक्र विभास॑ कायारम्भ अकारित मान, स्वस्वरूप-रत बन्दु तान ७१११॥ # हु अकारितकायमातारम्भस्व-स्वरूपरताय नमः अध्ये० । मानारम्भ भ्रनन्दित काय, प्रणम' बिमल शुद्ध पर्याय ॥११२॥ # हीं नानुमोदितकायमाता रम्भशुद्धपर्यायाय नमः अर्घ्य ० । दोहा मायायुत संरम्भ विधि, तनसों करत न आप । गुप्त निजामृत रस लहें, नमूः तिन्‍्हें तज पाप ॥११३॥ 3 हो अकृतकायमाय।संरम्भ-अमृतगर्भाय नमः अध्ये ० । मायायुत संरम्भ विधि, तनसों नहीं कराय । मुख्य धर्म चेतन्यता बिलसे, प्रणम्‌ृ' पाय ॥११४॥ ३७ हछ्वीं अकारितकायमायासंरम्भचंतन्याय नमः अधध्य० । मायायुत संरम्भ सथ, नानुमोदयुत काय। बोतराग श्रानन्द पद, समरस भावन भाय ॥११४५॥ ३ हीं नानुमोदितकायमाया सं रम्भ-समरसीभाव।य नसः अर्ध्य ० । समारम्म साथा सहित, अकृत तन विच्छेद । बन्ध दशा निज पर द्विविधि, नमत नसे भव खेद ॥११६॥ ३* ह्वीं अकृतकायमायासमा रम्भबंधच्छेदकाय नम: अध्यें ० । समारम्भ तन कुटिलसों, भये श्रकारित स्वामि। निज परिणति परिणमन विन, गुण स्वातन्त्र नमासि ॥११७॥ उ> हीं अकारितकायमायासमा रम्भस्वातंत्रयधर्भाय नमः अध्यं ० । नानुमोदित तन कुटिलता, समारम्भ विधि देव । गृरण भ्रनस्त युत परिणम्‌ धर्म समही एवं ॥११८॥ % हों नानुमोदितकायमायासमा रम्भ्रधमं तमूसहाय नम: अध्यं० । मायायुत निज देहसों, नहों झ्रारम्भ करेह। परमातम सुख श्रक्ष-बिन, पायो बन्दू' तेह ॥११६॥ 5 हीं अकृतकायमाया रम्भपरमात्मसुखाय नम: अध्ये० । पंचम पूजा | [| ५४ सायारम्भ शरीर करि, परसों नहीं करान । निष्ठातम स्वस्थित नमू' सिद्धराज गणखान ॥१२०॥ ३ छीं अकारितकायमाया रम्भनिष्ठात्मने नमः अध्ये० । मायारम्भ दरीरसों, नानुमोद भगवन्त । दर्शज्ञानमय चेतवा, सहित नमे नित सन्त” ॥१२१॥ & हीं तानमोदितकायमायारस्भचेतनाय नमः अध्ये० । अ्रद्ध पद्धड़ी संरम्भ चाह नहिं काययोग,चित परिणति नमि शुद्धोपयोग ॥१२२ 3 ह्वीं अकृतकायलोभसंरस्भप्रम चित्‌ृपरिएताय नमः अध्यं० । संरस्भ भ्रकारित लोभ देह, निज ग्रातम रत स्वसमय तेह ॥१२३ $% ह्वों अकारितकायलो भसंरम्भ-स्वसमयरत।य नमः अर्घ्य ० । संरम्भ लोभ तन हर्ष नाह, नमि व्यक्त धर्म केबल प्रकाश ॥१२४ 5 ह्वीं नानुमोदितका य लोभसं रम्भ-व्यक्तधर्माय नमः अध्यं ० । सोरठा लोभी योग शरीर, समारभ्म बिधि नाशके । ध्रुव भ्रानन्द श्रतीव, पायो पूजू' सिद्धपद ॥१२५॥ 3 ह्वीं अकृतकायलोभसमारम्भ-नित्यपुखाय नमः अधध्ये ० । लोभ अ्रकारित काय, समारम्भ निज कर्म हनि । पायो पद अ्रकषाय, सिद्ध वर्ग पूजू सदा ॥१२६।॥ 3» हीं अकारितकायलोभसमारस्भशौचगुणाय नम: अर््य ० । पुर्बंबतंनानन्द, परिग्रह इच्छा मेटिकं। पायो शौच स्वछन्द, नम सिद्ध पद भक्ति युत ॥१२७॥ 3* हीं नानुमोदितकायलोभसमारम्भशोचगुए/य नमः अध्यें० । दोहा काय हार आरम्भकी, लोभ उदय विधि नाश । नम्तों चिदातम पद लियो, शुद्ध ज्ञान परकाश ४१२८॥ 3 छवीं अकृतकायलोभारम्भवचिदात्मते नमः अर्घ्य ० । काय द्वार आरम्भ विधि, लोभ उदय न कराय। निज अ्रवलंबित पद लियो, नम्‌ सदा तिन पाय ७१२६॥ # हीं अकारितकायलोभा रम्भ-निराबम्बाय नमः अर्ध्य॑० । लोभी तन आ्रारम्भ में, श्रानन्‍्द रीती सेंट । तम' घिद्ध पद पाइयो, निज पश्रातम गुर श्रेष्ठ ॥१३०॥ * हीं नानुमोदितकायलोभा रम्भात्मने अध्यं० । स्वेया जेते कछ पुदगल परमाण, शब्दरूप भये हैं, प्रतीत कांल श्रागे होनहार हैं । तिनको श्रनंत गुण करत श्रनंतबार, ऐसे महाराशि रूप धर विसतार हैं ॥ सब ही एकत्र होय विद्ध परमातमके, मानो गुणा गण उचरन श्रथंधार हैं । तो भी इक समयके श्रनंत भाग श्रनंदको, कहत न कहें हम कोन परकार हैं ॥ 3» हों अष्टविशत्यधिकशतगुरा युक्त सिद्धेभ्यो नमः अध्यें ० । अथ जयमाल दोहा शिवगुण सरधा धार उर, भक्ति भाव है सार। केवल निज आ्रानन्द करि, करू सुजस उच्चार ॥ पड़ड़ी जय मदन कदन मन करण नाश,जय जांतिरूप निज सुख विलास । जय कपट सुभट पट करन सूर,जय लोभ क्षोभ मद दम्भ चूर ॥१ पर-परण ततिसों श्रत्यंत भिन्न,निज परिणतियसों श्रति ही भ्रभिन्‍न । प्रत्यंत विमल सब हो विशेष, मल लेश शोध राखो न शेथ ४२ पंचम पूजा ] [ ५७ मरि दोप सार निविघन ज्योति, स्वाभाविक नित्य उद्योत होत।, श्रेलोक्य शिखर राजत श्ररूण्ड, संपुरण दुति प्रगटी प्रचण्ड ॥३ मुनि-सन-संदिर को श्रंधकार, तिस ही प्रकाशसों तशत सार । सो सुलभ रूप पाये निजाथं, जिस कारण भव-भव भ्रमे व्यर्थ ॥४ जो कल्प-काल में होत सिद्ध, तुम छिन ध्यावत लहिये प्रसिद्ध । भवि पतितन को उद्धार हेत, हस्तावलंब तुम नाम देत ॥५ तुम गण सुमिरण सागर श्रथाह, गशाधर सरोख नहीं पार पाह । जो भवदधि पार श्रभव्य रास, पावे न वथा उद्यम प्रयास ॥६ जिन-मुख द्रहपों निकसी श्रभंग, श्रति वेग रूप सिद्धान्त गंग । नय-सप्त-भंग-कललोल मान, तिहुं लोक वही धारा प्रमान ॥॥७ सो द्वादशांग वाणी विश्ञाल, ता सुनत पढ़त आनन्द विशाल । यातें जग में तीरथ सुधाम, कहिलायो है सत्यार्थ नाम ॥८॥ सो तुम ही सों है ज्ञोभ नीक, नातर जल सम जु वहे सु ठीक । निज पर श्रातमहित श्रात्म-भूत, जबसे है जब उतपत्ति सुत ॥६ ज्यों महाशीत ही हिम प्रवाह, है मेटन समरथ श्रग्नि दाह । त्यों श्राप महा संगलस्वरूप, पर विघन विनाशन सहज रूप ॥१० है 'सन्‍्त' दीन तुम भक्ति लीन, सो निदचचय पार्व पद प्रवीण । ताते सन -वच-तन भाव धार, तुम सिद्धनकू सम नमस्कार ॥११ ३% ह्वों गमो सिद्धा्ं भ्रोसिद्धपरमेष्ठिने अहू अष्ट/विद्ञत्यधिकशत- बलोपरिस्थिसिडद्धे भ्यो नमः अध्यें० । दोहा जो तुम ध्यावं भावसों, ते पावं निज भाव । भ्रगनि पाक संयोग करि, शुद्ध सुबरण उपाय ॥ ॥ इत्याशोर्बादः ॥ यहां १०८ बार '* हों प्रहू प्रसि श्राउ स नमः' मंत्र को जाप करें।. षष्ठम पूजा (दो सौ छप्पन गुण सहित) छुप्पन अरध श्रधों सु रेफ सबिन्दु हकार विराज, भ्रकारादि स्वर लिप्त कश्का श्रन्त सु छाज । बरग्गंनिपूरित वसुदल भ्रस्बुज तत्व संधिधर, ग्रप्रभागमें मंत्र श्रनमाहत सोहत अतिवर ॥ पुनि भ्रन्त हीं बेदूयो परम, सुर ध्यावत श्ररि नागको । हूँ केहरि सम पुजन निमित, सिद्धचक्र मंगल करो ॥११॥ # हीं श्री सिद्धवक्राधिपतये नमः, श्रो सिद्धपरमेप्ठिन्‌ ! श्रत्राबत- शाबतर संवोषट ग्राह्वाननम्‌ । अत्र तिष्ठ तिथ्ठ 5: 5: स्थापनम्‌ । प्नत्र सम सन्निहितो भव भव वषट्‌ सन्तिधिकरणम्‌। पुष्पांजलिक्षिपेत्‌ । दोहा सुक्ष्मादिक गुणा सहित हैं, कम रहित निररोग । सकल सिद्ध सो थापहूं, मिटे उपद्रव योग ॥२॥ इति यन्त्रस्थापनार्थ पुष्पार्जाल क्षिपेत्‌ । अथाष्टकं गीता भ्रति नम्नता तिहुं योगमें निज भक्ति निर्मल भावहों । यह/शगुप्त जल प्रत्यक्ष निमंल सलिल तीरथ लावहीं ॥ यह उभय द्रव्य संयोग त्रिभुवन पूज्य पुज रचावहीं । ईं श्रद्वंशत घट श्रधिक नास उचार विरद सु गावहीं ॥ * हीं रमो सिद्धारं श्रोतिद्ध परमेघ्ठिने पड़पंच/शदधिकद्ठि शतगुण- खंमुक्ताय जन्मज रारोगविनाशाय जल निबंपामीति स्वाहा ४१७ पव्ठस पूजा ] || ५६ झ्ति वास विथय न जासमायुत मलथ ज्ञोल खुभावहोीं । श्ररु चंदनावि सुगन्य द्रव्य मनोज्ञ प्रासुक लावहीं ॥यहु उच्चय ०१ $# हों खमो सिद्धाणं श्रीसिद्धपरमेष्ठिसे षड़पंचाशरधिकद्धिशत- गुणसहिताय संसारतापानाशन।य चन्दन ० ॥२।॥। परिणाम धवबल खुबर्ण अक्षत सलिन मन न लगावहीं । तिस सार अक्षय श्रवय स्वच्छु सुबास पुज बनावहीं ॥ यह उ०॥ 3 हीं रामो सिद्धाणं श्रीसिद्धपरमेष्ठिने पड़पंचाशदधिकगुण- सहिताय अक्षयपदवप्राप्तये अक्षतं ॥३॥ मन पाग भवक्‍षत्यनुराग आनन्द ताग माल पुरावही । तिस भाग कुसुम सुहाग श्रर सुर नागबास सु लावही ॥यह उभय० ३* हीं णमो भिद्धाणं श्रीसिद्धपरमेष्ठिने पडपंच'शदधिकगुणस हिताय कामवाणविताह्नाय पुष्पं ० ॥४॥॥ जिन भक्त रसमें तृप्तता मन श्रान स्वाद न चावहीं । प्रंतवर चरू बाहिज मनोहर रसिक नेवज लावहीं ॥यह उमय ०॥ ३ ह्वों णमो सिद्धारं श्रोसिद्धपरमेष्ठिने घड्पंचाशदधिकगुरा सहिताब क्षुधारोगविनाशन,्य नेवेद्यं० ॥५॥ सरधान दीप प्रदीप्त अंतर मोह तिमिर नशावहो । मरिणदीप जगमग ज्योति तेज सुभाष भेंट धरावही ॥यह उभय० ३* हीं णमो सिद्धारा श्रोसिद्धपरमेप्रिने पडपचा शदधिकगृणसहिताय मोहांधका रविनाशनाय दोप॑० ॥६॥ झानन्द धर्म प्रभावना मन घटा शप्रृम्र सु छावहों। गंधित दरव शुभ प्रणा प्रिय भ्रति श्रग्नि संग जराबहीं ॥यह उ०॥ 5» हीं णमो सिद्धारं श्रोसिद्धपरमेष्ठिने षडपचाशदधिकगणसहिताय प्रष्टकर्मदहुनाय धूप॑ ० लि० ॥।७॥ शुभ चितवन फल विविध रस युत भक्ति तरु उपजावही । रसना लुभावन कल्पतरुके सुर श्रसुर मन भावही ॥यह उभय०॥ 5» हों एमो सिद्धारां श्रीसिद्धपरमेष्ठिने बड़पंचाशदधिकगणसहिताब मोक्षफलप्राप्तये फलं० ॥४॥ ६० | घिद्धचक्र विधा समकित विभल वस श्रंग युत करि श्रघं भ्रन्तर भावही । वसू दरव श्र बनाय उत्तम देहु हुं उपावही ॥ यह उभय द्रव्य संयोग ज्रिशुवन पूज्य पूज रचावहों । हे श्र्शत घट श्रधिक नाम उचार विरद सु गावहीं ॥ # हीं णमो सिद्धाणं श्रीसिद्धपरमेष्ठिने घडपंचाशवधिकद्िशत- गुरासंधृुक्ताय अनर्ध्यपदश्राप्तये भ्रध्य॑० ॥६॥ गीता निर्मल सलिल शुभ वास चन्दन, धवल श्रक्षत युत शअ्रनी। शुभ पुष्प मधुकर नित रमें, चह प्रचुर स्वाद सुविधि घनी ॥ बर दोपमाल उजाल, धृपायत रसायन फल भले । करि श्रघं॑ सिद्ध-सम्ह पुजत, कमंदल सब दलसले ।॥ ते क्रमावत नद्ाय युगपत, ज्ञान निर्मल रूप हैं। दुख जन्म टाल श्रपार गुण, सुक्षम सरूप श्रनूप हैं ॥ कर्माष्ट बिन ब्रेलोक्य पृज्य, श्रदूज शिव कमलापती ॥ मुनि ध्येय सेय श्रमेय, चहुं गुण गेह, दो हम शुभमति ॥ * हों णमो सिद्धारं श्रोत्तिद्चक्राधिपतये पड़पचाशदधिक दिशत- गुणतंयुकताय पूर्राध्ये० । दो सो छप्पन गुर श्रध्यं चौपाई सिथ्यातम कारर घुल्का रा, नित्य निरंजन विधि संसारा । तिस हनि समरथ अ्रतिशयरूपा, केवल पाय नम शिव सूपा ॥१ & हीं चिरन्तरसंसारकारण-ज्ञाननिद्धतोद्भूतकेवलशञानातिशयसंप- स्ताय सिद्धाधिपतये तमः पश्रध्यं०। मन-इन्द्रिय निमित्त सतिज्ञाना, योग देश तिष्ठत पद जाना । क्षय उपशम श्रावर्ण विनाद्ों, नमों सिद्ध स्वज्ञान प्रकाशों ॥२॥ # हीं अभिनिबोधव।रक विनाशकाय नमः पब्रध्य॑ । घष्ठम पूजा ] [६१ द्वादश प्रंगरूप अज्ञाना, श्रृत भ्रावरणी भेद बखाना। क्षय उपशम श्रावण विनाशो, तमों सिद्ध स्वज्ञान प्रकाशों ॥३॥ ३ हों हादशांगश्ुतावरणी कम विभुक्ताय नमः श्रध्य॑० । है श्रसंडय लोकावधि जेते, अ्रवधिनज्ञान के भेद सु तेते । क्षय उपद्यम आवरं विनाशो, नमों सिद्ध स्वज्ञान प्रकाशों ॥४॥ 5 हों असंख्य भेदलोक-प्रवधिज्ञानाज रण विमुक्ताय समः अ्रध्यं० । है भ्रसंट्य परमान प्रमाना, सनपयंय के भेव बखाना। क्षय उपज्म प्रावर्ण विनाशो, नम्तों सिद्ध स्वज्ञान प्रकाशों ॥५॥ 3» ही प्रसंख्यप्रकारमन:पर्य प्रजञानावरणकर्म विमुक्ताय नम: श्रघ्यें० । निलिल रूप गुणपर्यंय ज्ञानं, सत स्वरूप प्रत्यक्ष प्रमानं । केवल शभ्रावरर्णी विधि नाशो, नमों सिद्ध स्वज्ञान प्रकाशों ॥६॥ के हीं निखिल रूप-गुणपर्याय-बोधककेव लज्ञानावरणविमुक्ताय नम: भ्रष्यें० । द्वारपती भूषति के ताई', रोक रहै देखन दे नाहीं । सोई दर्शनावररणण विनाशो, नमों सिद्ध स्वज्ञान प्रकाशों ॥७॥ 5+ हीं सकलद॒र्श नावरण कर्म विनाज्ञाय अर्घ्य ० । मूर्तोकत पदको प्रतिभासन, नेत्र द्वार होवे परकाशन । चक्षु-वर्ंनावरण विनाशो, नप्तों सिद्ध स्वाज्ञन प्रकाशों ॥८॥ क हो चक्षुदर्शतावरणकर्म रहिताय नमः श्रध्यं० । दुग बिन भ्रन्य इन्द्री मन द्वारे, वस्तुरूप सामान्य उधारे। प्रदूग-दर्शनावरण विनाशो, नमों सिद्ध स्वज्ञान प्रकाशों ॥९७ < हीं अ्रचक्षुदशनावरणरहिताय नमः भ्रध्य० । देदा-काल-द्रब-भाव प्रमानं, भ्रवधि दर्श होवे सब ठान । प्रवधि-दर्श-प्रावर रण विनाझो, नमों सिद्ध स्वज्ञान प्रकाशों ॥१ ०॥ % हीं प्रवधिदर्शनावरण रहिताय नमः अध्य॑० । द१ ] [ सिदधचक विधान बिन मर्याद सकल (तिहु काल, होंय प्रकट घटपट तिह हाल । केवल दर्शनावररा विनाशों, तमों सिद्ध स्वज्ञान प्रकाशो ॥११॥ # हो केंवलदशनावरणरहिताय नमः भ्रध्य० । बंठे खड़े पड़े घुम्मरिया, देखे नहीं निद्राकी विरिया। निदा दर्शनावरण विनाशो, नमों सिद्ध स्वज्ञान प्रकाशों ॥१२॥ 5 हीं निद्राकर्म रहिताय नमः प्रष्यं० । सावधानि कितनी की जावे, रंच नेत्र उघड़न नहीं पावे । निद्रा निद्रावरण विनाशों, नमों सिद्ध स्वज्ञान प्रकाशों ॥१३।॥ # हीं निव्रानिद्राकम रहिताय नमः प्रध्य॑० । मंदरूप निद्रा का आना, ब्रवलोक॑ जाग्रतहि सभाना। प्रचला दर्शनावरण विनाशो, नमों सिद्ध स्वज्ञान प्रकाशों ॥१४॥ &# हीं प्रचलाकर्मरहिताय नमः भ्रष्य॑० ) मुखसों लार बहै श्रति भारी, हस्त पाद कंपत दुखकारो । प्रचला-प्रचला वर्ण विनाशो, नमों सिद्ध स्वज्ञान प्रकाशों ॥१४७ ३ ह्ली प्रचलाप्रचलाकर्म रहिताय नमः श्रध्यें० । सोता हुआ कर सब काजा, प्रगटाब प्राकर्म समाजा । यह स्त्यानगृद्धि विधि नाश्ञो, नमों सिद्ध स्वज्ञान प्रकाशो ॥१६॥ # हुं स्त्यानगृद्धिक्म रहिताय नम: प्रध्यें० । जे पदार्थ हैं इन्द्रिय योग, ते सब वेदे जिय निज जोग। सोई नाम वेदनोी होई, नम सिद्ध तुम नाश्ो सोई ॥१७॥ <* ह्वीं वेरनोयकर्म रहिताय नम: श्रष्य ० । रतिके उदय भोग सुखकार, पावे जिय शुभ विविध प्रकार । साता भेद बेदनी होय, तमूं सिद्ध तुम नाशों लोय ॥१८॥ % हों सातावेदनोयकर्म रहिताय नमः भ्रध्य ० । प्ररति उदय जिय इन्द्री द्वार, विधयमोग वेदे दुखकार । एही भेद श्रसाता होय, नम्‌ सिद्ध तुम नाशों सोय ॥१६॥ # हीं असातावेदनोयकर्म रहिताय नमः अ्रध्य ० । वष्ठम पूजा ] [ ४३ ज्यों ग्रसावधानी मदपान, करत मोह विधितें सो जान । ता विधि करि निज लाभ न होय, नम सिद्ध तुम नाशों सोय १२० उ& छ्ी मोहकर्म रहिताय नमः श्रध्यं० । जाके उदय तत्त्व परतोत, सत्य रूप नहीं हो विपरीत । पंच भेद सिथ्यात निवार, भये सिद्ध प्रणमूं सुखकार ॥२१॥ ३* ह्वों मिथ्यात्वकमंबिनाशकाय नभः भ्रध्य ०। प्रथमोपशम समकित जब गले, मिथ्या समकित दोनों मिले । मिश्न भेद सिथ्यात निवार, भये सिद्ध प्रसमूं सुखकार ॥२२॥ % हीं सम्यक्मिथ्यात्वकमं रहिताय नमः अध्य । दर्शन में कुछ मल उपजाय, करें समल, नहिं मूल नसाय । सम्यक-प्रकृति मिथ्यात निवार, भये सिद्ध प्रणम्‌' सुखकार ॥॥२३॥ ३» ह्वीं सम्यक्‍्त्वप्रकृ तिसिथ्यात्वरहिताय नमः अ्रध्य । धमम-सार्ग में उपजे रोष, उदय भये मिथ्यात सदोष । यह श्रनन्त-प्रनुबंध निवार, भये सिद्ध प्रशम्‌' सुखकार ॥२४॥ 5 हों अनम्त।नुबन्धोक्रोध कर्म रहिताय नमः श्रध्य ० । देव-धर्म-गुरुसों श्रभ्िमान, उदय भये सिथ्या सरधान । यह श्रतन्‍्त श्रनुबंध निवार, भये सिद्ध प्रशम्‌' सुखकार ७२५॥ & हों अनन्तानुबन्धोमानकर्स रहिताय नम्तः ग्रध्य० । छलसों धर्म रीति दलमले, उदय होय मिथ्या जब चले । यह अनन्त श्रनुबन्ध निवार, प्रणभ्‌ सिद्ध महासुखकार ॥२६॥ 35 ह्वीं अनन्तानुबन्धीमायाकर्म रहिताय नमः श्रच्यें० । लोम उदय निर्मालय दर्व, भक्षे महानिद मति सबव। यह अनन्त भ्रनुबन्ध निवार, भये सिद्ध प्रशम्‌' सुखकार ॥२७॥ ३ हीं भ्रनन्तानुबन्धोलोधक्ं रहिताय नमः अच्यं० । सुन्दरी क्रोध करि अश्रणुत्रत नहि लीजिए, चरितमोह प्रकृति सु भनोजिए | है श्रप्रत्याख्यानी कर्म सो, भये सिद्ध नम! तिन नासियो ॥२८॥ 3+ ही भ्रप्रत्यास्थावाव रशाक्रोधकर्म रहिताय नम: प्रध्यें० | द४ ] [ सिद्धचआ विभाग मान करि ग्रणुव्रत न हो कदा, रहै श्रत्र॒त युत दर्शन सदा । है श्रप्रत्यर्थानी कर्म सो, भये सिद्ध नमू तिन नासियों ॥२९॥ $# हीं भ्रप्॒त्या्यातावरणमानकर्म रहिताय नमः अध्ये०। देशबती श्रावक नहीं होत है, वक़ताकों जहँ उद्योत है । है श्रप्रत्यास्यानी कर्म सो, भये सिद्ध नम तिन नासियों ॥३०॥॥ ३ हुं श्रप्रःपास्यानाव रणामायाविमुक्ताय नम: अ्रध्ये० । मोह लोभ चरित जे जिय बसे, देशब्गत श्रावक नहीं ते लसे । है श्रप्रत्याख्यानी कम सो, भये सिद्ध नसु तिन नासियों ॥३१॥ 5 हीं भ्रप्रत्यास्यानावरणलोभविमुक्ताय नमः श्रध्यं० । ग्रडिल्‍ल छुन्द प्रत्यास्यानी क्रोध सहित जे श्राच्रे, देशब्रती सो सकल व्रत नाहों घरे। चारितमोह सु प्रकृति रूप तिह नाम है, नाश कियो सें नमूं सिद्ध शिवधास है ॥३२॥ 5 हूं प्रत्याल्यथानावरणक्रोधबिमुक्ताय नम: प्रध्यं० । प्रत्यास्यानभिमान महान न शक्ति है। जास उदय प्रणसंयम श्रव्यक्त है। चारितमोह सु प्रकृति रूप तिह नाम है, ताश कियो मैं नमूं सिद्ध शिवधास है ॥३३॥ 3 हीं प्रत्यास्यानावरणमानरहिताय नमः अध्यें० । प्रत्याव्यानी माया सुनि-पदकों हते, श्रावकब्रत पुरण नहीं खंडे जासतें। चारितमोह सु प्रकृति रूप तिह नाम है, नाश कियो में तमूं सिद्ध शिवधाम है ॥३४॥ # हुं प्रत्यास्यानावरणमायारहिताय नमः भ्रध्ये० । बष्ठम पूजा ] [६५ आवक पदमें जास लोभकों वास है, प्रत्याख्यानी भ्र्‌ तमें संज्ञा तास है। चारितमोह सु प्रकृति रूप तिह नाम है, नाश कियो में नमूं सिद्ध शिवधाम है ॥३५॥ # हुं प्रत्यास्यातावरणलोभरहिताय तमः भ्रध्यं० । भूजंगप्रयात यथारुयात चारित्रको नाश कारा, महात्रतः को जासमें हो उजारा। यही संज्वलन क्रोध सिद्धांत गाया, नम सिद्ध के चरण ताको नसाया ॥३६॥ 5 दी संज्बलनक्रोध रहिताय नम: भ्रध्य॑० । रहै संज्बलन रूप उद्योत जेते, न हो सबंधा शुद्धता भाव तेते। यही संज्वलन मान्र सिद्धांत गाया, नमूं सिद्धके चररण ताको नसाया ॥३७॥ ३» ह्लीं संज्वलनमानरहिताय नम: प्रघ्यं० । बहै संज्वलन की जहां मन्द धारा, लहे है तहां शुक्लध्यानी उभारा। यही संज्वलन माया सिद्धांत गाया, नमूं सिद्धफे चरण ताको नसाया ॥३८॥ & हीं संज्वलनमानरहिताय नमः अघ्य ० । जहां सघंज्वलन लोभ है रंच नाहों, निजानन्द को वास होवे तहां हो। यही संज्वलन लोभ सिद्धांत गाया, नम्‌ं सिद्धके चररण ताको नसाया ॥३६॥ % ह्लों संज्वलनलोभरहिताय नमः अध्यं० । सोदक जा करि हास्प भाव जुत लहारताह, हास्य किये परको यह पार्ताह । सो तुम नाश कियो जगनार्थाह, जीत नम तुमको धरि हार्थाह ॥४० ऋ हीं हास्यकर्म रहिताय नमः अर्घ्य॑ ० । प्रीति कर॑ पर सों रति मार्नाह, सो रति भेद विधि तिस जानहि। सो तुम नाश कियो जगनार्थहृ,शीश नम तुस्को धरि हार्थाहि ॥४१ 3» हो रतिकमंरहिताय नमः अध्ये ० । जो परसों परसन्त न हो मन, श्रारति रूप रहै निज आ्रानन । सो तुम नाश कियो जगनार्थाह,श्ीस नम्‌' तुमको धरि हार्थाह १४२ 3 छ्लीं अरतिकरम रहिताय नमः अध्यं० । जा करि पावत इष्ट वियोर्गाह, खेदमई परिणाम सु शोर्काह । सो तुम नाश कियो जगनार्थाहे, शीस नम्‌' तुमको घरि हार्थाह ॥४३ 3+ ह्वीं शोकक मं रहिताय नमः अर्घ्य ० । हो उद्वंग उच्चाटन रूर्पाहि, मन तन कंपित होत अश्ररूरपहि। सो तुम नाश कियो जगनार्थाह,श्षीस नम्‌' तुमको धरि हार्थाह !४४ # हों भयकरम रहिताय नमः अध्य ०। सबंया जो परको भ्रपराध उघारत, जो अ्रपनो कछ दोष न जाने । जो परके गुरण श्ौगुरा जानत, जो श्रपने गुर को प्रगटाने ॥ सो जिनराज बखान जुगुप्सित, है जियनो विधिके वश ऐसो । हे भगवंत ! नम्‌ तुमको, तुम जीति लियो छिन में श्ररि तेसो ॥४५ 3 हों जुगुप्साकर्म रहिताय नम: श्रष्य ० । जो नर नारि रमावन को, निजसों भ्रभिलाष धरे मनमाहों । सो प्रति हो परकाश हिये नित, काम को दाह मद छितमाहों, ॥ ध्ष्टम पूजा |] [| ६७ सो जिनराज बखान नपु सक, वेद हनो विधिके वश्ञ ऐसो । हे भगवंत ! नम्‌ तुमको तुम जीति लियो छिन झरि तेसतो ॥४६॥ छ ह्वीं नपु सकवेदरहिताय नमः श्रध्य ० । जो तिय संग रमें विधि यो मन, औरन से कछ श्रानन्द माने । किचित काम जग उर में नित, शांति सुभावन की सुधि ठाने ॥ सो जिनराज, बखानत है, नर-वेद हनो विधिके बश् ऐसो । है भगवंत ! नम्‌ तुमको तुम,जोत लियो छिन में श्ररि तेसो ॥४७॥ &# हीं पुरुषवेदरहिताय नमः अध्यं० । जो नर संग रमें सुख मानत, श्रन्तर गृढ़ न जानत कोई । हाव विलास हि लाज धरे मन, श्रातुरता करि तृप्त न होई ॥ सो जिनराज बखानत है, तिय-वेद हनो विधिके वच्ध ऐसो । हे भगवंत! नमू' तुमको तुम, जीत लियो छिन में श्ररि तेसो ॥४८॥ # हीं स्त्रोवेदरहिताय नमः प्रध्यें ० । बसन्ततिलका प्रायु प्रमाण दृढ़ बन्धन श्रौर नाहों, गत्यानुसार थिति पूरण करण नाहीं ॥ सोई विनाश कौोनों तुम देव नाथा, बंदू तुम्हें तरणकारण जोर हाथा ॥४६९॥ ३* हीं प्रायुकमंर हिताय नमः प्रध्यं० ॥॥४६॥ जो है कलेश शभ्रवधि सब होत जासों, तेतीस सागर रहे थिति नरक तासों । सोई विनाश कीनों तुम देव नाथा, बन्दू' तुम्हें तरणकारण जोर हाथा ॥५०॥ ४ हीं नरकायुरहिता।य तम्ः भ्रध्यं० ॥५०॥ द््द ] [ सिद्धचक विधान पाही प्रकार जितने दिन देव देहो, नासे ब्रकाल नहिं जे सुर झायु से ही । सोई विनाश कीनों तुम देव नाथा, बन्दू' तुम्हें तरणतारण जोर हाथा ॥५१॥ & छरीं देवायुरहिताय नमः अ्रध्य॑० ॥५१॥ जातों करें त्रियंक की थिति श्राउ पूरी, सोई कहो त्रिजग श्रायु महा लघूरी। सोई विनाश कोनों तुम देव नाथा, बन्दू तुम्हें तरणकारण जोर हाथा ॥५२॥ 5» ह्वीं तिर्यंचायुरहिताय नमः भ्रध्यं ० ॥५२॥ जेते नरायु विधि दे रस आ्राप जाको, तेते प्रजाय. नर रूप भुगाय ताकों । सोई विनाश कोनों तुम देव नाथा, बन्दू' तुम्हें तररणाकारण जोर हाथा ॥५३॥ # हीं मनुष्यायुरहिताय नमः भ्रध्यं० ।।५३॥ जो करे जीवको बहु प्रकार, ज्यों चित्रकार चित्राम सार। सो नामक तुम ताश कीन, में नम सद। उर भक्तिलीन ॥५४ 3 हों नामक रहिताय नमः ग्रध्यं०। जासों उपजे तिर्यंच जीव, रहै ज्ञानहीन निरबंल सदोव । सो तियग्गति तुम नाश कोन, में नम सदा उर भक्तिलोन ॥५५॥ # हीं तियंच्रनातिरहिताय नमः श्रध्य ०। जा उदय नारकी देह पाय, नाना दुख भोगे नक॑ जाय । सो नरकगतो तुम नाश कोन, में न॒मु सद। उर भक्तिलोन ॥५६॥ 35 ह्वों तरकगतिरहिताय नमः श्रध्य॑० ॥ चउ विधि सुरपद जासों लहाय, विषय।तुर नित भोगे उपाय । सो देवगती तुम नाश कौन, में नम सदा उर भक्तिलोन ॥५७॥ # हो देवगतिकम रहिताय नमः भ्रध्य ० | 5 वप्ठस पूथा | [ ६६ जा उदय भये मानुष्य होत, लहे नीच ऊंच ताको उद्योत । सो मानुष गति तुम नाश कोन,में नम सदा उर भक्तिलीन ॥५८ # हो मनुष्यगतिरहिताप नमः श्रष्य ० । कामिनीमोहन एक ही भाव सामान्यका पावना, जीवकी जातिका भेद सो गावना । होत जो थावरा एक इन्द्री कहो,पुजहूँ सि्धके चरण ताको दहो ॥५६ # हों एकेन्द्रिय-जातिरहिताय नमः प्रध्य ० ॥५६॥ फसंके साथमें जीभ जो प्रा मिले, पांयसों श्रापने श्राप भूपर चले। गामिनी कर्मसो तीन इन्द्री कहो,पृ जहूँ सिद्धके चररा ताको दहो ॥६० % हीं दी रद्रिय-जातिरहिताय नमः श्रध्यं ० । नाक हो श्रौर दो भ्रादिके जोड़ में, हो उदय चालना योगसों लोड में । गामिनो करमंसो तीन इन्द्री कहो,पृजहूं सिडधके चरराताकों दहो ॥६१ ३ ढ्वं त्रोन्द्रियजातिरहिताय नमः प्रध्यं० ॥६१॥। ध्रांख हो श्रोर नाक हो जोम हो फश्ं हो, कान के शब्द का ज्ञान जामें न हो। गासिनो कर्म सों चार इन्द्री कहो, पूजहूँ सिद्ध के चरण ताको दहो ॥६२॥ ३ हों चतुरिन्द्रियतातिर हताय नमः पअर्ध्यं० ॥६२॥। कान भी श्रा मिले जोव को जाति में, हो श्रसंज्ञों सुसंज्ञी दो भांति में। गासिनी कर्म को पंच इन्द्री कहो, पूजहूँ सिद्ध के चरण ताको दहो ॥६३॥ # हीं पंचेंद्रयजातिरहिताय नमः प्रध्यें० ॥६३॥ ७० ] [ सिद्ध चक्र विधान लावनी हो उदार जो प्रगट उदारिक, नाम कर्मकों प्रकृति भनो । लहै झ्ौदारिक देह जीव तिस, कर्म प्रकृतिके उदय तनो ॥ भये भ्रकाय श्रमूरति आ्रानन्‍्द,-पु ज चिदातम ज्योति बनो । नम तुम्हें कर जोर युगल तुम सकल रोगथल काथ हनी ॥६४॥ # हीं ओदारिकशरीर विमुक्ताय नमः भ्रध्यें० ॥६४॥ निज शरीर को अ्रशिमादिक करि, बहु प्रकार प्रणमाय वरे। वेक्रिय तन कहलावे है यह, देव नारकी मूल धरे "भये श्रकाय०॥ % हीं वेक्रिधिकशरी रविमुक्ताय नमः भ्रध्यं० ॥६५॥ धवल वर्ण शुभ योगी संशय-हरण प्रहारशका पुतला । जो प्रमत्त गुशथानक मुनिके,देह श्रौदारिकसों निकला ॥भये भ्र० 5» हीं आहारकशरोरहिताय नमः अध्य ० ॥६६॥ पुदूगलीक तन कर्म वर्गरगा, कारमाण परदीप्त करण । तेजस नाम शरीर शास्त्रमें, गावत हैं नाह तेज वरण ॥भये श्र०॥ 3 हीं तेजस ॥ रीरहिताय नमः अर्ध्य॑ ० ॥६७॥ पुदुगलोक बरगणा जोबसों, एक क्षेत्र श्रवगाही है । तृतन कारण करण मूल तन, कारमाण तिस नाम कहें ॥भये श्र०॥ &# हों कार्माणशरीरहिताय नमः अर्ध्य॑० ॥६८॥ इन्द्रवच्ा जंते प्रदेशा तन बीच श्राव, सारे मिलें जोड़ न छिद्र पावें । संघात नामा जिय देह जानो, पूजू' तुम्हें सिद्ध यह कर्म हानो ॥ * हों भोदारिकसंघातरहिताथ नमः अच्य॑ ० ॥६६॥ ऐसे प्रकारा तनमें श्राहरा, संधी मिलावा कर वेतसारा । संघात नामा जिय देह जानो, पूजू' तुम्हें सिद्ध यह कर्म हानो ॥ # ह्वीं आहारकसंघातरहिताय नमः श्रष्यं० ॥७०॥ वच्ठम पूजा ] ह [७ वक्रिय के जोड़ जो होत ताही, संघातनामा जिन बेन भाहीं । संघात नामा जिय देह जानो,पूजू तुम्हें सिद्ध यह कर्म मानों ॥ ३ ह्वीं बेक्रियसंघात रहिताय नमः अध्ये ० ॥१७१॥ तेजस्सके श्रंग उपंग सारे, संधी मिलाया तिस मांहि धारे। संघात नामा जिय देह जानो, पुज्ञ तुम्हें सिद्ध यह कर्म हानो ॥७२ ३& ह्वीं तेअनससंघातरहिताय नमः अध्ये० । ज्ञानादि श्रावर्श जो कमं-काया,ताको मिलाया श्र्‌ त मांहि माया। संघात नासा जिय द्वेह जानो, पुजू तुम्हें सिद्ध यह कर्म हानो ॥७३ ३» ह्वीं कार्माणसंघातरहिताय नमः श्रर्ष्य ० । चौबोला पुदगलीक वर्गणा जोग तें जब जिय करत श्रहारा । प्रशवावे तिनकों एकन्न करि, बंध उदय श्रनुसारा ७ यही श्रौदारिक बन्धन तुमने, छेद किये निरधारा। भये श्रबंध श्रकाय श्रनूपणम, जजूं भक्ति उर धारा ॥७४॥ 3% हीं श्रोदारिकबन्धनरहिताप नमः श्रष्यें० । वेक्रियक तनु परमाण मिल, परस्परा श्रतिवारा । हो स्कन्ध रूप पर्याई, यह बन्धन परकारा॥ बेक्रियिक तनु बन्धन तुमने छेद कियो निरधारा। भये भ्रबंध श्रकाय श्रनूपणम जजू भक्ति उरघारा ॥७४॥ 5 हीं वेक्रिधिकबन्धनच्छेदकाय नमः प्रध्यें०। मुनि शरोरसों बाहिज निसरे, संशय नाशनहारा । ताको मिले प्रदेश परस्पर, हो सम्बन्ध श्रवारा ॥ यही श्रह्ारक बन्धन तुमने, छेद कियो निरधारा। भये अश्रबंध श्रकाय अ्रतुपम जजू' भक्ति उरधारा ॥७६॥। & हों श्राहारकबन्धनच्छेदकाय नमः प्रच्य॑० । रे] | सिदचआ विधान दीप्त जोती जो कारमाणकोी, रहै निरन्तर लारा । जहां तहां नहिं बिखर किन ज्यों, बहै एक ही धारा ॥ तेजस नामा बंधन तुमने छेद कियो निरधारा । भये ब्रबंध प्रकाय प्रनूपम जजू भक्ति उरधारा ॥७७॥ # छ्वीं तेजसबन्धनरहिताय नम: श्रध्यं० । द्रव्य कमं ज्ञानावरणादिक, पृदगल जाति पसारा। एक क्षेत्र श्रवगाही जियको, दुविधि भाव करतारा ॥ कारमाश यह बंधन तुमने, छेद कियो मिरधारा । भये भ्रबंध भ्रकाय भ्रनूपम जज्‌ भक्ति उरधारा ॥७८॥ ३» हीं कार्माणबन्धन रहिताय नमः भ्रध्य॑० । दोला तन श्राकृत संस्थान श्रादि, समचत्रखत्र बखानो, ऊपर तले समान यथाविधि सुन्दर जानो। «हैं विपरीत स्वरूप त्याग, पायो निजात्म पद, बीजमूत कल्याण नमूँ भव्यनिप्रति सुखप्रद ॥७६॥ # हों समचतुरख्रसंस्थानविमुक्ताय नमः प्रध्ये० । ऊपर से हो थूल तले हो न्यून देह जिस, परिमण्डलनिग्रोध नाम वरणो सिद्धांत तिस ॥यह विप०॥८०॥ % हीं न्यग्रोधपरिमण्ड लसंस्थानरहिताय नम: भ्रष्य० । नोचेसे हे थूल न्यून होवे उपराही, बमई सम वासीक देह जिन श्राज्ञा साहीं यह जिपरीत०॥८१॥ उ+ हीं वामीकसंस्थानरहिताय नम: भ्रध्यं० । जो कूबड़ श्राकार रूप पावे तन प्राणी, कुब्ज नाम संस्थान ताहि बरणें जिन बानी ॥यह्‌ विष०॥८२॥ 3 हीं कुब्जकनामसंस्थानराहताय नम: श्रध्य॑० । लघुसों लघु ठगना रूप एम तन होबे जाको, बासनहै १रसिद्धलोक मे कहिये ताको ॥यह्‌ विपरीत०॥६३॥ # ह्लोंबामन सस्थानरहिताय नमः अध्य ७ धष्ठंम पूझा | [७१ जित तित बहु प्राकार कहों नह हो यकसा: , हुंडक प्रति झसुहावन पाप फल प्रगट उघारू ॥ यह विप०॥८४॥ # हीं हु डकसंस्थानरहिताय तमः अध्य० । लक्ष्मीघरा जीव श्रापभावसों जु कर्मकी क्विया करेत, झंग वा उपंग सो दारीर के उदय समेत । सो झौदारिकोी शरीर श्रंग वा उपंग नाश, सिद्ध रूप हो नम्तों सु पाइयो भ्रवाध वास ॥८४५॥ 8४% हों श्रौदारिकांगोपांग रहिताय नमः झ्रध्य ० देव नारकी शरीर मांस रक्त से न होत, तास को श्रनेक भांति श्राप देसक उद्योत । बेक्निथिक सो शरीर श्रंग वा उपंग नाश, सिद्धरूप हो नमों सु पाइयो श्रवाध वास ॥८६॥ 3 हीं वेक्रियिक्मां गोपांग रहिताय नप्तः श्रघ्य॑० । साधुके शरोर मूल-तें कढ़ें प्रशंसयोग, संशय को विध्वंसकार केवली सु लेत भोग । श्राहदरक सो दहारीर श्रंग बा उपंग नाश, सिद्ध रूप हो नमों सु पाइयो श्रबाध वास ॥८७॥। # हीं भ्राहरकांगोपांग रहिताय नमः श्रघ्ये० गोता संहनन बन्धन हाड़ होय श्रभेद वच्च सो नाम है, नाराच कीली वृषभ डोरी बांधने को ठाम है । है श्रादि को जो संहनन जिम वज्ध सब परकार हो, यह त्याग बंध-प्रबंध निवसो परम प्रानन्दभार हो ॥८८॥ ४ छो बच्भरष॑ भनाराचसंहनन रहिताय नमः प्रध्य॑० । [ सिदचक्र विधान ज्यों वत्नकी कोली ठुकी हो हाड़ संधि में जहां, सामान्य वषम जु जेवरी ताकरि बंधाई हो तहां । है दूसरा संहननत यह नाराच वज्च प्रकार हो, यह त्याग बंध-अ्रबंध निवसो परम श्रातन्दधार हो ॥॥८६॥ हों वद्ञनाराचसंहननरहिताय नमः प्रध्यं०। नहिं वज्नकी हो वृषभ श्ररु नाराच भी नहीं बज हो, सामान्य कीलो करि ठु की सब हाड़ वज्‌ समान हो । है तीसरा संहनन जो नाराच ही परकार हो, यह त्याग बंध-भ्रबंध निवसो परम आनन्दधार हो ॥।६०॥ 3% ह्वीं नाराचसंहननरहिताय नम: अध्ये० । हो जड़ित छोटी कीलिका, सो संधि हाड़ों की जबे, कछु ना विशेषरणण वज्‌ के, सामान्य हो होवे सब । है चोथवां संहनन जो, नाराच श्रद्धं प्रकार हो, यह त्याग बंध-अ्रबंध निवसौ, परम श्रानंदधार हो ॥६१॥ 5 हीं प्रद्धंना राचसंहनन रहिताय नमः प्रध्यं० । जो परस्पर जड़ित होवे, संधि हाड़नकी जहां, नहिं कोलिका सो ठुकी होवे, साल संधी के तहां । है पांचवां संहूनन जो, कौलक नाम कहा हो, यह त्याग बन्ध-भ्रवन्ध निवसौ, परम आ्रानन्दधार हो ॥६२७ ३ हों कीलकसंहननरहिताय नमः श्रध्य॑० । कछ छिद्र कछुक मिलाप होवे, सन्धि हाड़ोंसय सही, केवल नसासों होय बेढी, मांससों लतपत रही। प्रस्तिम स्फाटिक संहनन यह, होन शक्ति श्रसार हो, यह त्याग बन्ध-अ्रबन्ध निवसो, परम श्रानन्दधार हो ॥६३॥ # हों स्फाटिकसंहननरहिताय नमः अर्घ्य ७ । बसे पूजा ] [ ७४ दोहा वर्ण विशेष न स्वेत है, नामकर्म तन धार स्वच्छ स्वरूपी हो नम ताहि कमंरज टार ॥स्वच्छु० €४॥ 5 हों स्वेतनामकर्म रहिताय नम: अ्ध्यं० । वर्ण विशेष न पोत है, नामकर्म तन धार ॥स्वच्छ ०॥ 3* हीं पीतनामकर्म रहित।य नमः भ्रष्यं ० ॥६५॥ वर्ण विशेष न रक्‍त है, नामकर्म तन धार ॥स्वच्छु ०।। 3* हीं रक्ततामकर्म रहिताय नमः अध्यं० ॥६६॥ वर्ण विशेष न हरित है, नामकर्म तन धार ॥स्वच्छ ०॥। ३ हों हरिततांमकर्म रहिताय नमः अध्ये० ॥६७॥ वर्ण विशेष न कृष्ण है, नामकर्म तन धार ॥।स्वच्छ ०॥। 5 हीं कृष्णनामफर्म रहिताय नमः श्रध्य॑० ॥६८॥॥ गन्ध विशेष न शुभ कहो, नामकर्म तन धार ॥सवच्छ ०॥ 5* हीं सुगन्धनामकर्म रहिताय नभः प्रध्यें० ॥६९॥। गन्ध विशेष ने अ्रशुभ है, तौमकर्स तन धार ॥स्वच्छ ०॥। 3# हीं दुर्गेग्धनामकर्म रहिताय नमः भ्रध्यं० ॥॥१००॥॥ स्वाद विशेष न तिक्‍त है, नामकर्म तन धार ॥स्वरुछु०॥॥ 3# ह्वीं तिक्तरसरहिताय नमः भ्रघ्यं ० ॥१०१॥ स्वाद विशेष न कटुक है, नामकर्म तन धार ॥स्वच्छु०।। 3 हीं कटुकरसरहिताय नम! श्रध्यं० ॥१०२॥ स्वाद विशेष न आम्ल है, नामकर्म तन धार ॥।स्वच्छु ० 3* हों प्राम्लरस रहिताय नमः ग्रध्यं ० ॥१०३। स्वाद विशेष न मधुर है, नामक तन धार ॥स्वच्छ ०॥ 5 हीं मधुररसरहिताय नमः प्रध्यं० ॥१०४। स्वाद विशेष न कषाय है, नामकर्म तन धार ॥स्वच्षछ ० 3+ ह्वीं कषायरसरहिताय नमः श्रध्यं० ॥१०५॥ ७६ ] [ सिठणक विधान फर्स विशेष न नम है, नामकर्म तन धार । स्वच्छ स्वरूपी हो नमु॒ताहि कर्मरज टार ॥स्वच्छु०॥ 5 हों मुदुत्वस्पश रहिताय नम्त: अध्यं ० ॥१०६॥ फर्स विशेष न कठिन है, नामक्स तन धार ॥स्वच्छु ० 5* ह्वीं कठिनस्पर्शरस रहिताय नम: प्रध्यं० ॥१०७। फर्स विशेष न भार है, नामकर्म तन धार ॥स्वच्छु ०॥। % डर गुरुस्पर्श रसहिताय नम: श्रध्य॑० ॥१७८॥ फर्स विशेष न श्रगुरु है, नामकमं तन धार ।।सवच्छु०।। ४» हों लघुस्पश रहिताय नम: भ्रध्यं० ।॥१०६॥॥ फस विशेष न शोत है, नामकर्म तन धार ॥स्वच्छु०॥ <% हों शीतस्पशरहिताय नम: श्रध्यं० ॥११०।। फस विशेष न उष्ण है, नामकर्सम नामकर्म तन ।।स्वच्छ ०॥ ३ ह्वीं उष्णस्पर्श रहित;य नम: भ्रध्य॑० ॥१११॥ फर्स विशेष न चिकरा है, नामकर्म तन धार ॥स्वच्छ ०॥ 3» ह्रीं स्निग्धस्पश रहिताय नम: भ्रघ्यं० ॥११२॥ फर्स विशेष न रूक्ष है, नामकर्म तन धार ॥स्वच्छु०॥ 3» हीं रूक्षस्पशेरहिताय नम: भ्रध्यं ० ॥५१३॥ मरह॒ठा हो जो प्रजाप्त वर, पणइन्द्रीधर, जाय नक॑ निरधार, विग्रहसु चाल में, श्रन्तराल में धर॑ पूर्व श्राकार। सो नक॑ सानकरि, गावत गणधर, प्रानुपर्वी सार । तुम ताहि नशायो, शिवगति पायो, नमित लहूं मवपार॥११४॥ 3» छ्लों नरकगत्यानुपृर्वाछिदकाय नम: भ्रध्य॑० । निजकाय छांडकरि, भ्रन्त समय मरि, होय पश्चु भ्रवतार, विप्रहसु चाल में, प्रन्तराल में, धरें, पुवं झाकार । बष्ठम पूथा ] [ ७७ सो तियं सान करि, गावत गराधर, झआानुपुर्वी सार । तुम ताहि नशायो, शिवगति पायो, नमित लहूं भवपार ॥११४॥ 3 ह्रीं तिर्यत्रगत्यानुपुर्थी विमुक्काय नम: प्रध्यं ७ । समकितसों मर, बा कलेश करि, धर्राह देवगति चार। विहग्रसु चाल में, श्रन्तराल में, धर पूर्व श्राकार । सो देव मानि करि, गावत गरणघर, श्रानुपर्वोतार । तुम ताहि नशायों, शिवगति पायो, नमित लहूं भवपार ॥११६॥ 5» हीं देवगत्यानुपूर्वो विमुक्ताय नमः प्रध्य॑ ० । हो मिश्र प्रशामी वा शिवगामी वर॑मनुजगति सार । विग्रहसु चाल में श्रन्तराल में धर पूर्व श्राकार। सो मनुष्य मान करि गावत गराधर श्नुपूर्वो सार । तुम ताहि तशायों शिवगति पायो नमित लहूँ भवपार ॥११७॥ 53% हों मनुष्यगत्यानुपुर्वोविभुक्ताय नमः भ्रध्यं० । त्रोटक तनभार भए निज घात ठने,तिसकी कछ विधि ऐसो श्राकृति बने । अ्रपघात सुकर्म सिद्धांत भनो,जग पूज्य भए तसु मूल हनो ॥११८॥ 5 ही श्रपधातकमं रहिताय नम: भ्रध्यं ० । विष आदि श्रनेक उपाधि धरं, पर प्राणनिको निर्मूल करे । परघाति सु कर्म सिद्धांत भनो, जग पूज्य भए तसु मूल हनो ॥११६ 5 हीं परघातनामकर्स रहिताय नम्तः अध्ये० । प्रति तेजमई, परदोप्त महा, रवि-बिब विष जिय भूमि लहा । यह श्रातप कर्स सिद्धांत भनो, जग पूज्य भये जग तिस मूल हनो ॥ 5 हीं भ्रतितेजमयो श्रातप-नामकम रहिताय नमः प्रध्यं०॥१२०॥॥ परकासमई जिन बिब दकज्षी, पृथिवी जिय पावत देह इसी । चूति नाम सुकर्म सिद्धांत भनो, जग पूज्य मये तिस मूल हनो ॥। 3 छ्रों उद्यातनामकर्म रहित।य नम: भ्रध्य॑० ॥१२१॥ छद |] | लिदचक् विधात तनकी थिति काररा स्वास गहै, स्वर श्रन्तर बाहर मेद बहे। यह स्वास सुकरम सिद्धांत भनो, जग पूज्य भये तसु मूल हनो ॥ ३* ह्वों स्वासकर्म रहिताय नम: अ्ध्यं० ॥१२२॥ शुम चाल चलें ग्रपनी जिसमें, शशि ज्यों नम सोहत है तिसमें। नभमें गति कर्म सिद्धांत भतनो, जग पूज्य भये तिस मूल हनो ॥ 5 क्लों विहायोगतिनाम कमंविमुक्तिय नमः श्रष्यं० ॥१२३॥ इक इन्द्रिय जात विरोध मई, चतुरांति सुभावक प्राप्त भई । श्रस नाम सुकर्म सिद्धांत भनो, जग पूज्य भये तिस मल हनो ॥ 3% हों त्रसनामकर्म रहिताय नम्त: श्रध्यं० ॥१२४॥ इक इन्द्रिय जातहि पावत है, श्रर शेष न ताहि धरावत है। यह थावर कर्म घिद्धांत भनो, जग पूज्य भये तिस मूल हनो ७ 3% हों थावरनामकमम रहिताय नम: श्रष्यें० ॥१२५॥। परमें परवेश न श्राप कर, परको निजसमें नह थाप धरे। यह बादर कर्म सिद्धांत भनो, जग प्‌ज्य भये तिस मूल हनो ॥ 3» हों वादरनामकर्म रहिताय नमः श्रध्य॑ं० ॥१२६॥ जलसों दवसों नहीं श्राप मरे, सब ठौर रहे परको न हर । यह सुक्षम कर्म सिद्धांत भनो, जग पूज्य मये तिस मूल हनो ॥ 5 हीं सुक््मनामकर्म रहिताय नम: श्रध्य॑० ॥|१२७॥। जिसतें परिप्रणता करि है, निज शक्ति समान उदय धरि है। पर्याप्त सुकम॑ सिद्धांत भनो, जग पूज्य भये तिस मूल हनो ॥ 5 हीं पर्याप्तकर्म रहिताय नस: अ्रध्यं ० ॥१२८॥। परिप्रणता नहह धार सके, यह होत सभो साधारण के । श्रपरयापति कर्म सिद्धांत भनो, जग पूज्य भये तसु मूल हनो ॥ 3» हीं श्रपर्याप्तकर्मरहिताय नम: श्रध्य॑० ॥१८६।॥ जिम लोहन भार धरे तन में, जिम श्राकन फूल उड़े बन में । है श्रगुरुलधु यह भेद भनो, जग प्‌ज्य भये तसु मूल हनो ॥ ह हुं श्रगुरलधुकमंरहिताय नम्त: झा्यं० ॥१३०॥ धष्ठन पूणा ] [७६ इक देह विषें इक जीव रहै, इकलो तिसको सब भोग लहै। परतेक सुकर्म सिद्धांत मनो, जग पूज्य भये तसु मल हनो ॥ 5 हीं प्रत्येककर्म रहिताय नमः श्रष्यं० ॥१३१॥ इक देह विषें बहु जीव रहैँ, इक साथ सभी तित्त भोग लहैं। यह भेद निगोद सिद्धांत भनो, जग पूज्य भये तसु मूल हनो ॥ ३» हां साधारणनामकमसर हिताय नमः अध्यें० ।.१३२॥। उपेन्द्रवज्ा चले न जो धातु तजे न वासा, यथाविधि श्राप धर निवासा। यही प्रकारा थिर नाम भासो, नमासि देव तिस्त देह नासो ॥ 3 हीं स्थिरनामकर्म रहिताय नमः अध्यें० ॥१३३॥ अ्रनेक थानं सुख गोरा धातं, चलंति धारं निजवासधातं। यहो प्रकाराईथिर नाम भासो, नमामि देवं तिस देह नासो ॥ ३ हों अस्थिरनामकर्म रहिताय नमः अ्य ० (॥१३४॥ यथाविधी देह विलास सोहे, मुखारविदादिक सर्व सोहै । यही प्रकारा शुभ नाम भासो, नमामि देवं तिस देह नासो ॥ 3» हों शुभनामकर्म रहिताय नप्त: अध्ये ० ॥१३५॥ प्रसुन्दराकार दरीर मांहो, लखों जहाँसों विडरूप ताहीं। यहे प्रकाराइशुभ नाम भासो, नमामि देवं तिस देह नासो ॥१३६ 3» ह्वलीं अशुभनामकम रहिताय नमः अध्ये ० । झनेक लोकोत्तम भावधारी, करें सभी तापर प्रीति भारी । सुभगता को यह भेद मासो, नमाभि देवं तिस देह नासो ॥१३७॥ 3& हीं सुभगनामकर्म रहिताय नस: अध्ये० । धर श्रनेका गुण तो न जासों, कर कभो प्रीति न कोई तासों । दुर्भाग ताको यह भेद भासो, नमासि देव तिस देह नासो ४१३८॥ $* ह्डीं दुर्भंगनासकर्म रहिताय नमः अध्यं ० । ढं [ सिद्धचक् विधान पड़ड़ी छन्द ध्वनि बीन भांति ज्यों मधुर बन, निसर पिक आदिक सुरस देन । यह सुस्वर नाम प्रकृति कहाय,तुम हनी नमूं निज शीस लाय ॥१३६ # हीं सुस्वरनामकर्म रहिताय नमः अध्ये० । गद्द भस्वर ज॑सो कहो भास, तेसो रव भ्रशुम कहो सु भास । यह दुस्वर नाम प्रकृति कहाय, तुम हनी नमूं जिन शीस लाय ॥१४० ३ हीं दुस्वरनामकर्मरहिताय नम: अध्ये ० । अ्रडिल्‍ल होत प्रभामई कांति महा रमणोक जू। जग जन मन मावन माने यह ठोक जू ॥ यह भ्रादेय सुप्रकृति नाश निजपद लहो। ध्यावत हैं जगनाथ तुम्हें हम श्रघं दहो ॥॥१४१॥ 3# ह्वीं आदेयनामकर्म रहिताय नमः अध्ये ० । रूखो मुखकों बरण लेश नह कांतिकों । रूखे केश नखाकृति तन बढ़ भांतिकों ॥ श्रनादेय यह प्रकृति नाश निजपद लहों । ध्यावत हैं जगनाथ तुम्हें हम श्रघ दहों ॥१४२॥ 3> छो अनादेयनामकर्म रहिताय नमः अध्ये० । होत गुप्त गुण तो भो जगमें विस्तरें। जगजन सुजस उचारत ताको थुति करें ॥ यह शस प्रकृति विनाश सुभावी यश्ञ लहो । ध्यावत हैं जगनाथ तुम्हें हम श्रथ दहो ॥१४३॥ ३5 हों यशः प्रकृतिछेदकाय नमः अध्ये० । जासु गुरानकों श्रोगुणा कर सब ही प्रहैं । करत काज परशंसित परा निदित कहें ॥ धह्ुम पूजा ] [ 5८१ अ्रपयश्ञ प्रकृति विनाश सुभावी यद्ा लहो, ध्यावत हैं जगनाथ तम्हें हम श्रघ दहो ।॥१४४।॥ 55 हीं मपयशःनामकर्म रहिताय नमः अध्ये० । योग थान नेत्रादिक ज्यों के त्यों बनों । रचित चतुर कारोगर करते हैं तनो ॥ यह निर्माण विनाज्ञ सुभावी पद लहो, ध्यावत हैं जगनाथ तुम्हें हम श्रघ दहो ॥ १४ ४५॥। 3» हीं निर्माणनामकम रहिताय नमः अध्यं० । पंचकल्यारणक चोंतिस श्रतिशय राजहीं, प्रातिहार्य श्रठ समोसरण द्यूति छाजहीं । तोथंकर विधि विभव नाश निजपद लहो, ध्यावत हैं जगनाथ तुम्हें हम श्रध दही ॥१४६॥ ३ हीं तोर्थंकरप्रकृतिरहिताय नमः अध्यं० । (चाल छंद) जो कुम्भकार को नाई, छिन घट छिन करत सुराई। सो गोत कर्म परजारा, हम पुज रचो सुखकारा ॥१४७॥ # हों गोत्रक्मरहिताय नमः अध्यं० । लोक निमें पूज्य प्रधाना, सब करत विनय सनमाना। यह ऊंच गोत्र परजारा, हम पूज रचो सुखकारा ॥१४८॥ ३5 छ्ली उच्चगोत्रफर्म रहिताय नम: भ्रध्य॑० । जिसको सब कहत कमीना, आचरण धरे श्रति हीना । यह नीच गोन्न परजारा, हम पूज रचो सुखकारा ॥१४६॥ # छ्लीं नोचगोत्रक्म रहिताय नमः भ्रध्यं० । ज्यों दे न सके भण्डारी, परधनकों हो रखवारी । यह अन्तराय परजारा, हम पूज रचो सुखकारा ॥१५०॥ ३> ही अन्तर|यकर्म रहिताय नमः श्रध्यें० । ८२ ] [ सिद्धसक्र विधान हो दान देनकों भावा, दे सके न कोटि उपावा। दानांतराय परजारा, हम पूज रचो सुखकारा ॥१५१॥ # हुं दानांतरायकर्म रहिताय नमः भ्रघ्यें० । मन दान लेन को भावे, दातार प्रसंग न पाव। लामांतराय परजारा, हम पूज रचो सुखकारा ॥१५२॥ &४ हीं लाभांतरायकमरहिताय नमः श्रध्यं० । बुष्पादिक चाहै भोगा, पर पाय न श्रवसर योगा । भोगांत राय परजारा, हम पूज रचो सुखकारा ॥१४५३॥ 5 हीं भोगांतरायकर्म रहिताय नमः अ्रध्य॑० । तिय श्रादिक बारम्बारा, नहिं भोग सके हितकारा । उपभोगांतराय परजारा, हम पूज रचो सूखकारा ॥१४५४॥। 3 हों उपभोगांतरायकर्मरहिताय नमः पअरध्यं० । चेतन निज बल प्रकटावे, यह योग कबहुं नह पावे । वीर्यान्तराय परजारा, हम पूज रचो सुखकारा ॥१५५॥ 3* हीं बोर्पान्तरायकर्म रहिताय नम: श्रध्यं ० । ज्ञानावरणादिक नामी, निज काज उदय परिरामी । प्रठ भेद कर्म परजारा, हम पूज रचो सूखकारा ॥१५६॥ 5> हीं भ्रष्टकमं रहिताय नम: श्रच्य॑०। इकसो श्रड़ताल प्रकारो, उत्तर विधि सत्ता धारो। सब प्रकृति कर्म परजारा, हम पूज रचो सुखकारा ॥१५७॥ 5 हीं एकशताष्टचत्वारिशत्‌ कर्मप्रकृतिरहिताय नमः अध्ये० । पररणाम भेद संख्याता, जो वचन योग में श्राता । संख्यात कर्म परजारा, हम पूज रचो सुखकारा ॥१५८५ $ हों संख्यातकर्म रहिताय नमः अध्ये० । घध्ठम पूजा ] [ घ्३ है बचननसों अधिकाई, परिणाम भेद दुखदाई। विधि भ्रसंख्यात परजारा, हम पूज रचो सुखकारा ॥१५६॥ ३* हीं असंख्यातकम रहिताय नमः अध्ध्य० । अ्रविभाग प्रछेद भ्रनन्ता, यह केवलज्ञान लह॒न्ता । यह कम प्रनन्त परजारा, हम पूज रचो सुखकारा ॥१६०॥ # हीं प्रनन्तकर्म रहिताय नमः अर्घ्य ० । सब भाग शअ्रनन्तानन्ता, यह सुक्ष्मभाव धरनन्‍्ता। विधि नन्‍्तानन्त परजारा, हम पूज रचो सुखकारा ॥१६१॥॥ ३ ह्रीं अनन्तानन्तकर्म रहिताय नमः अध्यें० । मोतियादाम न हो परिरषाम विषें कछ खेद, सदा इकसा प्रणव बिन भेद । निजाशित भाव रमे सुखधाम, करूं तिस अ्र/नन्दकों पिरणास ॥ 3 ह्रीं श्रानन्दस्वभावाय तम: श्रघ्यं० ॥१६२॥ धर जितने परिरामन भेद, विशेषनि ते सब ही बिन भेद । पराश्चितता बिन झ्ानन्द धर्म, नमू तिन पाय लहूं पद ह्षा्म ॥ 3 हीं अतन्दरधर्माय नम: अ्रध्यं० ॥।१६३॥ न हो परयोग निर्मित्त विभाव, सदा निवसे निज प्रानन्द भाव । यहीं बरणो परमानन्द धर्म, नम तिन पाय लहूं पद पर्म ॥ 3» हीं परमानन्दरधर्माय नमः प्रध्यं० ॥१६४॥ कबहुँ परसों कछ हेष न होत, कबहुं पुनि ह्ष विशेष न होत । रहें नित ही निज भावन लीन, नम पद साम्य सुभाव सु लीन ॥ 3 ह्लीं साम्यस्वभावाय नमः प्रध्यं० ॥१६५॥ निजाकृति में नाह लेश कषाय, अमृरति शांतिमई सुखदाय । प्राकुलता बिन साम्य स्वरूप, नमू तिनको लनित आनन्द रूप ॥ # हों साम्यस्वरूपाय नमः श्रघ्य॑ ० ॥१६६॥ कि [ सिद्चचक्र विधान झनन्‍्त गुणातम द्रव पर्याय, यही विधि श्राप धरें बहु माय । सभी कुमति करि हो श्रललाय, नमू' जिनवंन मली विधि गाय ॥ ३ हीं अनन्तगुणाय नम: श्रष्यं० ॥१६७॥ प्रनन्त गुरातम रूप कहाय, गुणी-गुणा भेद सदा प्रणमाय । महागुण स्वच्छुमयी तुम रूप, नम तिनको पद पाइ श्रनुष ॥ # हों प्रनन्‍्तगुणस्वरुपाय तम: प्रध्य॑ं० ॥१६८॥ अ्रभेद सुभेद अनेक सु एक, धरो इन श्रादिक धर्म श्रनेक । विरोधित भावनसों अविरुद्ध, नम जिन श्रागत को विधि शुद्ध ॥ उ& हों प्रनन्‍्तघर्माय नमः अध्यं० ॥१६६॥ रहै धर्मों नित धर्म सरूप, न हो परदेशनसों श्रन्यरूप । चिदातम धर्म सभी निजरूप, धरो प्रणाम मन भक्ति स्वरूप ॥ > हों प्रतन्तधमंस्वरूपाय नमः अध्यं० ।१७०। चौपाई होनाधिक नहीं भाव विशेष, प्रातमीक आनन्द हमेश । सम स्वभाव सोई सुखराज, प्रराम्‌' सिद्ध मिट भवबास ॥१७१॥ 5 हीं समस्वभावाय नमः ग्रध्यं० ॥॥१७१॥ इष्टानिष्ट मिटो भ्रम जाल, पायो निज श्रानन्द विज्ञाल । साम्य सुधारसको नित मोग, नम्‌' सिद्ध सन्तुष्ठ मनोग ॥ ३» हों सन्तुष्टाय नम: अध्यं० ।॥१७२॥ पर पदार्थ को इच्छुक नाहि, सदा सूखी स्वातम पद माहि। सेटी सकल राग श्ररु दोष, प्रशमू राजत सम सन्‍्तोष ।॥ # हीं समसन्‍्तोषाय नम: श्रच्य॑० ॥१७३॥ सोह उदय सब भाव नसाय, मेटो पुदगलीक पर्योय । शुद्ध निरंजन समगुराा लहो, नम्‌' सिद्ध परकृत दूख वहो ॥ हों साम्पगुराय नमः प्रध्यं० ।.१७४॥ बच्ठमस पूजा ] [ ८५ निजपदसों थिरता नहि तजें, स्वानुभूत प्रनुभव नित भर्ज । निराबाध तिष्ठ श्रविकार, साम्यस्थाई गुर भण्डार ॥ ३5 छ्ो साम्यस्थाय नमः प्रष्यें० ॥१७५॥ भव सम्बन्धी काज निवार, श्रचल रूप तिष्ठं समधार । कृत्याकृत्य साम्य गुण पाइयो, भक्ति सहित हम शीश नाइयो ॥ 35 हीं साम्यकृत्याकृत्यगुणाय नमः प्रध्यं० १७ .। भूलना भूल नहीं मय करें,छोभ नाहों धरें,गेरकी श्रासको त्रास नाहों घरें। शरण काकी चहै, सबनको शरण है, श्रन्य को शरर्ा बिन मम ताहीं वर ॥ ३* हीं अनन्यश रणाय नमः श्रष्य॑ं० ॥ ६७७॥ द्रव्य षदमें नहों, श्राप गुण श्राप ही, आ्रापमें राजते सहज नोको सहो। स्वगुण श्रस्तित्वता, वस्तुको वस्तुता, धरत हो में नम्‌ श्रापही को स्वता ॥ $ छों अनन्यगुणाय नमः ग्रध्य॑० ॥ (७८॥। गेसे गेर हो आपमें रमाइयो, स्व चतुर खेत में वास तिन पाइयो । धर्म समुदाय हो परसपद पाइयो, में तुम्हें मक्षटयुत शीश निज नाइयो ॥ $# छू प्रतन्यधर्माय नमः ग्रध्य॑ं० ३१७६।॥ साधना जबतईं, होत है तबतई, दोउ परिमाण को काज जामें नहीं । श्राप निजपद लियो, तिन जलॉजली वियो, झ्न्‍्य नहीं चहुत निज शुद्धता में लियो ।॥ ३5 हों परिमाशविभुक्ताय नमः भ्रध्य ० ॥१८०॥ ६६ || [ लिडचक्र विधार्ग तोमर दूग ज्ञान प्रणचन्द्र, श्रकलंक ज्योति अमन्‍्द। निरद्वन्द ब्रह्मस्वरूप, नित पूजहूं चिद्र प ॥१८१॥ 3 हों ब्रह्मस्वरूपाय तमः भ्रध्य ० । सब ज्ञानमयो परिणाम, वर्रणादिको नहिं काम । निरद्वन्द ब्रह्मस्वरूप, नित पूजहूं चिद्रूप ॥१८२॥ ३ हीं ब्रह्मगुराय नमः श्रध्य: । निज चेतनागुणा धार, बिन रूपहो अ्रविकार । निरद्वन्द ब्रह्मस्वरूप, नित पुजहूं चिद्रप ॥१८३॥ उ हीं बरह्मचेतनाय नम: श्रघ्य॑ ० । सुन्दरी प्रन्य रूप सु श्रन्य रहे सदा, पर निभित्त विभाव न हो कदा । कहत हैं मुनि शुद्ध सुभावजी, नम्॒ सिद्ध सदा तिन पायजी ॥ 3* हीं शुद्धश्वभावाय नमः अच्यें ० ॥ १८४॥ पर परिणामनसों नह मिलत हैं,निज परिणामनसों नहि चलत हैं। परिणामी शुद्ध स्वरूप एहु, नम्‌ सिद्ध सदा नित पांय तेह ॥ 3 ह्वीं शुद्धपारिणामिकाय नमः अ्रघ्यें० ॥१८५॥ वस्तृता व्यवहार नहों ग्रहै, उपस्वरूप असत्यारथ कहै । शुद्ध स्वरूप न ताकरि साध्य है, निविकल्प समाधि श्रराध्य है ॥ 3 ह्रीं श्रशुद्धरहिताय नमः अध्यें० ॥१०६॥ द्रव्य पर्यायाथिक नय दोऊ, स्वानुभव में विकलप नहिं कोऊ। सिद्ध शुद्वाशुद्ध भ्रतोीत हो, नमत तुम निज पद परतीत हो ॥ 3 हीं शुद्धाशुद्धशहिताय नमः अध्यं० ॥(८७॥ चौपाई क्षय उपशम श्रवलोकन टारो, निज गुरा क्षाइक रूप उधघारो। युगपत सकल चराचर देखा, ध्यावत हूं मन हुं विशेषा ॥। 3 हुं भ्रनन्तदुगस्वरूपाय नमः श्रध्यं ० ॥१८८॥ बध्ठम पूजा ] [ ६७ जब पुरण अ्रवलोकन पायो, तब पूरण श्रानन्‍द उपायों । प्रविनाभाव स्वयं पद देखा, ध्यावत हूं मन हुं विशेषा ॥ 3& हुं भ्रनन्‍्तवृगानन्वस्व भावाय नमः ब्रध्यं० ॥१८९॥ नाश सु पूर्वक हो उतपादा, सत लक्षरा परिणति सरजादा । क्षय उपशम तन क्षायक पेखा, ध्यावत हूं मन हर्ष विशेषा ॥ 3» छ्वीं अनन्तदृगुत्प।दकाय नम: श्रध्य॑० ॥१६०॥ नित्य रूप निज चित पद माहीं, श्रन्य रूप पलटन हो नाहों । द्रव्य-द्ष्टिमें यह गुण देखा, ध्यावत हूं मन हुं विदेषा ॥ 3* ह्लीं अनन्तश्रबाय नमः श्रध्य ० ॥१६!॥। कर्म नाश जो स्व-पद पाव, रझऊ्च सात्र फिर श्रन्त न श्रावे । यह भ्रव्यय गुणा तुममें देखा, ध्यावत हूं मन हर्ष विशेषा ॥ 5 ह्रीं ग्रव्ययभावाय नमः भ्रध्य॑ं० ॥(६२॥ पर नहीं व्यापं तुम पद मांही, परमें रमरा भाव त्म नाहीं। निज करि निजमें निज लय देखा, ध्यावत हूं मन हर्ष घिशेषा ॥ 5 हीं श्रनन्‍्तनिलयाय नम: श्रध्यं० ॥१६३॥। शंखनारी प्रनंताभिधानो,. गुराकार _ जानो । धरो श्राप सोई, नम मान खोई ॥१६४।॥ 5* छ्वीं अन-ताकाराय नमः अ्रध्यें० । ब्रनंत स्वभावा, विशेषन उपावा । धरो आ्राप सोई, नम मान खोई ॥१६५॥। 5 हों भ्रनस्तस्वभावाय नमः श्रध्यें० । विनाकाररूपा यह चिन्मयस्वरूपा । घरो श्राप सोई, नम सान खोई ॥१६६॥ 55 हीं चिन्मयस्वरूपाय नमः श्रघ्यं० । धध ] [ सलिडचक् विधान सदा चेतनामें, न हो प्रन्यतामें । धरो श्राप सोई, नमू मान खोई ॥१६७॥ 3 हों चिद्र पाय नमः अ्रष्य ० । दोहा जो कुछ माव विशेष हैं, सब चिद्रूपोी धर्म । झसाधाररा पुरणत भये, नमत नहों सब कर्म ॥१६८॥ &# हों चिद्र प्र्माय नमः अ्रध्य ० । परकृति व्याधि विनाशके, निज अनुभव की प्राप्त । भई, नम तिनको, लहूं, यह जगवास समाप्त ॥१६७९॥ 3» ह्वीं स्वानुभवोपलब्धिरसाय नमः भ्रध्यं० । निरावरएण निज ज्ञान करि, निज प्रनुभव की डोर । गहो लहो थिरता रहो, रमण ठोर नहीं श्रौर ॥२००॥ 3* ह्रीं स्वानुभुतिरताय नम: श्रष्य ० । सरवोत्तम लोकीक रस-सुधा कुरस सब त्याग । निज पद परमामृत रसिक, नमूं चरण बड़भाग ॥२०१॥ ३» ह्वीं परमामृतरताय नमः भ्रध्ये० । विषयामृत विषसम्‌ श्ररुचि, श्ररस श्रशुभ श्रसुहान । जान निजानन्द परमरस, तुष्ट सिद्ध भगवान ॥२०२॥ 3 हीं परमामृततुष्टाय नमः भ्रध्ये० । शंकातोत प्रतीतसों, घरें प्रीति निज मांहि। श्रमल हिये संतान प्रिये, परम प्रीति नम! ताहि ॥२०३॥ 3 ह्लीं परमप्र ताय नमः अ्रध्य० । ग्रक्षय आनन्द भाव युत, नित हितकार सनोग । सज्जन चित वललम परम, दुर्जन दुलंभ योग ॥२०४॥ 35 हों परमवल्लुभयोगाय नम: श्रध्यं०। वर्ठम पूजा ] [ ६६ शब्द गर्ध रस फरस नहिं नहीं वरण श्राकार । बुद्धि गहै नहि पार तुम, गुप्त भाव निरधार ॥३०५॥ 3 ही अव्यक्तमाबाय नम: भ्रध्य॑० । सर्व दवंसों भिन्न हैं, नह श्रभिन्न तिहुँ काल । नम्‌' सदा परकाश धर, एकहि रूप विज्ञाल ॥२०६॥ ३» छी एकत्वस्वरूपाय तमः भ्रध्य॑० । सर्व दबंतों भिन्नता, निज गुर निज में वास । नम्‌' अखणष्ड परमातमा, सदा सुगुरण की राशि ॥२०७॥। # ह्वीं एकत्वगुराय नमः प्रध्यं०। स्व दब परिणाससों, मिले न निज परिणाम । नम्‌ तनिजानन्द ज्योति घन, नित्य उदय श्रभिराम ॥२०४८॥ # ही एकत्वभावाय नमः भ्रष्यं० । चौपाई पर संयोग तथा समवाय, यह संवाद न हो है भाव । नित्य भ्रभेद एकता धरो, प्रणम्‌' हंत भाव तुम हरो ॥२०७९॥ ४ हीं देतभावधिनाशकाय नम: प्रध्य॑० । पूरव पर्याय नासियो सोई, जाको फिर उतपात न होई । प्रव्यय भ्रविनाशोी श्रमिराम, शाइवत रूप नम्‌ सुखधाम ॥२१०॥॥ ३» ह्लों शाश्वताय नमः श्रध्य ० । निविकार निर्मल निजभाव, नित्य प्रकाश श्रमन्द प्रभाव । प्रव्यय भ्रविनाशी भ्रभिराम, शाइवत रूप नम्‌' सुखधाम ॥२११॥ ३० हो शाश्वतप्रका शाय नमः प्रध्य० । निरावरण रवि बिम्ब समान, नित्य उद्योत धरो निज ज्ञान । भ्रव्यय श्रविनाशी प्रभिराम, शाइबत रूप नम सुखधाम ।॥२१२॥ ३ ह्लीं शाइवतोद्योताय नमः अ्रध्यं० । €० [ सिद्ध चक्र विधशत ज्ञानानन्द सुधाकर चन्द्र, सोहत पुरण ज्योति श्रमन्द। प्रव्यय श्रविनाज्ञ श्रभिराम, शाइवत, रूप नम्‌ं सुखधाम ॥॥२१३॥ ४ हों शाइवतामृतचन्द्राय नमः भ्रध्यें० । ज्ञानानन्द सुधारत धार, निरबिच्छेद शभ्रभेद श्रपार। श्रव्यय श्रविनांशी श्रभिराम, दहाइवत रूप नम सुखधाम ॥॥२१४॥ 3* ह्वीं शाइवतामुतंये नमः अ्रध्ये० । पड्ड़ी मन-इन्द्रिय ज्ञान न पाय जेह, है सुक्षम नाम सरूप तेह । मनपयंय जाक॑ नाह पाय, सो सुक्षम परम सुगुरणा नमाय ॥२१५ ४ हीं परमसुक्ष्माय नम: श्रध्यं० । बहु राशि नभोदरमें समाय, प्रत्यक्ष स्थूल ताकों न पाय । इकसों इककों बाधा न होहि, सुक्षम अवकाशी नमों सोहि ॥२१६॥ 5* हीं सुक्षावकाशाय नमः अ्रध्यं० । नभ गुर ध्वनि हो यह जोग नांहि, हो जिसो गुणी गुण तिसो ताहि। सो राजत हो सुक्षम स्वरूप, नमहूं तुम सुक्षम गुण श्रनप ॥२१७॥ ३5 हीं सुक्ष्मगुणाय नमः श्रध्यं ० । तुम त्याग हतताको प्रसंग, पायों एकाकी छुबि श्रभंग । जाको कबहूं तुम अनुभव न होय, नम्‌ परमरूप है गुप्त सोय ॥ 5 ह्वीं परमरूपगुप्ताय नम: श्रध्य॑० ॥२१४८॥ त्रोटक सर्वार्थंविमानिक देव तथा, सन इन्द्रिय भोगन शक्ति यथा । इनके सुखको एक सोस सही, तुम श्रानंदको पर भ्रन्त नहीं ॥ 3» छ्ीं निरवधितुखाय नमः श्रच्य ० ॥२१९॥ बहेंभ पूना | [ ४६ जन जीवनिकों नहिं भाग्य यहै, निज शक्ति उदय करि व्यक्ति लहै। तुम प्रण क्षायक भाव लहो, इस श्रन्त बिना गूणरास गहों ॥२२०॥॥ 5 ह्वीं निरवधिगुणाय नमः प्रध्यं ० । भवि-जोव सदा यह रीति धरें, नित नूतन पर्य विभाव धरें। तिस का रणाको सब व्याधि वहो, तुम पाइ सुरूप जु श्रन्त न हो 0 5 हीं निरवधित्वरूपाय नमः प्रध्यं० ॥२२१॥। प्रवधि मनपय सु ज्ञान महा, द्रव्यादि विषें मरजाद लहा। तुम ताहि उलंघन सुभावमई, निजबोध लहो जिस श्रन्त नहीं ॥॥ $# हीं अतुलज्ञानाय नम: श्रध्यं० ॥२२२॥ तिहुँ काल तिहूं जगके सुखको, कर वार श्रनंत गुणा इनको । तुम एक समय सुखकों समता, नहीं पाय नम्‌' सन आनन्दता ॥ 35 ह्वीं अतुलसुखाय नमः अध्यं० ॥२२३॥ नाराच सर्व जीव राशके, सुभाव श्राप जान हो । ग्रापके सुभाव, श्रृंश श्रोरकौ न ज्ञान हो !! सो विशुद्ध भाव पाय, जासको न भश्रन्त हो । राजहो सदोव देव, चरणदास 'सन्‍्त' हो ॥२२४॥ ३ ह्वों अतुलभावाय नम: अध्यें०। प्रापफकी गुणोध वेलि फलि है अ्रलोकलों । शेष से भ्रमाय पत्रकी न पाय नोंकलों ॥ सो विशुद्ध भाव पाय जासकौ न अ्रन्त हो । राजहो सदीव देव चरणदास सन्‍्त' हो ॥२२ष्ञा। $ हीं प्रतुलगुणाय नमः भ्रध्यं ० । धर ] [ सिद्धचबा वियाते सुयंको प्रकाश एक-देश वस्तु भास ही। ब्रापको सुज्ञान भान सर्वथा प्रकाश ही॥ सो विशुद्ध भाव पाय जांसको न श्रन्त हो । राजहो सदीव देव चरणदास सन्त” हो ॥२२६॥ अ* ही प्रतुलप्रकाशाय नम: भ्रध्य ० । तास रूप को गहो न फेरि जास नाश हो । स्वात्मवासमें विलास श्रास त्रास नाश हो ॥ सो विशुद्ध माव पाय जासको न श्रन्त हो । राजहो सदीब देव चरण दास बन्त' हो ॥२२७)॥ 3 हीं प्रचलाय नम: अ्रध्यं० । सोरठा मोहादिक रिपु जीति, निजगुण निधि सहजे लहो । विलसो सदा पुनोति, भ्रचल रूप बन्दों सदा ॥२२८७ ३ हों प्रचलगुणाय तसः भ्रध्यं० । उत्तम क्षाइक भाव, क्षय उपदम सब गये विनशि। पायो सहज सुभाव, श्रचल रूप बन्दों सदा ॥२२६॥ # ह्वीं अचलगुणाय नमः अध्यें० । झथिर रूप संसार, त्याग सुथिर निजरूप गहि। रहो सदा अ्रविकार, भ्रचल रूप बन्‍्दों सदा ॥२३०॥ 3» हों श्रचलस्वरूपाय नम: प्रध्यँ ० । मोतियादाम निराश्चित स्वाश्वित श्रानंदघास, पर परसो न परे कछ कास । अ्रबिन्दु श्रबंधु भ्रबंध श्रमंद, करूं पद-बंद रह सुखबुन्द ॥२३१॥ ** हों निरालस्बाय नमः प्रध्यं० । बष्ठम पूजा ] [ ६३ झराग श्रदोष भ्रशोक अ्रभोग, प्रनिष्ट संयोग न दृष्ट वियोग । झबिन्दु श्रबंधु अ्रबंध ग्रमंद, करू पद-बंद रह सुखब॒न्द ॥२३२॥ क# हों आलम्बरहिताय नमः अ्रध्यें० । भ्रजीव न जीव न धर्म-अ्रधर्म, न काल श्रकाश लहै तिस धर्म । अ्रबिन्दु श्रबंध्‌ ्रबंध श्रमंद, करूं पद-वंद रह सुखबुन्द ॥२३३।॥॥ # हीं निर्लेपाय नमः अध्यं०। अवबरा अ्रकर्ण अ्रूप ग्रकाय, अ्रयोग श्रसंयमता भ्रकषाय । अ्रबिन्दु भ्रबंधु श्रबंध भ्रमंद, करूं पद-वंद रहु सुखब॒न्द ॥२३४॥ 35 हीं निष्काय नमः अध्यें० । न हो परसों रुष-राग विभाग, निजातमर्में श्रवलीन स्वभाव । झबिन्दु भ्रबंधु श्रबंध श्रमंद, करूं पद-वंद रहु सुखबुन्द ॥२३५॥ ३» ह्वीं आत्मरतये नमः अध्यें ० । दोहा निज स्वरूप में लीनता, ज्यों जल पुतली खार । गुप्त-स्वरूप नमु' सदा, लहूँ भवारंव पार ॥२३६॥ 3» ह्वीं स्वरूप गुप्ताय नमः अध्ये० । जो हैं सो हैं श्रोर नहि, कछ निइचय-व्यवहार । शुद्ध द्रव्य परमातमा, नम्‌ शुद्धता धार ॥२३७॥ ३ हो शुद्धद्रव्याय नमः अध्ये० । पुर्वोत्तर सन्‍्तति तनी, भव भय छेद कराय। प्रसंस।र हृदको नमूं यह भव वास नशाय ॥२३८॥ 5» छ्ीं प्रससाराय नमः अर्घ्य ० । तागरूपिणी तथा प्रध॑ंनाराच । हरो सहाय करणंको, सुभोगता विचर्ण को । निजातमीक एक ही लहो अ्रनन्द तास ही ॥२३६॥ 3 हीं स्वानन्दाय नमः अध्ये० । श्ष] [ सिडचक विभाग न हो विभावता कदा, स्वभाव में सुखी सदा । निजातमीक एक हो लहो श्रनन्द तास हो ॥२४०॥ 3» हीं स्वानन्दभावाय नमः अध्य ० । झ्रछेद रूप सर्वथा, उपाधि की नहीं व्यथा । मिजातमीक एक ही, लहो श्रनन्द तास ही ॥२४१॥ 3* हीं स्वानन्दस्वरूप!य नम: अध्यें० । दुभेदता न वेद हो, सचेतना श्रभेद हो। निजातमीक एक ही, लहो भ्रानन्‍्द तास हो ॥२४२॥ 3* हीं स्वानन्दगणाय नमः अध्यं० । न अन्यकी परवाह है, श्रचाह है, न चाह है। निजातमीक एक हो, लहो झ्ाननन्‍्द तास ही ॥२४३॥। %* हीं स्वानन्दसंतोषाय नमः अध्ये ० । सोरठा रागादिक परिणाम, हैं कारण संसार के। नाश, लियो सुखधाम, नसत सदा भव-भय हरूँ ॥२४४॥ ४ हीं शुद्धभावपर्यायाय नमः अध्ये० । उदइक भाव विनाश, प्रगट कियो निज धर्मको । स्वातम गुण परकाश नमत सदा भव-भय हूं ॥२४४५॥ % हों स्वतन्त्रधर्माय नमः अधध्ये० । निजगुणा पर्ययरूप, स्वयं-सिद्ध परमात्मा। राजत हैं शिवभृप, नमत सदा भव-भय हुरू ॥२४६॥ 5 हो आत्मस्वभावाय नमः अध्य० । विभल विश्द निज ज्ञान, है स्वभाव परिणतिमई। राजे हैं, सूखलानि, नमत सदा भव-भय हुरू ॥२४७॥ 5* हीं परमचित्‌ृपरि णा।माय तसः: अध्ये ० । चष्डल पूजा ] [ €२ दर्श-ज्ञाननय धर्म चेतन धर्म प्रगट कहो । भेदाभेद सुप्म, नमत सदा भव-भय हुरू ॥२४८॥ हीं चिद्र पदर्धर्माय नमः भ्रध्य॑० । दर्श-ज्ञान-ग्रसार, जीवभूत परमातसा। राजत सब परकार, नमत सदा मव-भय हरू ॥२४६॥ ##ह्लों चिद्र पगुणाय नमः प्रध्य॑०। भ्रष्ट क्मंमल जार, दोप्तरूप निज पद लहो । स्वच्छ हेम उनहार, नमत सदा भव-भय तरूँ ॥२५०॥ 3» छ्वों परमस्नातकाय नमः अध्यं० । रागादिक मल सोध, दोऊ विविध विधान विन । लहो शुद्ध प्रतिबोध, नमत सदा भव-भय हुरू ॥२५१॥ 5 हीं स्नातकधर्याव नमः भ्रध्य०। विधि आवरण विनाश, दरश्-ज्ञान परिपुरं हो । लोकालोक प्रकाश, नमत सदा भव-भय हुरूं ॥२५२॥ 3३% हीं सर्वावलोकाय नमः अध्यँ० । निजकर निज में वास, सर्व लोकसों भिन्‍नता। पायो शिव सुख-रास, नमत, सदा भव-सय हुरू ॥२४५३॥ ३* हीं लोकाप्रधिताय नमः अध्यें ० ॥७ १॥ ज्ञान-भानकी जोति, व्यापक लोकालोक में । दर्शन बिन उद्योग, नमत पदा भय-भय हरू ॥२५४॥ 3 हीं लोकालोकव्यापकाय नमः अध्यें ० । जो कुछ धरत विशेष, सब ही सब श्रानन्दमय । लेश न भाव कलेश, नम्‌ं सदा भव-भय हुरू ॥२५५॥ $* ह्वीं झरानन्वविधानाय नमः अध्ये० । जिस प्रानन्दको पार, पावत नहि यह जगतजन । सो पायो हितकार, नमत सदा भव-भय हुरू ॥२५६॥ श्६ ] [ सिदधचकर विधान दोहा इत्यादिक झानन्द गुण, धारत सिद्ध श्रनन्‍्त । तिन पद ग्राठों दरवसों, पुजत है नित सन्त” ॥२५७॥ 5» हो श्र ननन्‍्दपूर्णाय नम: अध्ये० । अंथ जयमाल दोहा थावर दाब्द विषय धरं, त्रस थावर पर्याय । यो न होय न सुगुण, हम किह॒विधि वर्णाय ॥१॥ तिसपर जो कछ कहत हैं, केवल भक्ति प्रमान । बालक जल दशि-बिब को, चहत ग्रहण निज पान ॥२॥ पडड़ी जय पर-निमित्त व्यवहार त्याग, पायो निज शुद्ध-स्वरूप भाग । जय ज़गपालन बिन जगत देव, जय दयामाव बिन शांतिभेव ॥३॥ पर सुख-दुखक रण कुरीतिटार, पर सुख-दुख-कार रा शक्ति धार । पुन पुनि नव नव नित जन्म्रीत, बिन सर्वलोक थापी पुनीत ।।४॥ जय लोला रास विलास नाश, स्वाभाविक निजपद रमण वास । शयनासन आदि क्रिया-कलाप, तज सुखी सदा शिवरूप श्राप ॥४॥। बिन कामदाह नहिं नार भोग, निरद्वन्द्र निजानन्द मगन योग । बरमाल श्रादि श्यू गार रूप, बिन शुद्ध निरंजन पद श्रतुप ११६॥ जय धर्म भर्म वन हन कुठार, परकाश पुज चिद्र पसार । उपकररा हररणा दव सलिलधार,निज शक्ति प्रभाव उदय भ्रपार ॥७ नभ सीम नहीं श्ररु होत होउ, नहीं काल अंत, लहो श्रन्त सोउ । पर तुम गुरण रास श्रनंत भाग, भ्रक्षय विधि राजत भ्रवधि त्याग ॥८ प्रानन्द जलधि धारा-प्रवाह, विज्ञानसुरी मुखद्गह भ्रथाह । निज ज्ञांति सुधारस परम खान,समभाव बोज उत्पत्ति श्रभाव॥। है वष्टम पूजा ] [| ६७ निज आत्मलीन विकलप विनाश, शुद्धो पपोग परिस्त प्रकाश । दुग शञान झसाधारर स्वभाव, स्पर्श झ्ादि परगुरा श्रभाव ॥१०॥॥ निज गुरापयंथ समुदाय स्वासि, पायो अखण्ड पद परम धाम । हाव्यय प्रबाध पद स्वयं सिद्ध, उपलब्धि रूप धर्मो प्रसिद्ध ॥११॥ एकाग्ररूप चिन्ता निरोध, जे ध्वांब पा स्वयं बोध । गुरामात्र 'सन्‍्त' झनुराग रूप, यह माव देहु तुम पद प्रनूष ।॥१२॥ दोहा सिद्ध सुगुण सुमरण महा, मंत्रराज है सार । सर्व सिद्धि दातार है, सबं॑ विघन हर्तार ॥१३॥ # ड्रॉ अहूँ घडपंचाशदधिकद्तिशतदलोपरिस्थितसिद्धेभ्यो नमः अध्ये० । तीन लोक चूड़ामणी, सदा रहो जयवन्त । विघन हररा मंगल करराण, तुम्हें नमें नित 'संत' ॥१४॥ ॥ इत्याशीर्बादः ॥ यहां १०८ बार '3+ हों भ्रहूँ प्रसि श्राउ स >मः' मंत्र की जाप करें। ५७ ७७ सप्तम प्‌जा (पांच सौ बारह गुण सहित) छुप्पय ऊरध प्रधो सु रेफ सबिदु हकार विराजे, श्रकारादि स्व॒र लिप्त करिका श्रन्त सु छाजे । बग्गंनिपुरित वसुदल श्रम्बुज तत्व संधिधर, अग्रभागमें मन्त्र श्रनाहत सोहत श्रतिवर। पुनि झ्ंत हीं, बेढदुयो परम, सुर ध्यावत भ्ररि नाग को । हूं फेहरि सम पूजन निमित, सिद्धचक्र मंगल करो ॥१॥ 5 हों एमो सिद्धाणं श्रो सिद्धपरमेप्ठित्‌ द्वारशाधिकपंचशतगुण संयकक्‍्ताविराजमान ! प्रत्रावत॒र/वतर संवौषद श्राह्वानन। श्रत्र तिष्ठ ति८्ठ 5: 5: स्थापनम्‌, अ्रत्र सम सन्निहितो भव भव वषद सन्निधिक रणम्‌। पुष्पांजलिक्षिपेत्‌ । दोहा सुक्ष्मादि गुण सहित हैं, कम रहित नीरोग । सिद्धाचक्त सो थापहूं, मिट उपद्रव योग ॥ इति यन्त्रस्थापनार्थ पुष्पार्जाल क्षिपेत्‌ । अथाष्टक॑ (चाल बारहमासा) सुर मणि-कुम्म क्षीर भर धारत, मुनि मन-शुद्धप्रवाह बहावहि। हम दोऊ विधि लाइक नाहीं, कृपा करहु लहि भवतट भार्वाह ७ शक्ति सारु सामान्य नीरसों पूजूं हूँ शिव-तियके स्वासी। द्ावश श्रधिक पंचशत संख्यक, नाम उचारत हूँ सुखधामों ॥ 3 ही णमो सिद्धारं श्रोसिद्धपरमेप्ठिने ददशाधिकपंचशत- ५१२) गुभहिताय जन्म गरारोगविनाशाय जले निर्वपरामोति स्वाहा ॥१॥। सतत पूछा ] [ ९६९ नतु कोऊ चन्दन नतु कोऊ केसरि,-भेंट किये भवपार भयो है। केवल झ्ाप कृपा-दुग ही सों, यह भ्रथाह दधि पार लयो है ॥ रीति सनातन भक्तन की लख, चन्दनको यह भेंट धरामी। द्वादश प्रधिक पंचज्ञत संख्यक, नाम उचारत हु सुखधामी ॥ # हो णमो सिद्धाएं श्रोसिद्धपरमेष्टिने द्वादशाधि+पंचशतगुण- सहिताय संसारतापत्रिनाशनाय चन्दनं ० ३२ इद्रादिक पद हूं श्रनवस्थित, दीखत श्रन्तर रूचि न करें हैं । केवल एकहि स्वच्छ श्रख॒ण्डित, श्रक्षयपद को चाह धरे हैं ७ तातें अ्रक्षतसों श्रनुरागी, हु सो तुम पद पूृज करामी। द्वादश भ्रधिक पंचशत संख्यक, नाम उचारत हू सुखधामी ॥ 3 छो णमो सिद्धाणं श्रोषिद्धपरमेष्ठिने द्वादशाधिकपंचशत गुण सहिताय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं ॥३॥ पुष्प-बारण सो ही मन्‍्मथ-जग, विजई जगमें नाम धरावे। देखहु श्रद्भुत रीति भक्तकी, तिस हो भेंट धर काम हनावे ॥ दरशणशागत को चूक न देखी, तातें पूज्य भये शिरनामी। द्ावश् श्रधिक पंचशत संख्यक, नाम उच्चारत हू सखधामी ।॥॥ 3 हीं रामो पिद्धाणं श्री सिद्धपरसेष्ठिने द्वादशाधिकपंचशतगुण- संयुक्ताय कामवाणविनाइनाय पुष्पं० ॥४॥ हनन श्रसाता पीर नहीं यह, भीर पर चरु भेंटन लायो। भक्त श्रमिमान मेंट हो स्वामी, यह भवकाररा भाव सतायो ॥ मस उद्यम करि कहा श्राप ही, सो एकाकों श्रर्थ लहामो । द्रादश भ्रधिक पंचशत संख्यक, नाम उचारत हु सूखधामी ॥ 5 हों णमो सिद्धारं श्रो सिद्धपरमेष्ठिने दावशाधिकपंचशत गुरा- संयुक्ताय क्षुधारोगविनाशनाय नेबेदं ० ।॥५॥ पूरण ज्ञानानन्द ज्योति घन, विमल गुणातम शुद्ध स्वरूपो। हो तुम पूज्य भये हम पुजक, पाय विवेक प्रकाश श्रनूपी । १०० ] [ सिड्धचऋ विधान मोह प्रन्ध विनसो तिह कारण, दोपनसों श्रच्‌ भ्रभिरामी । दादश अधिक पंचशत संल्यक, नाम उचारत हू सुखधामी ॥ 5 छ्वीं गमो सिद्धाएं श्रोसिद्धपरमेप्टिने हदशाधिकपंचशत गृण- संधुक्ताय मोहांधका रविनाशनाय दीपं० ॥६३॥ घूप भर उपधरें प्रजरें मशि, हेम धरें तुम पद पर वारू । बार बार भ्रावतं ज(रि करि, घार धार निज शीश न हारू ॥ धूम्र धार समतन रोमांचित, हर्ष सहित श्रष्टांग नमामों। द्वादश भ्रधिक पंचद्त संख्यक, नाम उचारत हूं सुखधामी ॥ % हों जमो सिद्धाणं श्रीसिड्धपरमेष्ठिने ादशाधिकपंचशत गुण- संयुक्ताय प्रष्टकर्मेदहनाय धूप॑० नि० ॥७॥ तुम हो बोतराग निज पुजन, बन्दन थुति परवाह नहों है । झरु भ्रपने समभाव वहै कछ , पूजा फलको चाह नहीं है ७ तौभो यह फल पूजि फलद, अ्रनिवार निजानन्द कर इच्छामी । हादश अश्रधिक पंचशत संख्यक, नाम उचारत हु सुश्धामों ॥ &# हीं रामो सिद्धारं श्रोसिद्धपरप्ेष्ठिने दादशाधिकपंचशत गुण- संयुक्ताय मोक्षफलप्राप्तये फलं० ॥५॥ तुमसे स्वामी के पद सेवत, यह विधि दुष्ट रंक कहा कर है । ज्यों मयूरध्वनि सुनि श्रहि निज बिल, विलय जाय छिन बिलभ न धर है॥ तातें तुम पद भ्र्घ उतारण, विरद उचारण करहुं मुदामी । द्वादश भ्रधिक पंचशत संख्यक, नाम उचारत हू सुखधामी | 8४४ ह्वों शामो सिद्धाणं भरी सिद्धपरमेष्ठि ते द्वादशाधिकपंचदात गुण- संयुक्ताय सर्वेसुखप्राप्तये प्रध्य० । गीता मिर्सल सलिल शुभ वास चन्दन, धवल श्रक्षत युत श्रनी । शुभ पुष्प सधुकर नित रमें, चरु प्रचुर स्वाद सुविधि घनी ॥ स्तर पूणा | [ १०१ वर दोपसाल उजाल धपायन, रसायन फल भले । करि अ्र्घ सिद्ध-समूह पूजत, कमंदल सब दलमले ॥| ते क्रमावर्त नज्ञाय युगपत, ज्ञान निर्मल रूप है। दुख जन्म टाल भ्रपार गुण, सुक्षम सरूप अनूप है ॥ कर्माष्ट बिन त्रेलोक्य पुज्य, श्रद्र शिव कमलाप ती । मुनि ध्येय सेय श्रमेय,चहुंगुरा गेह,य्ो हम शुम मती ॥१०॥ 5 हीं णमो सिद्धारं श्रीसिद्ध परमेष्ठिने द्वादशाधिकपंचशत गुण- संगुक्ताय पुरांपदप्राप्तये महाध्यं० । अथ पांच सो बारह गण अध्य॑ श्रद्धं जोगी रासा लोकत्रय करि पृज्य प्रधाना, केवल ज्योति प्रकाशी । भव्यन मन तम मोह विनाशक, बन्दूं शिव-थल वासो ॥१॥ 3 हीं प्ररहंताय नमः श्रध्य॑० । सुरनर सुनि मत कुमुदन सोदन, प्रण चन्द्र ससाना । हो श्रहत जात जन्‍्मोत्सव, बन्दूं श्रो भगवाना ॥५॥ 3+ हूं प्रहेज्नाताय नमः प्रध्यं० । केवल-दर्श-श।न-किरणावलि, मंडित तिहुं जग चन्दा । मिथ्यातप हर जल श्रादिक करि, बन्दूं पद भ्ररविन्दा ॥३॥ 3 हीं भ्रहेच्चित्र पाय नमः अध्ये० । घातिकरम रिपु जारि छारकर, स्वचतुष्टय पद पायो [* निजस्वरूप चिद्रूप गुरातम, हस तिन पद शिर नायो ॥४॥ 35 ह्लीं भ्रहेच्चित्र पग्ुराय नमः अध्ये० । ज्ञानावरणी पटल उधघारत, केवल-भान उगायो। भव्यन को प्रतिबोध उधारे, बहुरि मुक्ति पद पायो ॥५॥ 3> हो प्रहँज्लानाय नम: प्रध्यं० । “१०२ ] | सिड्धणक विधान धर्म-अधरम तास फल दोनों, देखो जिम कर-रेखा । बतलायो परतीत विषय करि, यह ग्रा जिनमें देखा ॥६॥ 5 हीं भ्रहुँदर्शनाय नम: प्रध्यं ० । मोह महा दृढ़ बंध उघारो, कर विषतन्तु समानता । ग्रतुल बली श्ररहंत कहायो, पाय नमूं शिवथाना ॥७॥ 3 हीं भ्रहंद्वीर्याय नम: श्रघ्यँ० । युगपत लोकालोक बिलोकन, है श्रनन्त दृगधारी । गुप्त रूप शिवसग दरसायो, तिनपद धोक हमारी ॥८॥ 5 हीं श्रहेंहृश नगुणाय तमः श्रघ्य॑ं०। घटपटादि सब परकाशत जद, हो रवि-किरण पसारा। तंसो ज्ञान-मान श्ररहत को, ज्ञय अनन्त उधघारा ॥६॥ 35% हों श्रहेज्ज्ञानगुणाय तमः अध्यं० । श्रासन शयन पान भोजन बिन, दीप्त देह श्ररहंता । ध्यान वान कर तान हात विधि, भेए सिद्ध भगवंता ॥१०॥ ३ ह्वीं अहंद्रीयेगुणाय नम: श्रघ्यं ० । सप्त तत्त्व घट्‌ दव्य भेद सब, जानत संशय खोई । ताकरि भव्य जीव संबोधें, नमूं भये सिद्ध सोई ॥११॥ 5 हीं प्रहे -सम्यक्त्वगुण|य नमः: श्रध्य॑० । ध्यान सलिलसों धोय लोभमल, शुद्ध निजातस कीनो । परम शोच श्ररहंत स्वरूपी, पाय नम शिव लीनो ॥१२॥ 3+ ह्रीं श्ररहंतशोचगुणाय नमः प्रध्य॑०। नय-प्रमाण श्रुतज्ञान प्रकारा, द्वादशांग जिनवानी । प्रगटायो परतक्ष ज्ञानमें, नमूं भये शिव-थानो ॥१३॥ 5» हुं भ्रहेंद्द्वादशांगाय नम: भ्रध्यं ० । मन-इन्द्रिय बिन सकल चराचर, जगपद करि प्रकटायो । यह भ्ररहंत सती कहुलायो, बन्दु' तिन शिव पायो ॥१४॥ 5 हीं अहंद्भिन्नवोधकाय नमः प्रध्यं० सप्तम पूणा ] [ १०३ ध्रनुमव सम नहीं होत दिव्यध्वनि, ताको भाग प्रनन्ता । जानो गणधर यह श्रुत श्रवधी, पाई नम्‌” श्ररहंता ॥१४॥ 5% हीं अहंत्‌ भू तावधिगुणाय नम: प्रध्यं० । सर्वावधि निधि दृद्धि प्रवाही, केवल-सागर मांही । एक भयो श्ररहूंत प्रवधि यहू, मुक्त भए नमि ताही ॥१६॥ $ हीं प्रहेदवधिगुणाय नमः प्रध्यं० । ग्रति विशुद्ध मय विपुलमती लहि, हो पृर्वोक्त प्रकारा । यह श्ररहूंत पाय मन--पर्यंय, नम्‌' भये सवपारा ॥१७॥ % हीं प्रहेच्छद्ध मनः पर्ययभावाय नमः अर्घ्य ० । मोह मलिनता जग जिय नाशें, केवलता गुण पा । सर्व शुद्धता पाइ, नमत हैं हम, श्ररहंत कहाबें ॥१८॥ 5» हीं अहे त्केवलगुणाय तमः अध्यं० । मोह-जनित सो रूप विरूपी, तिल बिन केवलरूपा । श्री श्ररहंत रूप सर्वोत्तम, बन्दू हो शिवभूपा ॥१६॥ 3 ह्वीं अहंत॒केवलस्वरूपाय नमः अध्यं० । तास विरोधी कर्म जोति करि, केवल-दरशन पायो। इस गण सहित नमत तुम पद प्रति, भावसहित शिरनायों ॥२०॥ 5» हो अहुत्केवलदर्श नाय नम: अध्यें ० । निर-प्रावरण करण बिन जाको, शरख हररा नहीं कोई । केवल-ज्ञान पाय शिव पायो, पूजत हैं हम सोई॥२१॥ 5» हीं प्रहंत्केवलज्ञानाथ नमः अध्ये ० । श्रगम श्रतोीर भवोदधि उतरे, सहज ही गोखुर मानो। केवल बल प्ररहन्त नमें हम, शिव थल बास करानो ॥२२॥ 55 हीं प्रहंतकेवलवीर्याय नम: अध्यं० । सब विधि अपने विध्व निवारण, श्रौरन विध्व विडारी। मंगलमय प्रहेत स्वदा, नम सुक्ति पदधोरी ॥२३॥ ढ#* हीं अरहंन्मंगलाय नमः अध्यें० । १०४ ] | सिडचक विधाने चक्ष आदि सब बिघन विदृरित, छाइक मंगलकारी । यह श्रहूँत दर्श पायो में, नमू भये शिवकारी ॥२४॥ ऊ हीं गहेन्मंगलवशेनाय नमः प्रध्ये ० । निजपर संशय श्रादि पाय. बिन, तिरावरण विकसानों। मंगलमय प्ररहूंत ज्ञान है, बन्द शिव सुख थानो॥२५॥ 3 हों भ्रहेन्‍्मंगलज्ञानाय नमः भ्रध्यें० । परकृत जरा श्रादि संकट बिन, श्रतुल बली श्रहंता । नम सदा शिवनारी के संग, सुखसों केलि करंता ॥२६॥ # हों अहंन्मंगलवोर्याय नमः प्रष्य ० पापरूप एकान्त पक्ष बिन, सर्व तत्वप्रकाशी। द्वादशांग भ्ररहंत कहों में, नमू भ्ये शिववासी ॥२७॥ 5 हीं प्रहंन्मंगलद्वादशांगाय नमः अ्रध्यं० । बिन प्रतक्ष श्रनुमान सुबाधित, सुमतिरूप परिरामा। मंगलमय श्रहंतमती में, नम बेड शिवधासा ॥२८॥ # हीं अ्रहेन्मंगल-प्रभिनिबोधकाय नमः श्रघ्यें ० । नय-विकलप श्रृत-अ्रंग पक्षके, त्यागी हैं भगवन्ता। ज्ञाता दृष्टा वीतराग, विख्यात नम्‌ श्ररहेंता ॥२९॥ # ह्लीं भ्रहेन्मंगलभुतात्मकजिनाय नमः प्रध्य॑ं० । मंगलमय सर्वावधि जाकरि, पावे पद श्ररहंता । बन्दू ज्ञान प्रकाश, नाश भव, शिव थल वास करंता ॥३०॥ ३» हीं अहंन्मंगलावधिज्ञानाय नम: भ्रष्य॑ं० । वर्धभान सनपर्येय ज्ञान करि, केवल-भानु उगायो। भव्यनि प्रति शुभ मार्ग बतायो, नमू' सिद्ध पद पायो ॥३१ : % हों भहंन्मंगलमन:पर्ययज्ञानाय तमः प्रध्यं० । ता बिन और शभ्रज्ञान सकल, जगकाररा बंध प्रधाना । नम्‌ पाय श्ररहंत सुक्ति पद, संगल केवलज्ञाना.॥३२।। ३ छी अहंन्मंगलकेवलज्ञानाय नम: भ्रध्यं७ । सप्तम पूजा | [ १०४ निरावरण निरखेद निरन्तर, निराबाधमई राजें। केवलरूप नमूं सब भ्रघहर, भ्री ध्ररहन्त विराज ॥३३॥ ह> ह्वीं अहँन्‍्मंगलकेवलस्वरूपाय नमः भ्रध्य ० । चक्षु ग्रादि सब भेद विधन हर, क्षायक दर्शन पाया। श्री भ्ररहन्त नमू शिववासी, इह जग पाप नज्ञाया ॥३४॥ 3 हों प्रहेन्मंगलकेबलद्शनाय नमः प्रध्यें० । जग मंगल सब विघन रूप हे, इक केवल प्ररहन्ता । मंगलमय सब मंगलदायक, नम कियो जग श्रन्ता ॥३५॥। # हु भ्रहन्मंगलकेबलज्ञानाय नम: प्रध्य॑० । केवलरूप भमहामंगलमय, परम शत्रु छयकारा। सो प्ररहन्त घतिद्ध पद पायो, नसूं पाय भवपारा ॥३६॥ # हुं अहंन्मंगलकेवलरूपाय नमः भ्रध्यं ० । शुद्धातम निजधर्म प्रकाशी, परसानन्द विराज । सो श्ररहन्त परम संगलमय, नमूं शिवालय राजें ॥३७॥ ३ हीं अहेन्मंगलधर्माय नमः भ्रष्यं० । सब विभावसय विघन नाशकर, मंगल धर्॑स्वरूपा । सो अ्रहन्त भये परमातम, नम्‌ जियोग निरूपा ॥३८॥। 3० हों प्रहेन्मंगलधर्मस्व्ररूपाय नमः प्रध्यं० । सर्व जगत सम्बन्ध विधन नहों, उत्तम मंगल सोई । सो भ्ररहन्त भये शिववासी पूजत शिवसुख होई ॥३६॥ # ह्रीं अहेन्मंगलोत्तमाय नभः प्रध्यं० । लोकातीत बिलोक पुज्य जिन, लोकोत्तम गुणधारी। लोकशिखर सुलरूप विराजें, तिनपद धोक हमारी ॥४०॥। ४ हीं अहंललोकोत्तमाय नम्नः भ्रध्य ० । लोकाश्ित गुरा सब विभाव हैं, श्रीनिजपदसों न्यारे । तिनको त्याग मये शिव बन्‍न्दू' काटों बन्ध हमारे ॥४१॥ & हीं अहंललोकोत्तमगुराय नम: प्रघ्म॑० । १०६ ॥| [ सलिद्धचक विधार्न है अचार मिथ्या मतिकर सहित ज्ञान, भ्रज्ञान जगतमें सारो। ता विनाशि भ्ररहन्त कहो, लोकोत्तम पुज हमारो ॥डरश।। उ> हीं प्रहेल्लोकोत्तमन्नानाय नम: झ्रध्ये० । क्षायक दरशन है ध्रहस्ता, श्रौर लोकमें नाहों । सो श्ररहन्त मये शिववासी, लोकोत्तम सुखदाई ॥४३॥ # हो प्रहेल्लोकोत्तमदर्शनाय नमः पश्रध्यं० । कर्मंबली ते सब जग बांध्यों, ताहि हनो भरहन्ता । यह श्ररहन्त वीयं लोकोत्तम, पायो सिद्ध भ्रनन्ता ॥४४॥ 55 हों अह लोकोत्तमबोर्याय नम: भ्रघ्यं ० । भ्रक्षातीत ज्ञान लोकोत्तम, परमातस पद मूला । यह श्ररहन्त नमूं शिवनायक, पाऊं भवदधि कूला ॥४५॥ 5» ही प्रहंल्लोकोत्त माभिनिबोधकाय नम: भ्रध्य॑ ० । प्रमावधि ज्ञान सुखखानी, कैवलज्ञान प्रकाशी । यहे भ्रवधि श्ररहन्त नम्‌ मैं, संशय तमको नाशी ॥४६॥ 5० ह्रीं अहंललोकोत्तमावधिज्ञानाय नमः श्रध्य॑ ० । जो श्ररहन्त धर मनपयंय, सो केवल के मांहों । साक्षात्‌ शिवरूप नमों में, श्रन्य लोक में नाहीं ॥४७॥ 5 हो प्रहंल्लो कोत्तमकेवलज्ञ।नस्वरूपाय नम: अर्घ्यं ० । तोन लोक सें सार सु श्री--श्ररहन्त स्वयंभू ज्ञानी । नतू सदा शिवरूप श्राप हो, भविजन प्रति सुखदानी ॥४८॥। 5 हों अहंललोफोत्तमकेवलज्ञानस्वरूपाय नमः प्रध्यं० । सर्वोत्तम तिहुं लोक प्रकाशित, केवल ज्ञान स्वरूपो सो झ्ररहन्त नमू शिवनायक, सुखप्रद सार श्रनपी ॥४६॥ 5 ही भ्रहंल्लोकोत्तमकेवलज्ञनाय नमः श्रध्य॑०। ज्ञान तरंग भ्रभंग वहै, लोकोत्तम धार अरूपी । सो श्ररहन्त नपु' शिवनायक, सुखप्रद सार श्रनपी ॥५०॥ * हीं अहल्लोकोत्त मकेवलपर्यायाय नमः अध्ये० । धंजंभ पूजा ] | १०७ सहित प्रसाधारण गुण-पर्यय, केवलज्ञान सरूपी । सो पझ्ररहन्त तमूं शिवनायक, सुखप्रद सार श्रनूपी ॥५१॥ ७ ही अ्रहंल्लोकोत्तमकेवलाय नमः श्रध्य ०। जगजिय सर्व प्रशुद्ध कहो, इक केवल शुद्ध सरूपी । सो श्ररहन्त नमु शिवनायक, सुखप्रद सार श्रनूपी ॥५२॥ # हु अर्हल्लो कोत्तमकेवलद्न व्याय नमः भ्रघ्ये० । विविध कुरूप सर्व जगवासो, केवल स्वयं सरूपी । सो श्ररहन्त नमू शिवनायक, सुखप्रद सार अ्रनूपी ॥५३॥ 35 हों श्रहंल्लोकोत्त मकेवलस्वरूपाय नमः प्रध्यं ० । हीनाधिक धिक धिक जग प्राणी, धन्य एक श्रुवरूपी । सो प्ररहन्त नस शिवतायक, सुखप्रद सार अ्रनूपी ॥५४॥ & हूं श्रहेल्‍लोकोत्त मश्नुवभावाय नम: प्रध्य॑ ० । दोहा संसारिनके भाव सब, बन्ध हेत वरणाय । मुक्तिरूप श्ररहंतके, भाव नम सुखदाय ॥५५॥ 3 हीं भ्रहल्लोकोत्तमभावाय नमः पह्रध्यं ० । कबहुं न होय विभावमय, सो थिर भाव जिनेश । मुक्तिरूप प्रणभ्‌ सदा, नाशे विघन विशेष ॥५६॥ 5» ह्वीं श्रहेललोकोत्तामस्थिर भावाय नप्न: प्रष्यं० । जा सेबत वेवत स्वसुख, सो सर्वोत्तम देव । शिववासी नाशी जिजग-फांसी नमहूं एवं ॥५७॥ 3 हुं श्र हंच्छ्रणाय तमः प्रध्यं० । जिन ध्यायो तिन पाइयो, निशच सो सुखरास । शररा स्वरूपी जिन नम्‌, करें सदा शिववास ॥४५८॥ 5 हीं अ्रहंच्छ रणरूपाय नमः श्रध्यें० । हैन्द ॥| [ सिदचक विभाग पडड़ी स्वाभाविक गुण प्ररहंत गाय, जासों पूरण शिवसूख लहाय । हम शरण गही मन वचन काय, नित नमें 'संत' झ्ानन्द पाय ॥ % हीं प्रहंदुगुणशरणाय नभः अ्रध्य॑० ५६ । बिन केवलज्ञान न मुक्ति होय, पायो है श्री भ्ररहंत जोय । हम शरण गही मन वचन काय, तित नमें 'संत' श्रानंद पाय ॥। ३# हों प्रहेज्ज्ञानशरणाय नम: श्रध्यं० । ६०।। प्रत्यक्ष देख सर्वज्ञ देव, भार्यो है शिव-मारग श्रसेव। हम शरण गही सन वचन काय, नित नमें 'संत' श्रानंद पाय ॥ 35 हीं भ्रहृहृशंनशरणाय नम: भ्रघ्यें० ॥६१॥ संसार विषम बन्धन उछेद, श्ररहंत वीय॑ पायो श्रखेद । हम शरण गही सन वचन काय, नित नमें 'संत' श्रानंद पाय ॥ ३» हीं भहंद्रीयेशरणाय नमः भ्रघ्यं० !।६२।॥। सब कुमति विगत मत जिन प्रतीत,हो जिसतें शिवसूख दे श्रभीत । हम शररा गही मन वचन काय, नित नमें 'संत' श्रानंद पाय ॥ % हों प्रहंदद्ादशांगयशुततणशरणाय नमः भ्रध्य॑० ॥६३॥ झनुमानादिक साधित विज्ञान, श्ररहंतं मती प्रत्यक्ष जान । हम शररणा गही मन वचन काय, नित नमें “संत' श्रानंद पाय ॥ 5» हो धहंदर्भनिबोधकाय शरणाय नम: श्रघ्यं० ॥६४॥ जिन भाषित श्र्‌त सूनि भव्य जीव,पायो शिव अ्रनिनाशी सदीव । हम शररणप गही सन वचन काय, नित नमें संत' झ्रानंद पाय ॥ 5» ली अहंतभ्ुतशरणाय नम: श्रघ्यं॑० ॥६५।। प्रतिपक्षी सत जीते कषाय, पायो श्रवधी शिवसूख कराय । हम धारण गही मन बचन काय, नित नमें 'संत' श्रानंद पाय ॥ &% छू अहेदवधिबोधशरणाय नमः झरध्य० ।६६॥ शप्तन पूजा ] [ १०६ मुनि लहैं गहेँ परिसरयाम श्वेत, जिन मनपर्यथ शिव वास देत । हम शररा गही मन वचन काय; नित नमें संत' झानन्द पाय ॥। # हुं प्रहेन्‍्मन:पर्ययश रणाय नमः प्रघ्यें० ॥॥६७॥॥ ग्रावरण रहित प्रत्यक्ष ज्ञान, शिवरूप केवली जिन सुजान। हम शररा गही मन सन वचन काय; नित नमें संत' श्रानंद पाय ॥ &# हूं भ्रहंत्केबलश रणाय नमः अध्ये ० ।३६८॥। मुनि केवलज्ञानी जिन अराध, पावे शिव-सुख नि३चय प्रबाध । हम शररा गही मन वचन काय, नित नमें 'संत' श्रानन्द पाय ॥ 3 हीं प्रहंत्केबलशरणस्वरूपाय नमः अध्ये ० ॥६६।॥। शिव-सुखदायक निज श्रात्म-ज्ञान, सो केवल पा जिन महन। हम दशररा गही मन वचन काय, नित नमें 'संत' श्राननद पाय ॥ $* हीं अहंत्के बलधमंशरणाय नमः भ्रघ्यं० । ७०। यह केवलगुरा झ्ातम स्वभाव, श्ररहन्तन प्रति शिव-सुख उपाय । हम शररा गहो मन वचन काय, नित नमें 'सन्‍्त' श्रानन्द पाय ॥ 3» हीं अहत्केवलगुणशरणाय नम: श्रध्य॑ं० ॥७१॥ संसार रूप सब विधन टार, मंगल गुण श्री निज सुक्तिकार । हम शररा गही मन वचन काय, नित नमें 'संत' प्रानन्द पाय ॥ 5» छी अहेन्मंगलगुणशरणाय नम: अध्यं० ॥॥७२।। छुय उपशम ज्ञानी विधन रूप, ता विन जिन ज्ञानी शिव सरूप । हम शर रा गही सन वचन काय, नित नमें 'सन्‍्त' श्रानन्द पाय ॥ % हीं भ्रहंन्मंगलज्ञानशरणाय नमः पभ्रष्यं० ॥॥७३॥ प्ररहन्त दर्श संगल स्वरूप, तासो दरश शिव-सुल श्रनूष । हम शररा गही सन वचन काय, नित नसें 'संत' झ्राननद पाय ॥। ४७ हों प्रहंन्मंगलदर्नशरणाय नम: झ्ध्यं० । ७४॥ प्ररहंत बोध है भंगलीक, शिव-मारग प्रति बरते प्रलोक । हम शररणा गही सन वचन काय, नित नें 'संत' शानन्द पाथ ॥ # हों प्रहेल्लोकोत्तमशरण।य नमः म्ध्यं० ॥७४॥ ११० तु [ सिद्ध लाश विधान निज शानानन्द प्रवाह धार, वरते प्रत॒ण्ड अव्यय श्रपार । हम शरण गही मन वचन काय, नित नमें संत' भ्रानन्द पाय ॥ & हीं अहंन्मंगलकेवलशरणाय नम: भ्रध्यं० ॥७७॥ जा बिन तिहुँ लोक न और मान, भव सिधु तरण तारण महान । हँस शरण गही सन वचन काय, नित नमें 'संत' श्रानन्द पाय ॥ # हों ग्हेल्लो शोत्तमशरणाय नमः भ्रध्य॑० ।।७६॥ स्वाभाविक भव्यन प्रति दयाल, विच्छेद कररा संसार जाल । हेम शरशा गही मन वचन काय, नित नमें 'संत' श्रानन्द पाय ॥ # हीं प्रहंल्लोकोत्तमशरणाय नमः अध्यें० ॥७८॥। ९ तुम बिन समरथ तिहु लोकमांहि, भवर्सिधु उतारण और नाहि। हम शरण गही मन वचन काय, नित नमैं 'संत' श्रानन्‍्द पाय ॥ $# ह्वीं प्रहल्लोकोत्तामवोयेश रणाय नमः अध्यँ ० ॥७९॥ बिन परिश्रम तारशतरण होय, लोकोत्तम भ्रदुभुत शक्ति सोय । हम शरण गही वचन काय, नित नमें “संत श्रानन्द पाय ॥ ३ हीं श्र हंललोकोत्तवीयंयगुणशरणाय नमः अध्ये ० ॥६०॥ श्रप्रसिद्ध कुनय ध्ल्पज्ञ भास, ताको विनाश शिवमग प्रकाश । हम शररा गही सत वचन काय, नित नमै “संत' श्रानंद पाय ॥ ३ हो प्रहेल्लोकोत्तमवोयंगुराशरणाय नमः अध्ये ० ॥८१। सब कुतय क्‌पक्ष कुसाध्य नाश, सत्यारथ-पत कारण प्रकाश । हम शररण गही मत वचन काय, नित नमें सन्‍्त' श्रानन्द पाय ॥ & हों श्रहेल्लोकोत्तमानिनियोधकाय नमः अध्य॑० ॥८२१ मिथ्यारत प्रकृति श्रवधि विनाश, लोकोसम श्रवधी को प्रकाश। हम शरण गही सन वचन काय, नित नमें 'संत' श्रानंद पाय ॥ ३» हुं प्रहेंल्लोकोत्तमाभिनियोधकाय नमः अध्य० ॥४३॥ मनपर्यय शिव संगल लहाय, लोकोत्तम श्रीगुरु सो कहाय। हम शरण गही सन वचन काय, नित नमें 'संत' आनंद पाय ॥ # डुो अहेल्तोकोरध्मत:पर्य यश रणाय नमः अर्घ्य॑ं० ॥८४॥ सप्तम पूजा | | १११ प्रावरणतीत प्रत्यक्ष ज्ञान, है सेवनीक जगमें प्रधान । हम शररण गही मन बचन काय, नित नमें 'सन्‍्त' श्रानंद पाय ॥ 5» हों अहेल्लोकोत्त मकेवलज्ञानश रणाय नमः प्रध्यं० ॥६५॥ हो बाह्य विभव सुरक्षत श्रनूष, भ्रंतर लोकोत्तम ज्ञानरूप । हम शररणा गही मन वचन काय, नित नमें सन्‍्त' आनन्द पाय ॥ 5 हु श्रहंललोकोत्तमविभूतिप्रधानशरणाय नमः अध्यं० ॥८६॥ रतनत्रय निर्मित मिलो अ्रबाध, पायो निज श्राननद धर्स साध । हम शररत गही सन वचन काय, नित नमैं 'सनन्‍्त' आनंद पाय ॥ % ह्रीं प्रहेल्लोकोत्तमविभूतिधर्मशरणाय नमः श्रध्यं०।८७॥ सुख ज्ञान वीय॑ दर्शन सुभाव, पायो सब कर प्रकृती श्रभाव । हम शररा गही मन वचन काय, नित नमें 'सन्‍्त' आनन्द पाय ॥ 3 हीं भ्रहंललोकोत्तमग्न न्‍्तचतुष्टयश रणाय नमः भ्रध्यं ० ॥॥८८!॥ अ्रडिल्ल वर्श ज्ञान सुख बल निजगुण ये चार हैं, ग्रातमीक परधान विशेष श्रपार हैं । इनहीं सों हैं पृज्य सिद्ध परमेह्वरा, हम हूं यह गुण पाये नमन यातें करा ॥८६॥ ३» हीं प्रहंदनन्तगुणचतुष्टाय नमः अ्रध्य ० । क्षयोपशम सम्बाधित ज्ञानकला हरो, पुरण ज्ञायक स्वयं बुद्धि श्रीजिनवरी । इनहीं सों हैं पुण्य सिद्ध परमेश्वरा, हम हूं यह गुर पाये नसन यातें करा ॥६०॥॥ ३& हों अहेन्निजज्ञानस्वयंभवे नेम: भ्रध्यें० । जनमत ही दहश श्रतिशय शासनसें कही, स्वयं शक्ति भगवान ग्राप तिन को लही । ११२ ] [ सिदचक विधान इनहीं सों हैं पुज्य सिद्ध परमेश्वरा, हमहूँ यह गुण पायें नमन यातें करा ॥६ १॥ # हो अहंह॒शातिशयस्वयंभुवे नमः भ्ध्यं० । ये दश अतिशय घातिकर्म छयको करें, महा विभव को पाय मोक्ष तारों वरें। इनहीं सों हैं पुज्य सिद्ध परमेश्वरा, हमहूं यह गुर पायें नमन यातें करा ॥६२॥ हक डी प्रहंदशातिश पाय नम: भ्रध्ये० । केवल विभव उपाय प्रभूजिन पद लहो, चौदह प्रतिशय देवनकरि सेवन कियो । इनहीं सों हैं पुज्य सिद्ध परमेश्वरा, हमहूं यह गुणा पाये नमन यातें करा ॥६३॥ 5 हीं भहंच्चनतुरंशअतिशयाय तम्मः अध्ये० । चोतिस प्रतिशय जे पुराण बररणे महा, मुक्ति समाज श्रनूप श्री गुरु ने कहा । इनहों सों हैं पृज्य सिद्ध परमेश्वरा, हमहूं यह गुण पायें नमन याते करा ॥६४॥ # हर भरहंच्चर्तास्त्रश त-अतिश यविराजमानाय नमः अध्ये ५ । डालर लोकालोक अरा, सम जानो, ज्ञानानंत सुगुण पहिचानो । सो झरहंत सिद्ध -पद पायो, भाव सहित हम शीश नवायो ॥ $* हो प्रहंज्तानानन्दगुणाय नमः अध्यं ० ॥६५॥ समरस सुस्थिर भाव उधारा, युगपति लोकालोक निहारा। सो प्ररहंत सिद्धपदप पायो, साव सहित हम शीश नवायो ॥ # हू महंद्ध्यान/नस्तध्येयाय नमः ध्रष्य॑ ० ॥९६॥ लप्तन पूजा ] [ ११३ इक हक गुराका भाव श्रनस्ता, पर्ययरूप सो है श्ररहस्ता । सो अ्रहंत सिद्धपद पायो, भाव सहित हम शीश नवायो ॥ ढ## ही अहंदनम्तगुणाय नमः भ्रध्य॑० ।।६७॥ उत्तर गुण सब लख चोरासो, पुरण चारित भेद प्रकाशी । सो श्ररहंत सिद्धपद पायो, भाव सहित हम ज्ञोश नवायों ॥ # वीं अहंत्तप-प्रन्तगुणाय नमः प्रध्य ० ॥६८॥। भ्रातमशरक्ति जास करि छोनी, तास नाश प्रभुताई लोनो । सो प्ररहंत सिद्ध पद पायो, साव सहित हम शीक्ष नवायो ७ ४ हीं अहंत्परमात्मने नमः प्रध्यं० ।९६।॥ निज गुण निज ही मांहि समाया,गणा धरादि वरनन न कराया। सो झरहंत सिद्ध पद पायो, भाव सहित हम शोश नवायो ॥ # हीं अहंत्स्वरूपगुप्ताय नमः भ्रध्यं० ॥१००॥ दोधक जो निज श्रातम साधू सुखाई, सो जगतेश्वर सिद्ध कहाई। लोक शिरोमरिं है शिवस्वामी, भाव सहित तुमको प्रणमामी ॥। 5» हीं सिद्धेभ्यो नमः श्रध्यं० ॥१०१॥ सर्व विशुद्ध विरुष सरूपी, स्वातम-रूप विशुद्ध अनृपी । लोकशिरोमरिंग है शिवस्वामी, भावसहित तुमको प्ररामामी ॥ 3* हीं सिद्धस्वरूपेम्यों नमः श्रध्यं० ।॥१०२॥। पराश्चित सर्व विभाव निवारा, स्वाश्वित सर्व श्रबाध भ्रपांरा । लोकशिरोमरित है शिवस्वामी, भावसहित तुमको प्रशामामी ॥ 5 ही सिद्धज्ञानेभ्यो नम: अध्यें० ॥१०३॥ झाकुलता सबही विधि नाशी, ज्ञायक लोकालोक प्रकाज्ञी । लोक शिरोमरिण है शिव स्वामी, भाव सहित तुमको प्रशमामी ॥ 3* हीं सिद्ध ज्ञानेभ्यो नमः अ्रध्यं० ।१०४॥ जोब प्रजीव लखे भ्रविचारा, हो नहीं भ्रन्तर एक प्रकारा। लोकशिरोमरिंग है शिवस्वामी, भावसहित तुमको प्रणभामी ॥ % हीं सिद्धदर्शनिभ्यों नमः अध्यें० ॥१०५॥। करंट [ सिद्धचक्र विष्ञाम प्रन्तर बाहिर भेद उघारो, दर्श विशुद्ध सदा सुखकारी। लोकशिरोमरि है शिवस्वामी, भावसहित तुमको प्ररमामो ७ 5 हीं सिद्धशुद्ध मम्यक्त्वेम्यो नमः श्रध्यं० ॥१०६॥ एक श्रणः मल कर्म लजावं, सोय निरंजनता नहि पाव । लोकशिरोमरि है शिवस्वामी, भावसहित तुमको प्ररमामी ७ $ हीं सिद्ध निरंजनेम्यों नमः अ्ध्य ० ॥१०७॥। श्रद्धं रोला चारों गति को भ्रमण नाशकर थिरता पाई। निजस्वरूप में लीन, श्रन्य सों मोह नशाई ॥१०८॥ 35% हीं सिद्धाचलपदप्राप्ताय नमः अ्रध्यं ० । रत्नत्रय आराधि साधि, निज शिवपद पायो। संख्या भेद उलंघि, शिवालय वास करायो ॥१०६॥ 5* हीं संख्यातीतर्तिद्धेभ्यों नमः प्रध्यें ० । ग्रसंह्घात मरजाद, एक ताहू सो बोते । विजयी लक्ष्मीनाथ, महाबल सब विधि जीते ॥११०॥ ३ ह्रीं प्रसंस्यातसिद्धे म्या नम. अध्ये० । काल आदि मर्याद श्रनादि-सों इह विधि जारी । भए श्रनन्त दिगम्बर साधु जु शिवपद धारी ॥११५॥ <& हीं अनन्तसिद्धेम्यो नमः अध्यें० । पुष्कराद्ध सागर लों, जे जल थान बखानो। देव सहाइ उपाइ, उध्वं-गति गमन करानो ॥११२॥ 3 हीं जलसिद्धेम्यों नमः श्रध्ये ० । वन गिरि नगर गुफादि, सर्व थलसों शिव पाई । सिद्धक्षेत्र सब ठोर बखानत, श्री जिनराई ॥११३॥ 3» हों स्यलपिड्ेग्पो नप्तः प्रध्यं० । लाहन पुन | [ ११४५ नभ हो में जिन शुक्लध्यान-बल कर्स नाश किये १ ध्रायु पूर्ण बढ ततछिन, ही शिववास जाय लिये ॥११४॥ ४5 छो गगनसिद्धेस्पो नमः श्रष्यं०। श्रायु स्थिति सम श्रन्य कमें-कारण परदेशा । परस प्रण लोक, झात्स, केवली जिनेशा ॥११५॥ 5 हीं समुद्घात-पिद्धें म्यो तमः अध्ये० । केवलि जिन बिन समुद्धात, शिववास लिया है । स्वते स्वभाव समान, भ्रघाती कर्म किया है ॥११६॥ ३ छुं प्रसमुद्घातसिद्धे स्थो नमः भ्रध्यं० । उल्लाला तिन विद्ेष भ्रतिशय रहित, सामान्य केवली नाम है। सिद्ध भये तिहुं योगतें, तिनके पद पररप्ाम है ॥११७॥ 5 हीं साधारणसिद्धेभ्यो नमः अध्यं ० । तजिभुवन में नहीं पावतो, जो जिन गुण श्रभिरास हैं । सिद्ध भये तिहुँ योगतें, तिनके पद परणाम है ॥११५८॥ ३* ह्वीं असाधारणसिद्धे मयो नमः अध्यें ० । गर्भ कल्यारण श्रादि युत, तीर्थंकर सुखधाम है । सिद्ध भये तिहुं योगते, तिनके पद परणाम है ॥११६॥॥ 3> हों तोर्थंक रसिद्धे भ्यो नमः अध्ये० । तीथंड्र के समय में, केवली जिन श्रभिराम है । सिद्ध भये तिहुं योगते, तिनके पद पररणाम है ॥१२०७ 3 हों तोयकर-अन्तरसिद्धेभ्यों नमः श्रघ्यं० । पंच शतक पच्चीस पुनि, धनुष काय भ्रभिराम है। सिद्ध भये तिहूं योगतें, तिनके पद परणाम है ॥१२१॥ 5 ही उत्कृष्टावगाहुनसिद्धे म्यों नमः अध्यं० । श्रादि भ्रन्त श्रन्तर वि्ें, मध्यवगाहन नाम है। सिद्ध भये तिहुं बोगतें, तिनके पद परणाम है ॥१२२॥ 3 छो मध्यमावगाहुनसिद्धे मयो नमः अध्ये ० । तीन श्रर्ध तन केवली, हस्त प्रमाण कहाय हैं । सिद्ध मये तिहुं योगते, तितके पद पद परणाम हैं ॥१२३॥ # हीं जघन्यावगाहनसिद्धेम्थों नमः अध्ये० । . देव निमित्त मिलो जहां, त्रिजग केवली धाम है । सिद्ध भये तिहु योगतें, तिनके पद परणाम है ॥१२४॥ 5 हीं त्रिजगलोकसिद्धे म्यो नमः अध्ये० । घट्विध परिणशति कालकी, तिन श्रपेक्ष यह नाम है। सिद्ध भये तिहु योगतें, तिनके पद परणाम है ॥१२५॥ 5 ह्वों घड़विधकालसिड्धेम्यों नमः अध्यें० । प्रत्त समय उपसग्गतें, शुकलध्यान श्रभिरास है। सिद्ध मये तिहूं योगतें, तिनके पद परणाम है॥१२६॥ ४ हों उपसर्ग सिद्धे म्यो नमः अध्ये ० । ह पर-उपसगं मिल नहों, स्वतः शुक्ल सुख धाम है। सिद्ध भये, तिहुं योगतें, तिनक्रे पद पररणाम है ॥१२७॥ 3> हु निरुपतर्ग सिद्धेम्यों नमः अ्रध्यें० ! ; श्रन्‍्तर द्वीप महो जहां, देवन के श्रभिराम है। सिद्ध भये तिहुं योगते, तिनके पद परणाम है ॥१२८॥ 3» हीं श्रन्तर द्वोपठिद्धम्थ। नम ऊ#ध्ये० । देव गये ले पिधु जब, कर्म छथों तिह ठाम है। सिद्ध भये तिहुं योगतें, तितके पद परणाम है ॥१२६॥ 5 हीं उदधिसिद्धेस्था मः अरध्य ० । भुजंगप्रयात धरे जोग श्रान गहे शुद्धताई, न हो खेद ध्यानाग्नि सो कर्म छाई। भये सिद्ध राजा निजानंद साजा, ह यही मोक्ष नाजा नमः सिद्ध काजा ॥१३०॥ # हुं स्वस्यित्यासनसिद्धे भ्यो नमः भ्रध्यं ५ । संप्तेंम' पूंणा |. [ १९० महा ज्ञांति मुद्रा पलौथी लगाये, कियो कर्म को नाश ज्ञानी कहाये। भये सिद्ध राजा निजानंद साजा, यही मोक्ष नाजा नमः सिद्ध काजा ॥१३१॥ 5» हीं पर्यकासनसिद्धेम्पो नमः भ्रध्ये० । लहै श्रादिको संहनन पुरुष देही, लखायो परारंभ में भाव ते ही। भये सिद्ध राजा निजानंद साजा, पही मोक्ष नाजा नमः सिद्ध काजा॥१३२॥ 35 हों पुरुषबेदसिद्धेभ्यो नमः अ्रध्य ० । खपायो प्रथम सात प्रकृति विमोहा, गहो शुद्ध श्रेणी क्षयो कर्मलोहा। भये सिद्ध राजा निजानंद साजा, यही मोक्ष नाजा नमः सिद्ध काजा ॥१२३३॥ # हों क्षपक णीसिद्धेभ्यो नमः भ्रष्य ० । समय एक में एक वासो भनंता, धरो श्राठ तापं॑ यही भेद श्रन्ता । भये सिद्ध राजा निजानंद साजा, .... यही मोक्ष नाजा नमः सिद्ध काजा ॥१३४॥ ढक हों एकफसमयसिद्धेस्यों नमः अ्रध्यं० । . किसी देशमें वा किसी काल माहों, गिने दो समयमें तथा श्रन्तराई। भये सिद्ध राजा निजानंद साजा, है यही मोक्ष नाजा नमः सिद्ध काजा ॥१३५॥ & हीं द्विसमपतसिद्धेभ्यो तमः भ्रध्ये० । ११८ ] | सिदचक्र विधान समय एक दो तीन धाराप्रवाहो, कियो कर्म छय अन्तराय होय नाहीं । भये सिद्ध राजा निजानंद साजा, यही मोक्ष नाजा नमः सिद्ध काजा ॥१३६॥ % हीं जिसमयसिद्धेभ्यो नमः अ्रघ्ये० । हुवे हों सु होंगे सु हो हैं भ्रबारी, त्रिकालं॑ सदा मोक्ष पंथा बिहारो। भये सिद्ध राजा निजानंद साजा, यही मोक्ष माजा नमः सिद्ध काजा॥१३७ 3 हों त्रिकालसिद्धे म्यो नमः श्रध्ये० ॥१३७॥ तिहूं लोक के शुद्ध सम्यकत्व धारी, महा भार संजम धर हैं श्रबारी। भये सिद्ध राजा निजानंद साजा, यही मोक्ष नाजा नमः सिद्ध काजा ॥१३८४ 3 हीं त्रिलोरुसिद्धेम्यो नमः अ्रध्ये०। मरह॒ठा तिहूँ लोक निहारा, सब दुखकारा, पापरूप संसार | ताको परिहारा सुलभ सुखारा, भयो सिद्ध श्रविकार ॥ है जगत्रय नायक मंगलदायक, मंगलमय सुश्लकार । में नमूं त्रिकाला हो श्रघ टाला, तप हर शशि उनहार ॥१३९॥ $ हीं सिद्धमंगलेम्पो नम: ग्रष्ये० ॥१३६॥ तिहुं कर्म-कालिमा, लगी जालिसा, कर रूप दुखदाय । तुम ताको नाशो, स्वयं प्रकाशों स्वातम रूप सुभाय ॥हे जग० 5» हीं सिद्धमंगलज्ञानेभ्यो नमः प्रध्यं० ॥१४०॥ तिहुं जगके प्राणी, सब श्रज्ञानो, फंसे मोह जंजाल। हो तिहुं जगत्नाता, पुरण ज्ञाता, तुम ही एक खुशहाल । 'हे जग० ३ हों तिद्धमंगल स्वरूपेम्यी नम: भ्रध्यें ० ॥१४१॥ कप्लंस पूजा || [११६ यह मोह अंधेरी, छाई घनेरी, प्रबल पटल रहो छाय । तुम ताहि उधारो, सकल निहारो, युगपत झ्रानंददाय ॥हे जम० % हीं सिद्धमंगलदशनेस्यो नम: श्रध्य॑ं० ॥१४२॥ निजबंघन डोरी, छिन मे तोरी, स्वयं शक्ति परकाश । निरमय निरमोही, परम श्रछोही, प्रस्तरायविधि नाश ॥हे जग० ** हो सिद्धमंगलवीयम्यो नमः अध्यं० १४३॥ जाके प्रसादकर, सकल चराचर, निजसों भिन्न लखाय | रुष-राग निवारा, सुख विस्तारा, श्राकुलता विनज्ञाय । 'हे जग० 5» हीं सिद्धमंगलसम्पक्त्वेभ्यो नमः श्रष्य (४४ श्रस्पर्श अ्रमुरति, चिनमय मुरति, श्ररस अ्रलिग श्रत्प । मन श्रक्ष अलक्ष, ज्ञान प्रत्यक्ष, शुभ श्रवगाहि स्वरूप ॥हे जग० उ> हीं सिद्धमंगलावगाहनेम्यों नमः अश्रध्ये ॥॥१४५॥ ग्रव्यक्त स्वरूप, श्रमल श्रनप॑ श्रलख श्रगम असमान । भ्रवगाह उदर धर, वास परस्पर, भिन्न भिन्‍न परनाम ॥हे जग० % हीं सिद्धमंगलसुक्ष्मत्वेश्यो नम: अध्यं० ॥१४६॥ प्रनुभूति विलासो समरस रासोी, होनाधिक विधि नाश । विधि गोत्र नाशकर, पूरण पदधर श्रसंबाध परकार ॥हे जग ० $# हों सिद्धमंगल-प्रगुरुलघुभ्यो नमः अध्यें० ॥१४७॥। पुदूगल कृत सारी, विविधि प्रकारी, हं तभाव श्रधिकार । सब भांति निवारो, निज सुखकारो, पायो पद श्रविकार ॥हे जग ० 3 हों सिद्धमंगलअ5८।बाधितेभ्यो नम: श्रध्य॑ं० ॥ १४८॥ श्रवगाह॒ प्रणामी, ज्ञानारासी, दर्शन-बीयं अश्रपार । सुक्षम अवकाशं, श्रज श्रविनाशं, श्रगुरुलघ्‌ सुखकार ॥हे जग० 5* हीं सिद्धमंगलाष्टगुंरीभ्यो नमः श्रच्य॑ं० ॥१४६॥ ११० ] [ सिद्धचंक (विधेतने शुद्धातम सारं, श्रष्ट प्रकारं, शिव स्वरूप श्रनियार । निज गुरपरधानं, सम्पकन्नानं, श्रादि भ्रन्त श्रविकार ।हे जग० % हों सिद्धमंगल-अष्टरूपेम्यो नमः झध्ये० ॥१५०॥ मंगल प्ररहन्तं, श्रष्टम भन्‍्तं, सिद्ध श्रष्टगुरा भाष । ये ही बिलसावे, भ्रस्य न पा, साधारण परकाश ॥है जग० 3 हीं सिद्धमंगल-अष्ट प्रकादाकेभ्यो नमः भ्रष्य० ॥१५१॥ निर श्राकुलताई, सुख अश्रधिकाई, परम शुद्ध परिणाम । संसार निवारण, बन्ध विडारन, यही धर्म सुखधाम ॥है जग० 3 हीं सिद्धमंगलधमेंस्पो नर; श्रध्य० ॥५ ५२॥ चूलिका तीनकाल तिहुंलोक में, तुम गुरा श्रौर न माह लखाने। लोकोत्तम परसिद्ध हो, सिद्धराज सुख साज बखाने ।१५३॥ ३* हीं सिद्ध लाकोत्तमगुरणा भ्यो नमः श्रष्य॑ं० । लोकत्रय शिर छत्र मणि, लोकत्न4 वर पूज्य प्रधाने। लोकत्तम परसिद्ध हो, परसिद्ध राज, सुखसाज बखाने ॥१४४॥ ३० हों सिद्धलोकोत्तमेभ्यो नस: अध्ये० । झमल श्रतृप तेजघन, निरावरण निजरूप प्रमाने। लोकोत्तम परसिद्ध हो, सिद्धराज सुख साज बखाने ॥१४५॥ $> हों घिद्धवलोकोत्त मज्ञवाय नमः प्रध्ये० । लोकालोक प्रकाश कर, लोकातीत प्रत्यक्ष प्रमाने। लोकोत्त म परसिद्ध हो, सिद्धराज सुख साज बखाने ॥१५६॥ 3 हो सिद्ध लोकोत्तमज्ञानाय नमः अध्यं० । सकल दह्शनावरण बिन, पुरन-दरसन जोत उसगाने। लोकोत्तम परसिद्ध हो, सिद्धराज सुख साज बलाने ॥१५७॥ 3 ही सिद्धलोकोत्तमदशंनाय नमः अध्यें ० । संप्सेभ पूंथा ) [ १२१ झतुल प्रतीन्द्रिय बीरजकर, भोग तिने शिवनारि झघाने । लोकोत्तम परसिद्ध हो, सिद्धराज सुख साज बखाने ॥१५थ॥ 55 हीं सिद्धलोकोत्त सवीर्याय नमः ग्रध्यं० । त्रोटक बिनका रण हो सबके मितु हो, सर्वोत्तम लोकवि्षं हितु हो। इनहों गुण में मन पागत हैं, शिववास करो शरणखागत हूं ।। क हो लोकोत्त मगर रणाय नमः अ्रष्यं० ॥१५९।॥ तुम रूप श्रनूप ध्यान किये, निज रूप दिखावत स्वच्छ हिये। इनहों गुर में मन पागत है, शिववासत् करो शरणागत हैं ॥ 5७ ह्वीं सिद्ध स्वरूपश रणाय नमः अध्ये० ॥१६०॥ निरभेद झछेद विकासित हैं, सब लोक भ्रलोक विभासित हैं । इनहीं गुरण में मन पागत है, शिववास करो शरणागत हैं ॥ & छी सिद्धदशंनशरणाय नमः श्रध्यं० '१६१॥ निरबाध श्रगाध प्रकाशमई, निरहन्द भ्रबंध पश्रभय पध्रजई। इनहीं गुण में मन पागत है, शिववास करो दरणागत हैं। 5 हीं सिद्ञानवारणाय नमः अ्रध्यं० ॥१५६२७ हितकारण तारण-तररा कहे, श्रप्रमाद प्रमाद प्रकाशन है। इनहीं गुण में मन पागत है, शिववास करो शररागत हैं ॥ & हो सिद्धवीय शरणाय नमः अध्यं० ॥१६२॥ झविरुद्ध विशुद्ध प्रसिद्ध महा, निज झ्रातम-तत्व प्रबोध लहां । इनहों गुणा में मन पागत है, शिववात्र करो शरणागत हैं ७ ४ हीं सिद्धसम्पक्त्वशरण,य नमः प्रध्य ० ।।१६४॥ जिनको पूर्वापर भ्रन्त नहीं, नित धार-प्रवाह बहै श्रति हो । इनहीं गुरा में मन प/गत है, शिववास करो शरणागत हैं ४५ # ही सिद्ध-पनन्त३ रण/य नमः अ्रष्य ० ॥१६४॥ ह श्श्र ] [ सिद्धचचआ विधा कबहूं नहीं प्रन्त समावत है, सु भ्रनस्त-भ्रतन्‍्त कहावत है। इयहीं गुणा में मत पागत है, शिववास करो दरखागत हैं ॥ &* हीं सिद्ध-प्रन्तानस्तशरणाय मम्मः प्रध्यं० ॥१६६।॥ तिहूं काल सु सिद्ध महा सुखदा निजरूप विषें थिर भाव सदा । इनहीं गुर में मन पागत है, शिववास करो शरणागत हैं ॥ # हीं सिद्धत्रिलोकश रणाय नमः श्रघ्यें० ॥१६७॥ तिहुँ लोक शिरोमरि पृज्य महा, तिहुं लोक प्रकाशक तेज कहा । इनहों गुणा में मन पागत है, शिववास करो शरणागत हैं। # हीं सिद्ध विलीकशरणाय नमः प्रध्यं० ॥ १६८५ गिनती परमार जू लोक धरे, परदेश समूह प्रकाश करे। इनहीं गुणा में मन पागत है, शिववास करो शरणागत हैं ॥ 5 हीं सिद्धासंस्थातश रणाय नमः अ्रध्यं ० ।११२६।॥ पूर्वापर एकहि रूप लसे, नित लोक सिंहासन वास बसे । इनहों गुण में मन पागत है, शिववास करो शरणागत हैं। ४ हों सिद्धप्नोव्यगुरश रणाय नमः भ्रध्यं० ॥ १७०॥ जगवास पर्याय विनाश क्षियो, श्रब निउचय रूप विशुद्ध भयो । इनहीं गुण में मन पागत है, शिववास करो शरणागत हैं ॥ 8४ ह्लीं सिद्धोत्पादगुणाश रणाय नमः अर्घ्य ० ॥१७१॥ ब्रद्रव्य थकी रुष राग नहीं, निज भाव बिना कहूँ लाग नहीं । इनहीं गुर में मन पागत है शिववास करो शरणागत हैं ॥ 5» छी सिद्ध साम्यगुणश रणाय नमः श्रध्यं० ॥१७२॥ बिन कर्म-कलंक विराजत हैं, भ्रति स्वच्छ महागुरण राजत हैं । इनहीं गुण में मन पागत है, शिववास करो शरणागत हैं ॥ ३ हीं सिद्धस्वच्छगुणश रणाय नमः झ्रघ्यं० ॥१७३॥ सन इन्द्रिय श्रादि न व्याधि तहां, रुष-राग कलेश प्रवेश नदह्ठां इनेहों गुर में मन पागत है, शिववास करो शरणानत हैं॥ # हीं सिद्धस्वधितगुराश रणाय नमः प्रध्य ० ॥१७४॥ पैप्तम पूजा ] . | १२६ निजरूप विषें नित भ्रगन रहें, पर योग-वियोग न दाह .लहैं । इनहों गुण में मन पागत हैं, शिववास करो दरस्ागत हैं ॥ %* हीं सिद्धसमाधिगुणश रणाय नमः भ्रष्य॑ं० ॥१७४५। श्रुतज्ञान तथा मतिज्ञान दऊ, परकाशत हैं यह व्यक्त सऊ। इनहीं गुण में मन पागत हैं, शिववास करो शरणागत हैं । ३» हीं सिद्ध व्यक्तगुशाश रणाय नमः भ्रष्य ० ॥ १७६॥ परतक्ष प्रतीन्द्रिय भाव महा, मन इन्द्रिय बोध न गुह्य कहा । इनहीं गुण में सन पागत है, शिववास करो शरणागत हैं ॥ 5» हीं सिद्ध-अव्यक्तगुरश रणाय नमः श्रष्य ० ॥१७७॥ निजगुणवर स्वामी शुद्ध संबोधनामी । परगण नहि लेशा एक ही भाव हेषा। मनवचतन लाई पूजहों भक्तिभाई। भवि भवभय चूरं शाश्वतं सुक्खपूरं ॥१७८॥ 3* हों सिद्ध गुरास्वरूपाय नमः श्रष्यं ० ॥१७८॥। सब विधि-मल जारा बन्ध-संसार टारा । जगजिय हितकारी उच्चता षाय सारी ॥ मनवचतन लाई पुूजहों भक्ति भाई। भवि भवभय चूर शाइवतं सुक्खपुरं ॥१७६॥ उ»हीं सिद्ध परमात्मास्वरूपाय नमः श्रध्यं० ॥ १७६।॥ पर-परणति-खण्ड॑ भेदबाधा-विह॒ण्ड । शिवसदन निवासी नित्य स्वानंदरासी ॥ मनवचतन लाई पुजहों भक्ति भाई । भवि भवभय चूरं शाहवतं सुक्खपूरं ॥९८०॥ # हीं सिद्धालण्डस्वरूपाय नमः भ्र्ध्यं० । चितसुखबविलसान श्राकुल भावहान । निज प्रनुमवसारं द्वतसंकल्पटारं ॥ १२४ | [ सिदर्चक विधान मनवचतन लाई पूजहों भक्तिभाई। 9 भवि भवभय च्रं॑ शाइवतं सुक्खपुरं ॥१८६१॥ ' # हीं सिद्ध चिदानन्दस्वरूपाय नमः भ्रध्यं० । परकरणनिवारं भाव संभाव धारं। निज प्रनुपम ज्ञान सुक्वरूपं निधानं ॥ . सनवचतन लाई पूजहों भक्तिमाई । भवि भवभय चूरं शाइवतं सुक्खपुरं ॥१८२॥ # हीं सिद्ध तह॒जानन्दाय नमः अ्रध्यं० । विधिवद सब प्रानी हीन-प्राधिक्य ठानी । तिस कररा निमुला पायरूपा धरूला ॥ सनवचतन लाई पुजहों भक्तिभाई। भवि भवभय चूरं शाइवतं सुक्खपुरं ॥१८३॥ 55 ह्लीं सिद्धाच्छ बरूपाय नमः प्रध्यं० । जब लग परजाया भेद नाना धराया। इक शि4पद माहों भेद श्राभास नाहीं ॥ मनवचतन लाई पुजहों भक्तिभाई। भवि भवभय चूरं शाश्यतं सुक्खपुरं ॥१८४॥ # छी सिद्धाभिदगुणाय नमः भ्रध्य॑०। प्रनुपण. गुणधारो लोक संभावटारी। सुरनरमुनि ध्याव सो नहों पार पावें ॥ सनवचतन लाई पूजहों भक्तिभाई। मवि भवभय चूरं शाहवतं सुक्खपुरं ॥१८४५॥ # छ सिद्धानुपमगुणाय नम: प्रघ्ये० । जिस प्रनुभव सरसे धार झानंद बरसे । अनुपम रस सोई स्वाद जासो न कोई ७ सक्न्र:पुला ] | १२१ सनवचतन लाई पूजहों भक्तिभाई। भति भवभय चूरं शाइवत सुक्खपुरं ११८६४ # हो स्ड्वि-अमृतत््वाय नमः भ्रध्य ० । सब श्रुत विस्तारा जास माही उजारा । यह निजपद जानो झात्म संभावमानों ॥ सनवचतन लाई पूजहों भक्षितमाई। मवि भवभय चुूरं शाश्वतं सुक्खपुरं ॥१८७॥ हों श्द्धिभुतप्राप्ताय नमः प्रध्य॑० । ह > दोधक जीव-श्रजी व सब प्रतिभासी, केवल जोति लहो तम नाञझी । सिद्ध-समह नमूँ शिरनाई, पाप कलाप सब खिर जाई ॥ ३* हीं सिद्धकेवल प्राप्ताय नमः प्रध्यें० ।१५८८॥ चेतनरूप सदेश बिराज, भ्राकृतिरूप भ्रलिग सु छाज। सिद्ध समूह नमूं शिरनाई, पाप कलाप सब खिर जाई ॥। % हीं सिसद्धाकारनिराकाराय नमः श्रध्यं० १५६. नाहि गहैं पर श्राश्मित जानो, जो शभ्रवलम्ब बिना पद मानो । सिद्ध-समूह जजों मन लाई, पाप कलाप सबब खिर जाई ॥ %# हों निर,लम्बाय नमः प्रध्ये० ।.१६०। राग-विषाद बसे नहिं जामें, जोग वियौग भोग नहीं तामें । सिद्ध-सम ह जजों मन लाई, पाप कलाप सब॑ खिर जाई !। 3 हीं सिद्धि | प्कलंकाय नमः भ्रष्य ० ॥१६१॥ ज्ञान प्रभाव प्रकाश भयो है, कर्म-प्रमह विनाश भयो है। सिद्ध-समूह जजों मन लाई, पाप कलाप सबब खिर जाई ॥ 8४ हीं सिद्धतेज:संपन्‍ताय नमः ध्रध्यं० ॥१६२॥ झ्रातमलाभ निजाश्चित पाया, दंत विभाव समूल नसाया । सिद्ध-सम्‌ ह जजों मन लाई, कलाप पाप सब खिर जाईं॥ 5+ हीं सिद्धआ।त्मसंपन्‍नाय नम: श्रध्य० ॥१६३॥ श्रे६ | [ सिद्धचक विशाल सोतियादास चहूं गति काय-स्वरूप प्रत्यक्ष, शिवालय वास श्रनूप श्रलक्ष । भजो मन प्रानंदसों शिवनाथ, धरो चरणाबुजको निज माथ ॥ & ही सिद्धगर्भवासाय नमः प्रध्यें० ॥॥१६४॥। निजानन्द श्रीयुत्‌ ज्ञान श्रथा हु, सुशो भित तुप्त भयो सूख पाय । भजो मन झानन्दसों शिवनाथ, धरो चररपांबुजको निज साथ ॥ ३» ही घतिद्धलक्ष्मोसंतपंकाय नमः अ्रध्य ० ॥१६५॥ सुभाव निजातम श्रन्तरलीन, विभाव परातम आपद कीन । भजो मन श्रानन्दसों शिवनाथ, धरो चरणांबुजकों निज माथ ॥ 5 हीं सिद्धान्तराकाराय नम: श्रघ्यं ० ॥१६६॥ जहाँ लग द्वेष प्रवेश न होय, तहां लग सार रसायन होय । मजो मन प्रानन्‍दसों शिवनाथ धरो चररखांबुजकोी निज माथ ॥ &# हीं धिद्धसाररसाय नमः श्रध्यं० ॥१६७॥ जिसो निरलेप हुए विषतुंव्य, तिसो जग श्रग्न निराश्रय लुंब्य । भजो मन प्रानन्दसों शिवनाथ, धरो चरणांबुजको निज साथ ॥ 85% छी सिद्धशिखरमण्डनाय नम: प्रध्यें० ॥१६८।॥ तिहूं जग शीस विराजत नित्य, शिरोमणि सब समाज प्रनित्य । भजों मन भ्रानन्‍्दसों शिवनाथ, धरो चरणांबुज को निज माथ ॥ 3» ह्वों सिद्धव्निलोक।ग्रतिवासिने नमः अध्य ॥६६॥ ग्रकाय श्ररूप प्रलक्ष श्रवेद, निजातम लोन सदा श्रविछेव । मजो मन प्रानंदसों शिवनाथ धरो चरणांबुज को निज माथ ॥। . $» हो सिद्धस्षरूपगुप्तेभ्यो नसः अभ्रध्यं ।२००॥। श्रडिलल ऋषभ श्रादि चितधारि प्रथम दीक्षा धरो, केवलज्ञान उपाय धमंबिधि उच्चरो। सब्लभ पूजा ] | १2७ निजस्वरूप थितिकररा हररा विधि चार है, परमारथ प्राचायं सिद्ध सुखकार है ॥२०१॥ 3* हों स्रिस्‍्यो नमः अध्यं० । निज ही निज उर धार हेत सामथ्थं है, ग्रात्मशक्ति कश व्यक्ति करण विधि व्यर्थ है! निजस्वरूप थितिकरण हरण विधि चार है, परमारथ श्राचायं सिद्ध सुखकार है ॥२०२॥ 3» ह्वीं सूरिग्‌ णोभ्यों तमः श्रष्यं०। साधन साधक साध्य भाव हबही गयो, भेद भ्रगोचर रूप महासुख संचयो । निजस्वरूप थितिकरण हरण विधि चार है, परमारथ शप्राचाय॑ सिद्ध सुखकार हैं ।॥॥२०३॥ ३» हों सूरिस्वरूपगुरोभ्यों नमः अरध्यं० । तत्वप्रतीता निजरातमरूप अनुभव कला, पायो सत्यानंद कुमारण दलमला। निजस्वरूप थितिकरण हरण विधि चार है, परमारथ आचाय सिद्ध सुखकार है ॥२०४॥ 3» हीं सरिसम्यक्त्वगुरो भ्यो नमः प्रध्य॑० । वस्तु श्रनंत धर्म प्रकाशक ज्ञान है, एकपक्ष हठ गृहित निपट श्रसुहान है । निजस्वरूप थितिकरण हररा विधि चार है, परमारथ श्राचार्य सिद्ध सुखकार है॥२०५॥ 5 हो सूरिज्ञानग्रोम्यों नमः अध्ये०। वस्तुध्म समान तांहि प्रवलोकना, शुद्ध निनातमब्स ताहि नहों लोपना । श्श्ष ] [ लिडचक्ष विज्ञान निजस्वरूप थितिकरण हररप विधि चार हैं, परमारथ श्राचायं सिद्ध सुखकार है॥२०६॥ 3४ छक्ी सरिबदशनगुणेभ्यो नमः भ्रध्य॑ ० । झतूल प्रकम्प भ्रखेब शुद्ध परिणति धरें, जगतस्वरूप व्यापार न हक छिन श्रादरें। निजस्वरूप थितिकररा हरणा विधि चार है, परमारथ श्राचायं सिद्ध सूखकार है ॥२०७॥ & हीं सूरिवोय गुरोभ्यो नम: श्रघध्यें ० । घट्त्रिशत गुणा सूरि भसोक्षफल पाइयो, तातें हम इन गुणकर ही जहा गाइयो। निजस्वरूप थितिकररणा हररप विधि चाए है, परमारथ श्राचायं सिद्ध सुखकार है ॥२०८॥ # हों सूरिषट्त्रिश तगुणभ्यो नमः श्रध्यें० । पंचाचार श्राचारा साथ शिवपद लियो, वास्तव में ये गुण निजमें परगट कियो। निजस्वरूप थितिकररा हरा विधि चार है, परमारथ शभ्राचा्यं सिद्ध सुखकार है ॥२०६॥ + हीं सरिपंचाचारग णोभ्पो नमः अ्रध्यं० । गुण समुदाय सरूप द्रव्य भश्रातम महा, परसों भिन्‍न श्रभेद निजातम पद लहा । निजस्वरूप थितिकररप हरण विधि चार है, परमारथ श्राचाय सिद्ध सुखकार है ॥२१०॥ ४» हीं सूरिद्रव्यग रोभ्यो नमः भ्रष्य ० । बीतराग परणति रचही सुखकार ज्‌ , परम शुद्ध स्वयं सिद्ध भयो भ्रनिवार जू । सच्तम पूजा ] | (१श्हं निज स्वरूप थिति कररा हरण विधि चार है, परमारथ श्राचाय सिद्ध सुखकार है ॥२११॥ # हीं स्रिपर्यायगुणेभ्यो तमः भ्रध्ये० । चंचला ध्राप सुक्वरूप हो सु, और सौख्यकार होत, ज्यू घटादिकों प्रकाशकार है युबोष जोत । सूरि धर्मको प्रकाश सिद्ध -धर्म-रूप जान, में नम त्रिकाल एकही ग्रभेद पक्षमान ॥२१२॥ ऊ हीं स्रिमंगलेम्यो तमः प्रध्यं० । संत्र श्र भान वत्तु भावकों प्रकाशमान। ज्ञान इन्द्रिया-निन्द्रिया कहै उर्भ प्रमाण ॥।सूरि० ऊ# हों स्रिज्ञानमंगलेभ्य। नमः अ्रध्य ० २ ६१३॥ लोक उत्तमा सु वसु कमंको प्रसंग टार। शुद्ध बुद्ध रिद्ध पाथ लोक वेदना निवार ॥सूरि० # ह्वीं स्रिलोकोत्तमेभ्यो नमः प्रध्यं० ॥२१४॥ लोकभीत सो श्रतोत श्रादि श्रन्त एक रूप । लोक में प्रसिद्ध सर्व भाव को श्रनूष भूष ॥स्‌रि० # हों सूरिश्ञान लकोत्तमेभ्यो नमः अध्यं० ।'२१५॥ हे बीच में न अन्तराय, श्राप हो सुखाय धाय। या झ्रबाध धर्ंकों प्रकाश में कर सहाय ॥सूरि० 3 हों सरिद्शनलोकत्तमेध्यों नम: अ्रध्य॑ं० ॥२१६॥ मोह भारको निवार, शुद्ध चेतना सुधार। यह वोयंता श्रपार लोक में प्रसंसकार ॥सूरि० # ह्वों सरिवो१ लोकोत्त मेभ्यो नम: प्रध्यं० ॥२१७॥ १३७ ) | सिद्ध चक्र विधान धर्म केवली महान, मोह श्रन्ध तेज भान । सप्त तत्वको बखानि, मोक्ष मार्ग को निधान ॥ सूरि धर्मको प्रकाश, सिद्ध-घर्म-रूप जान। में नमूं त्रिकाल एक हो श्रभेद पक्षमान ॥२१८॥ # ही केवलधर्माय नमः भ्रध्य ० । शील आदि पूर भेद कर्मके कलाप छोद । श्रात्म-शक्षितको प्रकाश शुद्ध चेतना विलास ॥सूरि० 5 हीं सरितपेम्यो नमः श्रध्यं० !॥२१६। लोक चाहकी न दाह, हेष को प्रवेश नाह । शुद्ध चेतना प्रवाह वृद्धता धर ग्रथाह शसूरि० 3> हो सूरिपरमतपेभ्यो नम: भ्रध्यं+ ॥२२०॥ मोह को न जोर जाय, घोर श्रापदा नसाथ । घोरतें तपो सु लोक-जीश् जाय मुक्ति पाय ॥सूरि० 35% ह्वीं सूरिधरमंतपेभ्यो नमः अ्रध्यं० २२ १॥ कामिनी कोहन वृद्ध पर गण गहन नित हो जहां, शाइवतं पूरणंता सातिशय गुण तहाँ। सूरि सिद्धांत के पारगासी भये, में नमूं जोर कर सोक्षधामी भये ॥२२२॥ 5» हों सूरिघोरगुरणपराक्र मेम्यो नमः प्रध्य॑० । एक सम-भाव सम और नहीं ऋद्धि है, सर्वही ऋद्धि जाके भये सिद्ध है॥सूरि०॥२२३॥ 5 ही सूरिऋद्धि ऋष्िभ्यों नम: श्रध्य॑० । जोगके रोकसे कर्म का रोक हो, गुप्ति साधन किये साध्य शिवलोक हो ॥।सूरि०॥४२२॥ 3० ह्वीं सुरिसुयागिनेभ्यो नमः अध्य॑ ० । सप्तल पुजा ] [ १३११ ध्यान-बल कर्म के नाशके हेतु है, कसंको नाश शिववास ही देत है ॥सूरि० 5 ही सूरिध्यानेम्यो नमः अधघ्यं० ।२२५॥ पंचधाचारमें. श्रात्म श्रधिकार है, बाह्य श्राधार-प्राधेय सुविकार है ॥सुरि० 5 हीं तरिधात्रिभ्यों नम: भ्रध्य॑ं० ॥२२६॥ सुर सम आ्राप परतेज करतार है, सूर हो मोक्षनिधि पात्र सुखकार है।॥।सूरि० ३* ह्वीं स्रिपात्रेम्यो नम: श्रष्ये ० ॥२२७॥ बाहूय छत्तीस्त भ्रन्तर श्रभेवात्मा, ग्राप थिर रूप हैं सुर परमात्मा ॥सूरि० ३४» हों सूरिगणशरणाय नमः अध्यें० ॥२२८॥। ज्ञान उपयोग में स्वस्थिता शुद्ध ता, पूर्ण चारिन्नता पूर्ण ही बुद्धता ॥सूरि० 3» हीं सूरिधर्मगणशररणाय नमः अध्यं० ॥२३२२६९॥ शरण, दुख हरण, पर भ्रापही शर्ण हैं, श्रापने कार्य में श्रापही कर्ण हैं।।सूरि० ३» हीं सरिशरणाय नम: भ्रध्यं० ॥॥२३०॥। . दोहा ज्यों कंचन बिन कालिसा, उज्जवल रूप सुहाय। त्योंही कर्म-कलंक बिन, निज स्वरूप दरसाय॥ % हछो स्‌ रस्वरूपश रणाय नमः अध्यं० ॥२३१॥ भेदाभेद सु नय थको, एक ही धर्म विचार । पायो सूरि सुबोध करि, भवदधि करि उद्धार ॥ 3 हीं सूरिधर्मस्वरूपश रणाय नमः श्रध्यं० ॥२३२॥ ११२ ] [ सिद्धचचक्र विधान प्रन्य समस्त विकल्प तजि, केवल निजपब लींत । पुरण-ज्ञान स्वरूप यह पायो सूरि सुधोन ॥ 5 हों सूरिज्ञानस्वरूपाय नम: प्रध्यं ० ॥२३३॥। सुखामभास इन्द्रीजनित, त्यागी सूरि महन्त । पुरण-सुख स्वाधीन निज, साध्य भये सुखवन्त ॥ 3» हीं सुरियुखस्वरूपाय नम: श्रध्यँ० ॥२३४।। श्रनेकांत तत्वार्थ के, ज्ञाता सूरि महान । निरावर्ण निजरूप लखि, पायो पद निरवाण ७ 5 ह्वों सूरिदर्शनस्वरूपाय नमः श्रध्यं ० ।२३५।। मोहादिक रिपु नाशिके, सुर्य॑ महा सामर्थ । शिव भामिन भरतार तिन,रमे साध निज श्रथं ॥ ३* ह्वीं सुरिवोयेस्वरूपाय नम: श्रध्यं० ॥।२३६॥ पद्धड़ी जिन निज-ग्रातप निष्पाप कोन, ते सन्त कर पर पाप छीन । शिवगमसग प्रगटन श्रादित्य सूर, हम शररणा गही आनन्द पूर ॥ ३» हों सुरिमंगलशरणाय नम: श्रध्यं« ।२३७॥ रत्नत्रय जीव सुभावभाय, भवि पतित उधारण हो सहाय । शिवमग प्रगटन श्रादित्य सूर, हम शरण गही आनन्द पूर ॥। ३ ह्वीं सूरिधमंद् रणाय नम: श्रध्यं० ॥२३८॥ तपकर ज्यों कंचन ग्ररिन जोग, छू शुद्ध निजातम पद सनोग । शिवमग प्रगठन श्रादित्य सूर, हम शरण गही श्ानन्द पूर ॥ ३ छ्ों सुरितपशरणाय नम: अच्यें० ॥२३६।॥ एकाग्र-चित्त चिन्ता निरोध, पार्वे भ्रबाध शिव आत्मबोध । शिवमग प्रगटन श्रादित्य सूर, हम शररा गही श्रानन्‍्द पुर ॥। # हीं सुरिध्यानशरणाय नम: भ्रध्ये० ॥२४७॥ सप्तम पूजा ] [ १३३ केवलज्ञानादि विभूति पाइ, हूं शुद्ध निरंजन पद सुखाइ। शिवमग प्रगटन प्रादित्य सुर, हम शरण गहों शब्रानन्द पूर ॥ उ* हीं सुरित्तिद्धश रणाय नमः अध्यं ० ॥२४१॥ तिहु लोकनाथ तिहु लोक मांहि, या सम दूजो सुखदाय नाहि। शिवमग प्रगटन आदित्य सूर, हम शरण गही आनन्द पूर ॥ % हों सूरित्रिलोकशरणाय नमः अध्ये ० ॥२४२॥ झागत श्रतीत अ्रु बतं मान, तिहु काल भव्य पावें निर्वाण। शिवगम प्रगटन श्रादित्य सूर, हम शरण गहो आनन्द पुर ॥ 5 ह्लीं सूरित्रिकालशरणाय नमः अध्यें० ।,२४३॥। मधि श्रधो उद्धं तिहु जगतमांहि,सब जीवन सुखक र और नाहि। शिवमग प्रगटन श्रादित्य सूर, हम शरण गहो प्रानन्द पूर ॥ हीं सुरित्रिज/न्मंगलाय नम: अरघ्य॑० ॥२४४। तिहु लोकमांहि सुखकार आप, सत्यारथ मंगल हरखण पाष। शिवमग प्रगटन श्रावित्य सूर, हम शरण गही आनन्द पुर॥ ह्वीं स्रित्रिलो*ुमंगलशरणाय नमः अध्ये० ॥२४४५॥ उत्तम मंगल परमार्थ रूप, जग दुख नासे शिव-सुख-स्वरूप । शिवमग श्रगटन आदित्य सूर, हम शररण गही आनन्द प्र ॥॥| 5 हीं स्रित्रिजगन्मंगलोत्तमशररा नमः श्रष्यं० ।।२४६॥ शरसशागत दुखताशन महान,तिहु जग हितकार रण सुख निधान । शिवसग प्रगटन आदित्य सूर, हम शरण गही श्रानन्द पूर॥ 3» हों सू रित्रिजगन्मंगलशरणाय नम: भ्रध्य॑ं० ।॥२ ७॥। तिहु लोकनाथ तिहु लोक पूज्य, शरखामत प्रतिपालन गअदृज्य । शिवमग प्रगटन आदित्य सूर, हम शरण गही आनन्द पूर ॥ 5४ हीं स्रित्रिलोकमण्डनशरणाय नमः अध्ये० ॥ २४८।। भ्रव्यप अ्रपूरं्थ सामर्थ युक्त, संसारातीत विमोहसुक्त । शिवसग पगठन श्रादित्य सूर, हम शरण गहो श्रानन्द प्र ॥। 5 हीं सरिऋद्धिमण्डल वरण:य नमः श्रष्यें० ॥२४६॥ * १३४ ] [ सिद्धचक्र बिधांन श्रोटक ह निज रूप श्रनूप लखें सूख हो, जग में यह मंत्र महान कहो । धरि भक्ति हिये गणराज सदा, प्रशमु शिववास कर सुखदा ॥ $ हीं सूरिमन्त्रस्वरूपाय नम: अ्रध्यें० ॥२५०॥ जिस नागदेव वश्ञ मंत्र विधि, भव वास हरण तुम नाम निधि । धरि भक्षित हिहे गए राज सदा, प्रणमृ दिववास करें सुखदा॥ 3 हों सूरिमन्त्रमुर॒ाय नमः अ्रध्यें० ।।२५१॥ जगमोहित जीव न पावत है, यह मंत्र सु धर्म कहावत है । धरि भक्त हिये गणराज सदा, प्रणमु शिववास कर सुखदा ॥ ३* ह्रीं सुरिधर्माय बम: श्रध्यं० ॥२५२॥ चितरूप चिदातम भाव धरें, गुण सार यही श्रविरुद्ध करें। धरि भक्ति हिये गणराज सदा, प्रशमं शिववास करें सखदा ॥ 3» ह्वों सुरिचंतन्यस्वरूपाय नमः अध्य ० ॥२५३॥ अविकार चिदा।तम आनन्द हो, परमातम हो परमानन्द हो । धरिं मक्ति हिये गणराज्य सदा, प्रखमृ शिववास करें सुखदा ३। 5» हों सुरिचिदानन्दाय नमः अर्ध्य० ॥२५४॥ निज ज्ञान प्रमाण प्रकाश करें, सुख रूप निराकुलता सु धरें। धरि भक्ति हिये गण राज सदा, प्रणम्‌ृ शिवावस करें सुखदा ॥ & हीं सु।रज्ञानानन्दाय नमः प्रध्यं० ।२५५॥ धरि योग महा शम भाव गहैँ, सुख राशि महा शिववास लहें। धरि भक्ति हिये गण राज सदा, प्रराम्‌' शिवास करें सुखदा ॥ &% ही सूरिशमभावाय नम: अध्यं० ॥।२५६॥ सम भाव महा गुण धरत हैं, निज आनन्द भाव निहारत हैं । . घरि भक्ति हिये गणाराज सदा, प्रण मृ शिववास करें सुखदा ॥ ३» छी सूरितपोगुरूनन्दाय नम: भ्रध्यं० ॥२५७॥ ँगहष्लंस पूजा ] : [१३५ शिवसाधनको घिधिनाश कहा, विधिनाश नको तप कर्र्म महा । धरि भक्त हिये गणराज सदा प्ररणम्‌ु शिववास करें सुखदा ॥ 5 हों सूरितपोगुणस्वरूपाय नमः श्रध्य॑० ॥२५८॥ निज श्रात्म वि्ें नित मगन रहैं,जगके सुख मूल न भूलि चहें । धरि भक्ति हिये गरा राज सदा प्रशम््‌' शिववास कर सखदा ॥ 5 हों सूरिहंसाय नमः श्रध्य ० ॥२५६॥ बनवास उदास सदा जगतें, पर आस न खास बिलास रते। धरि भक्ति हिये गण राज सदा प्रशम्‌ शिववास कर सुखदा ॥ - 3» छीं सूरिहंसगुणाय नमः श्रष्यं० ॥॥२६०॥ निज नाम महागुरामंत्र धर, छिनर मात्र जपे भवि भ्राश वर । धरि भक्ति हिये गणराज सदा प्रणम्‌ शिववास कर सुखदा ॥ 7” ३>हछों सूरिमन्त्रगुणानन्दाय नमः भ्रध्यं०॥२६१॥ परमोत्त व प्तिध परियाय कही, श्रति श॒द्ध प्रसिध सुखात्म मही । धरि भक्ति हिये गण राज सदा प्रणमु शिववास कर सुखदा ॥ 3» हों सूरिसिद्धानन्दाय नमः अध्यँ० ॥२६२॥ माला शशि सन्‍्ताप फलाप निवारण ज्ञान कला सरसे। मिथ्यातम हरि भवि श्रातन्‍्द करि अनुमव भाव दरसे॥ : सूरि निज भेद कियो परसे भये मुक्त में नस शीश नित जोर युगल करते ॥टेक॥ 3» ह्वों स्‌ रि-प्रमृतचन्द्राय नमः भ्रध्यं० ।॥२६३॥ पुरण चन्द्र सरूूप कलाधर ज्ञान-सुधा बरसे। मव्रि चकोर चित चाहत नित मनु चरण जोति परसे॥सूरि०॥ * हीं सूरिसुधाचचखरवरूपाय नमः अध्यें० ॥२६४॥ “ १३६ ] [ सिद्धचक्र विधांग जगजिय ताप निवारण काररा विलसे श्रन्तर सें। देव सुधा सम गुरा निवाहकर, सकल चराचर से ॥सूरि०॥ सूरि निज भेद कियो परसे भये मुक्त में नमूं शीज्ञ नित जोर युगल करसे ॥हटेक॥। 35 हों सूरिसुधागुणाय नमः अध्यं० ॥२६५॥। जा धुनि मुनि संशय विनसे जिम ताप मेघ वरसे । मनहु कमल सकरन्द वृन्द श्रलि पाय सुधा सरसे ॥सुरि०॥ 3* ह्वीं सूरिसुधाध्वनये नमः अध्यं० ॥२६६॥। प्रजर श्रमर सुखदाय भाय मन ज्यों मयूर हरसं, गाजत घन बाजत ध्वनि सुनि मनु भाजत भय उरसे ॥सूरि० ३» हीं स्‌(र-प्रमतध्व निसुरूपाय नम श्रध्यं० ॥२६७॥ चकोर जो अपने गुर वा पर्याय, वर॑ निज धर्म न होत विनास । द्रव्य कहावत है सु अनन्त स्वभाव धरे निज आत्म विलास ॥ सूरि कहाय सु कर्म खिपाइ, निजातम पाय गये शिवधाम । सु श्रातमराम सदा अभिरास भये सुख काम नम बसु जाम ॥ 35 ह्वीं सूरिद्रव्याय तमः श्रध्यं० ॥२६८॥ ज्यों शशि जोति रहै सियरा नित, ज्यों रवि जोति रहै नित ताप । त्यों निज ज्ञानकला परपुरण, राजत हो निज काररश सु श्राप ॥सूरि०॥ $ हीं सूरिगुणव्रव्याय नमः अध्यें० ॥२६६॥ हो श्रविनाश श्रनूषमरूप सु, ज्ञाननई नित केलि करान। पे न तज मरजाद रहै, जिम सिन्धु कलोल सदा परिणाम ॥सूरि०॥ * हीं सूरिपर्यायाय नमः अध्यं० ॥२७०॥ : छप्समं पूजा | [१३७ ले कछु द्रव्य तनो गुर है, सु समस्त मिले ग्रा भ्रातम माहीं । ताकरि द्रव्य सरूप कहावत, है प्रविनाश नमें हम ताई ॥सूरि०॥ 3 हुं स्रिद्रव्यस्वरूपाय नमः अध्यें० ॥२७१७ जा गुण में गुण श्रौर न हो, निज द्रव्य रहे नित श्रौर ठौर । सो गुण रूप सदा निवसें, हम पूजत हैं करके कर जोर ॥सूरि० 5 हीं सूरिगणत्वरूपाय नमः अध्ये० ॥२७२॥ जो परिणाम धरे तिनसों, तिनमें करहै वरत॑ तिस रूप ॥ सो पर्याय उपाय बिना नित, ग्राप विराजत है सु पश्रनूष ॥सूरि०७ % हों सरिपर्याय स्वरूपाय नमः झ्रध्यें ० ॥२७३॥ हो नित ही पररणाम समय प्रति, सो उत्पाद कहो भगवान ॥ सो तुम भाव प्रकाश कियो, निज यह गुण का उत्पाद महान ॥सूरि० ३ हो स्‌रि गुणोत्पादाय नमः अध्यं० ॥२७४ ज्यों मृतिका निज रूप न छांडत, है. घटिसांहि श्रनेक प्रकार। : सो तुम जीव स्वभाव धरो नित, मुक्त भए जगवास निवार 0सूरि०॥ 55 हों स्रिभ्रवगुणोत्पादाय नमः प्रध्यं ० ॥२७५४॥ है पेड ] [ सिडभकखरिकान ये जगमें सब भाव विभाव, पराक्षित रूप श्रनेक प्रकार ॥ ते सब त्याग भये शिवरूप, प्रबंध श्रमन्‍्द महा सुखकार ॥ सूरिकहाय सु कर्म लिपाइ, निजातम पाय गये शिवधाम, सु श्रातमराम सदा श्रभिरास, भये सुख काम नम््‌ वच्चु जाम ॥ # हीं सरिव्ययगृणोत्यादाय नमः ब्रध्यं० । २७६॥ जे जगमें षद-द्रव्य कहे, तिनमें इक जोव सुज्ञान स्वरूप ॥ और सभी बिन-ज्ञान कहे, तुम राजत हो नित ज्ञान झनूप ॥सूरि०॥ उ% हीं सूरिजीवतत्त्वाय नमः अष्यं० ॥२७७। ज्ञान सुभाव धरो नित हो, ः नहिं छांडत हो कबहूं निज वान । ये हो विशेष भयो सबसों, नहों श्रोरनमें गुरण ये परधान ॥सूरि०॥ ३ हो सूरिजीव्तत्त्वगुएतय नमः भ्रध्य ० | २७८।' हो कर्तादि प्ननेक सुभाव, निजातम में परम अनिवार । सो परको न लगाव रहो, निजहो निजकर्म रहो सुखकार ॥सूरि०॥ # हीं परिनिजस्वभावधारकाय नमः अध्यें० ॥।२७९॥ हप्तंगे पूजा ] [१६६ द्रव्य तथापि, विभाव दोऊ विधि, कर्म प्रवाह वहे बिन श्रादि। ते सब एक भये धिररूप, निजातम शुद्ध सुभाव प्रसाद ॥सूरि०॥ 3 हीं सरि-अश्रवविनाशाय नमः श्रध्यं० ।।६८०॥ मोदक बंध दऊ विधिके दुख कारण, नाश कियो भवपार उतारण। सूरि भये निज ज्ञान कलाकर, सिद्ध भये प्रशम्‌' में मनधर ॥टेक॥ ३» हीं सरिबन्धतत्त्वविनाशाय नमः श्रध्यं० ।।२८१॥ संबरतत्व महा सुख देत है। ग्राश्षव रोकनकों यह हेत है ॥सूरि०॥ 5 ह्वीं सूरिसंवरतत्त्वसहिताय नमः अध्यें० ॥२६२॥ ज्यूं मण्णि दोप भ्रडोल अ्रनूषही । संवर तत्व निराकुलरूप ही ॥सूरि०॥ 5* हों सूरिसवरतत्त्वस्वरूपाय नम: श्रध्य॑० ॥२८३॥ संबरके ग्रगा ते मुनि पार्वाह। जो मुनि शुद्ध सुभाव सु ध्यावत ॥सूरि०॥ 5 ह्वीं सूरिसंरगुरताय नमः अध्यं० ।' २८४॥। संवर भर्मंतनो शिव पावहि। संवर धरम तहां दरशावहि ॥सूरि०॥ 3 ह्वीं सूरिसंवरधर्माय नम: अध्यें० ॥२८४॥ दोहा एक देश वा सर्व विधि, दोनों सुक्ति स्वरूप । नम निरजरा तत्व सो, पायो सिद्ध श्रनप ॥ % छ्वीं सूरिनिजरातत्त्वाय नमः प्रध्यं० ॥२८६॥ :१४० ] [ सिदचक दिवयाने शुद्ध सुभाव जहां तहां, कहो कर्मको नाश। एम निरजरा तत्वका, रूप कियो परकाश ॥ ४ हीं सरिनिजरातत्वस्वरूपाय नमः भ्रध्यँ ० ।।२८७॥। कोटि जन्मके विधघधन सब, सूखे तृण सम जान । दहे निर्जरा भ्रग्निसों, इस गुर है परधान ॥ &# हीं सरिनिजरागुरास्वरूपाय नम: श्रध्यें० ॥ २८५।। निज बल कर्म खपाइये, कहो निजंरा धर्म । धर्मोी सोई आत्मा, एक हि रूप सूपम॑ं ॥ # हीं सरिनिज राधमेस्वपाय नमः श्रध्यें० ।२८९॥ समय समय गुराक्षेरिी का, खिर॑ कर्म बल ध्यान । ये सम्बन्ध निवार करि, कर मुक्ति सूख पान ॥ 8४ हीं सूरिनिज रानबंधाय नमः श्रध्यं ० ।।२६०।। प्रतुल शक्ति थिर भावकी, सो प्रगटी तुम माहि। यही निजजेरा रूप है, नमन भक्ति कर ताहि ४ $# हीं सूरिनिरजर|स्वरूपाय नमः श्रध्य ० ॥२६१॥। सर्व कम के नाश बिन, लहै न शिव-सुखरास । निशचय तुम ही निजंरा, कियो प्रतीत प्रकाश ॥ % हीं सूरिनिर्जराप्रतोताय नमः शप्रष्य ० ।२६२॥ सकल कसंमल नाशतें, शुद्ध निरंजन रूप । ज्यों कंचन विन कालिमा, राज मोक्ष प्रनूप ॥ 3४» हीं सूरिमोक्षाय नमः अ्रष्यें० १!२६३॥ द्रब्य-भाव दोनों सु विधि, करें जगतमें वास । दविध बन्ध उखारिकें, भये मुक्त सुखरास ॥ 5» हीं सूरिबन्धमोक्षाय नमः श्रघ्ये० ॥:६४॥ सप्तम पूजा ] [ १४९ पर विकलप सुख नहीं, अनुभव निज आनन्द | जन्म-मरणा विधि नाशकर, राजत शिवसुख कन्द ॥। # हो सरिमोक्षस्वरूपाय नमः श्रध्ये० ॥॥२६५ ॥ जहाँ न दुखको लेश है, उदय कर्म भ्रनुसार । सो शिवपव पायो महा, नम्‌ भक्तित उर धार ॥ 3 हों सरिमोक्षणणाय नमः अध्यें० ॥२६४।॥ जो शिव सुगुण प्रसिद्ध हैं, तिनसों नित्त प्रबन्ध । जे जगवास विलास दुख, तिनक्‌ं नम्त्‌ू झ्रबन्ध ॥ $ हों स्रिमोक्षानुबन्धाय नम: प्रध्यं० ॥२६७॥ जैसी निज तन आ्राकृती, तज कीनो शिववास । ते तसे नित श्रचल हैं ज्ञानानन्द प्रकाश ॥ & हीं सरिमोक्षानुप्रकाशाय नमः प्रध्यें० ॥२६८॥ क्षयोपश्म परिरशाामस कर साधन निजका रूप ॥ वा निजपवमें लीनता, ये हो गुप्त-स्वरूप ॥ 5 हीं सरिस्वृरूपगृप्तये नमः श्रध्य॑०॥२६६॥ इन्द्रियजनित न दुख जहाँ, सदा निजानन्दरूप ॥ निर-प्राकुल स्वाधीनता, वरते शुद्ध स्वरूप ॥ # ह्रीं स्रिपरमात्म-र वरूपाय नमः भ्रध्यं० ॥३०० ४ रोला सम्पुरण/ श्रुत-सार निजातम बोध लहानो, निजश्रनुभव शिवमूल मानु उपदेक्ष करानो । शिष्यनके भ्रज्ञान हर ज्यूं रवि अ्रन्धियारा, पाठक गण सम्भव सिद्ध प्रति नमन हमारा ॥ 3$ छ्लीं पाठकेम्यो नमः अध्यें ० ॥३० १॥ मुक्ति मूल है भ्रात्मश्ञान सोई श्रृत ज्ञानी । तत्व-ज्ञान सों लहै निजातम पद सुखदानी ॥ १्डर२ ] [ सिद्धचछ विधान: विष्यन के ग्रज्ञान हर ज्यू' रवि श्रन्धियारा । पाठक ग्रा सम्भव सिद्ध प्रति नमत हमारा ॥टेक॥ ढक हीं पाठकरोक्षमण्डनाय नमः अध्ये ० ।।३०२॥। भवसागर तें भव्य जीव ताररण पश्रनिवारा । तुममें यह गुणा अ्रधिक श्राप पायो तिस पारा (दिष्यनके ०॥ 5» ह्वीं पाठकगुरोम्यो नमः अध्यें० ॥३०३॥ दर्शन ज्ञान स्वभाव धरो तद्गप अनूपी | होनाधिक बिन पभ्रचल विराजत शुद्ध सरूपी ॥शिष्यनकि ०॥। 5* हीं पाठकगुणस्वरूपेमभ्यों नमः अध्येँ० ॥|३०४॥ निज गुण वा परयाय श्रवण्डित नित्य धरे है। तिहुं काल प्रति श्रन्य भाव नहीं प्रहरः कर है ॥शिष्यनके ०॥ ३» ह्वों पाठकद्रब्याय नमः अ्रध्यं० ।३०५॥ सहभावी गुण सार जहां परभाव न लेसा । प्रगुरलघ्‌ परराम वस्तु सद्भाव विशेषा ॥शिष्यनके०॥ 3% ही पाठकगु रपपययिभ्यो नम अ्रध्यं० | ३०६॥ गुण समुदाय द्रव्य याहितें निरग॒ण नाहीं। सो अनन्त गुण सदा विराजत तुम पद माहीं ॥शिष्यनके० 3» की पाठकगराद्रव्य य ५मः अरध्यं० ३०७ सत सरूप सब द्रव्य सर्ध नोके ग्रबाध्कर । सो तुम सत्य सरूप विराजो द्रव्य भाव धर ॥दशिष्यनके ०॥ 3 ह्वीं पाठकद्रव्यस्वरूणाय नमः अ्ध्यें० ॥३०८॥ जे जे हैं परनाम बिना परनामी नाहीं। परनामी परनाम एक ही हैं तम माहीं ॥शिष्यनके ०॥ 35 हों पाठकद्व्यपर्याणाय नमः अध्यें० ।।६०६।॥ प्रग्रलघ्‌ पर्याय शुद्ध परनाम बखानी। निज सरूपमें श्रन्तरगत श्र तज्ञान प्रमानी ॥शिष्यनके ०॥॥ %% हीं पाठकर्पर्यायस्वरूपाय नमः श्रघ्यं० ॥३१०॥॥ सप्तत पूजा -] [, १४७६ जगतवास सब पापमूल जियको दुखदाई। ताको नाशन हेतु कहो शिव मूल उपाई ॥हदिष्यत्केश भर) क$ छी पाठकमंगलाय नमः अध्य ० ॥:११॥ जहाँ न दुलको लेशा सर्वथा सुख ही जानो । 'सोई संगल ग्रा तुममें प्रत्यक्ष लखानो ॥शिष्यनकें4फ ४ की पाठकमंगलगणाय नमः अध्यें ० ।३१२॥ प्रौरत संगलकरन श्राप मंगलमय राजें। | दर्शन कर सुखतार मिले सब हो श्रघ भाज ॥शिष्येनके० “$# ही पाठकसंलगुणस्वरूप।य नमः अध्यें० ॥३१३॥! हे आदि श्रनन्त भ्रविरुद्ध शुद्ध मंगलमय मूरति क निज सरूपमें बसे सदा परभाव विदूरति ॥शिष्यनमे०॥ 2» ही पाठकद्ठ्यमं ग वाय नपः ब्रष्य० ।।३१४।। जितनी परणति धरो सबहि मंगलमय रूपी । अ्रग्य अ्रवस्थित टार धार तद्ूप श्रनूपी ॥शिष्यके०॥: ३» छो प/ठकमंगलपर्यायाय नमः अध्य + ,३१५॥ निशचय वा विवहार सर्वथा मंगलकारी । जग जोवनके विधन विनाज्ञन सर्व प्रकारी 0शिष्यनके ०४ 55 हीं पाठकद्वव्यवर्यायमंगलाय नमः अध्य० ।।३१९॥ ' भेदाभेद प्रमाण वस्तु सर्वस्व बखानो । वचन अ्रगोचर कहो तथा निर्दोष कहानो ।॥शिष्यनके #$ छो पाठकद्रव्यगणपर्यायमंगलाय नमः अध्यं० ॥३१७॥ सब विशेष प्रतिभाससमान मंगलमभय भासे। ेविकल्प आनन्दरूप ग्रनुभूति प्रकारे ॥शिष्यनके ० 3 हों पाठकल्वरुपमंगलाय नमः अ्रध्य॑० ॥३ १८।॥ श्थ्ड ] [ सिड्डणचक बिश्ान पायत्ता निविध्न निराश्यय होई, लोकोत्तम मंगल सोई । तम गण श्रनन्त श्रुत गाया, हम सरधत शीश नवाया ॥ 5 हीं पाठकमंगलोत्तमाय नमः भ्रध्यं० ॥ २१६॥ जंग नौवनको हम देखा, तुम ही गुरा सार विशेखा ॥तुम गुरा०॥ 3४ हीं पाठकगुणलोकोत्तम।य नम: झ्रध्यं० ॥३२०॥ घट्द्रव्य रचित जग सारा, तुम उत्तम रूप निहारा ॥तुम गुर ०॥ # हीं पाठद्रव्यलोकोत्तमाय नमः अ्ध्य ।३२१॥ निज ज्ञान शुद्धता पाई, जिस करि यह है प्रभुताई (तुम गुण ०॥ & हो पाठकशानाय नमः झ्रध्य ।३२२॥। जग जोव भ्रपूरण ज्ञानो, तुम ही लोकोत्तम मानी ॥तुम गुर ०॥। # ही पाठकज्ञानालोकोत्तमाय नम: प्रध्यं० ॥३२३॥। युगपत निरभेद निहारा, तुम दर्शन भेद उधारा ॥तुम गुण०॥ क# हीं पाठकदर्शनाय नमः अध्ये० ॥३२४॥ हम सोवत हैं नित मोहो, निरमोही लखे तुमको ही ॥तुम गुण०॥ ४5 हीं पाठकदर्शनलोकोत्तमाय नमः प्रध्ये ॥३२५॥ दृगवंत महासुखकारा, तृम ज्ञान महा भ्रविकारा ॥तुम गुरा०॥ ७४ हों पाठकदद्ंनस्वरूपाय नमः श्रध्य ॥३२६॥ निरशंस प्रनन्त श्रवाधा, निज बोधन भाव प्रराधा ॥तुम गुण ०७ क हीं पाठकसम्यकत्वाय नमः अध्यं० ॥३२७॥ सम्यक्त्व महासुलकारी, निज गुर स्वरूप भ्रविकारी तुम गुण०॥॥ क हों पाठकसम्यफ्त्वगुरास्व रुपाय नम: ब्रध्यं० ॥३२८॥ निरखलेद अछेद प्रभवा, सुख रूप बीय॑ निर्ेदा ॥तुम गुरा०॥ % हीं पाठकवोर्याय नम: अध्यं० ॥३२६॥ निज मोग कलेश न लेशञा, यह बी श्रनन्त प्रदेशा ॥तुम०॥ # ह्लों पाठक वीयंगुणाय नम: भ्रध्यं० ॥३३०॥ सप्तब पूृथ्ा ] [ १४५ परनाम सुथिर निज साहीं, उपज न कलेस कदाही ॥तुम॥ ढ5 ही पाठक बोयपर्याय नमः अ्रध्यं० ॥३३१॥ द्रव्य भाव लहो तुम जेंसो, पावे जगजन नहीं ऐसो ॥तुमा। 55 हो पाठकवोयेद्र्याय नमः भ्रध्यं ० ॥३३२॥ निज ज्ञान सुधारस पीवत, प्लानंद सुभाव सृ जोवत ॥तुमा॥ा # हीं पाठकवोयंगुणपर्याय नमः प्रध्यं० ॥३३२।। झ्रविदेष अ्रनन्‍्त सुमावा, तुम दर्शन माहि लखावा ॥तुम। &# ह्रीं पाठकवर्शनपर्यायाय नमः भ्रष्य॑ं० ॥३३४॥ इकबार लखे सबहीं को, तद्बरुप निजातसम हो को ॥तुम॥ $> छी पाठकदशानपर्यायस्वरूपाय नमः प्रध्यं० ॥३३४५॥ सपरस श्रादिक गुर नाहीं, चिद्रप निजातम माहों ॥तुम॥ * ही पाठकज्ञानव्रव्याय नमः अध्य ० ॥३३६॥। शरखणामत दोनदयाला, हम पूजत भाव विज्ञाला ॥तुम॥। 3 ह्रीं पाठकशरखणाय नमः अ्रष्यं० ॥३३७॥ जिनशररण गही शिव पायो, इम शररा महा गुर गायो ॥तुम॥ 5* हीं पाठकगुणशरणाय नमः प्रध्यं० ॥३३८॥। प्रनुभव निज बोध करावे, यह ज्ञान शरण कहलावब॑ ॥तुमा॥। 5* हीं पाठकज्ञानगुणाश रणाय नम: प्रघ्यें० ॥३३९॥। दुग सात्र तथा सरधाना, निउ्चय शिववास कराना ॥तुम॥ # हो पाठकदर्शनशरणाय नमः श्रध्य॑० ॥३४०।॥ निरभेद स्वरूप श्रनूपा, है शर्ण तनी शिव भूपा ॥तुम॥। 3> छी पाठ रदशंतस्वरूपश रणाय नम: झ्रध्यं० ॥॥३४१॥ निज आत्म-स्वरूप लखाया, इह कारण शिवपद पाया ॥तुमा। $# ह्रीं पाठकदशंनस्वरूपशर गाय नमः प्रध्यें० ॥३४२॥ झ्रातम-स्थरूप सरधाना, तस शरसणण गहो भगवाना ॥तुसा। # हो पाठकसम्यक्त्वस्वरूपाय नमः अध्ये० ॥३४३॥ निज प्रातम साधन माहों, पुरुषारथ छूट नाहों ।तुम॥। ४ ह्वों पाठकवीयंश् रणाय नमः प्रष्य ० ॥३४४॥ १५६ ] [ सिद्धज्छ किथाम झ्रावम शकतो प्रगटावे, तब निज स्वरूप जिय पावे। तुम गुण श्रतन्‍्त श्रुत गाया, हम सरधत शौश नवाया ॥ # हीं पाठकवीयेस्वरूपशरणाय नमः अ्रध्य ० ॥३४५॥ परमातम वोय॑ महा है, पर निमित न लेश तहाँ है ॥तुम। 5» हीं पाठवीयंपरमात्मश रणाय नम: श्रध्य ० ॥३४६।। श्र तहादशांग जिनवाणो, निश्चय शिववास करानी ॥तुम। + # हु पाठकद्वादशांगश रणाय नमः प्रष्यें० ॥३४७॥ दह् पूव॑ महा जिनवाणी, निश्चय अ्रघहर सुखदानो ॥तुम॥ 35 हों पाठकदशपुर्वांगाय नमः अध्य० ॥३४८७ दा चार पूर्व जिनवानी, निश्चय शिववास करनो ॥तुम॥ ३» ह्वीं पाठकचतुद्देश पुर्वागाय नमः प्रष्यं० ॥२४६॥ निज श्रात्म चर्सा प्रकटाव, श्राचार अभ्रंग कहलावे ॥तुम।। 5 हीं पाठकाचारांगाय नमः प्रध्यं० ।॥३५०॥ रेखता विविध हंंकादि तुम टारी, निरन्तर ज्ञान शअ्राचारी । पूर्ण श्र्‌तज्ञान फल पाया नम्‌ सत्या्थ उवभाया ॥ 3 हो पाठकज्ञानाचाराय नमः भ्च्यें० ॥३५१)॥ पराश्चित भाव विनशाया, सुथिर निजरूप दर्शाया ॥पूरण ०॥ 3& ह्वों पाठकतपसाचा राय नमः श्रध्यं० ॥३५२॥ मुक्तपद दन श्रनिवारी, सर्व बुध चर भ्राचारी ॥पुरु ०॥ 3* क्लवों पाठकरत्नत्रयाय नमः प्रध्यं० ॥३५३॥ शुद्ध रत्नत्रय धारो, लिजातमरूप श्रविकारी पूर्ण ०५ व* ही पाठ रत्नत्रयसहायाय नमः अध्ये० ॥३४४॥ क्रौव्य पंचम-गती पाई, जन्म पुनि मर्ण छुटकाई ॥पूरां ०॥ ४» हीं पाठक भ्ुद्‌ असंसाराय नम: श्रध्यं० ॥३५५॥ अ्रनूषपम रूप श्रधिकाई, श्रसाधारण स्वपद पाई ॥पूरां ०॥ $# हों पाठक-एकत्वस्वरूपाय नमः भ्रध्य॑० ॥३५६॥ बप्तम पूजा || [१४७ झान तुम सम न गुरए होई, कहो एकत्व गुर सोई 0पूर्ण०॥ 5 छ्वों पाठक-एकत्वमुराय नमः अध्य ० ॥२४५७॥ निजाननद पूर्ण पद पाया, सोई परमात्म कहलाया ॥पुर्ण ०॥ 8» छो पाठक-एकत्वपरमात्मने नमः झ्घ्यें० ॥३५८।॥। उच्चगत मसोक्षका दाता, एक निजरर्म विर्याता ॥पूर्ण ०७ ढक छी पाठ क-एकत्वधर्माय नमः भ्रध्य॑ं० ॥३५६।। जु तुम चेतनता परकासी, न पायें ऐसी जगवासी ॥पूर्ण ०॥ ३४४ हीं पाठक-एकत्वचेतनाय नभ:ः प्रध्यं० ॥३६०॥ ज्ञान दर्शन स्वरूपी हो, भ्रसाधारण श्रनूपी हो ॥पूर्ण०॥ उ> हो पाठ क-एरत्वचेत तल्‍्व॒रूपया नमः भ्रध्यं० ॥३६१॥। गहेँ मित निज चतुश्टयको, मिलें कबहूँ नहों परतों ॥पुरं०॥ 5 छी पाठ क-एकत्वद्रव्याय तमः ग्रध्य ० ११ ३६२।। स्वपद अ्रनुभूत सुख रासो, घिदानन्द्र माव परकासी ॥पूरां०॥ 35 छीं पाठ कचिदानन्दाय नमः अ्रध्ये ० ॥३६२॥ प्रन्त पुरुषार्थ साधक हो, जन्म मरणावि बाधक हो ॥पूरां ०॥ 3 ह्वीं पाठ कसिद्धसाधकाय नमः भ्रध्यं ० ॥॥३६४।॥ स्वातम ज्ञान दरशाया, ये पुरण ऋद्धि पद पाया ॥पूर्णं ०॥ ३* कीं पाठक ऋद्धिपूर्णाय नमः भ्रष्य ० ॥३६५॥ सकल विधि म्रछात्यागो, तुम्हों निरग्रन्थ बड़भागी ॥पूरण ०॥ # हीं पाठकनिग्रेन्‍्धाय तमः भ्ध्यं० ।।३६६॥ निजाधित भ्रथं जानाहीं भ्रबाधित श्रर्थ तुम माहों ॥पूरां०॥ $ छी पाठकार्थविधानाय नमः झ्ध्यं० ॥३६७॥ न फिर संसार पद पाया, श्रप्रव बन्ध बिनसाया ॥पूरं०॥ % छो पाठ कसंसाराननुबन्धाय तमः प्रध्यं० ॥|३६८।॥। झ्राप कल्याणमय राजों, सकल जगवास दूख त्याजों ॥पूरां०॥ 3* ही याठ फकल्याणाय नमः प्रध्य० ॥३६६॥ स्वपर हितकार गुणधारी, परम कल्याण अविकारी ॥पूर्णो ०१ # हों पाठ कक ल्य(णगुणाय नमः अध्यें० ॥३७०॥ श्व्द ] [ सिदचक्र विधान अहित श्रपरिहार पद जो हैं, परम कल्याण तासों है ॥ प्रा श्र तज्ञान बल पाया, तू सत्याथ उबभ्ाया ॥ 5» ह्वी पाठ ककल्यारास्वरूपाय नमः भ्रध्य० ॥३२७१। स्वसुख द्रव्याश्रये माहीं, जहाँ कछ पर निरमित नाहीं ॥पूरा ०॥ %# ही पाठककल्याणद्रव्याय नमः प्रध्य० ॥२७२।॥। जोहै सोहै प्रमित काला, अन्यथा भाव विधि टाला पूर्ण ०॥ 35% ह्वीं पाठकतत्त्वगुणाय नम: अध्यं० ॥३७३॥। रहें नित चेतना माहीं, कहें चिद्रप मुनि ताहों ॥पूर्णो ०॥ हीं पाठकचिद्र पाथ नमः भ्रध्ये ० ॥३७४॥ सर्वथा ज्ञान परिणामी प्रकट है चेतना नामो ॥पूरं०॥ # ह्वीं पाठकचेतनाय नमः अध्य ० ॥३७५॥। नहीं श्रन्यत्व भेदा है, गुणी ग्रुण निर-बिछेदा है ॥पूर्णा ०॥॥ & ह्वीं पाठकचेनागुणाय नम: श्रध्य॑० ॥३७६॥ घटाघट वस्तु परकाशों, धरें हैं जोति प्रतिभाजशी ॥पूरां०॥ ऊ ही पाठकज्योतिप्रकाशाय नम: भ्रध्यें० ॥३७७।॥। वस्तु सामान्य श्रवलोका, है युगपत दर्श सिद्धोंका पूर्ण ०॥ 5 हीं पाठकदर्शनचेतनाय नम: श्रध्यं० ॥३७८॥ विशेषण युक्त साकारा, ज्ञान दुति में प्रगट सारा ॥परां०॥ ३ हीं पाठकज्ञानचेतनाय नमः झ्ध्यं० ॥३७६॥ ज्ञानतों जीव नामो है, भेद समवाय स्वामी है ॥पूर्ण०॥ ३ हीं पाठकऊजीवचिदानन्दाय नम: प्रध्यं० ॥३८०॥ चराचर वस्तु स्वाधोना, समय एकहि में लख लीना ॥पूर्ण ०॥ &४ हीं पाठऋवीयंचेतनाय नम: श्रध्यं० ॥३८१।॥। सकल जोबों के सुख कारन,शररा तुमही हो भ्रनिवारन ॥पूर्ण०।। %# हीं पाठकसक लश रणाय नमः झ्नध्य ० ॥३८२॥। तूम हो अयलोक हितकारी, श्रद्वितोय शर्ण बलिहारी ॥पूर्ण०॥ 5 हो पाठक त्रेलोक्यशरणाय नम: ग्रध्यं ० ॥३८३॥ सेध्तशन पूजा | | १४६ तुम्हारी शर्ण तिट्ठूं काला, करन जग जीव प्रतिपाला ॥पूर्ण०॥। 5> हो पाठकत्रिक/लशरणाय तम: प्रध्यं७। ३८४॥ शरण प्रनिवार सुखदाई, प्रगट सिद्धान्त में गाई ॥पूर्ण०॥ 5 हों पाठकत्रिमंगलश रणा/य नमः भ्रध्यं० ।३८४॥ लोकमें धर्म विर्याता सो तुमही में सुखसाता ॥पूर्ण०॥ 3७ हों पाठकलोकशरणाय नम: प्रध्यं० ॥|३८६॥ जोग बिन पब्राश्रव नाहों, भये निर श्राक्रवा ताही ॥पूर्ण ०॥ 3> ह्वों पाठकाअवावेदाय नमः अध्यें० ॥३८७॥ ग्राश्रव कम का होना, कार्य था झ्रापना खोना ॥पूर्ण०॥ 5> ह्वीं पाठाअ्रवविनाशाय नम: श्रध्यें० ॥३८८॥ तत्व. निर्धाध उपदेशा, विनादे कर्म परवेशा ॥(पर्ण०॥ 55 हीं पाठक-आश्रवोपदेशछेदकाय नमः भ्रष्य॑० ॥३८९॥ प्रकृति सब कर्ंकी च्रो भाव मल नाश दुख पूरी ॥पूर्ण०॥ 55 हीं पाठकबन्ध-अन्तकाय नमः श्रध्यं० ।।३६०॥ न फिर संसार श्रवतारा, बन्ध-विधि श्रन्त कर डारा ॥पूरा०॥ 5* हीं पाठकबन्धमुक्ताय नम: प्रध्यं5 ॥३६१॥ ग्राश्रवः कर्म दुखदाई, रुके संबर ये सुखदाई ॥पर्ण०॥ 8 ह्वीं पाठकसंवरस्वरूपाय नमः भ्रध्यें० ॥३६२॥ हे सर्ववथा जोग विनसाया, स्व-संवररूप वरशाया ॥पूर्ण०॥ 85 ह्रीं पाठकसंवरस्वरूपाय नमः अध्य ० ॥३६३॥ कलुषता मावमें नाहों, मये संवर करण नाहीं ॥पूर्ण ० 3» कीं पाठकसंवरकरणाय नमः अध्ये ० ॥३६४॥ कुपरराति राग-रुष नाशन, निरजरा रूप प्रतिमासन ॥पूर्ण ०॥ $ हीं पाठकनिज रात्वरूपाय वमः अध्यं० ॥३९५॥ कामदव दाह जग सारा, झाप तिस भस्म कर डारा ॥पूर्ण । 8» हु पाठककंदर्पच्छेवकाय नमः अध्यें ० ॥३९६॥ चहुं विधि बंध विधि चूरा, ये विस्फोटक कहो पुरा पूर्ण ०॥ 8४5 ही पाठककमंवित्फोटकाय नम: भ्रध्य॑ं० ॥३९७॥ ११० | | सिद्धचक विधर्सि दऊ विधि कर्मका खोना, सोई है मोक्ष का होता । पूर्ण श्र्‌ तज्ञान बल पाया, नम सत्यार्थ उबकाया ॥ # हो पाठकमोक्षाय नम: प्रध्यं० ॥३६८।॥! द्रव्य श्रर भाव सल टारा, नम शिवरूप सुखकारा ॥पूर्ण०७ 5» ह्लीं पाठकमोक्षस्वरूपाय नमः श्रध्यें० ॥३६६।॥ झरति-रति पर-निमित खोई, श्रात्म-रति है प्रगट सोई ॥पूर्ण ०१ 35 हीं पाठक-प्रात्मरतये नमः श्रघ्यें० ।।४००॥॥ लोलतरंग तथा बड़ी चौपाई प्रठाईस मूल सदा गुण धारी, सो सब साधु वरें शिवनारी । साधु भये शिव साधनहारे, सो तुम साधु हरो श्रध म्हारे ॥ 5 हों सर्वसाधुभ्यो नमः अ्ध्य॑० ॥४०१।॥ मूल तथा सब उत्तर गाये, ये गुर पालत साधु कहाये ॥साधु०॥ & हों सर्वेसाधुगुणस्वरूपाय नमः अ्रघ्यें० 4४०२।। साधुनके गुण साधहि जाने, होत गुरती गुणही परमाने ॥साधु ०॥ ४ हीं सर्वताधुगुरास्वरूपाय नमः भ्रध्यं० ॥४०३॥ नेम थकोी विश्वास करे जो, द्रव्य थकी शिवरूप करं जो ॥साध०॥ 3 हों स्वंसाधुद्रव्याय नमः अध्यें० ॥४०४॥ हु जीव सदा चित भाव विलासी,ग्रापही श्राप सर्ध शिवराज्ञी पैसाधु० ## ही सर्वताधुगुणव्रव्याय नमः अध्ये ० ॥४०५॥ जशञानमई निज ज्योति प्रकाशी, भेव विशेष सब प्रतिमासी ॥साधु० 4 ही साधुशानायथ नमः अध्यं० ।॥४०६॥ ह एकहि बार लखाय भ्रभेदा, दर्शनकों सब रोग विछेवा ॥साधु०॥ 55 ही ताधुद्शनाय नसः अध्यं० ॥४०७॥ प्रापहि साधन साध्य तुम्हीं हो,एक श्रनेक अ्रबाध तुम्हों हो साधु 9 हुं साधुब्रध्यभाबाय नमः अध्यं० ॥४०८॥। सेप्सम पूजा || |॥ १५१ चेतनता निजभाव न छारे, रूप स्प्शन श्रावि न धारें ।सताधु०॥ 8 हों साधुद्रध्यस्वरूपाय नमः भ्रध्यं० ॥।४०६। जो उतपाद भये इकबारा, सो निरबाध रहे अ्विकारा ॥ साध ०१ 5 हु साधुवीर्याय नसः अघ्यें० ॥४१०।। है परनाम भ्रभिन्‍न प्रस्पासी, सो तुम साधु मे क्िबगासो ॥साधु ० 5 हो साधुद्र व्यगुणपर्यायाय नमः झ्ध्यं० ।।४११॥। जो गुणा वा परियाय धरो हो, सो निज माहि श्रभिन्‍न बरो हो ॥ 35 ह्ठीं साधुव्रव्यगुणपर्यायाय नमः अध्यं० ॥४१२॥ संगलमय तुम नाम कहाव, लेतहि नाम सु पाप नसावे ॥साधु ०॥ $% हों साघुमंघलाय नमः अध्ये ० ।।४१३॥ मंगल रूप भ्रम सोहै, ध्यान किये नित श्राननन्‍्द होहै साथ ०॥ $# ह्वों साधुमंगलस्वरूपाय नम: अर्ध्य॑ ० ॥४९४॥ पाप मिटे तुम शरण गहेतें, मंगल शरण कहाय लहैतें साधु ०॥ & ह्वीं साधुमंगलश रणाय नमः अध्यं० ॥४१५॥ देखत ही सब पाप नसे हैं, श्रानन्द मंगलरूप लसे हैं ॥साधु ०॥ & ही साधुमंगलदर्शनाय नमः अध्यें० ।:४१६॥ जानत हैं तुमको घुनि नीके, पाप कलाप सिर्ट तिनहीके साथ ०॥। ३ ही साधुमंगलशानाय नमः अध्यें० 4४१७ । ज्ञानमई तुम हो गुणारासा, मंगल ज्योति धरो रविकासा ॥साध० ४ हो साधुशानगुणमंगलाय नमः भ्रध्यं० ॥४१८॥ मंगल वोयं तम्हीं दर्शाया, काल श्ननन्‍्त न पाप लगाया साध ०0 3 ही साधुवोयमंगलाय नम: प्रध्य० ॥४१६७ वीय॑ महा सुखरूप निहारा,पाप बिना नितहोी शभ्रविकारा ॥साध०॥॥ # हीं साधुवीय मंगलस्वरूपाय नमः अध्य ० ॥४२०॥ संगल वीय॑ महा युसाघामो, निज पुरुषार्थह मोक्ष लहामी ॥साध ०॥ ढ5 हीं साधुवीयंपरममंगलाय नमः भ्रघ्ये० ॥४२१॥ बीय॑ स्वमाविक पूर्ण तिहारा, कर्म नशाय भये भवपारा।/साध० # वीं साधुबीयंद्रब्याय नमः प्रध्यं०॥४२२॥ तोन हि लोक लखे सब जोई, भाप समान न उत्तम कोई । साधु भये शिव साधनहारे, सो तुम साधु हरो श्रघ म्हारे॥ ७ हों साधुलोकोत्तमाय नमः भ्रध्यें० !॥४२३॥ लोक सभी विधि बन्धन माहीं, तुभ सम रूप धरे ते नाही ॥साधु ० 3» हों साधुलोकोत्तमगुणाय नभः श्रध्य० ॥४२४॥ लोकनके गुण पाप कलेशा, उत्तस रूप नहीं तुम जैसा ॥साधु ०१ <* हीं साधुलोकोत्तमगुणस्वरूपाय नमः भ्रध्यें० ॥४२५॥॥ लोक प्रलोक निहारक नामो, उत्तम द्रव्य तुस्हीं श्रभिरामो ॥साधु० & हीं साधुलोकोत्त मद्रव्याय नमः झ्ष्य ० ॥४२६॥ लोक सभो थषदद्रव्य रचाया, उत्तम द्रव्य तुम्हीं हम पाया ॥साधु ०॥॥ # हीं साधुलोकोत्तसज्ञानस्वरूपाय नम: भ्रध्यं० ॥४२७॥ ज्ञानमई चित उत्तम सोहै, ऐसो लोक विें भ्ररु को है ॥साधधु॥ & हीं साधुलोकोत्तमज्ञानाय नमः भ्रध्ये० ।.४२८॥ ज्ञान स्वरूप सुभाव तिहारा, उत्तम लोक कहै इम सारा। साधु० # हों सधुलोकोत्तमज्ञानस्वरूपाय नमः अध्य॑० ॥४२६॥ देखनमें कुछ श्राड़ न भ्रावं, लोग तनी सब उत्तम गाव॑ ॥साघ॒० ४ हों साधुलोकोत्त मदशनाय नमः भ्रध्यं० ॥४३०॥ देखन जानन भाव धरो हो, उत्तम लोकके हेतु गहै हो धस्ताधु० % हीं साधुलोकोत्त मज्ञानद्शनाय नमः अध्ये० ॥४३१॥ जाकर लोकशिखर पद धारा, उत्तम धर्म कहो जग सारा। साधु० # हों साधुलोकोत्त मर्माय नम: अध्ये७ ॥॥४३२॥ धर्म स्वरूप निजातस मांही, उत्तम लोक विष ठहराई ॥साधु० % हीं साधुलोकोत्तमधमं स्वरूपाय नम: भ्रध्य॑० ॥॥४ ३३॥ प्रत्य सहाय न चाहत जाको, उत्तम लोक कहै बल ताको। साधु० % हो साधुलोकोत्त मवोर्याय नम: श्रध्ये ० । ।४३४॥ उत्तस बोय सरूप निहारा, साधन मोक्ष कियो श्रनिवारा। ।साधु० # हु साधुलोकोत्त मवोयंस्वरूपाय नम: अध्ये० ॥४३४॥ सर्प्तेंभ पूजा | [ १४३४ पुरण पध्रात्मकला परकाज्ञी,लोक विधें प्रतिशय अविनाशी ॥साधु ० 5 ही साधुलोकोत्त मातिश याय नमः अ्रध्य॑ं० ॥४३६॥ राग-विरोध न चेतन मांही, ब्रह्म कहो जग उत्तम ताही #साचु० & हीं साधुलोकोस सत्र हाशानाय नम्तः अ्रध्यं० ।४३७॥ ज्ञान-स्वरूप झ्रकम्म श्रडोला, प्रण ब्रह्म प्रकाश अ्रटोला ॥साधु० 3 छक्लीं साधुलोकोत्त मब्नह्म शानस्वरू प(।य नमः प्रध्य० ॥।४ ३७॥। राग विरोध जयो शिवगामी, प्रात्म श्रनातम प्रन्तरजामी ॥साधु ० 3४ कीं साघलोकोत्तामजिनाय नमः श्रध्यें० ॥४३६।॥ भेद बिना गुण-भेद धरो हो,साँख्य कुवादिक पक्ष हरो हो (साधु ० ४ हीं साधुलोकोत्त मगुणसप्पन्नाय तसः अध्यें० ॥४४०॥ साधत शभ्रातम पुरुष सखाई, उत्तम पुरुष कहो जग ताई ॥साधु ० & ह्रीं साधुलोकोत्तामपुरुषाय नमः अध्ये० ॥४४१॥ साधु समान न दीनदयाला, शरण गहे सुख होत विशाला ॥साधु० 3 ही साधुलोकोत्त मश रणाय नमः भ्रध्यं० ।।४४२॥ जे जन साधु शरण गही है, ते शिव श्रानन्द लब्धि लही है ॥।साधु० ४ हीं साधुलोकोत्त मगुरुश रणाय नमः क्‍्नष्य० ।(४४३॥ साधुनके गुरा द्रव्य चितारे, होत महासुख शररा उभारे ॥साधु ० ३ हीं साधुगुणव्रव्यश रणाय नमः अध्यें० ।।४४४।! लावनी तुस चितवत वा अवलोकत वा सरधानो, हस शररा गहे पाव निशचय शिवराती। निजरूप मगन मन ध्यान धर सुनिराजे, में तमूं साध सम सिद्ध श्रकंप बिराज ॥टेका॥। 5 ही साधुदशेनश रखणाय नमो5घ्यं ० ।।४४५॥ तुम ग्रनुभव करि शुद्धोपयोग सन धारा। यह ज्ञान शररा पायो निश्च झविकारा ॥निजरूप ०॥ $$ हीं स.धुजञानश रण!य नमोथ5्प्ये ।४४६॥ निज प्रात्मरूपमें दृढ़ सरधा तुस पाई। थिर रूप सदा लिवसों शिववांस कराई ॥ निजरूप मगन मन ध्यान धर मुमिराजें, में नमूं साध सम सिद्ध श्रकंप बिराज 0 ४ हो साधु-आत्मशरणाय नमो5घ्यें० ४४७. तुम निराकार निरमभेद शछेद शअ्रनूषा। तुम निरावरण निरद्वंद स्वदर्श स्वरूपा ॥निजरू०॥ 5 छ्वीं साधुदशस्वरूपाय नमोष््य ० ।४४४८॥। तुम परम पुज्य परमेश परमपद पाया । हम शरण गही पुर्जे नित मनवचनकाया ((/निजरूप०॥ ४ ही साधुपरमात्मशरणाय नमो5घ्यँ ।।४४६॥ तुम सन इन्द्री व्यापार जीत सु श्रभीता । हम शरण गही मनु श्राज कमंरिप जीता ॥निजरूप०॥ % हो साधुनिजात्मद् रणाय नमो5घयें० ।।४५०॥ भववाप्त दुखी जे शरण गहें तुम मन में । तिनकों अश्रवलस्ब॒ उसारो भयहर छिन में ।निजरूप%। 5» हीं साधुबोयंश रणाय नमो5घ्ये ० ॥४५१।॥ दृग बोध प्रनन्तानन्त निरखेदा। तुम बल श्रपार शरणागति विधनविछेदा ।।निज०॥ # ह्वीं साधुवोर्यात्मशरणाय नमोष्ध्यं० ॥४५२॥ निज ज्ञानानन्दी महा लक्षिमी सोहै। सुर श्रसुरनमें नित परम सुनी मन सोहे ॥निज०॥। ४» ह्लवीं साधुलक्ष्मी प्रलंकृताय नमो5ध्य ७ ॥४५३॥ भववास महा दुख रास ताहि विनशञाया । व भ्रति क्षोन लोन स्वाधीन महासुख पाया 0निज०॥ ४६ हों ताधुलक्ष्मी प्रणीताय नमोष्यं ० ॥४५४॥ संधभ पूछा ! [ १४४ जिसुबन का ईइ्वरपना तुम्हीं में पाया । | त्रिभुवनके पातिक हरो सन्‌ रवि-छाया क्षनिज०॥ 3» हीं साधुलक्ष्मीकृपाय नमो5्च्यं ० ॥४५५।। तुम काल श्रनंतानंन अ्रबाध विराजो । परनिमित विकार निवार सु नित्य सु छाजो ॥निज०॥॥ 55% ह्रीं साधुश्न वाय नमो5घ्यँ० ॥४५६॥ तुम छायाकलब्धि प्रभाव परम गुणधारी । निवसौ निज-श्रानंद मांहि श्रचल शभ्रविकारी ॥निज ०॥ 53% हीं साधुगुणभरुवाय नमो5घ्यें ० ॥४५७॥ तेरम चौदस गुणथान द्रव्य है जंसो। रहे काल श्रनन्तानन्‍्त शुद्धता तेसों ॥निज०॥ 5 हीं साधुद्रव्यगुण भ्रुवाय नमः प्रष्य० ॥४५८॥ फिर जन्ममररण नहीं होय जन्म वो पाया । संसार-विलक्षण निज शअ्रपूथं पद पाया निज ७॥ 5 हीं साधुद्रव्योत्यादाय नमो5घ्ये ० ॥४५६॥ सूक्षम श्रलब्धि पर्याप्त निगोद शरीरा । ते तुच्छ द्रव्य करनाश भये मसबतीरा ॥निज०॥ ४ हों साधुद्रच्याषिने नमो$घ्यं ० ॥४६०॥ रागादि परिग्रह टारि तत्त्य सरधानों । .... इस साधु जोबव निज साधत शिवसुखदानों ॥निज ०॥ 3 हीं साधुजोवाय नमो5घ्यं ० ॥४६१॥ स्वसंवेदन विज्ञान परम झमलाना । तज दृष्ट-पनिष्ठ विकल्प जाल दुखसाना ॥निज०॥ $# छ्वों साधुजीवगुरंगाय नमः श्रध्ये ॥४६२॥ देखन जातन चेतन सु रूप अ्रविकारी । गुरा-गुणी भेदमें अ्रन्त भेद व्यभिचारी ॥निज०॥ #% छह साधुचेतनगुणाय नमः अध्यं० ॥४६३॥ 5 [ सिठ चक्र विधोन चेतनकी परिणति रहे सदा चिल साहीं । ज्यों सिध, लहर ही सिंध और कछ नाहीं ॥ निजरूप मगन सन ध्यान घर सुनिराज, में नमूं साथ सम सिद्ध भश्रकंप बिराज ॥ 8 छ्ों साधुचेतनस्वरूपाय नमः भ्रध्यं० ॥४६४॥ चेतनविलास सुखरास नित्य परकाशी । सो साध, दिगम्बर साध, भये श्रविनाशों ।निज०॥ 3४ हीं साधुचेतनाय तम्. अध्ये ० ॥४६९५॥ तुम श्रसाधारण भ्ररु परमात्मप्रकाशी । नहीं शभ्रन्य जीव यह लहे गहे भवभासी ॥निज०॥ 89 हीं साधु रमात्मप्रकाशाय नम: अ्रध्यं० ॥४५६॥ तुम मोह तिमिर बिन स्वयं सुर्य परकाशी । गुराद्रव्यययं सब भिन्‍्न-भिन्‍न प्रतिभासी ॥निज«॥ &# हों साधुज्योतिस्वरूपाय नम: श्रध्यं० ॥४६७॥ ल्‍यों घटपटादि दीपक को ज्योति दिखाबे। त्यों ज्ञानज्योति सब भिनश्न-सिश्न दरज्षावे ॥निज०॥ ४» ह्वीं साधुज्योतिप्रदोपाय नमः श्रध्यं० ॥४६५॥ सामान्यरूप श्रवलोकन युगपत सारा । तुम दर्शन ज्योति प्रदीप हरे अझंधियारा ॥निज०॥ ४ छी साधुबशंनज्योतिप्रदीपाय नम; अध्य० ॥४६६॥ साकार रूप सु विशेष ज्ञानद्युति माहीं । युगगपत कर प्रतिबिबित वस्तू प्रगटाई ॥निज०॥ # हुं ताधुशानज्योतिप्रदो पाय नमः प्रध्यं० ॥॥४७०॥ जे भ्रभ्ृजन्य कहें ज्ञान वो भूठेवादी। है. स्वपर-प्रकाशक श्रातम-ज्योति श्ननादी ॥निज&॥ & हु साधु-भात्मज्य(तिषे नभः श्रध्यं५ ॥४७१॥ सप्तभ पूजा ] [१५७ है ताररतरण जहाजाओित भवसागर । हम शरण गही पार्व शझिववास उजागर 'ैनिज९॥ ४ हो साधुशरणाय नमः अध्यें० ॥४७२॥ सामान्यरूप सब साध, भुक्ति-सग साथ । हम पावें निजपद नेमरूप प्राराधं ॥निज०।॥। 35 ह्वीं साध सर्वेशरणाय नमः प्रध्यं० ।/४७३॥ त्रसनाड़ी ही में तत्वज्ञान सरधानो । ताकर साथ निशचय पावे॑ शिवरानी ॥निज०॥ ४ छी साधुलोकश रणाय नमः भ्रष्य ० ॥४७४॥ तिहुंलोक करन हित वरते नित उपदेज्ञा । हम शरण गहीं सेटो भववास कलेशा ॥निज०॥ 3 ह्वीं साधुअिलोकश रणाय नमः प्रध्यं० ॥४७४॥ संसार विषम दुखकार श्रसार शझ्पारा । तिस छंदक वेदक सुखदायक हितकारा ॥निजण॥। 3+ ह्वों साधुसंसा रछेदकाय नमः भ्रष्यं० ॥४७६॥ यदपषि इक क्षेत्र भ्रवगाह श्रभिन्‍न विराजें। तदषि निज सत्ता माहि भिन्‍नता साज्ज ॥निज०॥ ३» हों साधुएकत्वाय नमः श्रध्यें० ॥४७७॥ पघदपि सासान्य-सरूप सु पुरणज्ञानों । तदपि निज प्राश्नयमाव भिन्‍न परनामो ॥निज०॥ ढ# छी साधुएकत्वगुणाय नमः भ्रध्य ० ॥४९ ८॥। है प्रसाघारण एकत्वद्रव्य तुम्र माहों । तुम सम संसार मंभार और कोउ नाहीं ॥निज०॥ उ ह्वीं साधुएकत्वव्रव्याय नमः भ्रध्यें० ॥४७६॥ यदपि सब ही हो प्रसंख्यात परदेशी । तदषि निममें निजरूप स्वद्रब्य सुदेशों ॥निज०॥ # हो साधुएकत्वस्वरूपाय नमः अध्यं० ॥४८०॥॥ श्श्रद ] [ सिद्धजक विभाग सामान्यरूप सब ब्रह्म कहा वेज्ञानो । तिनमें तुम वृषभ सु परमन्रह्म परणामी ॥ निजरूप समगन मन ध्यान धरं मुनिराजे, सें नमूं साध सम सिद्ध भ्रलंप बिराज ॥ 8» हों साधुपरग्रह्मण नमः भ्रघ्यं० ॥४८९१॥। सापेक्ष एक ही कहे सु नय विस्तारा । तुम माव प्रकटकर कहै सुनिदर्चकारा ॥निज%॥ हक छ्वों. साधुपरमस्याद्वादाय नमः अध्यें० ॥४५२॥ है ज्ञाननिमित यह्‌ वचन जाल परमाणा। है वाचक-वाच्य संयोग ब्रह्म कहलाना ॥निज०0 9 छी साधशुद्धश्रह्मणे मम: अच्यें० ॥४८३॥ घट्द्ृरव्य निरूपरण कर सोई श्रागम हो । तिसके तुम मूलनिधान सु परमागम हो ॥निज०॥। ३४» हीं साधप रमागमाय नमः प्रध्य० ॥४८४॥। तोर्थेश कहैँ सर्वज्ञ दिव्य धुनि माहों । तुम गुणा श्रपार इस कहो जिनागम ताही "निज०॥ 3# हीं साधुजिनागसाय नमः अध्यं० ।।४८५॥ तुम नाम प्रसिद्ध श्रनेक श्रर्थ का वाची । ताके प्रबोध सों हो प्रतीत सन सांची ॥निज०॥ # हीं साध -अनेकार्थाय नमः श्रध्यें० ॥४८६।॥ लोभादिक मेंटे बिन न शौचता होई । है बृथा तोथं-सनान करो भी कोई ॥निज%। 35 हों साध धोचाय नमः भ्रध्यें० ।(४८७॥ है सिथ्या सोह प्रबल सल इनका खोना । सो शुद्धश्ौच गुर यहो, न तनका धोना ॥निज०॥। # हों साध,गुवित्वमुणाय नमः प्रध्यं० ।।४८८॥ तप्सभ पूथा | [8५९ इकदेश कर्ममल नाशि पवित्र कहायो । तुम सर्व॑ कसंमल ताशि परम पद पायो ॥निज०॥ 9 ही ताधुपवित्राय नमः अध्यें० ॥४८९॥ तुम रहो बंधसों दूरि एकांत सुखाई। ज्यों नभ श्रलिप्त सब द्रव्य रहो तित माहोीं ॥निथ०॥॥ 3 छी साध विपुक्ताय नमः अध्यं ० ॥४६०।॥ सब द्रव्य-भाव-नोकमं बंध छुटकाया । तुम शुद्ध तिरंनन निजसरूप थिर पाया धनिजण०) 3 हीं साध बन्धपुक्ताय नमः भ्रध्य॑० ४६१'। श्रड़िलल भावाश्रव बिन प्रतिशय सहित प्रबंध हो । मभेघपटल बिन ज्यों रविकिररा भ्रमंद हो ॥ मोक्षमार्ग वा सोक्ष श्रेय सब साध हैं । नमत निरंतर हम हुं कर्म रिपुको दहें ॥टेक।। ढ हों साध बन्धप्रतिबन्धकाय नमः भश्रध्यं० ॥४६२॥ निज स्वरूपमें लोन परम संवर करें। यह कारण अ्रनिवार कर्म झावन हरे ॥मोक्षमार्ग ०॥ 3> छी साधुसंबरकारणाय नमः भ्रध्ये० ॥४६३॥ ॒ पुदूगलीक परिणाम श्राठ विधि कर्म है । तिनकी करत निरजरा शुद्ध सु पमं है ॥मोक्षम्रार्ग १। 55 ह्लीं साधुनिज राद्रव्याय नम: भ्रध्यें० ॥४६४॥ पर्म शुद्ध उपयोग रूप वरते जहाँ। छिनमें नम्तानस्त कर्म खिर है तहां ॥मोक्षमार्ग॥। 5 ही साधुनिज रानिमित्ताय नसः भ्रध्यें० ॥४९५॥ सकल विभाव श्रभाव निर्जरा करत है। ज्यों रवि तेज प्रचंड सकल तम हस्त है ॥मोक्षमार्ग २ # ही साधुनियरागुणाय नमः प्रध्ये* ॥४९६४ १६० ] [ लिडचक विधान जे संसार निम्ित ते सब दुख रूप है। तुम झिव कारण शुद्ध शझ्ननूप हैं।॥ सोक्षमार्ग वा मोक्ष श्रेय साध हैं। नमत निरंतर हम हूं कर्म रिपुको दहैं ७ क# छ्वीं साधुनिमित्तमुक्ताय नमः झध्यं० ॥४६७॥ संशयरहित सुनिशर्च सम्मतिदाय हो। मिथ्या-भ्रम-तमनाशन सहज उपाय हो ॥भोक्षसार्ग था 8४» हों साधुबोधधर्माय नमः भ्रघ्यें० ।४६९८॥ भ्रति विशुद्ध निजज्ञान स्वभाव सु धरत हो । भव्यनके संशय ग्रादिक तम्र हरत हो ॥भोक्षमार्ग९। $ हीं साधुवोधगुण।य नम: प्रध्यं० ।४९६।। झ्रविनाशी श्रविकार परम शिवधाम हो । पायो सो त्‌म सुगत महा अ्रभिराम हो ॥मोक्षमार्ग ०॥ ४ हो साधुसुगतिभावाय नमः अ्रष्ये० ।५००॥ जासो परे न और जन्म वा मरण है। सो उत्तम उत्कृष्ट परम गति को लहै ॥मोक्षमार्ग ० # हों साधुक रमगतिभावाय नमः ग्रध्यें० ५० १॥। ०० पर निमित्त रागादबिक जे परनताम हैं। इन विभाव सों रहित साध शुभ नाम हैं ॥मोक्षमार्ग ० & हीं साधुविभावरहिताय नमः भ्रष्य ० ॥५०२॥। निजभाव सामर्थ सु प्रभुता पाइयो। इन्द्र-फनेन्द्र-नरेनद्र शोश निज नाइयो ॥सोक्षमार्ग ०॥। & ही साधुस्वभावसहिताय नमः भ्रष्य॑ ० ।॥५०३॥ कंबंध सों रहित सोई शिवरूप हैं। निवसे सवा श्रबंध स्वशुद्ध श्रतृप हैं ॥मोक्षमार्ग०॥। # हुं साधुमोक्ष स्वरुपय नमः अध्ये० ॥५०४॥ सपा पृज्रा ह | १६१ सकल द्रव्य पर्याय वि स्वशात हो । सत्यारथ निशुचल निचे परमाश हो ॥मोक्षमार्ग ०॥ ऋ# को साधुपरमानन्दानाय बम: प्रध्यं० ।५०४५॥ तोन लोकके पुृज्य. यतीजनन ध्यावहों । कर्मे-दात्र को जीत 'श्रहँ पद पावहों ॥मोक्षमार्ग ०॥ ३ हो साधु-अहेत्स्वरूपय नम: प्रध्ये ० ॥५०६॥ परम इंद शिव साधत सिद्ध कहाइयो। तोन लोक परमेष्ट परमपद पाहयो ॥मोक्षमार्ग ०७ 5 हो साधुसिद्धपरमेष्ठिने नमः अध्यें० ॥५०७॥ शिव-मारग प्रकटावन काररा हो तुम्हों । भविजन पतित उचारन तारन हो तुम्हीं ॥मोक्षमार्ग०॥ 9 हों साधुसूरिप्र काशिने नम: ध्रष्य॑० ॥५०८॥ स्वपर सुहित करि परम बुद्धि मरतार हो । ध्यान धरत श्रानन्द-बोध दातार हो ॥भमोक्षमार्ग ०॥ & हों साधु-उपाध्यायाय नमः अध्यं० ॥५०९।॥ पंच परम गुरु प्रकट तुम्हारों नाम है। भेदाभेद सुभाव सु श्रातमराम है ॥भोक्षमार्ग०॥ 3 हों साधु-प्रहंतसिद्धाचार्योपाध्यायसबं ताधुभ्यो नमः अध्ये ० ॥५१०१ लोकालोक सु व्यापक ज्ञानसुभावतें । तदपि निजातम लीन बविहीनविभावषतें ॥मोक्षमार्ग ० 3 छो साधुश्रात्मरतये नमः अध्यं० ॥४११॥ रतनत्रय निज भाव विशेष श्रनंत है । पंच प्रमगुरु भये नमें नित संत हैं ।।मोक्ष मार्रा ०॥ ४ छ्ों सापु-प्रहेतसिद्धाचायोपाध्यायसबंस।घुरत्नत्रयात्मकानन्त- गुणेभ्यों नमः प्रध्यं० ॥५१२॥ पंच परम गुरु नाम विशेषणश को धरें। तोन लोकमें मंगलमय झानन्व करें।॥ १६२ ! [ सिडधणक् विधाय पुरणकर थूतिनाम हान्त सुख काररं । पूजूं हूं युत भाव सु श्र उतारणं॥ 35 हों पह हादशाधिकपं वशतगुरायुतसिद्धेभ्यो नमः पूर्णाष्य० ॥ अथ जयमाला रत्नत्रय भूषित महा, पंच सुगुरु शिवकार। सकल सुरेन्द्र नमें नमूं, पाऊं सो गुरसार ॥१॥ पद्धड़ी जय महा मोहदल दलतन सुर, जय निविकल्प प्रानन्दपुर । जय द विधि कर्म विभुक्त देव, जय निजानन्द स्वाधीन एबं ॥१॥ जय संशयादि अ्मतम निवार, जय स्वामिभक्ति द्युतिथुति श्रपार । जय युगपत सकल प्रत्यक्ष लक्ष, जय निरावरण निमंल श्रनक्ष ॥२॥ जय जय जय सुखसागर शभ्रगाध, निरहन्द निरामय निर-उपाधि । जय मनवचतन व्यापार नाश, जय थिरसरूप निज पद प्रकाश ॥॥३॥ जय पर-निमित्त सुख-दुख निवार, निरलेपष निराध्रय निविकार। निजमें परको परमें न श्राप, परवेश्ञ न हो नित निर-मिलाप ॥४॥ सप्तम पूजा ] [ १६३ तुम परम धरम श्रराष्य सार, निज सम करि कारन दुनतिवार। तुम पंच परम आराचार युक्त, नित भक्त वर्ग दातार मुक्त ॥४॥ एकादर्शांग सर्वांग पु, स्वेश्ननुभव पायो फल श्रपुव । झनन्‍्तर-बाहिर परिग्रह नसाय, परमारणथ साधू पद लहाय ॥६॥ हम पूजत निज उर भक्त ठान, पायें निश्चय शिवपद महान । ज्यों शशि किरणावलि सियर पाय, मरि चन्द्रकांति द्रवता लहाय ॥७॥ घत्ता जय भव-भयहारं, बन्धविडारं, सुखसारं शिवकरतार । नित 'सन्त' सु ध्यावत, पाप नसावत, पावत पद निज श्रविकारं ॥। 5४ हीं द्ादशाधिकपंचशतदलोपरिस्थितिद्वेभ्यो नमः अध्यं० । सोरठा तुम गुर भ्रसल श्रपार, श्रनुमवर्ते भव-भय नहों। “सन्त” सदा चित धार, ज्ञांति करो भवतप हरो ॥। ॥ इत्याशोर्बाद: ॥। यहां १०८५ बार '> हीं श्रह भ्रसि श्राउस नमः' मंत्र की जाप करें। 002 प्रष्टम पूजा (एक हजार चौबीस गण सहिन) छप्पय ऊरध श्रधों सुरेफ सबिन्दु हकार विराज। श्रकारादि स्व॒रलिप्त करियका श्रन्त सु छाज ॥ वर्गनिपुरित वसुदल भ्रम्बुज तत्त्व संधिधर । भ्रग्रभागमें मन्त्र श्रनाहुत सोहत श्रतिवर ॥ पुनि श्रन्त ह्वीं बेहयो परम, सुर ध्यावत श्ररि नागकों। द्वृू फेहरि सन पुजन निमित्त, सिद्धाचक् मंगल करो ॥ 3» हीं णमों सिद्धाएं श्रो सिद्धपरमेप्ठित्‌ ! चतुविशत्यधिककसहस्र- गुणसहितविराजमान अत्रावतरावदर संबोषट श्राह्मानन | प्रत्र तिष्ठ ति&ठ ०: 5: स्थापनम्‌, श्रत्र मम सन्निहितो भव भव वथयद सन्ति।धकरणम्‌। पुष्पांजलिशिपेत्‌ । दोहा सुक्ष्मादि गुणा सहित हैं, कम रहित नोरोग। सिद्धचक्र सो थापहूं, मिट उपद्रव योग ॥। (इति यस्त्रस्थापनार्थ पुष्पां्जाल ज्षिपेत्‌ |) अथाष्टक गीता निज आझ्रात्मरूप सु तीर्थ मग तित, सरस ग्रानन्दधार हो । नाशे त्रिविधि सल सकल दुखभय, भव-जलधिके पार हो ॥ झाहदस पूथा. ] [ १६५ यातें उचित हो हैं जु तुम पद, नोरसों पुजा करूं। इक सहुस श्ररु चोबीस गुर गरा भावयुत मनमें धरूं ४टेक। # ही समो सिद्धारं भ्रोसिद्धरमेप्ठिने चतुविश्त्धिकंकसहसख्रगुण- संयुक्ताय जन्म जरारोगविनाशाय जल॑ निरवेपामोति स्वाहा ॥१॥ शीतल सुरूप सुगन्ध चन्दन, एक भव तप नासही । सो भव्य मध्‌ कर प्रिय सु यह, नह भ्रौर ठौर सू बास हो ॥ यातें उचित हो है ज्ु तुम पद, मजयसों पूजा करूं इक सहस ०॥ # हीं शमो सिद्धाणं श्रोसिद्धपरसेष्ठिने चतुविश-यधिक 6 सहसख्र- गुणसंयुक्ताय संसारतापण+नाशन'य चन्दन ० ॥२।। प्रक्षय भ्रबाधित श्रादि-धन्त, समान स्वच्छ सुभाव हो । ज्यों तुम बिना तंदुल दिप॑ त्यूं, निखिल अमल प्रभाव हो ॥ यातें उचित ही है जु तुम पद, भ्रक्षतं पूजा करूं ॥इक सहस०॥ # हू णसो सिद्धा्णं श्रोए्टिद्धपरमेष्ठिने चतुविद्वत्यधिकंकस हख्र- गुण संयुक्ताय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं० ॥३॥ गुरण पुष्पमाल विशाल तुम, भवि कंठ पहिरें भावसों। जिनके मध पमन रसिक लुब्धित, रमत नित-प्रति चावसों ॥ यातें उचित हो है ज्ु तुम पद, पुष्पसों पूजा करूं ॥इक सहस ०॥ 3» हो रामो तिद्धार्ण थ्री सिद्धपरप्रेष्ठिने चतुविशत्यधिककसहस्रगुण- संयुक्ताय कामवाणविताइनाय पुष्पं० ॥४॥। शुद्धात्म सरस सुपाक सध्‌ र, समान श्लोर न रस कहीं । ताके हो श्रास्वादी सु, तुम सम श्रौर संतुष्टित नहों ॥ यातें उचित ही है ज्ु तुम पद, चदनसों पूजा करूं ॥इक सहस ०॥ & हीं णमो सिद्धाणंं भोसिद्धपरमेष्ठिने चतुविश्वत्यधिकेकस हस्नगुरा- संयुक्ताय क्षुधारोग विनाशनाय नंवेदं० ॥॥५॥ स्वपर प्रकाश स्वभावधर ज्यूं, निज-स्वरूप संभारते । त्यूं ही त्रिकाल प्॒नंत द्रव, पर्याय प्रकट निहारते ॥ १६६ | [ तिडचक्र विशाल यातें उचित ही है ज्ु तुम पद, दोपसों पूजा करूं । इक सहस श्ररु चौबोस गुणा गण मावयुत मनमें धरूँ ॥ 3 कीं गमो सिड्धाणं श्रीसिद्धपरमेहिनि चतुविशत्यधिकंकसहुखगण- संधुक्ताय भोहांधका रविनाशनाय दोपं ० ॥६॥ वर ध्यान प्रगनि जराय वसूविधि, ऊध्वंगमन स्वभावतें । राजे भ्रचल शिव थान नित्त, तिह ॒धर्मद्रव्य श्रभावतें । यातें उचित ही हैं जु तुम पद, ध्‌ पसों पूजा करूँ ॥इक सहस ०॥। & हीं शमो सिद्धारं श्रोसि्धपरमेष्ठिने चतुरविशर्यघिककस हस्नगण- संयुकताय प्रष्टकर्मंदहनाय धूपं० ॥॥७॥॥ सवोत्कृष्ट सु पुण्य फल, तीर्थेश पद पायो महा। तोथेंश पदको स्वरुचिधर, श्रव्यय श्रसर शिवफल लहा ॥। यातें उचित हो है जु तुम पद, फलनसों पूजा करूं ।|इक सहुस०॥ # हीं णमो सिद्धा्ं भोसिद्धपरमेट्ठिने चतुविशत्य धिकंकसहूसगुण- संयुक्ताय मोक्षफलप्राप्तये फलं० ॥५॥ प्रष्टांग मूल सु विधि हरो, निज भ्रष्ट गुणा पायो सहो । प्रष्टाद्ध गति संसार मेटि सु भ्रचल हर्व॑ अ्रष्टम महों ॥। यातें उचित हो है जु तुमपद श्र्घसों पूजा करूं इक सहस ०।॥। & हीं एमो सिद्धाणं श्रोसिडपरमेष्ठिने चतुविशत्यधिकंक्सहस्रगुण- झनघध्यंपद प्राप्तये प्रध्यं ० ॥६। निर्मल सलिल शुभ वास चंदन, धवल श्रक्षत युत श्रनी । शुभपुष्प सध्‌ कर नित रमें, चरु प्रचुर स्वाद सुविधि घनो।। बर दीपसाल उजाल धपायन रसायन फल भले। करि श्र सिद्ध समूह पूजत, कर्मदल सब दलमले ॥ ते फर्माष्ट नशाय युगपत, ज्ञान निर्मल रूप हैं। दुख जन्म टार श्रपार गुण, सूक्षम सरूप श्ननूप हैं ॥। भ्रषंध्ण पूजा | [ १६७ कर्माष्ट बिन त्रंलोक्य पूज्य, अ्रदूज शिवकमलापतो । मुनि ध्येय सेय भ्रमेय चहुं गुण-गेह थो हम शुभ मतो॥ # ह्वों णगमो सिद्धारं श्ोसिद्ध परमेष्ठिने बतुविशत्यधिके३सहसगुण- सर्वसुक्ष प्राप्तवे भहाध्यं० ॥ अथ एक सहस्ा चौबीस गुण अध्ध्य॑ दोहा इन्द्रिय विधय-कषाय हैं, श्रन्तर शजत्र, महान । तिनको जीतत जिन भये, नम सिद्ध मगवान || 3 हीं रह जिनाय नम: भ्रध्ये ० ॥१॥ रागाविक जोते सु जिन, तिनमें तुम परधान । तातें नाम जिनेन्द्र हैं, नम! सदा धरि ध्यान ॥ 35 हीं ग्रह जिनेन्द्राय नमः अध्ये० ॥२॥ रागादिक लवलेश बिन शुद्ध निरंजन देव । प्ररसत जिनपद तुम विषें, राजत हो स्वयमेव ॥ 55 ही भहँ जिनपुरंताय नमः भ्रष्य ० ॥३॥। बाह्य शत्रु उपचरित को, जीतत जिन नहीं होय । प्रंतर श्त्र, प्रबल जये, उत्तम जिन है सोय ॥ 5 हीं ग्रह जिनोत्तमाय मसः अध्य ० ॥॥४)। इन्द्रादिक पूजत चरन सेबत हैं तिहूं काल । गरणधरादि श्रुत केवली, जिन श्ाज्ञा निज भाल ॥ 5 हीं भहूं जिनप्रष्दाय नमः प्रध्यं० ॥५॥ यर्धरादि सत-पुरुष जे, वीतराग निरप्रंथ । तुमको सेवत जिन भये, साधत हैं. शिवपंथ ॥ # हीं ग्रह जिनाधिपाय नमः प्रध्यं० ॥६॥ श्८ ] [ सिठचक विधात एक देश जिन स्व सुनि, सर्व भाव अरहंत। द्रव्यभाव सर्वातमा, नम सिद्ध भगवषंत ॥ # ही श्रहूं जिनाधोज्ञाय नम: ध्रध्यं० ।७।॥ गराधरादि सेवत चरण, शुद्धातपा लवलाय। तोन लोक स्वामी भ्ये, नम सिद्ध श्रधिकाय ॥ % हु अहँ जिनस्वासिने नम: प्रध्यें० ॥८॥। तमत सुरासर जिन चरन, तीन काल धरि ध्यान । सिद्ध जिनेशवर में नम, पाऊं शिवसुख थान ॥ 5 ह्वीं अहूँ जिनेश्वराय नमः भ्रध्यं० ॥६॥ तीन लोक तारणश तरस, तीन लोक विख्यात । सिद्ध कहा जिननाथ हैं, सेवत पाप नज्ञात ॥ 8४४ हीं भ्रहूँं जिननाथाय नमः श्रध्यं० ॥१०॥। एकदेश श्रावक्र तथा, स्वदेश मुनिराज | नित-प्रति रक्षक हो महा, सिद्ध सु पुण्यसमाज ॥ ३ हीं भहूँ जिनपतये नमः प्रध्यं० ॥१११ त्रिभुवत शिखा-शिरोमणी, राजत सिद्ध श्रनंत । शिवमारग परसिद्ध कर, नमत भवोदवषि श्रन्त ॥ & हीं ग्रह जिनप्रभवे नमः प्रध्यें० ॥१२॥ जिन आज्ञा श्रिभुवन विर्षे, वरते सदा अ्रखण्ड। मिथ्यामति दुरपक्षकों, देत नीतिसों वष्ड ॥ $ हीं भहँ जिनाधिराजाय नमः श्रघ्यं० ॥१३॥ तोन लोक परिपूर्ण है, लोकालोक प्रकाश । राजत है विस्तोर्ण जिन, नमृ' हरो भववास ॥ 85 हों प्रहूँ जिनविभवे नमः भ्रध्यं० ॥१४।॥। आ्ात्मतक जिने चमत हें, घुद्धातमके हेत। स्वामी हो तिहूं लोकके नम बसे शिवखेत ॥ $ हुं हूँ जिनभन्न धमः प्रध्य ० ॥१५॥ कष्ट पूजा ] | १६९ मिथ्यामतिको नाश करि तसत्वज्ञान परकाश । दीप्ति रूप रवि सम सदा, करो सदा उरवास ॥ ऊ ही अहूं तत्वप्रकाशकाय नम: प्रघ्यें० ॥१६॥ कर्मशन्र॒ जीते सु जिन, तिनके स्वासी सार। धमंमार्ग प्रकटात है शुद्ध सुलभ सुखकार ॥ 35 ही अहूँ जिनकमंजिताय नमः अध्यें० ॥॥१७।॥॥ अमृतसम निज दृष्टिसों, यथारुयात श्राचार । तिन सबके स्वासों नमूं, पायो शिवपद सार ॥ 5» हो ग्रह जिनेश।य नम: श्रध्यं० ॥१८।॥; समोत्तरण भ्रादिक विभव, तिसके तुम परधान। शुद्धातपा शिवषद लहो, नमूं कर्म को हान ॥ 35 ह्रीं अहँ जिननायकाय नमः अध्ये० ॥१६॥ सूरज सम तिहुं लोकमें, सिथ्या तिमिर निवार। सहज दिखायो मोक्षमागं, मैं बंदूं हित धार ॥ 5» हीं भ्रहे जिननेत्रे नमः अध्यं० ।२०॥ जन्म मररख दुख जीतिकर, जिन “जिन' नाम धराय। नमूं सिद्ध परमातमा, भवदुख सहज नसाय ॥ 5 हुं भ्रहँ जिनजेत्रे नमः अध्यें० ॥२१॥ अ्रचल भ्रवाधित पद लहो, निज स्वभाव दृढ़ भाय। नमूं सिद्ध कर-जोरिकर, भाव सहित उर लाय ॥ 5» हों भ्रह जिनपरवृढ़ाय नमः अ्रध्य॑० ॥२२॥ सर्व-व्यापि परमात्मा, सर्व पुज्य विख्यात । श्रीजिनदेव नम्‌ं त्रिविध, सर्व पाप नशि जात ॥। & हुं भरह जिनदेवाय नमः अध्यं० ॥२३॥ ह १७० | [ सिदचक विधा क्रीजिनेश . जिनराज हो, निजस्वभाव श्रनिवार । पर-निर्मित्त विनश सकल बंदूं, शिवसुखकार ॥ # हीं ग्रह जिनेश्वराय नमः श्रध्यं० । २४॥ परम धर्म दातार हो, तीन लोक सुखदाय। तीन लोक पालक महा में बंदूं शिवराय ॥ % हीं श्रहें जिनपा लकाय नमः अ्रध्यं० ॥२५॥ गरणधरादि सेवत महा, तुम श्राज्ञा शिर धार। प्रधिक भ्रधिक जिनपद लहो, नमूं करो भवपार ॥ 3 ह्रीं श्रहूं जिनाधिराजाय नमः भ्रष्य ० ॥२६। परम धर्म उपदेश करि, प्रकटायो शिवराय । श्रीजिन निज श्रानंद में, वर्ते बंदूं ताय ॥ & हीं भ्रह जिनशासनेशाय नमः भ्रध्यं० ॥।२७॥ प्रण. पद पावत निपुणा, सब देवनके देव । में पूजूं नित भावसों, शिव स्वयमेव ॥ 3 हों श्रह जिनदेवाधिदेवाय नमः भ्रध्यं० ॥२८॥। तोन लोक विख्यात हैं, तारण-तरण जिहाज । तुम सम देव न श्रोर हैं, तुम सबके शिरताज ॥॥ 5 हीं अहं जिनाद्वितीयाय नमः श्रध्यं० ॥२६॥ तीन लोक पूजत चरन, भाव सहित शझ्लिर नाय। इन्द्रादिक थुति करि थके, में बंदूं तिस पाय ॥ * हीं भ्रहं जिनाधिनाथाय नम: अध्य ० ॥३०॥ तुम समान नहिं देव है, भविजन तारन हेत। चरणाम्बुज सेवत सुभग, पाव॑ शिवसुख खेत ॥ ३» हीं अहें जिनेन्द्रविबंघाय नमः अध्यें ० ॥३१॥ भवाताप करि तप्त हैं, तिनकी विपति निवार। धमम्रत कर पोषियों, वरते शशि उनहार॥ $#» हों प्रह॑ जिनचन्द्राय नमः अध्यें० ॥३२॥ प्रेच्टस पूणा ] [ १७६ सिश्यातत करि प्रन्च थे, तोन लोकके जीव । तत्व मार्ग प्रगटाइयो, रवि सम दीप्त श्रतोव ॥ क छी अह जिनचन्व्राय नसः अघ्यें० ॥३३॥ बिन कारण तारण तरस, दीप्त रूप भगवान। इन्द्रादक पूजत चररा, करत कमंकी हान ॥ 8४» हीं अहं जिदोप्तरूपाय नमः भ्रध्य ० ॥३४॥ जसे कुजर चक्र के, जाने दलको सांज। चार संघ नायक प्रभु, बंद सिद्ध समाज ॥ % हीं भ्रह जिनकुझ्जराय नमः भ्रध्यें० ॥३५॥ दोप्त रूप तिहुं लोकमें, है परचण्ड परताप । भक्तनको नित देत हैं, भोग शिवसुस आप ॥ 5+ हीं भ्रह जिनाकाय नम: भ्र्ध्य० ॥३६॥ रत्नत्रय. मग॒ साध कर, सिद्ध भये भगवान । प्ररा निजसुख धरत हैं, निजमें निज परिणाम ॥ 5» ह्लीं अह जिनधोर्याय नमः प्रध्यं० ॥३७॥ तोन लोकके नाथ हो, ज्यू. तारागण सु । शिवसूख पायो परमपद, बंदों श्रीजिन प्रृथ्ये ॥ 55 ह्वों अहं जिनधूर्याय नमः श्रध्यें० ।३८॥ पराधीन बिन परमपद, तुम बिन लहैन और । उत्तमातमा में मम, तीन लोक शिरमौर ४ 55 हीं प्रह जिनोत्तमाय नमः प्रध्यें० ॥३६ । जहाँ न दुृखको लेश है, तहाँ न परसों कार। तुम बिन कहूँ न श्रेष्ठता, तीन लोक दुखढार ॥ 55 हीं अह त्रिलोकदुःखनिवारकाय नमः श्रध्यं० ॥४०॥॥ पुर्"णों रूप निज लक्ष्मी, पाई श्री जिनराज । परसर्शथय परमातमा, बंदूं शिवंसुल साज 0 5» हुं अह जिनबराय नम: प्रध्यं० १४ १॥ १७२ | सिदजेक विधेर्ण निरभय हो निर श्राश्रयी, निःसंगी निबंध । निजसाधन साधक सुगुन, परसों नहिं संबंध ॥ # हीं अं जिननि:संगाय नम: श्रष्ये ० ॥४२॥ प्रनन्‍्तराय. विधि नाशके, निजानन्द भयों प्राप्त। 'सनन्‍्त' नमें कर जोरयुत, मव-दुूख करो समाप्त ॥ # ह्लीं अहं जिनोद्वाहयय नमः अध्यें० ॥४३॥ शिवमारग में धरत हो, जग मारगतें काढ़ू । धमंधुरन्धर में नम, पाऊं भव वन बाढ़ ॥ # ही अहँ जिनवृषभाय नम: श्रघ्यं० ॥४४॥ धंनाथ धर्मेश हो, धर्म तीर्थ करतार । रहो सुथिर निजधर्म में, में बंदूं सुखकार ॥ & हुं प्रह॑ जिनधर्माय नम: प्रध्यं० ।४५॥ जगत जीव विधि धृलि सों, लिप्त न लहें प्रभाव । रत्वराशि सम तुम दिपो, निर्मल सहज सुभाव ॥ $ हों श्रह जिनरत्नाय नम: अ्रध्यें० ॥४६॥ तीन लोकके शिखर पर, राजत हो विख्यात । तुम सम ओर न जगतमें, बड़ा कोई दिखलात ॥ 3» ह्वीं महू जिनोरसाय नमः भ्रष्य० ॥४७॥ इन्द्रिय भन व्यापार बहु, मोह शत्रु को जोत। लहो जिनेश्वर सिद्धपद, तोन लोक के मीत ॥ & हीं भ्रह॑ जिनेशाय नम: श्रध्यं० ॥४८॥ चारि घातिया कमंको, नाश कियो जिनराय । धघाति-श्रघाति विनाश जिन, श्रग्न मय सुखदाय ॥ # हो भप्रहँ जिनागप्राय नम: भ्रध्यं० ॥४६॥ प्रच्टम पूजा [| १७३ निज पौराषकर साथियों, निज पुरुषारथ सार। भ्रन्य सहाय नहीं चहें, सिद्ध सुवीर्य अपार ४ 35 हीं भ्रह जिनशादू लाय नमः झ्ध्यं० ।५०॥॥ इन्द्राविक नित ध्यावते, तुम सम और न कोय । तीन लोक चूड़ामरिग, नम सिद्धसुख होय ॥। 3» ही प्रह॑ जिनपु गवाय नमः भ्रध्यं० ॥५१॥ निजानन्द पदको लहो, श्रविरोधी सल नास। समक्तित बिन तिहुंलोकमें, श्रोर, नहीं सूखरास ॥ 35 हीं भ्रह जिनप्रवेकाय नमः अध्यें० ।५२॥ जगत शत्रु को जीतिके, कल्पित जिन कहलाय । मोहशत्रु जीते सु जिन, उत्तम सिद्ध सखाय ॥ 3 हीं भ्रहूं जिनह साय नम: भ्रध्यं० ।॥५३॥ द्रव्य-भाव दोनों नहीं, उत्तम शिवसूख लीन । मनवचतन करि मैं नम, निज समभाव जु कोन ॥ 5 हीं अहू जिनोत्तमसुखधा रक!य तमः श्रध्यं० ५४॥ थार संघ नायक प्रभु, शिवमग सुलभ कराय। तारण तरण जहान के, में बंदू' शिवराय ॥ 35 हो भ्रहूं जिननायकाय नम: श्रष्यं० । ५५॥ स्वयंबुद्द शिवसार्ग में, श्राप चले श्रनिवार । भविजन श्रप्रेशवर भये, बंदू भक्ति विचार ॥ 35 छी अहँ जिनाग्रिमाय नमः श्रध्यं० ॥५६॥। शिवसमारग के चिक्त हो, सुखसागर की पाल। शिवपुर के तुम हो धनी, धर्म नगर प्रतिपाल॥ # हीं भ्रहूं जिनग्रामण्ये नमः श्रध्यं० ॥५७॥ तुम सम श्रौर न जगत में, उत्तम श्रेष्ठ कहाय । आप तिरे पर तारते, बंदू. तिनके पांय ॥ ४ हों प्रहूं जिनसत्तमाय नमः अध्य॑० ॥।५६॥ श्क्ड ] [ सिद्धनक विधान स्व-पर कल्याणक हो प्रभू, पंचकल्याशक ईश। श्रीपति शिवशंकर नमूं, चरराम्बुज धरि शीश ॥ # हीं भू जितप्रभवाय नम: भ्रध्यें० ।।५६॥। मोह महाबल दलमलो, विजय लक्ष्मीनाथ । परमज्योति शिवपद लहो, चरण नम धरि माथ ॥ # हर ग्रह परमजिनाय नमः श्रघ्ये० ॥॥६०॥ चहुँ गति दुःख विनाशिया, पूरा निज पुदुषार्थ । नम! सिद्ध कर-जोरिके, पाऊं में सर्वार्थ ॥ 5» हों अहँ जिनचतुर्गतिदु:खान्तकाय नमः प्रष्यं ० ॥।६१।॥। जीते कर्म निफकृष्ट को, श्रह्ट भये जिनदेव । तुम सम श्रोर न जगत में, बंदू' में तिन भेव ॥ # हीं अहू जिनश्रेष्ठाय नमः श्रघध्य ० ॥६२॥ श्राप मोक्षमग साधियो, श्रौरनने सुलभ कराय । श्रादि पुरुष तुम जगत में, धर्म रीत वरताय ॥ % छ्वीं अहू जिनज्येष्ठाय नमः भ्रध्यं ० ६३॥ मुख्य पुरुषारथ मोक्ष है, साधत सूुखिया होय। में बंद तिन मक्ति करि, सिद्ध कहावे सोय ॥ * ह्वीं अहँ जिनसुखाय नमः भ्रध्यं० ६४ सूरत सम श्रग्नेश हो, निज-पर-भासनहार । ग्राप तिरे भवि तारियो, बंदू योग संभार ॥ ' >>हीं अहूँ जिनाग्राय नमः प्रध्यं० ॥६५॥ रागादिक रिपु जीत तुम, श्रोजिन नाम धराय। सिद्ध भये कर जोरिके, बंदू तिनके पांय ॥ &# हीं प्रहं श्रोजिवाय नमः अध्यं० ॥६६॥ विषय कषाय न लेश है, दृष्टि ज्ञान परिपुरणं। उत्तम जिन शिवपद लियो, नमत कर्म को चुरां ॥ छ् हों भ्रहं जिनोत्तमाय नमः श्रष्यं० ॥६७॥ शब्लम बूछा | [ १७ चहुं प्रकार के देवता, नित्य नमावत शीक्ष । तम देवन के देव हो, नम! सिद्ध जगदोश ॥ ४ छ प्रहें जिनवृन्दारकाय नम: प्रध्यं० !।६८।॥। जो निज सुख होने न दे, सो सत रिपु है जोय । ऐसे रिपुको जीतके, नम सिद्ध जो होय 0 # हीं अहू प्ररिणिताय नमः श्रष्यं ० ॥६९॥ ग्रबिनाशी श्रधिकार हो, अ्रचलरूप विख्यात । जामें विष्च न लेश है, नम्॒ सिद्ध कहलात ॥ # छ्रीं भ्रहूं निविध्नाय नमः प्रघध्यं० ॥७०॥। राग-दोबष मद-मोह श्ररु, शानावररणण नज्ञाय । शुद्ध निरंजन सिद्ध हैं, बंदू तिनके पाँय ७ # हीं शरहं विरजसे नमः अध्ये० ॥७१॥ मत्सर भाव दुखो कर, निजानन्द को घात । सो तुम नाशो छिनक में, शस सुखिया कहलात ४ * ह्रीं अहू निरस्तमत्सराय नमः श्रष्यें० ॥७२॥ परक्ृत भाव न लेश है, भेद फहयो नहिं जाय । बचन भ्रगोचर शुद्ध हैं, सिद्ध महा सुखदाय ७ # हूं भ्रहँ शुद्धाय नम: प्रध्यं० ॥७३।॥ रागादिक मसल बिन दिपो, शुद्ध सुबर्ण समान । शुद्ध निरंजन पद लियो, नम चरण धरि ध्यान ॥ 5 हीं अहूँ निरंजनाय नम: श्रध्यं० ॥७४॥ ज्ञानावर्शी श्रादि लें, चार घातिया कम । तिनको प्रंत खिपाइके, लियो मसोक्षपद पर्स ॥ ३5 हों अहूँ घातिकर्मान्तकाय नम: अध्यें० ॥७५॥ ज्ञानावरणी पटल बिन, ज्ञान दोप्त परकाश । शुद्ध सिद्ध परमातमा, बंदित भवदख नाश 35 हों प्रहेँ जिनदोप्तये नप्ः प्रध्यं० ॥७६॥ १७६ ] [ लिदशक्ष विधान कर्म रलावे झ्रात्मा, रागांदिक उपजाय । तिनको मर्म बिनाशकं, सिद्ध भये सुखदाय ॥ $# हु भ्रहेँ कमंसर्म भिदे लमः अध्ये० ॥७७॥ पाप॑ कलाप न लेश है, शुद्धाशुद्ध विख्यात । मुनि मन मोहन रूप है, नम जोरि जुग हाथ ॥ ३ दीं प्रहँ ग्रनुदयाय नमः प्रध्यं० ॥७८॥ राग नहीं थुतिकारसों, निदकसों नहीं द्वेष । शम सूखिया प्रानन्दधन, बंदू सिद्ध हमेश ॥ % छरी प्रहें बोतरागाय नमः भ्रध्य ० (८०॥ क्षुपा वेदनी नाशकर, स्व-सुख भू जनहार । निजानन्द संतुष्ट हैं, बंद भाव विचार ॥ # हो ग्रह प्रमुध य नमः भ्रष्यं० ॥॥८१॥ एक दृष्टि सबको लें, दृष्ट-प्रनिष्ट न कोय । देश श्रांश व्यापं॑ नहों, सिद्ध कहावत सोय ॥। 5 हर अहूँ प्रदेषाय नम: प्रष्य॑० ।!८२॥ भवसागर के तीर हैं, शिवपुरके हैं राहि । मिथ्यातम-हर सूर्य हैं, में बंदू हूं ताहि ॥ % हीं भ्रहँ निर्मोहाय नमः भ्रध्ये० ॥८३॥ जगजनमें यह दोष है, सुखी-दुखी बहु भेव । ते सब दोष निवारियों, उत्तम हो स्वयमेव ॥ ४» ह्लीं ग्रह निर्दोधाय नमः प्रध्य ० ।।८४॥ जनम मरण यह रोग है, तिनको कठिन इलाज । परमौषध यह रोग को, बंदू' मेटन काज ॥ ३55 द्वों भ्रहूं भ्रगदाय नम: श्रध्यं० ॥८४५॥ राम कहो मसता कहो, मोह कर्म सो होय । सो निज मोह विनाशियो, नम सिद्ध हो सोय ॥ ऊँ हु भर निर्म पत्वाप नन्तः अच्ये ० ॥८६॥ प्रष्ठल पूथा | [ १७७ तृष्णा दुखको सूल है, सुखो भये तिस नाश । मनवचतन करि में नम, है प्रानन्दविलास ॥। ३ हुं भ्रहूँ बोततृष्णाय नमः भ्रध्यें ० ।।८७॥। अन्तर बाह्य निरिच्छ है, एको रूप भ्रतृप । निश्पृह् परमेश्वर नमू , निजानंद शिवभूप ॥ उ हो अहूँ प्रतंगाय तमः प्रध्यं० (८८॥ क्षायिक समकितको धरें, निर्भय थिरता रूप । निजानंदसों नहिं चिगें, मैं बन्दू' शिवभूष ॥ # हो परहँ निमंधाय नमः अध्यं० । ८९॥ स्वप्न प्रमादी जीवके, भ्रल्प-शक्ति सो होय । निज बल श्रतुल महा धरें, सिद्ध कहावें सोथ ॥ # ही भरहूँ प्रस्वप्नाय नमः प्रध्यं० ॥॥६०॥ दर्श ज्ञान सुख भोगतें, खेद न रंचक होय । सो श्रनन्त बलके धनी, सिद्ध नमामी सोय ॥ %# हीं प्रहेँ नि:ध्रसाय नमः प्रध्यें० ॥€१॥ युगपत सब प्रापत भये, जानत हैं सब भेद । संशय बिन श्राइचय नहों, नम सिद्ध स्वयमेव ॥॥ > हों श्रहूँ दीतविस्मयाय नस: भ्रध्य ० ।'६२॥। सिद्ध सनातन कालतें, जगमें हैं परसिद्ध । तथा जन्म फिर नहीं धर, नमूं जोर कर सिंड्ध ॥ 5» हुं भहँ भ्रजन्सने नम: प्रध्य॑ं० ॥६३॥ भ्रम बिन, ज्ञान प्रकाश में, मासें जीव-प्रजीव । संशय बित निदचल सुखी, बन्दू सिद्ध सदोव ॥। 5 हों भ्रह निःसंशयाय नमः भ्रध्यं० ।/६४॥ तुम पुरणण परमातमा, सदा रहो इक सार । जरा न व्याप तुम वियें, नमू' सिद्ध अविकार ॥ # हुं प्रहु निर्जेराय तमः अध्यें० ॥६५॥ श्ड्ष ] [ सिद्ेचआ विवलम तुम प्रणण परमात्मा, श्रन्त कभी महों होय ६ मरण रहित बन्दू सदा, देख भ्रमर पद सोय ३ # होंग्रहँ श्रमराय नमः श्रध्यं० ॥६६॥ निजानन्द के मोगमें, कभी न भारत श्राय | यातें तुम श्ररतीत हो, बन्दू सिद्ध सुहाय ॥ % हीं भ्रहूँ श्ररत्यतीताय नमः अध्यं० ॥६७॥ पल होत नहीं सोच न कभू, शान धरे परतक्ष। नम्‌ सिद्ध परमात्मा, पाऊं ज्ञान भ्रलक्ष ॥ 8४» ह्रीं भ्रहेँ निश्चिताय नमः अध्यें० ॥६८।॥। जानत हैं सब ज्ञेय को, पर ज्ञयनतें भिन्‍न। यातें निविषयो कहे, लेश न भोगें श्रन्य ॥ 3 हीं भ्रहें निविषयाय नमः श्रध्य ० ॥६९॥ श्रहंकार श्रादिक त्रिषट्‌, तुम पद निवस नाहि। सिद्ध भये परमात्मा मैं, बन्दू हूं ताहि ॥ # हों श्रहँ त्रिषष्ठिजिते नम: भ्रध्ये ० ॥१००॥। जेते गुणा परजाय हैं, द्रव्य प्रनन्‍्त सुकाल। तिनको तुम जानो प्रभू , बन्दू में नसि भाल॥ & हीं श्रहूं स्वेज्ञाय नम: श्रध्यं० १० १।। ज्ञान-आरसी तुम विष, भालके शेय प्रनन्त । सिद्ध भये तिनको नमें, तीनों काल सु सन्त ॥ 3» हो ग्रह सब॑बिदे नम: भ्रध्यें० १०२॥ चक्ष श्रचक्षु न॒ भेद हैं, समदर्शों भगवान। नम्‌ सिद्ध परमात्मा, तोनों जोग प्रधान ॥ <* हों भ्रहूँ सर्वदशिने नमः अ्रध्यं० ॥१०३॥। देखन कछ बाकी नहों, तोनों काल मंझार । सवलोकी सिद्ध हैं, नम्‌' त्रियोग सम्हार ॥ # हुं भ्रहूं सर्वावलोकाय नमः श्यं० ॥॥१०४॥॥ प्रकव पूजा ॥ तुम संस प्राकम झोर सब, जगवासो में नाहि। निज बल शिवपद साधियो, में बन्द्‌ हूं ताहि 0 ७ ही प्रहें अनन्तविक्रमाय नत्रः अध्यें ० ॥१०५॥ निजसुख मोगत नहिं चिगें, वी श्रनंत धराय । तुम अनन्त बलके धनी, बन्द मनवचकाय ७ ७ हो अहूं प्रतन्‍्तवीर्याय नंसः अध्य० ॥|१०६॥ | १७१ सुखामास जग जीवके, पर-नि्ित्तसें होय । ह निज प्राक्रय पूरण सुखो, सिद्ध कहाथ सोय ॥ ४ ड्रीं अहूँ अनन्तसुखाय नमः अध्यें ० ॥१०७॥ निज-सुखमें सूख होत है, पर-सुखमें सुख नाहि। सो तुम निज-सूख के धनी, में बन्द हुं ताहि 0 3 हीं अहूँ श्रनन्‍्तसौख्याय नमः प्रष्यं० ११०८॥ तीन लोक तिहूं कालके, गुर-पर्यय कछ नाहि। जाको तुम्त जानो नहीं, ज्ञान-भानुके माहि ॥ 5* ह्वीं अहे विश्वज्ञानाय नमः श्रष्यें० ॥१०६॥ द्रव्य तथा गुर पयंको, देखें एकीबार । विश्वदर्श तुम नाम है, बन्दों मक्ति विचार ॥। ३5 हों भ्रहें विश्वदशिने नमः अ्रध्यं० ॥११०॥॥ सम्पूरण अवबलोकतें, दर्शन धरों श्रपार। नम सिद्ध कर जोरिके, करो जगत से पार ।। 3 हो ग्रह श्रखिलाथंदर्शने नमः अध्यं ० ॥१११॥) इन्द्रिय ज्ञान परोक्ष है, क्रमवर्तो कहलाय । बिन इन्द्रिय प्रत्यक्ष है, धरो ज्ञान सुखदाय ॥ 55 हीं श्रहें निष्पक्षदक्षनाय नम: श्रध्य॥११२॥ विश्व मांहि तुम भ्र्थ सब, देखो एकीबार। विश्वचक्षु तुम नाम है, बनदू भक्ति विचार ॥ # हु पहूँ विश्वचक्षुपे नम: अध्यें० ॥११३॥ १८० ] [| सिद्जना वियात तीन लोकके भ्रर्थ जे, बाकी रहो न शेष । युगपत तुम सब जानियो, गुरा-पर्याय विशेष ॥ ४ हो श्रहे भ्रशेषविदे नस: अ्रध्यं० ।।११४॥ पराधीन अरु विघ्न बिन, है साँचा प्रानन्द । सो शिवगतिमें तुम लियो, में बन्दू सुखकंद ॥। 3 हों भहे भ्रातत्वाय ममः प्रध्यं० ॥?१५।॥ सत प्रह्यंतता नित बहै, या सद॒भाव सरूप । सो तुममें ग्रानन्‍्द है, बन्दत हूं शिवभूप ॥ & हो प्रहें सदानन्दाय नमः भ्रध्यं० ॥१६६॥। उदय महा सत्रुप है, जामें श्रतत न होय। ग्रंतराय भ्ररु विधन बिन, सत्य उर्द है सोय ॥। 5» हीं भ्रहं सदोदयाय नमः अध्यें० ॥११७।॥॥ नित्यानंद सहासखी, होनादिक नहीं होय । नहीं गत्य॑तर रूप हो, शिवगति में है सोय ॥॥ ३० हीं प्रहँ नित्यमंदाय नमः भ्रध्यं० ॥११८ | जासों परे न शौर सूख, श्रहमिन्धनमें नाहि। सोई श्रष्ठ सुख भोगते, बन्द हूं में ताहि।॥ ३» हों प्रहेँ परमानंदाय नमः प्रध्यं० ॥११६।॥ पूरण सूखकी हद धरे, सो महान आनन्द । सो तुम पायो शिव-धनी, बन्दूं पद श्ररविन्द ॥। 3 हीं श्रहँ महानंदाय नमः झ्रध्यें० ॥ १२०॥। उत्तम सुख स्वाधीन है, परम नाम कहलाय। चारों गतिमें सो नहों, तुम पायो सुखदाय ॥ ७» ही प्रहँ परमानन्दाय नमः भ्रध्यं० ।!१२१॥ जामें विधन न लेश है, उदय तेज विज्ञान । जाको हम जानत नहीं, सुलभरूप विधि ठान ॥॥ $# हुं झहेँ परोवयाय नमः भ्रष्ये ० ॥१२२॥ सष्ठेने बूंजा - | [हक परस शक्ति परसातसा, पर सहाय बिन श्राप । स्वयं वीय॑ श्रानन्दके, नमत कटें सब पाप ॥ 9 हो हूँ परभोजसे नमः अध्य० ॥।१२३॥। महालेजके पुज हो, अ्रविनाशी श्रविकार । भलकत शावाकार सब, दर्पणवत्‌ श्राधार ॥ 35 हीं झहँ परमतेजसे नमः प्रध्यं० ॥१२४॥ परम धाम उत्कृष्ट पद, सोक्ष नाम कहलाय। जासों फिर भ्रावत नहों,जन्म-मरण नशि जाय ॥ ३5 ह्वों अ्रह परमर्धाम्ने नमः अध्यं० ॥१२५७ जगतगुरु सिद्ध परमातमा, जगत सुर्य शिव नाम । परमहंस योगीश हैं, लियो मोक्ष प्रभिराम ॥ ३ हो प्रहें परमहुंसाय नमः अध्यें ० ॥१२६॥ विव्यज्योति स्व-ज्ञानमें, तोन लोक प्रतिमास। शंका बित विश्वास कर, निजपर कियो प्रकाश ॥ 3० हो प्रहूँ प्रत्यक्षज्ञातु: नमः भ्रष्यं० ॥१२७॥ निज विज्ञान सु ज्योतिमें, संशय प्रादिक नाहि। सो तुम सहज प्रकाशियों, में बन्दू हूं ताहि॥ ३ हीं प्रहूँ विज्ञानज्योतिषे तमः अध्यं० ॥१२८॥ शुद्ध बुद्ध परमातसा, परस ब्रह्म कहलाय। सर्व-लोक उत्कृष्ट पद, पायो बन्दु ताय ॥ %* हीं प्रहँ परमब्रह्मरों नमः भ्रध्य॑०॥१२६॥ चार ज्ञान नहें जास में, शुद्ध सरूप भ्रतृष । परको नाहि प्रवेश है, एकाकी दिवरूप ॥ ३» हीं झहँ परमरहसे यमः अध्ये ० ॥१३०॥ निज गुण द्रव पर्यायमें, भिन्न-भिन्न सब रूप । एक क्षेत्र श्रवगाह करि, राजत हैं चिद्रप ॥ 29 हीं भहू प्रत्यक्षात्मने नमः अ्रध्य॑० ॥१३१। १४२ ] [ सिडचक कि! । शुद्ध बुद्ध पंरमांतमा, निज विज्ञान प्रकाश । स्वे-प्रातमके बोधतें, कियो कर्म को नास ॥ &* हीं अहूँ प्रबोधार्मने नसः ह्ध्यं०॥१३२॥ कम मेल से लिप्त हैं, जगत प्रात्म बिन रंन। कर्म नाश महपद लियो, बन्दूं हूँ सुख देन ॥ 5* हुं प्रहँ महात्मने नमः भ्रष्यं ० ॥१३३॥ ग्रातमको गुण ज्ञान है, वही यथारथ होय । ज्ञानातन्द ऐश्वर्यंता, उदय भयो है सोय ॥ 3» हीं अहं प्रात्ममहोदयाय नस: अ्रध्ये० ॥१३४॥ दर्श ज्ञान सुख वीयंको, पाय परम पद होय। सो परमातम तुम भयग्रे, नम्ु॒ जोर कर दोब ॥ # हुं भ्रहें परमात्मने नमः प्रघ्यं० ॥१३५॥ मोह कर्म के नाशते, शञान्त भये सुखदेन । क्षोभरहित प्रशान्त हो, शांत नम सुख लेन ॥ &% हीं अह प्रशान्तात्मने नमः: प्रध्यें० ॥१३६॥ पुरण पद तुम पाइयो, यातें परे न कोय । तुम समान नहीं झोर हैं, बंदू हूं पद दोय ४ &* हीं प्रहं परमात्मने नमः प्रष्य ० ॥१३७॥ पुद्गल कृत तब छारके, निज प्रातम सें वास । स्व-प्रदेश ग्रहके विषें, नित ही करत विलास ॥ 3 हीं भ्रहेँ आत्मनिकेतनाय नम: प्रध्यं ० ॥१३८॥। घोरव को नित देत हैं, शिवसुख भोगें श्राप । परम इष्ट तुम हो सदा, निजसम करत मिलाप ॥ & हों अहूँ परमेष्ठिने नमः अ्रध्यं० ॥१३९॥ मोक्ष-लक्ष्मी नाथ हो, मक्‍तन प्रति नित देत। सहा इष्ट फहलात हो, बंदू शिवसुख हेत 0 # हीं भहूँ महितात्मने नमः अध्य ० ॥॥१४०॥। अंजाम पूजा | [१८३ रागादिक मल नाक्षिकें, श्रेष्ठ. भये जगमांहि। सो उपालता करराको, तस सम कोई बर्डह ॥ # हीं अहूँ श्रेष्ठात्मने नमः अध्यें० ॥१४१॥ परमें मस्त विनाहकं, सवे श्रातम थिर धार । पर-विकल्व संकल्प बिन, तिष्ठो सुख-प्राधार ॥ ४ हवों अहूँ स्वात्मनिष्ठिताय नमः अध्यें० ॥१४२॥ स्व झ्रातम सें सरन हैं, सब झातम लवलीन। परमें भ्रमण करें नहों, सनन्‍्त' चरण सिर दोन ॥ # हीं अहूँ ब्रह्मतिष्ठाय नप्तः भ्रष्यं० ॥१४३॥ तीन लोक के नाश हो, इन्द्रादिक कर पृूजू । तुम सम श्रौर महानता, नहिं धारत है बून ॥ ३» हीं अहूँ महाज्येष्ठाय नमः अध्यं० ॥२४४॥ तीन लोक परसिद्ध हो, सिद्ध तुम्हारा नाम । सर्व सिद्धता ईश हो, पूरहुं सबके काम ॥ # हुं अहूँ निरुढ़ात्मने नमः अध्यं० ॥१४५॥ स्वे-श्ातम थिरता धरें, नहीं चलाचल होय । निइचल परम सुभाव में, भये प्रगतिको खोय ७ ४ हुं अहं दृढ़ात्मने नमः अध्ये० ॥१४६॥ क्षपोपशम नानाविधे, क्षायक्र एक प्रकार । सो तूममें नहीं झोर में, बंदू योग संभार ॥ ४ ह्वीं अहँ एकविद्याय नमः अध्य ० ॥१४७॥। कर्म पटलके नाशतें, निमंल ज्ञान उदार। तुम महान विद्या धरो, बन्द योग संभार ॥ # ह्वीं अहूँ महाविद्याय नमः अध्य० ॥१४५॥ परम पृज्य परमेश पद, पूरण ब्रह्म कहाय । पायो सहज महान पद, बन्दू' द्िवके पाय ४ # हीं अहूँ महाप्रदेश्व राय नमः प्ष्यें० ४१४६॥ ज्द४ ] [ सिडचक्त विवश पंच परम-पद पादियो, ब्रह्म नाम है एक। पूजूं मनवचकाय करि, नाश विध्न झनेक ॥ ७ हुं जअहूं पंचब्रहमरों नमः श्रध्यं० ॥॥१५०॥ लिज विभूति सर्वस्व तुम, पायो सहज सुभाय । हीनाधिक बिन बिलसते, बन्दू: ध्यान लगाय 0 3 ह्रीं अहूँ 6र्वाय नमः अष्यं० ॥१५१॥ पुरण पण्डित ईश हो, बुद्ध धास भ्रभिरास । बन्दू सनवचकाय करि, पाऊं सोक्ष सुधाम ॥ 5 ही अहू सर्विविद्येई३ राय नमः भ्रध्यं० ॥१५२। मोह कर्म चकच्रतें, स्वाभाविक शुभ चाल । शुध परिराम घरें सदा, बंदूं नित नमि भाल॥ ३ हो अहूँ शुचये नमः प्रध्यं० ॥१५३॥ ज्ञानं-वर्द श्रावण बिन, दीपो नंतानंत । सकल ज्ञेय प्रतिभास है, तुम्हें नमें नित 'संत' ॥ 8 हीं अहूँ अनंतदीप्तये नमः अध्यें० ।१५४॥। इक इक गुरा प्रतिछेद को, पार न पायो जाय । सो गुण रास श्रनंत हैं, बंदू तिनके पाँय ॥ $ हीं अहूँ अनंतात्मने तम: भ्रष्यं० ॥१५५॥ श्रहमिद्रन को शक्ति जो, करो श्रनंती रास । सो तुम शक्ति श्रनंत गुण, कर भ्रनंत प्रकाश ॥ &# हीं अहूँ अनन्तगशक्तये नमः प्रध्य॑० ।१४६॥ क्षायक दर्दान जोति में, निरावररण परकास । सो श्रनंत दूग तुम धरो, नमें चरण नित दास 0 ३5 हो अहूँ अनंतद्शये नमः झ्ध्यें० ॥१५७॥ ह जाको शक्ति श्रपार है, हेत-प्रहेत प्रसिद्ध । गराधरादि जानत नहीं, में बदू नित सिद्ध ॥ 55 हु पहँ कर्मक्षोणाय नमसो5घ्यं ७ ।१४द।॥। अंधे इूजा || | श्दर जेतत्र शक्ति पभ्रनंत है, निरावरणा जो होय ।' सो तुम पायो सहज, ही, कर्म पुझजको खोय ४ 35 हीं प्रहुं अनंतचिदेशाय नमः भ्रध्यं० ।। १५९।॥ जो सुख है निज प्राश्रये, सो सुख परमें नाहि। निजानन्द रसलोन है, में बंदू हैं ताहि ॥ # हीं भ्रहं अनंतमुदे नमः भ्रष्यें० !।१६०॥ जाकें कर्म लिप न फिर, दिपे सदा निरधार । सदा प्रकाशजु सहित है, बंदू योग सम्हार ॥ # हूं अजहूँ सदाप्रकाशाय नमः श्रध्यं० ।।१६१।। निजानन्वके मांहि हैं, सब श्रर्थ परसिद्ध । सो तुम पायो सहज हो, नमत मिले नवनिद्ध ॥ # हु अहूं सर्वार्थ सिद्धे्यो तसः श्रष्य ० ॥१६२॥। ग्रति सुक्षम मे श्र हैं, काय प्रकाय कहाय । साक्षात्‌ सबको लखो, बन्दू' तिनके पांय ॥ # हों अहू साक्षात्कारिण नमः अ्रध्यं० ।।१६३॥ सकल गुरानभय द्रव्य हो, शुद्ध सुभाव प्रकाश । तुम समान नहीं दूसरो, बन्दत पूर श्रास ॥ # ही अहूं समग्रड्ेये नमः भ्रष्यं० ।।१६४।॥। सर्व कमंको छीन करि, जरो जेवरी सार। सो तुम धृलि उड़ाइयो, बन्दू भक्ति विचार ॥ ४ छी अहू कर्मक्षीणाय नमः अ्रध्यं० ॥१६५॥ चहूं गति जगत कहात हैं, ताको करि विध्वंस। प्रमर भ्रचल शिवपुर बसें, भर्म न राखो प्रंश ॥। 3 हुं ग्रह जयद्विष्य/सने समः अ्रध्यं० ॥१६६॥ इन्द्री सन व्यापार सें, जाको नहि श्रधिकार । सो भ्रलक्ष आतम्र॒ प्रभृू, होउ सुमति दातार ॥ # डर प्रहुं अलक्षात्मने ममः प्रध्यं० ॥१६७॥। हद | [' सिदचक्त विधान नहीं चलाचल श्रचल हैं, नहीं भ्रमण थिर धएर + सो शिवपुरमें बसत हैं, बन्दू भक्ति विचार ॥ ४ हीं प्रहूं अचलस्थानाय नमः श्रध्यं० ॥१६८॥ पर कृत निमत बिगाड़ हैं, सोई दुविधा जान । सो तुममें नहीं लेश हैं, निराबाध पररणाम ॥॥ क$ हीं अहूँ निराबाधाय नमः प्रध्यें० ॥१६६॥ ज॑से हो तुम श्रादिसें, सोई हो तुम श्रन्त । एक भांति निवसो सदा, बंदत हैं नित 'संत' ॥ # हों प्रहूं अप्रतवर्याय नमः प्रध्ये० ॥ १७०॥॥ धमंनाथ जगदीश हो, सुर मुनि माने आन । मिथ्यामत नहीं चलत है, तुम भागे परमार ७ & हीं भ्रहें धमंचक्रिणे नमः अध्यं० ॥ १७१॥ ज्ञान शक्ति उत्कृष्ट है, धर्म स्व तिस मांहि। श्रेष्ट ज्ानतम पुञ्ज हो, परनिमित्त कछु नाहि ॥ # हों अहूँ विदांवराय नमः श्रध्यं० ॥१७२॥ निज श्रभाव से मुक्त हो, कहें कुवादी लोग । भूतात्मा सो मुक्त हैं, सो तुम पायो जोग ॥ 5 हूं प्रहे मूत/त्मने नम: श्रध्यं० ॥१७३॥ सहज सुभाव प्रकाशियो, परनिमित्त कछ नाहि। सो तुम्र पायो सुलभते, स्वसुमाव के मांहि ७ 3 ह्वीं भहूँ सहजज्योतिषे नमः प्रष्यं० ॥१७४॥ विहत्न नाम तिहुं लोकमें, तिसमें करत प्रकाश । विश्वज्योति कहल्लात हैं, नमत मोहतम नाश ॥॥ 5» हीं भहूँ विश्वज्योतिषे नमः अध्य० ४१७४७ फरक्ष श्रादि मन इन्द्रियां, हार ज्ञान कछ नाहि। यातें श्रतिइन्द्रिय कहो, जिन-सिद्धांतके माहि ॥; & हुं प्रहूं अतोखियाय नमः श्रध्यें० ॥ १७६॥ झंब्टम जुर | | एक मान असहाय हो, शुंद्ध बुद्ध निर झंडा । केबल तुस्तकों धर्म है, नमें तुम्हें नित 'संत' ७ ३ हो अहूँ केवलाय नम: अध्यं० ॥१७॥ लोकिक ज़न या लोकमें, तुम सारूँ गण नाहि । केवल तुमही में बसे, में बन्द हूं ताहि ७ 55 हीं अह केबलालोकाय नमः अ्य॑० ॥१७८॥ लोक पनन्‍त कहो सहो, तातें नन्‍्तानस्त । है श्रलोक श्रवलोकियो, तुम्हेँ नमें नित 'संत' ॥ 3& हीं अह लोकालोकावलोकाय नमः अध्य । १७६॥ ज्ञान द्वार निज शक्ति हो, फलो लोकालोक । भिन्‍न भिन्‍न सब जानियों, नम्र॒ चरण सब धोक || 55 हों अहँ विशुताय नमः अध्यं० ॥|१८०॥। बिन सहाय निज दाक्ति हो, प्रकटों श्रापोश्राप । स्वयंबुद्ध स्वे-सिद्ध हो, नमत नसे सब पाप ७ # ह्रीं अह' केवलावलोकाय नमः अध्ये० ॥१८१॥ सुक्षम सुमग सुमावतें, मन इन्द्रिय नहिं ज्ञात । वचन पश्रगोचर गुर धरे, नमूं चरन विन-रात ॥ ३ हों मह भ्रव्यक्ताय तमः अध्यें० ॥१८२॥ कर्म उदय दुख भोगवें, सर्व जीव संसार । तिन सबको तुमहो शरण, देहो सुक्स अपार ॥ 5» हों अह सर्वेशरणाय नमः अध्यं ० ॥१८३ । चितवनमें श्राव॑ नहीं, पार न पावे कोय। महा विभवके हो धर्के, नमूं जोर कर दोय ॥ $ हीं भरहं अधितथिभवाव नमः अध्यं ० ॥१८४। छहों कायके बासको, विश्व कह सब लोक ।. लिनके बंभनहार हो, राज काज के जोग थे # हो प्हूँ विश्वभुते नमः पश्रघ्यं० ॥१५४३। “पे | [ हिला विधात घट-घट में राजो सदा, ज्ञान हार सब ठौर। विश्व रूप जोवात्म हो, तीन लोक सिरसमोर ॥ ७ हो प्रहँ विश्वरूपात्मने नमः श्रध्यं० ॥१८६।॥ घट-घट में नित-व्याप्त हो, ज्यों घर दोपषक जोति। विश्वताथ तुम नाम है, पूजत शिवसुख होत ॥ # हों प्रहँ विश्वात्मने नमः प्रध्यं० ॥ १८७॥। इन्द्रादिक जे विश्वपति, तुम पद पूर्ज झ्रान । यातें मुखिया हो सहो, में पूजूं धरि ध्यान ७ ४ हों ध्रह विश्वतेमुलाय नमः भ्रध्यं० ।। १८८॥। ज्ञान द्वार सब जगत सें, व्यापि रहे भगवान । विश्व व्यापि मुनि कहत हैं, ज्यू' नभमें शशि भान ॥ #& हीं अहं विश्वव्यापिने नमः श्रध्यं० ॥१८६॥ निरावरण निरलेप हैं, तेज रूप विख्यात । ज्ञान कला पूरण घरें, में बन्दूं दिन रात ॥ & हीं भ्रह स्‍्वयंजो तिषे नम: भ्रष्यं० ॥१६०॥ चितबन में आव नहों, धारें सुगुणा श्रपार। मन बच काय नम्‌ सदा, सिट सकल संसार ॥ # ह्रीं अहं अचित्यात्मने नमः अध्यें० ॥१६१॥ नय प्रमाणकों गन नहीं, स्वयं ज्योति परकाश । प्रदूभुत गुण पर्याय में, सुखस्‌ करे विलास ॥ ४ ही प्रहे अमितप्रभावाय नमः अध्यें० ॥१९२॥ मतो झादि क्रमवत्त बिन, केवल लक्ष्मीनाथ । महाबोध तुम नाम है, नम्‌ पांय घरि माथ ॥ * हो अर महावोधाय नमः अध्ये० ॥१६३॥ कर्मयोगत जगत में, जोव शक्ति को नाहा। स्वयं बोय भप्रदभुत धर, नम चररण सुखरास ४ % हू अहूँ महावोर्याय नमः श्रध्य ० ॥१६४॥ सध्यण पूछा ]. [ ९६३ छायक स्रब्धि महान है, ताकों लाम लहाय। महालाभ यातें कहीं, बंद तलिनके पाँय 35 हों प्रहई महालाभाय नमः श्रध्यं० ।१९४॥ शानावरणाविक पटल, छायो श्रातम ज्योति । ताको नाश भये विमल, दोष्त रूप उद्योत ॥ & हो प्रह महोदयाय तम: प्रध्यं5 ॥१६६॥ । ज्ञानातमग्व स्व लक्ष्मी, भोग बाधाहीन । पंचम गति में .बास है, तमू जोग पद लीन ॥ % हु महू महाभोगसुगतये नमः भ्रध्यं० ।१६९७॥ पर निमित्त जासें नहों, स्व-झानन्द क्रपार । सोई परमानन्द हैं, भोगें निज पझ्राघार ॥ $5 छ्ों अहूँ महाभोगाय नमः प्रध्यं० ॥१६८॥ वर्श ज्ञान सुख भोगते, नेक न बाधा होय। झतुल वीय॑ तुम धघरत हो, में बंदूं हूं सोय ॥ 5 डॉ श्रह अतुलवीर्याय नमः भ्रध्यं० ॥ १६९ | शिवस्वरूप प्रानन्दमय, क़ीड़ा करत विलास । महादेव कहलात हैं, बन्दत रिपुगण नाश ॥ &% हूं महं यजञाहाय नमः प्रध्यें० ।२००॥। महाभाग शिवगति लहो, ता सम भान न और । सोई भगवत है प्रभू, नम पदास्बुज ठौर॥ ऊ हु अहँ सगवते नमः प्रध्यं० ॥२० ११ तीन लोक के पूथ्य हैं, तोन लोक के स्वासि । कर्म-दात्र को छय कियो, ताते अ्रहत नास ॥ 5 हुं भहूँ प्रह ते नमः अध्यं० ॥२०२॥ सुरनर पूजत चरण युग, द्रव्य श्र जुत भाव । महा-श्र॒घ॑ तुम माम है, पूजत कर्स श्रभाव ॥ # हु भ्रहं महार्धष्याय नमः झरष्य ० ॥२०३॥ ह६० [ सिंडचक व्रिकात शत इल्नन करि पुक्ये हो, अ्रहमिद्रन के ध्येय । द्रव्य-भाव करि पूज्य हो, पुजक पृज्य प्रभेय ॥ ३ हीं प्रहें ममबाचिताय नम्तः श्रध्यं० । २०४॥ छहों द्रव्य गुणप्य को, जानत भेद प्रनन्त । महापुरुष त्रिभुवन धनी, पूजत हैं नित 'संत' ॥ $# हीं प्रह॑ भूतायंयशपुरुषाय नमः भ्रध्यं० ॥२०५॥ तुमसों कछु छाना नहीं, तीन लोक का भेद । दर्षणण तल सम भास है, नमत कर्मंमल छेद ॥ ३5 हो भ्रह भूताय यज्ञाय नमः भ्रष्य ० ॥२०६।' सकल जल्ञेय के ज्ञानतें, हो सबके सिरमौर । पुरुषोत्तम तुम नाम है, तुम लग सबको दौर ॥ 55 हीं श्रहूं भूतार्थकृतपु रुषाय नमः श्रध्यं० ॥२०७॥ स्वयंबुद्ध शिवमग चरत, स्वयं बुद्ध भ्रविरुद्ध । शिवमगचारी नित जज, पावें प्रातम शुद्ध ॥ ४ हों भरहूं पृज्याय नमः भ्रध्य॑० ॥२०८॥। सब देवन के देव हो, तोन लोक के पूज्य । मिथ्या तिमिर निवारते, सुरज श्रौरन बूज ॥ 35 ह्वों अहूं भट्टारकाय नम: अ्रध्यें० ॥॥२०९६॥ सुर नर मुनि के पूज्य हो, तुमसे श्रेष्ठ न कोय । तीन लोक के स्वामि हो, पूजत शिवसुख होय ॥ 35 हों प्रहूँ तत्रभवते नम: भ्रध्यं० ॥२१०॥ महापूज्य महासान्य हो, स्वयं बुद्ध श्रविकार। सन-वच-तन से ध्यावते, सुरनर भक्ति विचार ॥ 35 हीं प्रह अश्रभवते नम: भअध्यं० ॥२११॥ महाज्ञान केवल कहां, सो दोखे तुम मांहि। महा नामसों पूजिए, संसारी दुख नांहि ॥ $ हुं प्रहूं महते नसः अष्य ० ॥२१२॥ अणाज पैसा, ] [ ९४१ पूज्यपणा नहों भ्रोर में, इक तुम हो में जाम । महा भ्रहूं तुम गुण प्रभू, पुजत हो कल्याण ॥ & हो प्रहूं महाहाय गम: अषध्य ० ॥२१३॥ ग्रचल शिवालय के विष, श्रस्षित काल रहें राज । चिरजीबी कहलात हो, बंदूं शिवसुख फांज ७ 5 ही अहूँ तत्रायुषे नमः प्रध्यं० ।।२१४॥ मररणा रहित शिवपद लसे, काल प्रनन्तानन्त । दीर्घायु तुम माम है, बन्दत नित प्रति 'संत' ॥ 35 हूें ्रह दोर्घाधुषे नमः श्रध्यं० ॥२१५७ सकल तत्व के श्र कहि, निराबाध निरशंस । धर्म मार्ग प्रगहाइयो, नसत मिर्ट दुख प्रंश ॥। & हुं प्रहूं अथवा नमः अध्यं० ॥२१६॥ मुनिजन नितप्रति ध्यावतें, पार्वे निज कल्याण । सज्जन जन आराध्य हो, में ध्याऊं धरि ध्यान ॥॥ 5» हों प्रहें सल्जनवल्लभाय नमः श्रध्यं० ॥२१७॥ शिवसूख जाको ध्यावतें, पावें सन्त मुनोन्‍्द्र । परमाराध्य कहात हो, पायो नास श्रतोन्द्र ॥ ४» हीं प्रहें परमाराध्याय नमः प्रध्य ० ॥२१८।॥ पंचकल्यार प्रसिद्ध हैं, गर्भ श्रादि निर्वाण । देवन करि पूजित भये, पायो शिव सुख थान ॥ 55 हं भ्रहँ पंचकल्याणपुजिताय नमः भ्रध्यं० ॥२१६॥ देखो लोकालोक को, हस्त रेख को सार। इत्यादिक गुरा तुम वि्ें, दोखे उदय झपार ॥ 55 ही अहँ दर्शनविशुद्धिगुणोदयाय तम्रः श्रध्यै० ॥२२०॥। छायक समकित को धरे, सौधर्मादिक इन्द्र । तुम पूजन परभावतें, प्रन्तिम होयष जिनेन्द्र ॥ # हुं प्रहूं सुराचिताय नमः भ्रध्यं० ॥२२१॥ श्षर ] [ सिद्ध छुआ विधाव निविकल्प शुभ चिन्ह है, वोतराग सो होय । सो तुम पायो सहज ही, नमूं जोर कर दोय ७ # ही अहूँ सुखदात्मने नमः श्रध्यं० ।२२२।॥ स्वर्ग श्रादि सुख थान के, हो परकाञश्नन हार। दीप्त रूप बलवान है, तुम मारग सुखकार ॥ # हों भ्रहें दिवोजसे नमः प्रध्यं० ॥२२३॥ | गर्भ फल्याणक के विष, तुम माता सुलकार। बट कुमारिका सेवतो, पार्व भव दधि पार॥ # हो भहँ शचोसेवितमातुकाय नमः झष्य ० ॥२२४॥ ध्ति उत्तम तुम गर्भ हैं, भवदुख जन्म निवार | रत्तराशि दिवलोक तें, वर्ष मृूसलधार ॥ ४ हो प्रहूं रत्नगर्भाय नम: प्रध्यं० ॥२२५॥। सुर शोधन तें गर्भ में, दर्पण सम झ्राकार। यों पवित्र तूम गर्भ हैं, पाव शिव सुख सार ॥ छ ह्रीं भ्रहूँ पुृतगर्भाय नमः अध्यें० ॥२२६॥ जाके गर्भागमन तें, पहले उतसव ठान । दिव्य नारि मंगल सहित, पुजत श्री भगवान ॥ % हो अह गर्भोत्सवसहिताय नमः अष्यें० ॥॥२२७॥ नित-नित प्रानन्द उर धर, सुर सुरीय हरषात । संगल साज समाज सब, उपजावबें दिन-रात ७ $* ह्लीं अहँ नित्योपचा रोपच्चरिताय नमः अध्यं० ॥२२८५॥ केवलज्ञान सु लक्ष्मी, घरत महा विस्तार । चरराकमल सुर मुनि जज, हम पूजत हितधार ॥ 39 हू झहूँ पद्मप्र भवे नमः अध्यें० ॥॥२२६॥ तिहुंबिध विधिमल धोयकर, उज्ज्वल निर्मल होय। शिव भ्रालय में बसत हैं, शुद्ध सिद्ध हैं सोय ॥ # हु अहूँ स्वयंत्वधावाय नमः ध्यें० ॥२३०॥। ह अध्टय पृथ्रा | भ्रसंख्यात परदेश में, प्रन्य प्रदेश न होय ३ स्वयं स्वभाव स्वजात हैं, में प्रशमामी सोय ॥ ७ हु भ्रहू स्वयंस्व भावाय नमः अध्यं० । २३१॥ पृज्य यज्ञ आराधना, जो कुछ भक्ति प्रमाण । तम ही सबके मूल हो, नमत अ्रमंगल हान ४ # हीं भ्रहूं सवोयजन्मने नमः भ्रध्यं० ॥२३२॥ सूर्य सुमेह समान हो, या सुरतरु की ठौर । महा पुन्य को राशि हो, घिद्ध नमूं कर जोर ॥ 5 हो पहेँ पुण्यांगाय तम्ः अ्रध्यं० ॥२३३॥ ज्यूं सुरज मध्यान्ह में, दिप अ्रनंत प्रभाव । त्यों तुम शानकला दिपें, घिथ्या तिमिर ग्रभाव ॥ ४ हीं भ्रहें भास्वते नमः प्रध्य ० । २३४॥ चहुँविधि देवन में सदा, तुम सम देव न प्रान । निजानंद में केलिकर, पुजत हूं धरि ध्यान ५ > हों भरहें अ्रद्भुतवेवाय नम: अ्रध्य ० ।२३५॥। विद्वव ज्ञात युगपत धर, ज्यूं दर्पण प्राकार । स्‍्वपर प्रकाशक हो सही, नम भमक्तित उरधार ॥ 5 हो प्रहेँ विश्वशातृसम्भते नमः अच्य ० ॥२३६॥। सत-स्वरूप सत-ज्ञान है, तुम्र हो पूज्य प्रधान । पूजत हैं नित विश्वजन, देव मान परमान 0 ३ ह्वी प्रहें विश्ववेवाय नमः अध्य ० ॥२२७॥। सृष्टि को सुख करत हो, हरत दुकल भववास । मोक्ष लक्षमी देत हो, जन्म-जरा-भमत नास ॥। 5 कली अहँ सष्टिनियं साथ नमः श्रध्यं० ।१२६८।॥ इन्द्र सहस लोचन किये, निरखत रूप झपार । सोक्ष लहे सो नेमतें, में पूजूं मनधार ॥ 5 हो प्रहूँ सहत्नाववुगुर्पाय तमः भ्रष्य० ।॥२३६॥ | २३६३ शश्ड | [ सिदचआ विधात संपूररण् निज शक्ति के, है परताप श्रतन्‍्त । सो तुम विस्तीरण करो, नमें चरण नित सन्त ॥॥ 5 हीं अहँ सर्वेशक्तये नमः प्रघ्यं ७ ॥॥२४०॥ ऐरावत पर रूढ़ हैं, बेव नुत्यता मांड । पूजत है सो भक्ति सों, मेटि भवारांव हांड ॥ &# ह्वीं अहूँ देवराबतासोनाय नमः प्रध्यें० ।२४१॥ सुर नर चारण मुनि जज, सुलभ गसन प्रकाश । परिपूरण हर्षात हैं, पुरें मन की प्रात ७ 5 ह्रीं अहूँ हर्षाकुलाम रखगाजारणबिमतोत्सवाय नमः भ्रध्यें० ॥२४२॥ रक्षक हो घट काय के, दग्णागति प्रतिपाल । स्बंव्यापि निम-ज्ञानतें, पुजत होय निहाल ॥ 55 हों अहूँ विष्णवे त्मः प्रध्यें० ॥२४३।। महा उच्च आसन प्रभु, है सुमेर विस्यात । जम्माभिषक सुरेन्द्र करि, पूजत मन उमग्रात ॥ # ही अहूँ स्नामरोठतादुसराजे नभः अध्यें० ॥२४४।॥। जाकरि तरिए तीथं सो, मानें मुनि गरण सान्‍्य । तुम सम कोन जु श्रेष्ठ है, अ्रस॒त्यार्थ है श्रन्य ॥। ४5 हों अहूँ तोथंसामान्यदुग्घाव्धये नम: अ्रध्यं० ॥२४५॥ लोकस्नान गिलानता, मेरे भले छशरोर । आतम प्रक्षालित कियो, तुम्हों ज्ञान सु नोर ॥ 3 ह्रीं अहूँ स्तानास्व स्वावातथाय नन्न: भ्रध्यं० ।६४६।॥ तारस तरण सुभाव हैं, त्तीन लोक विर्यात । ज्यू सुगंध चम्पाकलो, गन्धमई कहलात ॥ 3 हों ग्रह गन्धपवित्रिततिलोकाय नम: प्रध्य॑० | २४७॥। सक्षम तथा स्थूल में, ज्ञान कर परवेश्ञ । जाको तुम जानों नहीं, खालो रहो न देश ॥ ४ हों प्रहँ वच्नयूचये नमः भ्रध्यं> ॥२४८॥ श्रष्टभ पूथा | [११५ झोरन प्रति श्रानंद करि, निर्मल शुचि ध्राचार । झ्राप पविश्र भये प्रभू, कंस धूलि को टार ॥ 3» हीं भ्रह शुचिध्वसे नमः भ्रध्यं० ॥२४६। कर्मों करि किरतार्थ हो, कृत फल उत्तम पाय । कर पर कर राजत प्रभू, बंदूं हें युग पाय ॥ ४ हों अह कृतार्थकृतहस्ताय नमः श्रष्यें० ॥२५०॥ दर्शन इन्द्र श्रघात हैं, इृष्ट मान उर भांहि । कर्म नाशि शिवपुर बसे, में बंदू हूं ताहि ॥ # हों श्रहँ शक्रेष्टाय नमः भ्रध्यं० ॥२५१॥। मधवा जाके नृत्य करि, ताक तृष्ति महान । सो में उनको जजत हूं, होय कर्म को हान ॥ #9 हर बहू इन्द्रन॒त्यतृप्तिकाय नमः अध्यं० ॥२५२॥ शी इन्द्र श्रर काम ये, जिन दासन के दास । निशचय मनमें नमन कर, नित बंदित पद जास ॥ $ हों भहेँ शयोविश्मापिताय नमः अध्यें० ॥२५३।। जिनके सनमुख नृत्य करि, इन्द्र हंप॑ उपजाय । जन्म सुफल मानें सदा, हम पर होय कहाय ॥ 5 हो अह शक्ारब्धानंदनृत्याथ नमः अध्यं० ।!२४०॥। धन सुबरणं तें लोक सें, प्रणा इच्छा होय । चक्रवर्तों पद पाइये, तुम पूजत हैं सोय ॥ # हीं अहँ रेदपुर्ण मनोरथ।य नमः भ्रष्य ० ॥२५५॥ तुम श्राज्ञा में हें सदा, श्राप सनोरथ खान । इन्द्र सदा सेवन करें, पाप विनाशक जाने ॥ # हीं भ्रहं आशार्थल्रकृतसेबाय नस: प्रध्यं ० ।।२५६॥ सब देवन में श्रेष्ठ हो, सब देवन सिरताज । सब देवन के इष्ट हो, बन्दत सुलम सुकाज ॥ 2४ हुं प्रहूं देवश्रेष्लाय नमः भ्ष्ये० ४२५७॥॥ १९६ ! [ सिदचक्र विधान तोन लोक में उच्च हो, तोन लोक परशंस । सो शिवगति पायो प्रभू, जजत कर्म विध्यंस ७ 5 ह्रीं हूँ शिवोद्यमानाय नमः प्रध्यं० ।२५८।॥। जगत्पूज्य शिवनाथ हो, तुम ही व्रव्य विशिष्ट । हित उपदेशक परमगुरू, मुनिजन माने इष्ट ॥। &# ह्वीं अहू जगत्पुज्यशिवनाथाय नमः प्रष्य ० ।:२५६।॥ - मति, श्रुत, भ्रवर्ण को, नाश कियो स्वयमेव । केवल ज्ञान स्वत लियो, श्राप स्वयंभ्‌ देव ॥ #* ह्लीं अहू स्वयंभवे नमः ग्रष्यं० ।॥२६०॥ समोसरर श्रदभुत महा, और लहैे नहीं कोय । धनपति रचो उछाह सों, मैं पूजूं हें सोय ७ # ह्वों अहूं कुबेर रचितस्थानाय नमः अध्यें ० ।!२६१.। जाको अन्त न हो कभी, ज्ञान लक्षमी नाथ । सोई शिवपुर के धनो, नमृ भाव धरि माथ ॥ 5 हों अहूँ अनन्तश्रीजुषे नमः भ्रध्यं० ।।२६२॥ गराधरादि नित ध्यावते, पावें शिवपुर वास । परम ध्येय तुम नाम है, पूर मन की श्राश ॥। % हीं प्रहं योगीशवराचिताय नमः श्रष्यं० ॥॥२६३॥ परमब्रह्म का लाभ हो, तुम पद पायो सार । त्रिभुवन ज्ञाता हो सही, नय निशचय-व्यवहार ॥॥ 5 हीं अ्रह अहम विदे नमः प्रध्यं० ।२६४।। स्व सत्त्वके श्रादिमें, ब्रह्म तत्व परधान । तिसके ज्ञाता हो प्रभु, में बंदू धरि ध्यान! 55 हीं भ्रहेँ ब्रह्मतत्वाय नपः अध्यं० (२६४॥ द्रव्य भाव हे विधि कही, यज्ञ यजनकी रीति । सो सब तुमहों हेत हैं, रचत नर सब भीत ॥॥ # हो अहुँ यत्यतये तमः प्रध्यं० २६६॥ धन वृष | महादेव दिवनाथ हो, तृमको पूजत सोक १ में पज्‌ हैं माव सों, सेटो सतको ज्ञोक ॥ 3४ हो अहूं शिवन(थाय नमः प्रध्यं० ।२६७॥ कृत्य भये निज भाव में, सिद्ध भये सब काज । पायो निज पुरुषा्थंको, बंदू' सिद्ध समाज ॥ 35 हों अहं कृतक्ृत्याय नमः प्रघ्यं० ।।२६८॥ यज्ञविधान के अंग हो, मुख नामी परधान । तुम विन यश न हो कभी, पूजत हो कल्पान ॥ 5 हूं भ्रहँ यज्ञांगाय नमः अध्यं० ।२६६ । सरण रोग के हररण से, श्रमर भये हो श्राप । शरणागतिको श्रमरकर, श्रमत हो निष्पाप ॥ 5 ही अहं अमृताय नमः श्रध्यं० ॥२७०॥। पूजन विधि स्थान हो, पूजत शिवसुख होय । सुरनर नित पूजन करें, मिथ्या मतिको खोय ॥ 5 हीं अह यज्ञाय नम: भ्रध्यँ० ॥॥२७१॥ जो हो सो सामान्य कर, धरत विशेष श्रनेक । वस्तु सुभाव यही कहो, बंदू सिद्ध प्रत्येक ॥ 5 हों भहं वस्तृत्पादकाय नमः अध्यं० ॥२७२॥ इन्द्र सदा तुम थुति कर, मनमें भक्ति उपाय । सर्वज्ञासत्र में तुम थति, गरणाधरादि करि गाय ॥ # ही भहूँ स्तुतीशब राय नमः भ्रष्य ० ॥२७३॥ मगन रहो निज तत्त्वमें, व्रव्य साव विधि नाश। जो है सो है विविध विध, नम्‌ भ्रचल ध्रविनाश ॥ 5» ह्लीं अहँ भावाय तमः अध्यें० ॥२७४॥ तीन लोक सिरताज हैं, इन्द्रादि करि पूज्य । धर्मनाथ प्रतिपाल जग, झ्ौर नहीं है दृज्य ॥ 39 छ्री प्र महपतये तमः प्रध्यें० ।॥२७५॥ [ ३७ १्श्ब] [ सिड शक् विज्ञान महाभाग सरधानतें, तुम अतुभव करि जोब । सो पुनि सेवत पाप लम, निजसूख लहैं सदोव ॥ 5* हीं भ्रह॑ महायशाय नथः प्रध्ये० ॥२७६॥ यक्ष-विधि उपदेशमें, तुम श्रग्नेर जान । यज्ञ रचावनहार तुम, तुम ही हो यजमान ॥ & हों भहूँ प्रगरयाजकाय नम्र: अध्यें० ॥२७७॥ तीन लोकके पूज्य हो, भक्तिभाव उर धार। धर्मे-प्र्थ श्ररु समोक्षके, वाता तुम हो सार ॥ # हीं भ्रहू जगत्पूज्याय नमः श्रध्यं० ॥२७८।। दया मोह पर पापतें, दूर भये स्वतंत्र । ब्रह्मजानसे लय सदा, जपू नाम तुम मंत्र ॥ ३ हों प्रहँ दयापराय नमः श्रध्य॑ं० ॥२७६।॥ तुम ही पूजन योग्य हो, तुम ही हो श्राराध्य । महा साधु सुख हेत॒तें, साधे हैं निज साध्य ॥ # हीं श्रहूँ पृज्याहाय नमः भ्रध्यं० ॥२८०॥॥ निज पुरुषारथ सघनको, तुमको भ्रच॑त जक्त । मनवांछित दातार हो, शिव सुख पार्व भक्त ॥ ४ हों झरहँ जगदाचिताय नमः श्रध्यं० ॥२८१॥ ध्यावत हैं नितप्रति तुम्हें, वेव चार परकार । तुम देवनके देव हो, नम भक्ति उर घार ॥ ३ हीं भ्रहूँ देवाधिदेवाय नम: श्रष्यें ० ॥२८२॥ इन्द्र समान न भक्त हैं, तुम समान नहों देव । ध्यावत हैं ब्ित भावसों, मोक्ष लहें स्वयमेव ।॥ 85 हों प्रहँ शक्राच्चिताय नम: प्रध्यं० ॥२८३॥ तुम देवव के देव हो, सदा पुजने योग्य । मे पुजत हैं भावसों, भोगे शिवसुख भोग ॥ # हीं श्रहूं देवदेवाय नमः भ्रध्य ० ॥२८४॥ स्रध्ट्मापूणा | [१४६ तोन लोक सिरताज हो, तुम से अड़ा न कोय । पे सुरनर पशु खग ध्यावले, दुविधा सन को खोय ७ ४5 हु भ्रहेँ जगरगुश्वे नमः अध्य० ॥२८४॥ जो हो सो हो तूम सही, नहीं समभमें क्राय । सुरनर मुनि सब ध्यावते, तुम वाशीको पाय ॥ # छो श्रहूँ वेवसंघाचारयाय नम: अध्ये० ॥२८६॥ ज्ञानानन्द स्वलक्षमो, ताके हो भरतार। स्वसुगंध वासित रहो, कमल गंध को सार ॥ 3+ ह्रीं अहँ पद्मतन्वाय नस: अछ्ये ० ।।२८७॥। सब कुथादि वादी हते, बज्च शैल उनहार । विजयष्वजा फहूरात हैं, बंदूु भक्ति विचार ॥ 5 कीं अह जमध्वजाय नमः भ्रध्यं० ॥२८८॥ वक्चों दिशा परकाश हैं, तिनकी ज्योति श्रमंद । भवक्जिन कुमुद विकास हो, बंदू पुूरशाचन्द ॥ क# हुं भ्रहूं भामण्डलिने नमः अध्यं० ॥।२८६.। चसम रनि करि भक्ति करें, देव चार परकार । यह विभूति तुम ही विष, बंदूः पाप निवार ॥ 5 हों अहं चतु:षष्टीचामराय नमः प्रघ्यें० ॥ २€०॥। देव दुदुभी शब्द करि, सदा करें जयकार। तथा श्राप परसिद्ध हो, ढोल दब्ब उनहार ॥ 35 हों अहूँ देवहु दुर्भिये नमः भ्रध्यं० ॥२६१॥। तुम्र वाणी सब मनन कर, समभत हैं इकसार । ग्रक्षरार्थ नहीं भ्रम पड़े, संशय मोह निवार ॥ ३ हीं प्रहें वादस्पष्राय नमः अ्रध्यं० २६२ । धनपति रचि तुम श्रासनं, महा प्रभूता जान । तथा स्व-प्रासन पाइग्ो, श्रचल रहो शिवथान ।॥। #9 हों भरहुँ लब्धासनाय नमः अध्यं० ॥२६३॥ १०० ] [ सिदणक्क विधा तीन- लोकके नाथ हो, तोन छतञ्र विख्यात । भव्य-जीव तम छाहमें, सवा स्व-प्रानंद पात ॥ #* हो झहेँ छत्रत्रपाय नमः प्रध्यं०२६४॥ पुष्प वृष्टि सुर करत हैं, तोनों काल मंभझार । तुम सुगंध बशविद् रमी, भविजन भ्रमर निहार ॥ 35 हो प्रहें पृष्पवृष्टये नमः अध्यं० ।२६५॥ देवन रचित श्रशोक है, व॒क्ष महा रमणीक । समोसररशा शोभा प्रभु, शोक निवारण ठोक ॥ 5 हों प्रहूँ विध्याशोकाय नमः अध्यें ० ॥२६६॥ मानस्तम्मभ निहारके, कुमतिन समान गलाय। समोसररप प्रभुता कहे, नम भक्तित उर लाय ॥ # हों प्रहेँ मानस्थम्भाय नमः भ्रध्यं० १२६७ स्रदेवी संगोत कर, गाव शुभ गुण गान । भक्ति भाव उरमें जगे, बंदत श्री भगवान ॥। * हुं झ्हूँ संगीताह(य नमः अध्यें० ।२€८॥। मंगल सूचक चिह्न हैं, कहे श्रष्ट परकार । तुम समीप राजत सदा, नम श्रमंगल टार ॥ & हीं प्रहेँ अष्टमंगलाय नमः श्रध्यं० ॥२६६९॥ भविजन तरिये तोर्थ सो, तुम हो श्रीभगवान । कोई न भंगे श्रान जिन, तीथंचक्र सो जान ॥ % हूं भहूँ तोर्थंचक्र्वातने नम: अध्ये० ॥॥३००।। सम्यग्द्शन धरत हो, निशचे परमावगाढ़ । संशय प्रादिक सेटिके, नासो सकल विगाढ़ ॥ 5 हुं श्रहूं सुदर्शनाय नमः भ्रध्यं० ३०१) कर्त्ता हो शिव काजके, ब्रह्मा जगकी रीति । वर्णाअसमको मापक, प्रकटायों शुभ मोति 0 2 ही अह कन्ने नमः श्रध्यं० ॥३०२॥ प्रकेश पूछा |... [ ३०१ सत्य श्रर्म प्रतिपालक्रे, पोषत हो संसार । यति श्रावक्र दो धर्सके, भये लाथ सुखकार ॥ # हु भहूं तोषंभज् तमः झध्यं० ।३०३॥ धमंतीर्थ मुनिराज हैं, तिनके हो तुम स्वासि । धर्म नाथ तुम जानके, नितप्रति करूं प्रखाध 0 5» ही अहूँ तोथंशाय नमः पअ्रध्य०;।३०४॥ लोक तोयथ में गिनत हैं, धर्मतीयं परधान । सो तम राजत हो सदा, में बन्दू धरि ध्यान ॥॥ % हों भ्रहू बर्मतोीथंक राय नमः भ्रष्य० ॥३०५॥ तुम बिन धर्म न हो कभी, ढूंढों सकल जहान । दश-लक्षण स्वधर्मके, तोरथ हो परधान ॥ # हुं भ्रहूं भमंतोभयुताय नमः अध्य० ॥३०६॥ धर तोथं करतार हो, शक्रावक या मुनिराज । दोनों विधि उत्तम कहो, स्वर्ग सोक्षके काज ॥ % हुं भहूं धर्मतीभजूराय नमः प्रध्यं० ।!३०७॥ तससे धर्म चले सदा, तुम्ही धर्मके मूल । सुरनर भुतनि पूर्ज सदा, छिदाह कमके शूल ॥ & हीं भहूँ तोर्षप्रवत्तेकाय नमः झध्य ० ॥३०८॥ धर्मनाथ जगमें प्रगट, तारण तरण जिहाज । तीन लोक श्रधिपति कहो, बन्दू सुखके काज ॥ 5 हु भहं तोभ॑वेघसे नमः भ्रध्यं० ॥३०९॥ श्रावक या सुनि धर्मके, हो दिखलावनहार। प्रम्य लिंग नहीं धर्ंके, बुधजन लखो विचार ॥ # हुं प्रहूं तोयंविधायकाय नमः भ्रध्यं० ॥३१०॥। स्वर्ग मोक्ष दातार हो, तुम्हों मार्ग सुखबान । पग्रग्य कुभेषिनमें नहीं, धर्म ययारथ ज्ञान ॥ # हूं भहूं सत्यतोंकराय नमः अध्य० ॥३११९॥ २०२ | |! सिदचक्त चिलार्थ सेवन योग्य सु जगतमें, तुम्हीं तीथं हो सार । सुरनर मुनि सेवन करें, में बन्दू सुखकार ॥ *# ह्लीं अहूँ तोयसेव्याय नमः श्रध्यं० ॥२१२॥ भवि समुद्र मकसे तिरें, सो तुम तीर्थ कहाय । हो तारस तिहुंलोक में, सेवत हूं तुर पाय ॥ ३5 हो भहूँ तोथंतारकाय नम: पभ्रष्यं० ॥३१३॥। स्व श्र्थ परकाश करि, निर इच्छा तुम बन । धर्म सुमार्ग प्रवर्तंको, तुभ राजत हो ऐन ॥ &४ हीं अहूँ सत्यवाष्याधिपाय नम: अ्रष्यं० ॥३१४॥ धर्म मार्ग परगट करें, सो शासन कहलाय । सो उपदेशक श्राप हो, तिस संकेत कहाय ॥ ३ ह्वीं अहूँ सत्यशासनाय नमः अध्यें० ॥३१५॥ ग्रतिशय करि सर्वत्ष हो, शानावरण विनाश । नेभरूप भचि सुनत ही, शिवसुख करत प्रकाश ॥ # ह्वी अरहूँ अप्रतिशासनाय नमः श्रध्य॑ं० ॥३१६॥ कहें कथज्चित धर्मको, स्थात्‌ वचन सुखकार । सो प्रमाणत साधियो, नय निश्चय-व्यवहार ॥ $ हवीं प्रहूं स्थाह्ादिने नमः श्रध्यं० ॥३१७॥ निर भ्रक्षर वाणी खिरं, दिभ्य मेघ की गज । अ्स्‍रक्षरार्थ हो परिरावे, सुन भव्यत मन श्रज्जं ॥ 5 हुं प्रहें दिव्यध्वनये नमः अ्रध्णे० ॥।३ (८।। नय प्रमाण नहीं हतत हैं, तुम परकाशे श्रथं। शिवसुखके साधन विषें, नहीं गिनत हैं व्यर्थ ॥ #& हीं बहू प्रव्याहतार्थाय तमः प्रच्यें० ॥।३१६॥ करं पविन्न सु आत्मा, अशुभ कमल खोय । पहुंचाबे ऊंची सुगति, तुम दिखलायो सोय ४ # हुं परहू पृण्यवाे नमः अ्रध्यें० ॥३२०॥। अंब्यस पूणा ] [ २०४ तत्वारभ तुम भासियों, सम्यक विशें प्रधान । मिथ्या जहर निकररा, भ्रमृत पान समान ॥ 35 छों जहूँ अर्थवाये नमः प्रध्यं० ।३२१॥ देव श्रतिशयतों लिरत ही, श्रक्षरा्थ मय होय । विव्यध्वनि निमभुचयकरं, संक्षय तसको खोय ७ $ हीं अहँ अद्धंसागधोयुक्तमे नमः अध्यं० ॥३२२।। सब जीवनको इष्ट है, मोक्ष निजानन्द वास । सो तुमने दिखलाईयो, संक्षय मोह विनाश ॥ & हीं अहेँ इष्टवाचे नमः प्रध्यें० ॥३२३।॥ नय प्रमाण ही कहत हैं, द्रव पर्याय सु भेद । अनेकान्त साथे सही, वस्सु भेद निरखेद ४ 35 छो अहूँ अनेकान्तदशिने नम: अध्यं० ॥३२४॥ दुनंय कहल एकांतको, ताको भ्रनन्‍्ल कराय। सम्यकमति प्रकटाइयो, पूजूं लिनके पाँय ॥ <* ही अहूँ ढुने पतकाय मम्ः अध्यें० +,३२५। एक पक्ष मिथ्यात्व है, ताको तिमिर निवार । स्थाद्राद पम न्याय तें, भविजन तारे पार ॥ ४ हों अहूँ एकरलध्वांतनिदे नसः अध्यं०। ३२६। जो है सो निज भाकसें, रहे सदा निरवार। मोक्ष साध्यमें सार है, सम्यक विष भ्रपार ॥ % हीं अहूँ तत्त्वब्राचे नमः अध्य ० ।३२७। निज गुरपत निकले परयायमें, सदा रहो निरभेद। घुद्ध बुद्ध भ्रव्यकत हो, पूजूं हूं निरखेद ॥ & हूं भहूँ प्रथवकुले नमः अध्यं० ॥३२८॥ स्यात्कतार उद्योतकर, वस्तु धर्म निरशंस। ताधु ध्वजा निर्विध्नको, भायों विधि विध्यंस ॥ ब््ह्ों अहूँ स्पात्का रध्वजाबाचे नमः प्र्य० ॥ ३२६॥ शै०्ड ] [ सिद्ध जक्र वियांत परम्परा इह धर्मको, उपदेक्षो श्रुत हार । भवि भव सागर-तोर लह, पायो शिवसुखकार ॥ # हों भ्रहूँ बाचे नमः अ्रध्ये० ।३३०।॥) द्रव्य हृष्टि नह पुरुषकृत, है प्रनावि परमान । सो तुम भाष्यों हैं सही, यह पर्याय सुजान ॥ &# हों प्रहें अपो रुषेयवाचे नम: प्रध्यं० ॥३३१।॥ नहीं चलाचल होठ हों, जिस बाणी के होत । सो मैं बन्दू' हों किया-मोक्षमार्ग उच्चोत ॥ &# हों भ्रहूँ अच लोष्ठवाचे नम: भ्रध्यं० ॥३३२॥ तुम सन्‍्तान भ्रनावि है, शाइबत नित्य स्वरूप । तुमको बन्दू भावसों, पाऊं शिव-सुख कूप ॥ + हुं प्रहें शाश्वताय नमः झष्य ० ॥३३३॥ होनादिक वा श्रौर विधि, नहीं विरुद्धता जान । एक रूप सामान्य है, सब ही सुख को खान ॥ # हुं भहूँ अविरद्धाय नमः धध्यं० ॥३ २४॥ नय विवक्ष तें सघत है, सप्त भंग निरबाध । सो तम भाष्यो नमत हूं, वरतु रूपको साध ॥। » हुं प्रहूँ सप्तभंगीवाचे नमः भ्रध्यं० ॥३३५॥ भ्रक्षर बिन वाणी खिरे, सर्व श्रथं करि युक्त । भविजन निज सरधानतें, पार्वे जगतें मुक्त ॥ %% हीं भ्रहँ अवरणोगिरे नमः अध्यं० ॥३३६॥ क्षद्र तथा अक्षुद्र मय, सब भाषा परकाश। तुम सुखतें खिरकें कर, भर्म तिमिरको नाश ॥ & हुं भ्रहूँ सर्वेभाषासयगिरे नमः भ्रध्य ० ॥३३६॥ कहने योग्य समर्थ सब, श्र कर परकाश । तम वबारपी सुखतें खिरे, करे भरम-तम नाश ॥ 9 हु भहूँ व्यक्तिगिरे नसः अध्यं० ॥३३८॥ प्रह्यन्न पूछा ह| .. [०६ तुम वारो नहों व्यर्थ है, भंग कभी नहीं होय । लगातार मुखत खिरे, संशय तपको खोय ॥ 9 हो झहहेँ अमोघवाचे नमः भ्रध्यं० ।।३३६।॥ वस्तु भ्रनन्‍्त पर्षाय है, वचन अभ्रमोचर जान । तुप विशनाये सहत हो, हरो कुपति मनिरात 0 # हो श्र अवाच्यानन्तवाले नमः प्रघ्यं० । ३४०॥ बचत भ्रगोचर गुरण धरो, लहैं न गणधर पार । तुर्र महिमा तुमहों विष, मुझ तारो भवपार ॥। क हों भ्रह अवाचे नमः भ्रध्यं० ।३४१॥ तुम सम वचन न कहि सके, झसतमतोी छद्मस्थ । धर्म मार्ग प्रकटाइयो, मेटी कुमति समस्त ॥। ३5 हो प्रहं अठ्े तगिरे नमः श्रध्य ० ॥ ३४२।' सत्य प्रिय तुम बेन हैं, हित-मित भविजन हेत । सो मुनिराज तुम ध्यावते, पार्वे शिवपुर खेत ॥ &# हों भ्रहूं सुनतगिरे नमः श्रध्यं० ॥३४३।। नहों साँच नहीं झूठ है, अनुभव वचन कहात । सो तीर्थंकर ध्वनि कहो, सत्यारथ सत बात ॥ # ह्रीं प्रहूं सत्यानुभयगिरे नमः अ्रघ्ा ० ॥।३४४)। सिश्या श्र प्रकाश करि, कुगिरा ताकों नाम । सत्यारथ उच्योत कर, सुगिरा ताको नाम ॥ 3» हीं अहू सुगिरे नम: प्रध्यं० ॥३४५॥ योजन एक चहूं दिशा, हो वाणी विस्तार। श्रवरण सुनत भविजन लहें, भ्रानन्‍्द हिये झपार ॥ & हीं भहं योजनव्यापगिरे नम: भ्रध्य॑० ।३४६॥ निर्मल क्षीर समान हैं, गौर हवेत तुम बेन । पाप सलिनता रहित हैं, सत्य प्रकाशक ऐन ॥ % हुं प्रहँ क्षीरगोरगिरे नम: प्रध्यें० ॥ ३४७॥ २०६ [ तिदचक विधान तोथं तत्व जो नहीं तजें, तारण भविजन वान । यातें तोथंकर प्रभू, नमत पाप भले हाने ॥ 3 हीं ग्रह तोयंतत्वगिरे नस: अहेवे ० ।।३४८।! उत्तमार्थ पर्याय. करि, आंत्मंतत्व की जातें। सो तुम सेत्यारथ कहो, मुति जन उत्तम मात ॥। $# हुं भ्रह पराथंगवे ममः भ्रध्यं>० ॥३४६॥ भव्यनिकों श्रवणनि सुखद, तुम वांरी सुख देंने । में बंद! हूँ भाव सों, धर्म बतायो ऐन।॥ 55 हीं प्रहें सव्येकश्वणगिरे नमः अध्ये० ॥३५०॥। संशय विश्रम मोह को, नाश करो निमुल। सत्य वचन परमाण तुम, छेदव भिथ्या शूल ॥ 35 हों अहूँ सदगवे नमः अध्य॑० ॥३५१।॥ तुम वाणो में प्रकट है, सब सासान्य विशेष । नानाविधि सुन तक में, संशय रहे ने शेष ॥। 35 हीं अहूँ चित्रगवे नमः अच्य ० ॥३५२॥ परम कहे उतकृष्टको, श्रर्थ होष गम्भोर । सो तम वाणी में खिरे, बन्दत भवदधि तोर ॥ 3 हों अहूँ परमार्थगवे नमः अझष्य ० ॥३५ ३।। मोह क्षोम परज्ञान्‍्त हो, तुम बाणी उरधार। मविजन को संतुष्ट कर, भव आश्राताप निवार ॥ ३> ह्वीं अहूँ प्रशांतगवे नमः श्रघ्यं० ।।३५४।। बारह सभासु प्रइदन कर, समाधान करतार। मिथ्यामति विध्यंस करि, बन्दूं मनमें धार ॥ 5» हीं अहूँ प्राइनकगिरे नमः भ्रध्यं० ॥३५४५॥ महापुरुष महादेव हो, सुर नर पूजन योग। वाणी सुन मिथ्यात तज, पायें शिवसुख भोग ॥ # हो प्रहूं य/ज्युभ्गुतये नमः ब्रष्यं० ॥३५६॥ श्रव्यन पूजा ] [ २०७ शिव सग उपदेशक सुश्रत, मन में प्र्थ विचार । साक्षात्‌ उपदेश तुम, तारे भविजन पार ॥ 85 हु झहँ दुधुतये नम: भ्रध्यं।३५७॥ तुम समान तिहुं लोक में, नहीं भ्रं परकाज्न । भविजन सम्बोधे सदा, मिथ्यामति की नाश ॥। # डी भहँ महाभ तये नमः अच्चे० ॥३५८॥ जो निजात्म-कल्याश में, बरत॑ सो उपदेश । धर्म नाम तिस. जानियो, बंन्दूं चररा हमेश ॥ # हो प्रहं धर्मश्न्‌ तये नमः श्रष्यं० ।३५६।। जिन शासन के भ्रधिपति, शिवमारग बतलाये। वा भविजन संत्ष्ठ करि, बन्दू' तिनके पांय ॥ #* ह्रीं अहूँ श्र्‌तपतये नमः प्रध्य॑ं० ॥॥२६०॥ धारण हो उपदेश के, केवल ज्ञान संयुक्त । शिव मारग दिखलात हो, तुमको बन्दन युक्त ॥ # ही अहूँ भ्‌ तधुताय नमः अध्ये ० ॥३६१।' जंसो है तेसो कहो, परम्पराय सु रीत। सत्यारथ उपदेश ते, धर्म मार्ग की रोत ॥ 55 हीं अहँ भुवभ तये नमः अध्यं० ॥३६२॥। मोक्ष साग॑ को देखियो, औरन को दिखलाय । तुम सम हितकारक नहा, बन्‍्दूं हूं तिब पांय ॥ # हीं अह निर्वाणमार्गोपदेशकाय तमः अध्यें० ३२६३१ स्वर्ग मोक्ष मारग कहो, यति आवक को धर्म । तुमको बन्दत सुख महा, लहे ब्रह्म पद प्म ।॥। 8४5 छ्ीं अह यतिश्रावकमार्ग देशकाय नमः अध्य । ३६४।॥ तत्व प्रतत्वसु जानियो, तुम सथ हो परतक्ष । चविज-पध्रातम सन्‍्तुष्ट हो, देखे लक्ष्य प्रलक्ष ॥। 35 छो अर तत्वमागंदुशे नसः अध्यं० ॥३६५॥ श्ण्द | [_ सिंदचक विधा सार तत्व वर्णन कियो, श्रयथार्थ मत नाश । स्वपर-प्रकाशक हो महा, बन्दे तिनकों दास ॥॥ क ह्वीं अहँ सारतत्व-यथार्याय नमः अच्यें० ॥३६९६॥ श्राप तीथ्थ श्रौरत प्रति, स्व तोर्थ क्रतार। उत्तम शिवपुर पहुंचना, यही विशेषण सार ॥। ३ हों अह परमोत्त मतीर्थयक्ृताय नमः अध्यें० ।३६७॥ दृष्टा लोकालोक के, रेखा हस्त समान । पुगपत सबको देखिये, क्षियो भर्म तम हान ॥ क$ हीं अहँ दृष्टाय नमः अध्ये ० ॥३६८ | जिनवारी के रसिक हो, तापों रति दिन रन । भोगोपभोग करो सदा, बन्दत छू सुख चंन ७ ४ हीं प्रहँ वाग्मोशवराय नमः अध्ये ० ॥३६६।। जो संसार समुद्र से, पार करत सा धर्म। तुम उपदेशया धर्म कू, नमत मिटे स्व भर्म ॥ 5» हीं श्रहँ धर्मंशासनाय नमः श्रष्यं० ॥३७०।। धर्म रूप उपदेश है, भवि जीवन हितकार। में बन्द तिनको सदा, करो भवारांंव पार ॥ # हीं श्रहँ धर्मदेशकाय नमः भ्रष्य ० ।३७१॥। सब विद्या के ईश हो, प्रन ज्ञान सुजान। तिनको बन्दू” भाव से, पाऊं ज्ञान महान ॥ ७ छी बहें बागीशवराय नम: अ्रध्ये० ॥३७२॥ सुमति नार भरतार को, कुमति कुसोत विब्ार । में पूज हूँ भाव तो, पाऊं सुमती सार ॥ ३» हीं श्रहेँ अ्रयोनाथाय नमः ग्रध्यें० ।!३७३।। धर्म श्र्थश्ररु मोक्ष के, हो दाता भगवान। में नित-प्रति पायन परूँ, बेहु परम कल्याण ॥ क# हीं अहूँ त्रिमंगोशय नम: श्रष्यं० ॥३इछ७टा 8६ ४5 अध्टम पूथा || | २०६ गिरा फहै जित वचन को, तिसका अस्त सु धर्म । मोक्ष कर भवि-जनन को, नाझे सिथ्या सम ॥ 35 हीं झहे गिरांपतये नमः भ्रध्यं ॥॥३७५॥ जाकी सोमा मोक्ष हे, प्रण सूख स्थान । शरणागत को सिद्ध है, नम्तू सिद्ध धरि ध्यान ॥ $$ हीं अहेँ सिड्धांगाय नम: अध्यं ० ।।३७६।॥ नय-प्रमाएसों घ्रिद्ध है, तुम वाणी रवि सार। मिथ्या तिमिर निवार कें, करे भव्य जन पार ॥ उ$ हीं अह' सिद्धवाइ मयाय नस: अध्यें० 0३७७७ निज पुरुषारथ साधक, सिद्ध भये सुखकार । सन बच तन करि में नम, करो जगतसे पार ॥ 35 ह्रीं भर सिद्ाय नम: अ्ध्यं० ।३७८॥ सिद्ध करे निज श्र्थ को, त्म शासन हितकार। भवि जन माने सरदहै, करें कर्म रज छार॥ ३» हीं भ्रह॑ पिद्धशा तनाय नम: प्रघ्यें० ।|३७६॥ तोन लोक में सिद्ध है, तूम प्रसिद्ध सिद्धान्त । अनेकांत परकाश कर, नाहीं मिथ्या ध्वांत ॥ 3 हो भ्रहँ जगव्‌ प्र सिद्धसिद्धांत थ नम: प्रध्यं० ॥३६०॥ झ्ोंकार यह मन्त्र है, तोन लोक परहघिद्ध । तम॒ साधक कहलात हो, जपत मिले नवनिद्ध ५ 35% हीं अहँ सिद्धमन्त्राय नमः अध्यं० ॥३८१॥ सिद्ध यज्ञ को कहत है, संशय विश्राम नाश। मोक्षमा्ग में ले धरे, निजानसग्द परकाश ॥ < डी झह सिदववाले नम: अ्ध्यं० ४३८२॥ कोहरूप मलसों बुरी, बारी कही पवित्र । भव्य स्वच्छता धारिके, लहै मोक्ष पद तज्न ।। 35 हों महूँ शुतिज।जे तमः अ्रध्यं० ॥३८३॥ श्ह० । [ सिश्वचाह विधान कर्ण विषय में होत ही, करे प्रात्म-कफल्पाण । तुम वाणी शुचिता धर, नमें सन्‍्त' घरि ध्यान 0 35 हो अहूँ शुचिश्रवस्ते नमः अध्यं० ॥३८४॥ वचन श्रगोचर पद धरो, कहते पंडित लोग। तुम महिमा तुमहों विष, सदा बन्दने योग्य 0 5 ह्रीं प्रहेँ निशक्तोक्ताय नमः झ्रष्यं० ।३८५॥ सुर नर मानें आन सब, तुम श्राज्ञा सिर धार। मानों तन्‍्त्र विधान करि, बांधे एक लगार॥ ४ छो अहूँ तन्‍्त्रकृते नमः अ्रध्यं० ।३८६॥ जाकरि निशपुचय कोजिए, वस्त्‌ प्रमेय श्रपार । सो तुमसे परगट भयो, न्याय-श्ञास्त्र रुचि धार ॥ # हो प्रहूं म्पायश स्त्रकृते नम: अध्यं० ॥।३८७॥ शुरा प्रनस्त पर्याय युत, द्रव्य भ्रनन्तानन्त । युगपत जानो श्रेष्ठ युत, धरो महा सुखवन्त ॥ ३» हुं श्रहँ महाज्येष्ठाय नमः अध्यें० ।३८८॥ तुम पद पाये सो महा, तुम गुण पार लहाय। शिव लक्ष्मी के नाथ हो, पूजूं तिनके पाँय ॥ ३» हीं श्रह महानन्वाय नमः भ्रध्यं० ॥३८६।॥ तुम सम कविवर जगत में, श्रौर न दूजों कोय । गरणधर से श्रूतकार भो, श्रथं लहैं नहीं सोय ॥ 55 हीं भ्रहँ कवोन्द्राय नमः अध्यं० ॥३६०॥ हित करता घट काय के, महा इष्ट तुम बेन । तुमको बन्दूं भाषस्तों, मोक्ष महासुख देन ॥ 5 हो अरहँ महेष्टाय नमः भ्रध्यं० ।!३६१॥ मोक्ष दान दातार हो, तुम सम कौन महान । तीन लोक तुमको जजे, मनमें श्रानन्व ठान ॥ & हों प्रह महान ःददात्रे नम्नः भ्रष्यं० ॥३६२॥ झष्ठम पूजा |] [ २११ द्ादक्षांप श्रुतको रखें, गयघर से कविराज। तूस प्राशा शिर धारके, नमूं निजातम काज ॥ # हो अहुँ कबीश्वराय नमः ग्रध्यं० ॥३६३॥। 9 ५० देव महा ध्वनि करत हैं, तुम सन्मुख्त घर भाव । केवल प्रतिशय कहत हैं, में पूंजूं युत सावः॥ ४ हो प्रहँ वु दुसोश्वराय नमः झष्यं ० ।३९४।। इस्रादिक नित पूजते, भक्ति पू्ष शिर नाय। जिभुवन नाथ कहात हो, हम पूजत नित पांय ॥ $ ही अहूँ तजिभुवतनाथाय तमः प्रष्य० ॥॥३६५॥ गणी सुनीश् फणीशपति, कल्पेच्रनके नाथ। झहमिन्द्रन के नाथ हो, तुर्माह नमूं धरि माथ ॥ 3 हीं प्रहं महान/याय नमः झ्घ्यं० ॥३६६॥ भिन्न-भिन्न देख्यो सकल, लोकालोक श्रनस्त । तुम सम दृष्टिट न श्नौरको, तुमें नमें नित 'सब्त 0 8 हीं प्रहूं परदृष्ट तमः प्रध्यं० ॥३६७॥ सब जगके भरतार हो, घुनिगरासें परधान। तुमको पूर्ज भावसों, होत सदा कल्यारा ॥ 3» हीं प्रहँ जगत्पतये नमः प्रध्यं० ।३६५।॥। क्रावक या मुनिराज हो, तम प्राज्ञा शिर धार। वरत धर्म पुरुषार्थ में, पुजतत हूं सुखकार ॥ 5» छू भ्रहँ स्वाभिने नमः पझ्रध्य ० ॥३६९॥ धर्म कार्य करता सही, हो ब्रह्मा परमार । मालिक हो तिहुं लोकके, पुजनोक सत्यार्थ ॥ 3 हीं अहं कर्वें तम: प्रध्यं ० ।४००।। तोन लोकके नाथ हो, शरणागत प्रतिपाल। चार संघके शग्रधिपती, पूजूं हूं नप्ति भाल ॥ ४ हीं अहँ चतुविधसंघाधिपतये नमः अध्यँ० ॥४०३१॥ २१२ ] [ लिदलक़ विधान तुम सम झौर विभव नहों, धरो चतुष्ट अनस्‍न्‍्त। क्यों न करो उद्धार भ्रब, दास कहावे “सन्त ॥ # हों अहूँ अध्वितीयविभववार फ्ाघ नम्तः भ्रध्यं० ॥४०२॥ जामें विघन न हो कमी, ऐसी श्रेष्ठ विभूत । पाईं निज पुरुधा्थ करि, पूजन शुभ करतूत ॥ # हो अहूं प्रभनवे नम: प्रष्यं० ।४०३।॥। तुम सम शक्ति न श्रौरकी, शिवलक्ष्मी को पाय। भौर्ग सुख स्वाधीन कर, बन्द्‌ू जिनके पाय ॥ उ5 हीं प्रह॑ अद्वितीयशक्तिधारकाय नम: प्रध्यं० ।४०४॥ तससे भ्रधिक न औरमें, पुरुषारथ कहूँ पाय। हो भ्रधोश् सब जगतके, बन्द जिनके पांय 0 3 हीं अहँ अधोदव राय तमः अध्य० ॥४०५४॥ झ्ग्रेशर चउ संघ के शिवनायक शिरमौर । पुजत हूं नित भावसों, श्षीक्ष दोडइ कर जोर ॥ # हों अहँ प्रधोशा नमः पश्रध्यं० ।।४०६।। सहज सुमाव प्रयत्न बिन, तोन लोक ग्राधीश । शुद्ध सुभाव विराजते, बन्द! पद घर शीश ॥ 5४ हीं अह सर्वाधीशाय नमः अध्यं० ॥॥:०७। छायक सुमति सुहावनों, बोजभूत लतिस जान। त्‌ में शिवमारग चले, में बन्दू धरि ध्यान ॥ 35 हीं प्रह श्रधीशित्रेय नमः अध्यं ० ॥४०८७ स्वयंबुद्ध शिवनाथ हो, घमंतीर्थ करतार । तसम सम सुमति न को धरं, में बन्दु' निरधार ॥ 5 हों श्रह घमंतोधकर्व नमः अध्यं० ॥४०६९॥ प्ूरण शक्ति सुमाव धर, पूजत ब्रह्म प्रकाश । पूरणण पद पायो प्रभु, पूजत पाप विनाश ॥ 25 ह्वीं ग्रह पुर्णपदप्राप्ताय नभ्ः प्रध्यें० ॥४९०॥॥ प्ष्यम पृथा | .. व ररई तुससे भ्रधिक न झोर है, जिभुवत ईशा कहाय। तोन लोक अ्रश्यन्त सुख, पायो बन्दु' तायथ ॥ & हो अह जिलोकाधिपतये वसः अध्य ० ॥८११॥ ह तीन लोक पूजत चरण, ईइवर तुमको जात । मैं पूजों हों भमावसों, सबसे बड़े सहान ७ # हीं झहँ ईशाय नमः प्रष्य॑० ॥४१२॥ सूरत सम परकाश कर, सिधष्यातम परिहार । भविजन कसल प्रबोधको, पायो निज हितकार ॥ 5 हीं झ्रहूँ ईशानाय नमः अध्यं ० ॥४१३॥ क़ोड़ा करि शिवमार्ग में, पाय परमपद श्राप । श्राज्ञा भंग न हो कभो, बन्दत नाज्ले पाप ॥ 5 हीं प्रहूँ इन्द्राय नमः अध्य० ॥॥४१४॥ उत्तम हो तिहूं लोकमें, सबके हो सिरताज । शरणागत प्रतिपाल हो, पूजू श्रातम काज ॥ ४ हो भ्रहँ त्रिलोकोत्तमाय नम: श्रध्यं० ॥४१४५॥ श्रधिक भूतिके हो धनी, सुखी सर्व निरधार। सुरनर तुम पब्को लहैं, पुजत हूं सुखकार ॥ # ही झहूँ अधिभुवे नमः अध्यं० ॥४१६॥ । तीन लोक कल्याणकर, धर्म मार्ग बतलाय। सब देवनके देव हो, महादेव सुख्दाय ॥ 5» ही अहँ महे३१राय नमः अध्ये० ॥४१२७॥ महा ईशा महाराज हो, महा प्रताप धराय। महा जीव पूर्ज चरण, सब जल शरण सहाय ॥ 3 हों अह महेशाय नमः प्रध्यं० ॥४ १८॥ परम कहो उत्कृष्ठको, धर्म तोर्थ बरताय। परमेदवर यातें भये, बन्दूं तिलके पांय ॥ ४ हूं अहँ परमेश्चराय नमः अध्यें० ॥४४१४॥॥ २१४ | [ घिठलंक विधान तम समान कोई नहीं, जग ईइबर जगनाथ। महा विभव ऐहश्वर्य को, धरो नमूं निज साथ 0 & द्वी अहँ महेशित्रे नमः प्रध्यं० ॥४२०॥। चार प्रकारनके सदा, देव तुम्हें शिर नाय। सब देंवनमें श्रष्ठ हो, नम्‌ युगल तुम पांय ॥ # ह्वीं अहूँ अधिवेवाय नमः झध्यं० ॥४२१॥ तम॒ समान नह देव धर, तुम देवनके देव । यों महान पदवी धरो, तुम पूजत हूं एव॥ ३ ह्वीं अहूँ महादेवाय नमः प्रध्य ० ॥४२२॥ शिवमारग तुममें सहो, देव पूजने योग । सहचारी तुम सुगुरा हैं, भ्रोर कुदेव श्रयोग ॥ &* हीं अहूँ देवाय नमः झष्य० ॥४२३॥ तीन लोक पूजत चरण, तुम आ्राज्ञा शिर धार। ज्रिभुवन ईइवर हो सही, में पूजू निरधार ॥ # हीं अहूँ त्रिमुनेशबराय नमः अध्यें० ।५४२४॥ विश्वपती तुमको नमें, निज कल्याण विचार । सर्व॑ विश्व के तुम पती, में पूजू उर धार ॥ &# हु अहँ विश्वेशाय नमः अध्यं० ॥४२५॥ जगत जोबव कल्याण कर, लोकालोक अ्रनन्द ७ घटकायिक प्रालह्वादकर, जिम कुमोदनी चन्द ॥ % हु प्रह विश्वमूतेशाय नमः भ्रध्य ० ॥४२६॥ इन्द्रादिक जे विद्वपति, तुमक्रो पूजत झान। यातें तम विश्वेश सो, सांच न्मूँ धर ध्यान ॥ ७ हूं भहँ विश्वेशाय नमः अध्यें० ॥४२७॥ विश्व बन्ध दृढ़ तोड़के, विश्व शिखर ठहराय। चररा कमल तल जगत है, यू. सब पूजत पांय ॥ # हों प्रहँ विदवेश्वराय नमः भरष्यं० ।।४२८॥। भ्रष्ठम पूणा | [ २१५ शिवमारगकी रीति तुम, बरतायो शुभ योग। तिहूं काल तिहुं लोकमें, झौर कुतीति श्रयोग ॥ ३» हो झहूँ प्रधिराजे नमः अ्ध्यं० ॥॥४२६॥ लोक तिमिर हर सु हो, तारण लोक जिहाज । लोकशिखर राज़त प्रभू, मैं बन्दू हित काज ॥ 3 ह्रीं भ्रहूँ लोकेश्वराय तमः ध्रध्यं० ॥॥४३०॥ तीन लोक प्रतिपाल हो, तोन लोक हितकार। तीन लोक तारण तरण, तीन लोक सरदार ॥ 5 हीं झहँ लोकपतये नमः ्रध्यं० ।४३१॥ लोक-पूज्य सुखकार हो, पूजत हैं हित धार। में पूजों नित भाव सों, करो भवाणंव पार ॥ 55 हीं भ्रहँ लोकनाथाय नमः भ्रष्यं० ।॥४३२॥ पूजनीक जगमें सही, तुम्हें कहें सब लोग। धर्म मार्ग प्रगटित कियो, यातें पूजन योग ॥ 3 छ्वीं भ्रहें जगपुज्याय नमः प्रध्यं० ॥४३३॥। ऊरध श्रधों सु मध्य है, तोन भाग यह लोक । तिनमें तुम उत्कृष्ट हो, तम्हें दंत नित घोक ॥ % हों ग्रहूं त्रिलोकनाथाय नमः भ्रष्य ० ॥४३४॥ तुम समान समरथ नहीं, तोन लोकमें और । स्वयं शिवालय राजते; स्वामी हो शिरमौर ॥ ४ हीं अहूँ लोकेशाय नमः अध्य 9 ॥४२३५॥। जगत नाथ जग ईछ्ा हो, जगपति पूर्ज पांय। में पूजु नित भाव युत, तारण तररा सहाय ॥ ४ ह्वीं अहूँ जगन्नाथाय नमः अध्यं० ॥४३६॥ महा भूति इस जगतसें, धारत हो निरभंग। सब विभूति जग जोतिक, पायो सुख सरबंग ॥॥ 3 ह्रीं अहूँ जगत्प्भवे नमः अध्य ० ॥॥४३७॥ ११६ )] [ सिड़यक्र विधान मुनि सन कररा पवित्र हो, सब विभावकों ताश। तुम को अंजुलि जोरकर, ममृ्‌' होत श्रध नाश ॥ & हों अहू पवित्राय नमः अर्ध्य० ॥४३५॥ मोक्ष रूप परधान हो, ब्रह्मज्ञान परबोन। बन्ध रहित शिव सुख सहित, नमें सन्‍त आ्राधोन ॥ % हीं अहूँ पराक्रमाय नमः श्रध्यं० ॥४३६॥ जामें जन्म-मरण नहों, लोकोत्तर कियो वास । ग्रचल सुथिर राज सदा, निजानन्द परकाश ॥ # हीं प्रहुं परत्राय नमः झध्यें० ।।४४०॥ मोहादिक रिपु जीत के, घिजयवन्त कहलाय । जंत्र नाम परसिद्ध है, बन्द तिनके पाय। “४* ह्वीं प्रहूँ जैत्रे लमः श्रध्यं० ।।४४१॥ रक्षक हो षदू कायके, कर्म शत्रु क्षयकार । विजय लक्ष्मो नाथ हो, में पूज सुखकार ॥ ४ हीं अहूं जिष्णवे नमः अध्ये० ॥४४२॥ करता हो विशि कर्म के, हरता पाप विशेष । पुन्‍्यपाप सु विभाग कर, भ्रम नहीं राखो लेश ॥ 3 हो अहू कन्न तम: श्रध्यं० ॥८४३॥ स्वानन्द-ज्ञान विनाश बिन, श्रचल सुथिर रहै राज । श्रविनाशी श्रविकार हो, बन्दू' निजहित काज ॥ ३४ हीं अहूँ विस्मरणीय नम: अ्रध्यें० ॥४४४॥ इन्द्रादिक पूजित चरन, महा भक्तित उर धार। तुम महान ऐश्वर्य को, धारत हो प्रधिकार 0 ढ» ही अहूँ प्रभाविष्णवे नम: अध्यं० ॥४४५४ गुरण समुह गुरुता धरें, महा भाग सुख रूप। तोन लोक कल्यारा कर, पूजूं हूँ शिव भूष ॥ 3+ हो अहूँ भारजिष्णवे नमः अध्ये० ।४४६॥ अप्टर्न पूजा ] . | २६७ महाविभव को धरत हैं, हितकारण भितकार । धर्म-माथ परमेजश्ञ हो, पुजत हूं सुखकार ॥| 5* हीं भहँ प्रभृष्णवे नमः प्रध्यं० ॥४४७॥ बिन कारण अ्सहाय हो, स्वयं प्रभा श्रविरुद्ध । तुमको बन्दू' भावसों, निज श्रातम कर शुद्ध ॥ 5० हीं भ्हूँ स्वयंप्रभाय तमः भ्रध्यें० ॥४४८।॥ लोकबासको नाश कर, लोक सम्बन्ध निवार । भ्रचल विराजें शिवपुरी, पूजत हूं उर घार ॥ ३» हीं अहूँ लोकजिते तमः अ्रध्यें० ॥४४६९॥ विहन नाम संसार है, जन्म सरण सो होय । सोई व्याधि विनासियो, जज जोड़कर दोय ;। & हों भ्रहूँ विश्वजिते नमः श्रघ्यें० ॥४५०॥ विश्व कधष/य निवार के, जग सम्बन्ध विनाश । जनम-मरर बिन ध्रुव लसे, नम्‌' ज्ञान परकाश ॥ + हो अहूँ विश्वजित्रे नमः अध्यं० । ४५१॥ विदव-वास तुम जीतियो, विश्व नमाव शीश । पुणत हैं हम भक्तिसों, जयवन्तों जगदीश ॥ # हीं ग्रहें विश्वजिते नमः झ्रध्यें० ॥४५२॥ इन्द्रादिक जिनको नमे, ते तुम शीक्ष नवाय । विश्वजीत तुम नाम है, शरखणागत सुखदाय ॥ * हीं भ्रहें विश्वजित्वराय नमः भ्रध्यं० ॥४५३॥ तीन लोक की लक्ष्मी, तुम चररांबुज ढठौर। यातें सब जग जीति के, राजत हो शिरमौर ॥ & हों ग्रह जगज्जेश्रे नमः झध्य ० ।।४५४॥ तोन लोक कल्याण कर, कर्म शत्रु को जीत । भव्यन प्रति झानंद कर, सेटल लिनकी भोति ॥ 3* हीं प्रहें जगज्जिध्णवे नमः भ्रध्यं० ॥४५४॥ २१६ |] | लिदंचक विधात जग जीवन को अ्न्ध कर, फंलो भिथ्या घोर । धर्म मार्ग प्रकटाय कर, पहुंचायो शिव ठोर ॥ &४ हो भहू जगसनेत्राय नमः ध्ष्यं७ ॥४५६॥ मोहादिक लिन जीतियो, सोई जग में नाम । सो तुम पद पायो महा, तुम पद करूं प्रणाम ॥ # छू प्रहं जगजपिने तमः अध्यं ० ॥४५७॥ जो तुम धर्म प्रकट करि, जिय श्रानन्दित होय । श्रग्न मये कल्यान कर, तुम पद प्रणमु सोय ॥ # हीं भहूं प्रप्रण्ये नमः प्रध्यें० ।।४५८!। रक्षा करि षट्‌ काय की, विषय-कषाय न लेश । त्रास हरो जमराज को, जयवन्‍्तों गुरा शेष ॥। $# हीं अहू दयामृतेये नमः भ्रध्य ० ।।४५६।॥ सत्य श्रसत्य लखन करें, सोई नेत्र कहाय । पुदूगल नेन्न न नेत्र हो, सांचे नेत्र सुखाय ॥ & द्वीं अहू दिव्यनेत्राय नमः प्रध्यें० ।४६०॥ सुर नर मुनि तुम ज्ञानतें, जानें निज कल्याण । ईइबर हो सब जगत के, शझ्ानंद संपति खान ॥ # हों अहूँ अधोश्वराय नमः भ्रध्यें० ॥४६१॥ धर्म्मामास मनोक्त के, मुल नाश कर दोन । सत्य मार्ग बतलाइयो, कियो भव्य सुख लोन ॥ & हीं अहू धर्मनायकाय नमः भ्रध्यं० ॥४६२॥ ऋद्धिन में परसिद्ध है, केवल ऋद्धि महान । सो तुम पायो सहज ही, योगीश्वर मुनि सान ॥ ऋ% हीं भ्रहें ऋद्दीशाय नमः प्रध्यं० ॥४६३॥ जो प्राणी संसार में, तिन सबके हितकार। ग्रानंद सों सब नमत हैं, पावें भवदथि पार ॥ &# हों भरहूं मुतनाथाय नमः प्रध्यं०।।४६४॥ अंध्टम पूजो ] [११९ . प्रारित के मरतार हो, दुख टारत सुखकार । तुम भाभ्रय करि जीव सब, प्रानंद लहेँ भ्रपार ॥ ४* हों प्रहूँ भूवभ्र नमः अध्यें० ॥।४६४॥ सत्य धर्म के मार्ग हो, ज्ञान मात्र निरशंश । तुम ही झ्राञ्य पाय के, रहे न भ्रघ को प्रंद्ा ॥ 5 हीं अहूँ जगत्वात्रे नमः प्रध्यं० ॥४६६॥ भ्रतुल वीय॑ स्वशक्ति हो, जीते कर्म जरार। तुम सम बल नहों श्रोर में, होठ सहाय भ्रबार ॥ 3 हों अह अतुलबलाय नमः अध्यें० ॥४६७॥ धर्म मृत्ति धरमातमा, धर्म तीर्थ बरताय । स्वसुमाव सी धर्म है, पायो सहज उपाय ॥ 5» छ्वीं अहँ बधाय नमः अध्यं ० ॥४६८ | हिंसा को वर्जित कियो, ले भ्रपराध महान । परिग्रह श्रर श्रारम्भ के, त्यागी श्री भगवान ॥ 35 हुं प्रहूँ परिप्रहत्यागीजिनाय नमः अध्यें० ॥॥४६९॥ सर्व सिद्ध तुम सुलभ कर, पायो स्वयं उपाय । सांचे हो वश करण को, जग में मंत्र कराय ॥॥ 5» हीं भ्रहूँ मंत्रकृते नमः भ्रध्यं० ॥४७०।॥। जितने कछ शुम चिन्ह हैं, दीप्त श्रशेष स्वरूप । शुभ लक्षरा सोहत भ्रति, सहले तुम शिवभूप ॥ ऊ हुं प्रहें शुभलक्षणाय नमः श्रष्य ० ॥४७१॥ लोक विधें तुम मार्ग को, मानत हैं बृधवन्त । तक हेतु करुणा लिए, यातें मानते 'संत'॥ & हो बहूँ लोकाध्यक्षाय नमः प्रध्ये० ।॥४७२॥ काहू के वश में महों, काहू नमत न शोश । कठिन रीति धारें प्रभु, नम सदा जगदीज्ञ ॥ # हो पहू दुरोभ्रष्टाय तमः प्ध्ये० ४७३।॥ ३२० ] [ सिदचंक मिंयांत दासनि के प्रतिपाल कर, शरणागति हितकार। भवि दुखियन को पोध कर, दियो श्र पदसार ॥ 5 हर अहँ भव्यबन्धवे नम: श्रध्ये० ॥४७४॥ निराकरण करि कर्म को, सरल सिद्धनति धार । शिवधल जाय सु वास लहि, धर्मंद्रव्य सहकार ७ # दरों प्रह॑ निरस्तकर्माय तमः श्रध्यें०।४७५॥ भुनि ध्याव पावें सुपद, निकट भव्य धरि ध्यान । पावे निज कल्याण नित, ध्यान योग तुम मान ॥ 3» हों अह परमध्येयजिनाय नमः अष्यें० ॥४७६॥ रक्षक हो जग के सदा, धर्म दान दातार। पोषित हो सब जीव के, बन्दु भाव लगार ॥ # हुं अहूं जगत्त।पहराय नमः भ्रघ्यं० ॥४७७॥ मोह प्रचंड बलो जयो, श्रतुल बोय सगवान । शोधक्र गसन करि शिव गये, नमू' हेत कल्याण ७ ४ ह्रीं भहँ मोहारिजिताय नमः प्रध्यें० ।४७८॥ तोब लोक शिरमौर तुम, सब पुजत हरधाय। प्रमेश्वर हो जगत के, बंदत हूं तिन पांय ॥ 5 हु भ्रहँ त्रिजगत्परमेशवराय नमः अध्ये० ॥४७६। लोक शिखर पर ग्रचल नित, राजत हैं तिहुं काल । सर्वोत्तम भ्रासन लियो, लोक शिरोमरित माल ॥ 5 हीं अहं विश्वासिने नमः भ्रध्यं० ॥४८०॥ विश्वभूति प्राणोन के, ईइवर हैं भगवान । सबके शिर पर पग धरे, सभ्य श्रान तिन मान ॥ 35 ह्वीं अह विश्वमुतेशाय नमः झध्यें० ॥घ८ १॥ मोक्ष संपदा होत ही, मित श्रक्षय ऐश्वर्थ । कीन सृढ़ कौड़ी सहै, सर्वोत्तम घनवर्थ ॥ 3» हीं भ्रह 4िभवाय तमः अध्यं ० ॥४८२॥ झष्टम पूथा ] [ २२१ जिभुवन ईहबर हो तुम्हीं, प्रौर जीव हैं रंक १ तुम तज चाहे भोर को, ऐसे को बुध बंक ४ 5 हु प्रहुं त्रिसुवनेशव राय नमः भ्रष्च ० ॥४८३॥ उत्तरोस्तर तिहूं लोक में, दुलंभ लब्धि कराय। तुम पद दुलंभ कठित है, सहा भाग सो पाय ॥१ 5 हीं अहँ जिजगदुलेभाय तमः जअध्ये० ॥४८४)॥ बढ़वारी परसणामसों, पूर्ण भ्रस्युदथ पाय । भई अनंत विशुद्धता, भये विशुद्ध श्रयाय ॥ 5 हों झ्रहँ अभ्युदयाय नमः अध्यें० ॥१४८५॥ तीन लोक मंगलकररा, दुखहारण सुखकार ।. हमको धंगल यो महा, पुजों बारम्वार ४४ 5 हों प्रहूँ त्रिजपन्‍्मंगलोदग्राय नमः अच्यें० ॥४८६॥ श्राप धर्म के सामने, प्रोर धर्म लुप जायें। धर्मचक्र श्रायुध धरो, ज्त्रु नाश तब पायें ॥ 5 हीं भहँ धमंचक्रापुधाय नमः प्रष्यं० ॥१४८७॥ सत्य शक्ति तुम ही सही, सत्य पराक़्तम जोर । है प्रसिद्ध इस जगत सें, कर्म शत्रु शिरमौर ५ ए> हों अहूँ सद्योज!ताय नमः भ्रध्यं० ।॥४५८॥ मंगलमय मंगलकरण, तीन लोक विख्यात । सुन्रण ध्यायसु करतही, सकल पाप नज्षि जात क्त 3 हों प्रहूँ जिलोकमंगलाय नमः अध्यें० (६४८९१ द्रव्य-भाव दऊ वेव बिन, स्वातस रति सुख मान । पर-आलिगन रतिकरशा, मिरइच्छुक भगवात ॥॥ ३» ही झहँ अवेदाय नमः अध्यें० ॥।४६०॥१ घातिरहित स्व-पर दवा, निजानस्व रसलोन । सुखसों अ्रवगाहन करें, संत चररए श्ाधीन । 55 हुं प्रहूं अपतिषाताय गन: प्रष्यंन् ॥ ४११० २२२ |] [ सिठचक्न विधाव निजानन्द स्व-देशमें, खंड खंड नहों होय । पूरण ध्विनाशी सुखो, पुजत हूँ भ्रम खोय ॥ 8 हों अहँ अश्छेशाय नमः प्रध्ये० ॥४६२॥ सिद्ध समान सु शुभ नहीं, झौर नाम विर्यात । कभ्‌ न जगमें जन्म फिर, सोई दृढ़ कहलात ७ 3 ही अहूँ दढ़ीयते नमः अध्यं० ॥४६३॥ जन्म मररत के कष्ट से, सर्व लोक भयवंत । ताको नाश भ्रभय कररण, तृम्हैं तमें जिय 'संत' ॥ # हो प्रहेँ प्रभयंकराय नसः भ्रध्यं० ॥४६४॥ ज्ञानानन्व स्व-लक्षमी, भोगत हो निरखेद । महा भोग यातें भये, हैं स्वाधोन प्रवेद ॥ # हीं झह महाभोगाय नमः अध्यं० ॥४९५॥ प्रसाधारण शप्रसमान हो, सर्वोत्तम उत्कृष्ट । परसों भिन्‍न अ्रखिन्न हो, पायो पद श्रविनष्ट ॥ ए हुं घहँ निरोपस्थाय नमः पअ्रध्यं०४६६।॥ दर्श लक्षण शुभ धर्म के, राजसम्पदा भोग । नायक हो निज धर्म के, पूजि नमें तिहूँ योग ॥ 5» ही प्रहूँ धर्म सास्राज्यनायकाय तम: धध्यं० ।।४६७॥ प्रधिपति स्वासि स्वभाव निज, परकृत भाव विडार। तिहूं वेद रति सान बिन, सम्पुरन सुखकार ॥ ३5 हीं प्हूँ निर्वेदप्रवत्ताय नम: प्रध्ये० ॥४६८॥ यथायोग्य पद पाइयो, यथायोग्य सम्पूर्ण । नम जियोग संमारिके, करूं पाप सल चरण ॥ ४5 हो ग्रह सम्पूर्णयोगिने नमः पझच्यं० ॥४६६।॥ सब हन्द्रिय मन रोकके, झारोहरा तिस भाव । श्रेणी उच्च चढ़ावमें, तत्पर अन्त से पाव ॥ 9 हू घहूँ समारोहणतत्पराव नमः प्रध्यें० ।५००॥ प्र्टम पूजा | [| २२३ एकाशअश्रय निज पमंमें, परसों भिन्‍त सदीयव । सहन स्वभाव विराजते, सिद्धराज सब जोब ॥ 3 हीं प्रहं सहर्जासद्धरूपाय नमः भ्रध्यं० ॥५०१॥ राग हंष बिन सहज हो, राजत शुद्ध स्वभाव । तन विकल्प नहीं भावमें, पूजत हों धरि चाव ॥ 55 हों भ्रह सामायिकाय रमः प्ध्य ० ॥५०२॥। निजानन्द निज-लक्ष्मोी, भोगत ग्लानि न होय । झतुल वी स्वभावतें, परमादी नहीं होष ॥ क हों भ्रह निष्प्रभादाय नमः भ्रध्यं० ॥५४०३॥ है भ्रनादि संतान करि, कभी भयो नहों भादि । नित्य शिवालय पूरांता, बसे जगत भ्रधवादि ४ 5 हों प्रहूं म्क्ुताय नम: श्रध्यें० ॥५०४।॥। पर-पदार्थ नहीं इष्ट हैं, जितपद में लवलोन। विध्नहरणा संगलक ररण, तुम पद सस्तक दीन ७ 55 ही अहूँ परमभावाय नम: भ्रध्यं० ।५०४॥ नित्य शौच संतोष मय, पर-पवार्थ्तों रोक । निशचय सम्यक भाव मय, है प्रधान थां घोक ॥ & हुं भ्रहूँ प्रधानाय नमः अध्यं० ॥५०६॥ ज्ञान ज्योति निज धरत हो, निश्चल परम सुठाम। लोकालोक प्रकाश कर, में बन्द सुखधाम ॥ & हो प्रहेँ स्वभा तपर भासनाय नमः अध्य ० ॥५०७॥ एक स्थान सु थिर सदा, निश्चय चारित भूप शुध उपग्रोग प्रभावतें, कर्म लिपावन रूप 0 85 ह्रीं प्रहूं प्राणायामचरणाय नमः अध्यें० (१४०५॥ विषय स्वादसों हट रहें, इन्द्रो मन थिर होय । निज झ्रातस लवलोन हैं, शुद्ध कहाव॑ सोय ॥ # हों प्रहूँ शुद्धप्र्याहा राय नमः भ्रष्य॑ं० ।५०९॥ २१४ || [ सिद्ध चश्वियान इन्द्री विषय न वश रहे, निज श्रातम लव॒लाय। सो जिनेन्द्र स्वाधोन हैं, बन्दू' तिवके पांध ॥ 9 हों ग्रह जितेन्द्रि याय नमः अच्यं ० ॥५१०॥। ध्यान विष सो धारणा, तिज प्रातम थिर घार। ताके श्रधिपति हो सहा, भये भवारंव पार ॥ ह+ ह्रीं झरहँ धारणाधीश्वराप तमः अ्रध्यं० ।५११।॥। रागादिक मल नाशिके, ध्यान सु धर्म लहाय ६ झग्रचल रूप राज सदा, बन्द सन बच काय ॥ 35 हुं भ्रहूँ घर्मध्याननिष्ठाय नमः अध्यं० ॥५१२॥ निजानन्दमें मगन हैं, परपद्ष राग निवार। समदुष्टो राजत सदा, हमें करो भव पार ॥ ३ हो भ्रहूँ समाधिराजे नमः भ्रध्यं० ४५१३॥। वीतराग निर्विकल्प है, ज्ञान उदय निरशंस । समरसभाव परम सुखी, नमत मिट दुख श्रंश ॥ $ हों भ्रह स्फुरितसमरसीभाबाय नमः शच्यं० ॥५१४।॥ एक रूप विराजते, नय विकल्प नहिं ठौर वचन श्रगोचर शुद्धता, पाप विनाझ्षो मोर ॥ # हों ग्रह एकीभावनयरूपाय नमः अष्य॑० ॥५१४५॥ परम विगम्बर मुनि महा, समहृष्टी मुनिनाथ। ध्याव॑ पाव॑ परम पद, नपृ' जोर जुग हाथ 0 $४ हीं भ्रहु निग्रेन्‍्यधायथाय नमः अच्यं० ॥५१६॥ योग साथि योगो भये, तिनको इन्द्र महान । ध्यावत्त पावत परम पद, पूजत निज कल्याण ॥ 55 हो भहँ योगीजाय नमः प्रध्यं० ।५१७॥ शिवमारग सिद्धांत के, पार भये मुनि ईश तारण-तरर जिहाज हो, तुम्हें नम ' नित शो ॥ 3 ही भ्रहँ ऋषणे नमः भ्रध्य ० गज बव्म पूणा || ... £ रर१ निज स्वरूपको साधिकर, साथ मये जग मांहि । निजपर हितकर गुर धरें, तीन लोक तमि ताहि ॥ # हुं भह साधवे नसः प्रध्यं० ॥११६॥ रागादिक रिपु जीतके, भये यती शूम नाम । धर्म धुरंधर परम गुर, जुगपद करूँ प्रणाम ॥ क# हों अहूँ बतये नमः भ्रध्य॑ं० ॥५२०॥ पर सम्पतिसूं विमुख हो, निजपद रुचि करि नेम । मुनि मन रंजन पद महा, तुम धारत हो ऐम ॥ क हीं भहँ मनये नमः भ्रष्यं० ॥५२१॥ महाश्रेष्ठ मुनिराज हो, निज्रपद पायो सार। महा परम निरपग्रन्थ हो, पूजत हूं मन धार ॥ क# हीं महू मह॒षिसो नमः अध्यं० ॥५२२॥ साधु भार दुरगमन है, ताहि उठावन हार। शिव-सन्दिर पहुंचात हो, महाबलो सुखकार ॥ 89 ही प्रह॑ साधृधोरेपाय नमः अध्यं० ॥५२३॥। इन्द्री मन जित जे जतो, तिनके हो तुम नाथ । परम्परा मरजाद धर, वेहु हमें निज साथ ॥ 85 हो महू पतोनाथाय नमः अध्यें० ॥५२४॥ थार संघ पुनिराजके, ईश्वर हो परधान। परहितकर सामथ्य हो, निज सम करि भगवान ॥ # हुं प्रहूं मुनोश्बराय नमः प्रध्यं० ॥५२५॥ गणधरादि सेवक महा, तिन श्राज्ञा शिरधार। समकित ज्ञान सु लक्षमो, पावत हैं निरधार ॥ # हु प्रहूं महामुनये नमः अ्रष्ये० ॥५२६॥ महामुनि सर्वस्व हो, धर्म मृति सरवांग। तिनको बन्दूं भाव युत, पाऊं में धर्माग ॥ # हीं अहँ महामोनिने नमः अध्य ॥५२७॥ २२६ | | घिंडचक्क विधान इष्टानिष्ट विभाव बिने, समदुष्टि स्वध्यान। मगन रहें निजपद विें, ध्यान रूप भगवान ॥ ३ ही अहँ महाध्यानिने नमः अध्यें० ॥५२८॥ स्व सुभाव नहीं त्याग है, नहीं ग्रहण पर मा्हह । पाप कलाप न श्रापमें, परस शुद्ध नम ताहि ॥ * ही अह' महाव्नतिने नमः अध्यं० ॥५२६॥ क्रोध प्रकृति विनाश के, धरें क्षमा निज भाव। समरस संवाद सु लहत हैं, बन्दूं शुद्ध स्वभाव ॥ 3 ह्वीं अहें महाश्रमाय नम: अध्यें० ॥४३०॥ मोह रूप सनन्‍्ताप बिन, शीतल महा स्वभाव । प्रण सुख श्ाकुल नहीं, बन्दूं मन धर चाव ॥ 55 हों अहँ महाशोतलाय नमः अध्य ० ॥५३१।। मन इन्द्रिय के क्षोभ बिन, महा शांति सुख रूप। निजपद रमण स्वभाव नित, में बन्दू शिव भूप ॥ # हीं अहँ महाशाॉताय नमः अ्रध्यं० ॥५३२॥ मन इस्द्रिय को दसन कर, पायो ज्ञान श्रतोन्‍द्र । स्वाभाविक स्वशक्ति कर, बन्दू भये जीतेन्द्र ॥ 3» हों अ्रह महोदयाय नमः अध्यं ० ॥५३३॥। पर पदार्थ को क्लेश तजि, व्याप निजपद माहि। स्वच्छ स्वभाव विराजते, पूजत हूँ नित ताहिं ॥ 5 हीं भ्रहें निलपाव नम: अध्ये ० ॥५३४॥ संशायादि दृष्टि नहों, सम्यग्जान मंझार। सब पदार्थ प्रत्यक्ष लख, महा तुष्ट सुखकार ॥। >> हीं झह निश्वांताय नमः श्रध्ये ॥॥५३४५॥ शांतिरूप निज शांति गुण, सो तुमही में पाय। निज मन श्ञांति सुभाव धर, पूजत हूँ युग पांय ॥ # हुं ग्रह धर्माध्यक्षाय नम: प्रध्यं० ॥५३६।॥ पछमपूता |. [ २२७ ' मुनि श्रावक हे धर्म के, तुम भ्रधिपति शिववाथ । भविजन को प्रानस्द करि, तुम्हें नवाऊ साथ ॥ & हरी प्रह घर्माध्यक्षाय नमः भ्रध्यं० ॥५२७॥ दया नोति बरताइयो, सुखी किये जगजीव । कल्पित राग ग्रप्तित नहों, जानत मार्ग ढक हूं अहूँ दयाध्वज्ञाय नमः भ्रष्ये० ॥५३८॥ केवल ब्रह्म स्वरूप हो, श्रन्तर-बाई ज्ञानज्योतिघन नमत हूं, मनवचतन ध् 8» हीं भहूँ ब्रह्म योनये नमः भ्रघ्यं० ॥५२६॥ स्वयं बुद्ध भ्रविरद्ध हो, स्वयं ज्ञान परकाश। निजपर भाव दिखात हो, दीपक सम प्रतिभास ॥ ३ हो अहूँ स्वयंबुद्धाय नमः अध्यें० ५४०॥ रागादिक मल नाशियो, महा पवित्र सुश्ाय। शुद्ध स्वभाव धरें करें, सुरनर थुति न श्रघाय ॥ 5» हो अहूँ पुतात्मने नमः श्रध्यें० ॥५४१॥ बीतराग श्रद्धानता, सम्पुरण बेराग। देष रहित शुभ गुण सहित, रहूं सदा पगलाग ॥ 8$ ह्वीं अहूँ स्नातकाय नमः श्रष्यें० ॥५४२॥ साया सद श्रादिक हरे, भये शुद्ध सुख खान। निर्मेल भाव थकी जजू, होत पाप को हान॥ 55 ह्वों अहँ अमदभावाय नमः प्रध्यं० ॥५४३॥। झ्रतुल वोय जा ज्ञानमें, सूयं समान प्रकाश । मोक्षनाथ निज धर्म जुत, स्व-ऐश्व्यं बिलास ॥ 5 हीं अहूँ परमेश्वर्याप नमः प्रध्यं० ॥॥५४४॥ मत्सर क्रोध जु ईर्ष्या, पर में देष ब्ुुभाव। सो तुम नाशझो सहज ही, निवित दुषित विभाव ॥ % हीं अहेँ वीतमत्सराय नमः प्रध्यें० ।५४४॥ श्ए८ | [ सिद्धचक्क विधान घरम भार सिर धारकर, समाधान परकाणज। तुम सम श्रेष्ठ न धर्म श्र, तारणतरण जिहाज ॥ ४ हो भहूँ धर्मबषायप नमः प्रध्यं० ॥५४६॥ क्रोध कर्म जड़से नसों, भयो क्षोभ सब दूर। महा ज्ञांति सुखडरूप हो, पुजत श्रघ सब चूर ॥ # हुं भ्रहुँ अक्षोत्राय नमः अध्य० ॥५४७॥ इश्टसिष्ट बादरकरी, विद्यत विधि कर खण्ड । जिष्ण, महाकल्यारकर, शिवमग भाग प्रचण्ड ॥ 55 हो भरहं महाविधिखण्डाय नसः भ्रध्यं० ॥५४८॥ प्रमूतमप तुम जन्म है, लोक तुश्ताकार । जन्म कल्याराक इन्द्र कर, क्षोरनोर करधार ॥ & हों श्रहे अमृतोद्सवाय नमः प्रष्ये० ५४६॥ इन्द्री विषय सुविषहरण, काम पिशाच विडार। मूर्तीक शुभ मन्त्र हो, देव जजें हित धार ॥ हों प्रहें मनन्‍्त्रभृतये नमः झ्रष्यें० ॥५५०॥। सौम्य दक्षा प्रकटी घनी, जाति विरोधों जीव । वर छांड समभाव घर, सेवत चररा सदोव ॥ उ> हीं अहूँ निर्वेरसोम्यभावाय नमः पश्रध्यं० ॥५५१॥ पराधीन इन्द्री बिना, राग विरोध निवार। हो स्वाधीन न कर्ण पर, स्वयं सिद्ध सुखकार ॥ 3 हों अहूँ स्वतन्त्राय नमः प्रध्यं० ॥५५२॥॥ ब्रह्म रूप, नहीं बाह्य तन, सम्भव ज्ञान स्वरूप । स्वयं प्रकाश विलास धर, राजत अ्रमल भ्रनप ॥। 3 हों महू ब्रह्मसम्भवाय नमः अ्रष्यं० ॥५४३।॥ प्रानन्दधार सु सगतन है, सब विकल्प दुख टार । पर झ्ाश्चित नहीं माव हैं, पूज' श्रानन्द धार ॥ 55 ही जहूँ सुप्र सन्‍्ताय नमः अध्यं० ॥५घ४॥। ध्रध्टम पूजा | | २२९ परिप्रण गुण सोस है, सर्व शक्ति भण्डार। तुमसे सुगुरा न शेष हैं, जो न होय सुखकार ॥ 3 हीं अहूँ गुर्णाबुधये नमः अध्यें० ॥५५५॥ ग्रहरा-त्याग को भाव तज, शुभ वा प्रशुभ ध्रमेद । व्याधिकार है वस्तु में तुम्हं नम निरखेद ॥ 55 हों पहूँ पुण्यपापनिरोधकाय नमः अध्यें० ॥५५६॥ मृक्षम रूप भ्रलक्ष हैं, गशाधर श्रादि श्रग॒स्थ । झाप गुप्त परसातसा, इन्द्रिय द्वार भ्रगस्य ॥ 3 छी भहूँ महागम्यसुक्सरूपाय नमः प्रध्यं० ॥५५७॥ प्रन्तरगुप्त स्व-प्रात्मरस, ताको पान करात। पर प्रवेश नहीं रंच है, केवल मग्न सृजात ॥ 5 हुं भहं सुगुप्तात्मने नमः अध्यं ० ।।५५६।॥। निजकारक निज कर्ाकर, निजपद निज शभ्राधार। सिद्ध कियो निज रस लियो, पूजत हें हितकार ॥ # हों भ्रहेँ तिद्धात्मने नमः अध्यें० ॥५५६॥ नित्य उ्दे बिन श्रस्त हो, पूरण दुति घन श्राप । ग्रहैन राह जास शश्षि, सो हो हर सन्‍्ताप ॥ 5 हीं झहँ निरुपललवाय नमः अध्यें ० ॥५६०।॥॥ लियो भ्रप्रव लाभ को, झ्रचल भये सुखधास। पूज रचें जे भावसों, पूर्ण होइ सब काम ॥ # हो झहँ महोवर्काय नमः भ्रष्य ०॥५६१॥॥ है प्रशंस तिहुँ लोक में, तुम पुरुषार्थ उपाय । पायो धर्स सुधाम को, पूजों तिनके पाय॥ 9 हु महूँ महोपायाय नमः भ्रध्ये० ॥५६२॥ गराघरादि जे जगतपति, तथा सुरेद्र सुरीश। तुमको पूजत भक्ति करि, चरण घरें निजज्ञीश ॥ उ5 हो प्रहेँ जगत्पितामहाय तमः श्ध्यें० ॥५६३॥ २६० ॥| | सिद्ध विधान तुम ही सो भवि सुख लहै, तुम बिन दुख ही पाय । मैलिरक “अहो है तम्हें, महानाम हम गाय ॥ & हीं अहूँ.आश्हाकारुणिकाय नमः अध्यें० ॥५६४।। महासुगुर को रास हो, राजत हो गुर रूप । लौकिकगुण श्रोगुणः सही, सब ही देष सरूप ॥ 5* हीं भ्रह शुद्धपुणाय नमः अध्ये० ॥५६४॥ जन्म-मररण शभ्राविक महा, क्लेश ताहि निरवार। परमसूखी तुमको नम, पाऊं भवदथधि पार॥ 5 हीं अहँ महाक्लेशनिवारणाय नमः भ्रध्यं० ॥५६६॥ रागादिक नहीं भाव है, द्रव्य देह नहीं धार । दोऊ मलितता छांड़िके, स्वच्छ भये निरधार ॥ &% हों अहँ महाशुच्ये नमः अध्यं० ॥५६७॥ झ्राधि व्याधि नहीं रोग है, नित प्रसन्‍त निज भाव । झ्राकुलता बिन श्ांति-सुख, धारत सहज सुभाव ॥ & हुं भहूं प्ररजे नमः झध्य० ।॥५६८।॥ यथायोग्य पद थिर सदा, यथायोग्य निज लीन । अ्रविनाशी भ्रविकार हैं, नमें 'सन्‍्त' चित दीन ॥ # ह्वीं अहं सदायोगाय नमः श्रध्य ० ॥५६६॥ स्वामृत रसको पान करि, मोगत हैं निज स्वाद । पर-निमित्ति चाहें नहीं, करें न तिनको यादव ॥ # हीं भहूं सदाभोगाय नमः अध्यं०॥॥५७०॥ निर-उपाधि निज धर्म में, सदा रहेँ सुखकार । रत्नत्नय की मूरती, प्रनागार आ्रागार ॥। # हीं अहू सदाधृतये तमः अ्रध्यें० ॥५७१॥ रागहेष नहीं मूल है, है मध्यस्थ स्वभाव | जाता दुष्टा जगतके, परसों नहीं लगाव ॥ 9 हो अहू परमोदासीनाय नमः ध्रध्य॑० ॥५७२॥ सकम पुन्ा हूं [ २३१ ध्रावि प्रस्त बिन यहुत है, परण धाम निरधार । अन्तर परत न एंक छिन, निज सूख परमाधार ॥ 3 ह्रीं प्रहं शाइवताय नमः अ्रध्य॑० ।५७३॥ भूल देह श्राकृति रहै, हो नहिं भ्रन्य प्रकार । सत्याशन इस नाम. है,. पूजूं भक्ति लगार ॥ ४» ही भ्रहूं सत्याशने नमः प्रध्यं० ॥५७४॥ परम शांति सुखमय सदा, क्षोभ रहित तिस स्वासि । तोनलोक प्रति शांतिकर, तृम पद करूं प्रणाप्ति ॥ # हों श्र शांतितायकाय नम्रः अध्य ० ॥॥५७४५॥। काल ग्रनत्तातन्‍्त करि, रलल्‍यो जीव जग माहि । प्रात्मश्ान नहीं पाइयो, तुम पायो है ताहि ४ 3 हीं प्रहे अपूनेविद्याय नमः भ्रध्यं७ ॥॥५७६॥ यथारुपात चारित्र को, जानो मानो भेद । शग्रात्मक्नान केवल थकी, पथो पद निरभेद ॥। # छ्लीं अहँ पोगशायकाय नमः अध्यं० ५७७ | धमंमूृति सर्वस्व हो, राजत शुद्ध स्वभाव । धमंमृति तृमको नम, पार्ऊ सोक्ष उपाव॥ ** हीं अहूँ धर्ममूर्तवे नमः अध्य० ॥५७८॥ स्व-प्रातम परदेस में, श्रन्य मिलाप न होय । आकृति है निजधर्म को, निज विभाव को खोय ॥ 5» ह्रीं भ्रहेँ ध्मदेहाय नमः भ्रध्यं० ॥५७६॥ स्वामी हो निज-भात्म के, अन्य सहाय न पाय ।. स्वर्गं-सिद्ध परमातमा, हम पर होउ सहाय ॥ &# ही झहू ब्रह्म शाय नमः प्रष्यं० ॥५८०॥ निज पुरुषारथ फरि लियो, सोक्ष परम सुखकार । करना था सो करि चुके, तिष्ठे सुख आधार ॥ 3 हीं झरहेँ कृतकृताय नमः झरध्यं० ॥।४६१॥। रर््र | लिख चक्रविद्यांग झसाधारण तुम गुर घरत, इन्द्राविक नहों पाय । लोकोत्तम बहु मान्य हो, बंबू हूं युग पॉय ॥ 5 हु पभ्रहेँ गुणात्मकाय नमः श्रष्ये० ५८२॥ तुम गुण परम प्रकाशकर, तोन लोक विस्यात । सुर्यं समात प्रताप धर, निरावरणश उधरात ७ # हो प्रहे निरावररश/गुणप्रकाशाय नमः भ्रध्ये० ॥५८३॥ समय मात्र नहीं ग्रादि हैं, वहें श्रनादि प्ननंत । तुम प्रवाह इस जगत में, तम्हें नमें नित 'संत' ॥ ४ ही प्रहें निनिमिधाय नमः प्रध्य ० ॥४५८४॥ योग-द्वार बिन करम रज, चढ़ न निज परदेश । ज्यों बिन छिद्र न जल गहे, नव॑का शुद्ध हमेश ॥॥ 55 ह्वीं अहँ निराखवाय नमः अध्यें० ॥५८४॥। परम ब्रह्म पद पाइयों, पुरण ज्ञान प्रकाश । तीन लोक के जीव सब, पूर्ज चरश निवास ॥ ३७ डी अहं महाब्रह्मपतये नमः श्रध्यं० ॥ ५८६/। द्रव्य पर्यायाथिक दोऊ नय, साधत वस्तु स्वरूप । गुण अनंत श्रवरोधकर, कहत सरूप शअ्रनूष ७ ३ ह्रीं अहूँ पुनयतस्वज्ञाय नमः भ्रध्यें० 4५८७॥ सुर समान प्रकाश कर, कर्म दुष्ट हति सूर | शररा गही तुम चरण को, करो ज्ञान दुति पूरि ॥ ४ हीं झ्हँ सूरये नभः भ्रध्यं० ।।५८८।। तुम सम क्लोर न जगत में, सत्यारथ तसस्‍््वश। सम्यरज्ञान प्रभावतें, हो प्रदोष सर्वज्ञ ५ # हो भहूँ तत्वशाय नभ्नः श्रध्यं० ।५८६९॥ तीन लोक हितकार, हो, शरस्पागति प्रतिपाल। भव्यनि सन प्रानंद करि, बंदू दोनदयाल ॥ # हुं हूँ महामित्राय नमः झ्रध्यं० ।५६०।॥॥ अध्वन पूजा |] | २६३ समता मुख में मगन हैं, राग देव संक्लेध । ताको नाज्षि सुखो भमये, युग-युग जिश्रो जिनेश ॥ ४ हीं अहँ साम्यत्रवधारकजिनाय नस: अध्य ० ॥५६ !॥ निरावरण निथ ज्ञान में, संत्रय विश्वम नाहि। सम्यग्शान प्रकाशर्ते, वस्तु प्रमाण दिखाय ॥ # हड्डी प्रहँ प्रकोणबन्धाय नमः प्रध्य॑० ॥५६२।॥। एक रूप परकाश कर, दुविधि भाव विनशाय । पर-निमित्त लवलेश नहीं, बंदू' तिनके पांय ४ ४> हों ग्रह निद्व न्ाय नम: अध्यें० ॥५९३॥ मुनि विशेष स्नातक कहें, परमातम परमेश । तुम ध्यावत निर्वारण पद, पावें भविक हमेश ॥॥ % हीं पभ्रह स्नातकाय नमः अध्यें० ॥४६४॥ पंच प्रकार शरीर बिन, दोप्त रूप निज रूप। सुर मुनि मन रमणीय हैं, पूजत हूं शिवभूष ॥ ३ हुं श्रहूँ अनंगाय नमः प्रध्यं० ॥५६४५॥ ठय प्रकार बन्धन रहित, नित हो मोक्ष सरूप । भविजन बंध विनाशकर, देहो मोक्ष अन्तप ॥ 3 हुं प्रहँ निर्वाशाय नमः अध्य ० ॥५६६॥ सगुरः रत्नकी राशके, श्राप महा भण्डार। श्रगम श्रथाहू विराजते, बन्दू' माव विचार ॥ 8 ही अह सागराय नमः अध्यं० ॥५९७॥ सुतिजन ध्यावें मावयुत, महा सोक्षप्रद साथ । सिद्ध भये में नमत हैं, चहूँ संघ श्राराध ॥ ७ हीं अह महासाधवे नमः प्रध्यं० ॥५९५८॥ ज्ञान ज्योति प्रतिभास में, रागादिक सल नाहि। विशद प्रतृपम लसत हो, वीप्तज्योति शिवराह ॥ ऊ# हु परहूँ विमलाभाय नमः अध्यं० ॥५१६॥ श्इंड [| सिद्यक विधान द्रध्यै-भांव मल नादाकर, शुद्ध निरंजन देव । निज-आातमसें रसत हो, श्राश्नय बिन स्वयमेव ॥ # हु महू चुद्धात्मने भमः भ्रध्यं० ॥६००॥ शुद्ध श्रनन्‍्त चतुष्ठे गुण, धरेत तथा शिवनाथ । भ्रीधर नाम कहात हो, हरिहर नावत माय ॥ # हु प्रहूँ श्रीधराय नम: अध्यं० ॥६० १॥ मरणादिक भयसे सदा, रक्षित हैं भगवान । स्वयं प्रकाश विलास में, राजत सुख की खान ॥ # हीं भ्रहू मरणम्यनिवारणाय नमः श्रध्यं० ॥६०२॥ राग-हेष नहीं भाषमें, शुद्ध निरंजन आप। ज्यों के त्यों तुम थिर रहो, तवक न व्यापे पाप ३3% हों अहे अमलभावाय नमः श्रष्यं० ॥६०३॥ भवसागर से पार हो, पहुंचे शिवपद तोर । भाव सहित तिन नमत हूं, लहूं त पुनि भव पीर ॥ ४ हों भ्रहें उदरणाय नमः अ्रध्य ० !६०४॥ अग्निदेव यो अग्ति दिश, ताके देव विशेष । ध्यावत हैं तुम चरणयुग, इन्द्रादिक सुर शेष ॥ 5 हुं भ्रहूँ अग्निदेवाय नम: अधच्यें० ॥६०५॥ विषय-कषाय न रंच हैं, तिरावरण निरमोह। इन्द्री ममको दमन कर, बन्दू' सुन्दर सोह ॥ # हुं अहँ संयमाय नम: अध्यं० ॥६०६॥ मोक्षरूप कल्याण कर, सुख-सागर के पार। महादेव स्वशक्ति धर, विद्या तिय भरतार ७ 5 हों भ्रहे शिंबाय नमः भ्रष्य० ॥६०७॥ पुष्प भेंट धर जजत सुर, निज कर अंजलि जोड़ । कसलापति कर-कमल में, धर लक्ष्मी होड़ ॥ # हों बहू पुंष्वांजलये नमः अर््य० ॥६००॥॥ पष्टम पूर्णी “] [६११ पूरण ' ज्ञानानंदमय, श्रजर श्रमर अमल । भ्रचिताशी श्रव अ्रदिलपद, अविकारी सब मान ४ # ही अहँ शिवगुखााय नमः झ्ष्यें० ॥६०६॥ रोग शोक भय श्रादि बिन, राजत नित श्रानम्द । खेद रहित रति-प्ररति बिन, विकसत पुरणतंद्र ॥ 3 हों भरहं परंभोत्साहजिनाय नमः प्रध्यँ० ॥६१०॥ जो गुण शक्ति श्रनंत है, ते सब ज्ञान मंभार। एकनिष्ठ श्रॉकृति विविध, सोहत हैं ग्रविकार ॥ “ हीं श्रह ज्ञानाय मम: श्रध्यें० ॥६११॥ परम पुज्य परधान हैं, परम शक्ति श्राधार । परम पुरुष परमातमा, परमेश्वर सुखकार ॥ # हीं अहूं परमेश्व राय नमः श्रध्यं० ॥६१२७ दोष प्रपोष भ्ररोष हो, सम सन्तोष झलोष । पंच परम पद घारियत, भविजन को परिपोष ॥ % हीं प्रहूँ विमलेशाय नमः: श्रध्ये० ॥६१३॥ पंचकल्याणक युक्त हैं, समोसेररा ले झादि । इन्द्रादिक नित करत हैं, तुम गुरागरण श्रनुवाद ॥॥ % ह्रीं अहँ पशोधराय नम: श्रध्यं० ॥६१४॥ कृष्ण नाम तीथ्थेंश हैं, भावी काल कहाय। सुमति गोपियन संग रमत, निजलोला दर्शाय ७ 5» हो अहूँ कृष्णाय नमः अध्यं० ॥६१४५॥ सम्यग्शान जु सुमतिधर, मिथ्या मोह निवार । परहितकर उपदेश है, निश्चय या व्यचह्ार ॥ # हो भह श्ानमतये तभः अध्ये० ॥६१६॥ वीतराग' सर्वश हैं, उपदेशक हितकार । सत्यारय परमांख कर, भ्रन्य सुमति दातार # ४ हों अहँ घुढसतये नम! अ्र्ध्यं० ।६१७॥ १३६ सिद्चचक विधान सायाचार न दाल्य है, शुद्ध सरल परिणास | जञानाननद स्वलक्षमी, भोगत हैं श्रभ्िराम ॥ 55 हो अहूँ भव्राय नमः अ्रध्यं० ॥६१५७ झील स्वभाव सुजन्स ले, प्रन्‍्त समय निरवाण । भविजन झानन्दकार है, सब कलुषता हान ॥ 5 ह्रीं प्रहँ शांतिजिनाय नमः प्रध्यं० ॥६१६। धरम रूप शभ्रवतार हो, लोक पाप को भार । मृतक स्थल पहुंचाइयो, सुलभ कियो सुखकार ॥ % हीं अहं वधभाय नमः भ्रध्यं० ॥६२०॥ झन्तर-बाहिर शत्रु को, निमिष पर माह जोर । बविजय लक्षमी नाथ हो, पुूजूं हय कर जोर ॥ 55 ह्रीं महू भ्रजिताय नम: भ्रध्यं० १६२ १॥ तोन लोक श्रानन्द हो, श्रेष्ठ जन्म तम होत । स्वरग-मोक्ष दातार हो, पावत नहीं कुमौत ॥ 5 हीं भहँ संभवाय नमः अध्यं० ॥६२२॥ परम सुखी तुम श्राप हो, पर ग्रानन्द कराय। तुमको पूजत भावसों, मोक्ष लक्षमी पाय ॥ 55 हीं अहूँ श्रभिनन्‍्दताय नमः अध्यें० ॥६२३॥ सब कुवादि एकांतको, नाश कियो छिन मांहि। भविजन मन संशयहररा, श्रौर लोक में नाहि ॥ 55 ही अहूँ सुमतये नम: अध्यं० ॥६२४॥ भविजन मधुकर कमल हो, धरत सुगन्ध अपार । तोन लोक में विस्तरी, सुयश् नाम को घार ॥ 3 हीं प्रह पद्मप्रमाय नमः भ्रध्यें० ।।६२५॥ पारस लोहा हेम करि, तुम सव बन्ध निवार । मोक्ष हेतु तुम श्रेष्ठ गुण, धारत हो हितकार ॥ 35 ही झ्हूँ सुपाइबाय नमः प्रध्यं० ॥६२६॥ भ्रष्टस पूजा ]] |; २३७ तीन लोक झाताप हर, सुनि-सन-मोदन चब्द 4 लोक प्रिय भ्रवतार हो, पाऊं सुख तुम बन्द ॥ 5 हीं प्रहँ घल्रप्रनाय नम: अध्यं० ॥६२७।॥ सन सोहन सोहन महा, धारें रूप श्रनूष । दरशत मन प्रानन्द हो, पायो निज रस कप ४ ४» हीं प्रहूँ पुष्पदन्ताय नमः प्रध्यं० ॥६२८।। भव भव दाह निवार कर, शीतल भए जिनेश। सानो अमृत सींचियों, पुजत सदा सुरेश ४ 3> ही भहँ शोतलनायाय नमः ध्य ० ॥६२६।॥ तीथंडुर श्रेयांस हम, देहो भ्रो शुभ भाग। श्रीसु प्रनन्‍त चतुष्ट हो, हरो सकल दुरभाग ॥ 5 हो अहं श्रेयांसनायाय नम: घ्यं० ॥६३०॥। अ्रस ताड़ी या लोक सें, तुम ही पृज्य प्रधान । तुमको पुजत भावसों, पाऊं सुख निरवाण ॥ 3 ही अहूँ बासुपुज्याय नमः अध्यं० ॥६३१॥ द्रव्य भाव मल रहित हैं, महामुनित के नाथ । इन्द्रादिक पुजत सदा, नस पदांबुज साथ ॥॥ 55 ह्वों प्रहें विमलनाथाय नमः श्रध्यं० ॥६३२॥ जाको पार भय पाइयो, गरमधर झौर सुरेश । थकित रहें भ्रसमर्थ करि प्रष्ममें 'सन्‍्त' हमेश ॥। 55 हुं अहूँ प्रनंतताथाय नमः घ्यं ० ॥६३३॥। झनागार आगारके, उद्धारकः जिनराज । धमंनाथ प्रणमु' सदा, पाऊं शिवसुख साज ॥ 8४» हीं पहँ धर्मंतराथाय नमः झध्ये० ॥६३४)। शांतिरूप पर झांतिकर, कर्म दाहु विनिवार । शांति हेतु बन्दू सदा, पाऊं भवदधि पार ॥ 38 हीं अहूँ शांतितायाय नमः भ्रध्ये० ॥६३५॥। श्क्ष्ण | [ सिद्धचआ विश्ात क्षुद्र वीर्य सब जीव के, रक्षक हैं तीर्थोश । शरणांयत प्रतियालकर, ध्याव सदा सुरेश ॥ # हु झह कुन्थुनाथाय नसः अ्रध्ये० ॥६३६॥ पूजनीक सब जगतके,", संगल़कारक देव । पुञज़त हैं हम भावसों, विनशे अघ स्वयमेव ॥ 85 ह्रीं प्रहँ प्ररनाथाय नमः प्रध्यं० ॥६३७॥ मोह काम भट जीतियो, जिन जीतो सब लोक। लोकोत्तम जिनराज के, नम चरण दे धोक ७ 3 हीं भ्रहँ मल्लिनाथाय नमः अध्यें० ।।६३८।॥ पंच पापको त्यागकरि, भव्य जीव भ्रानन्‍्द । भये जासु उपदेशतें, पूजत हूं पद बन्द ॥ & हुं भ्रहँ मुनिसुव्रताय नमः प्रध्यं०॥६३६॥ सरनर मुनि नित नसन करि, जान धरम अवतार । तिनको पूजूं भावयुत, लहू भवारप्व पार ॥ # हुं भहं नमितायाय नमः अध्यं० ॥६४०॥ नेम धर्म में नित रमें, धर्मधुरा भगवान । धर्मंचक्त जग भें फिरे, पहुंचावे शिव थान ॥ # हुं प्रहें नेमिनाथाय तशः अ्रध्यं० ।१६४ १॥ शरणागति निज पास दो, पाप फंस दुख नाश। तिसको छेंदो मुलसों, देह मुक्त गति नास ॥ $* ही अहूँ पाश्वेनाथाय नमः अध्यं० ।।६४२। बद्ध भावतें उच्चषपद, लोक शिखर प्रारूढू । केवल लक्ष्मी ब्धता, भई सु श्रन्तर यूढ़ ॥ 38% ह्वीं झहे बद्धमानाय नमः खध्यें ० ॥६४३।॥। श्रतुल वीये तन धरत है, श्रतूल बोर्य मन बोच । कामिन वश मई रंचभी, जसे जल बिच भीच ॥ ४» छ्ो अहूँ सहाघोराय तमः अध्ये ० ॥६४४॥ प्रधम पूछा | १२९ मोह सुभटक पटकियो, . तीम- लोक परशांस। श्रेष्ठ पुरुष तुम जयत में, कियो कर्म विध्यंस ॥ < हो भ्रहूं सुवीराय नमः झाप्य० ॥॥६४५॥ मिथ्या-मोह निवार .करि, महा सुमति भण्डार । : शुभ मारग दरझ्ाइयो, शुभ श्ररु अशुभ विचार ॥ 5 हीं अहूँ सन्‍्मतये नमः प्रध्य॑० ॥६४६॥ निज श्राक्षय निर्विध्न नित, निज लक्ष्मी भण्डार। 'च्रणाम्बुज नित नमत हम, पुष्पांजलि शुम भार ॥ 3* ही हूँ महाप्माय नम: प्रध्यं० ॥६४७॥ हो देवाधीदेव तुम, नमत देव चउ भेव । धरो श्नन्त चतृष्टपद, परमानन्द प्रमेव ॥ 3 हों हूँ सुरुदेवाय नम: श्रध्यं० ६४८॥ निरावरण प्राभास है, ज्यों बिन पटल दिनेश । लोकालोक श्रकाश करि, सुन्दर प्रभा जिनेश 0४ ३ हो श्रहूँ सुप्रभाय नम: अ्रध्यं० ॥६४९॥ झ्रातमीक जिन गुण लिए, दोष्ति सरूप अनूप । स्वयं ज्योति परकाशमय, बन्दत हूँ शिवभूष ॥ 55वीं ग्रह स्वयंप्रभाय नमः श्रध्यें० । ६५०॥ निजशक्ती निज कररा हैं, साधन बाह्य प्रनेक । समोहसुभद क्षयकरन को, श्रायुध राधि विवेक ॥ ३» हीं अहू सर्वायुधाय नसः भ्रध्यं ० ॥६५१॥॥ जय-जय सुरधुनि करत हैं, तथा विजय निधिदेव। तुम पद जे नर नमत हैं, पार्व सुख स्वयमेव ॥ ४* हीं अहँ जयदेवाय नमः भ्रध्यं० ॥६५२॥ तुम सम प्रभा न औौरमें, घरो ज्ञान परकादा। नाथ प्रभा जग में भये, नमत मोहतस नाश ॥ 3 हो अहू प्रभादेवाय नमः अध्यं० ॥६५३॥ २४० | || घिडचक विधान रक्षक हो बटकाय के, दया सिनधु भगवात । शशिसमजिय श्राह्भाद करि, पुजनोक धरि ध्यान ७ 9 हीं रह उदंकाय ममः प्रध्यें० ॥६५४॥ समाधान सबके करें, दादश सभा संकार । सर्व अर्थ परकाशकर, दिव्य ध्वनि सखकार ॥ #9 हुं ग्रह प्रध्नकोतये नमः भ्रध्यं० ॥६४५॥ काहू विधि बाधा नहीं, कबहूं नहीं व्यय होय। 'उन्‍नति रूप विराजते, जयवन्तो जग सोय ॥ # ट्वों अहें जयाय नमः श्रष्य ० ॥६५६।॥ कैवलज्ञान स्वभाव में, लोकत्रथ इक भाग। प्रणता को पाइयो, छांडि सकल श्रनुराग ॥ क# हीं अहूं पूर्राबुद्धाय तमः प्रष्यं० ॥६५७॥ पर भझालिगन भाव तज, इच्छा क्लेश विडार। निज संतोष सुखी सदा, पर सम्बन्ध निवार ॥ ७ हों प्रहं निजानन्दसन्तुष्दजिनाय नम! भ्ध्ये० ।६५८॥।। मोहाविक मल नाशकर, श्रतिशय करि प्रमलान । विमल ज़िनेशधर में नमू, तोन लोक परधान ॥ 5 हुं अहू विमलप्रभाय नम्तः भ्रध्यं ० ॥६५९॥ स्वपद में नित रमत हैं, कभो न श्रारति होय । ध्त्लवीर्य विधि जीतियो, नम जोर कर वोय ॥ उ+ हीं प्रहूँ महाबलाय नमः अध्यं० ॥६६०॥। द्रव्य भाव मल कर्म हैं, ताको ताश करान। शुद्ध निरंजन हो रहे, ज्यों बादल बिन भान ॥ 9 हो भहेँ निमंलाय नमः प्रध्य ० ॥६६१॥ तुम चित्राम भ्ररुप है, सुर नर साधु श्रगम्य । निराकार निर्लेष है, धारत भाव प्रसस्‍्य ॥ ऊ# हडीं भहे चित्रगुप्ताय नमः अध्ये० ॥६६२॥ प्रध्टत पृथा | [ २४१. सगत स्ये लिज प्रात्म सें, पर पद में नह दास । लक्ष अलक्ष विराजते, पूरो मत की श्राश् ॥ # हु भहं समार्थिगुप्ताय नम: भ्रष्यं० ।६९३॥। निज गुर भ्रातस ज्ञान है, पर सहाय नहीं चाहु। स्वयं भाव परकाशियों, नमत मिट भव दाह ॥ $ हुं भरहूँ स्वयंभवे नमः अध्यं० ॥६९४॥ मत मोहन सोहन सहा, सुनि सन रमरण श्रनन्द । महातेज परताप हैं, प्रण ज्योति अमन्‍्द ॥ ३ हुं प्रहूँ कन्दर्पाय नमः प्रध्यं० ॥६६५॥ विजय लक्ष्मो नाथ हैं, जोते कर्म प्रधान । तिनको पूर्ज सर्व जग, में पूजों धरि ध्यान ॥ ३» हों प्रहें विजयमाथाय नमः अध्ये० ॥६६६॥। गरशाधरादि योगीश जे, विसलाचारी सार। तिनके स्वामी हो प्रभू, राग हेष सल जार ॥ 3» हीं प्रह विभलेशाय नमः भ्रध्यं०॥६६७॥ दिव्य ध्रनक्षर ध्वनि खिरें, सर्व श्र्थ गुणधार । भविजन सन संशय हरन, शूद्ध बोध श्राधार ॥ ७ हो ग्रह दिव्यवादाय नमः अध्य॑० ॥६६८!। नहीं पार जा वोय को, स्वमाविक निरधार। सो सहज गुरण धरत हो, नमूं लहूं भवपार ॥ & हुं प्रहँ प्रनन्तवोर्याय नमः प्रध्यं० ॥६६६।॥ पुरुषोत्तम परधान हो, परम निजानन्द धाम । चक़पतोी हरिबल नसमें, में पूजूं निष्काम ॥ # हुं अहूँ महापुरुषदेवाय तमः अध्यं० ॥६७०॥॥ शुभ विधि सब श्राचारण हैं, सब जोब हितकार । श्रेष्ठ बुद्ध न्ति शुद्ध हैं, नम करो भवपार ॥ & हों भह सुविधये नमः प्रध्यं/ ॥६७१॥ श्ड२ | सिठ बक्रवियान हैं प्रभाण करि सिद्ध जे, ते हैं ब॒द्धि प्रमाण । सो विशुद्धमय रूप हैं, संशय तमको भाग ॥ 35 ह्रीं अहूँ प्रशापरिमाणाय नमः अध्यं० ॥६७२॥ समय प्रमाण निसित तनो, कभो श्रन्त नहीं होय । प्रविनाशी थिर पद धरें, मैं प्रणम्‌ हूँ सोय ॥ ४» ह्वीं भ्रहँ श्रव्ययाय नप्त: श्रध्यं० ॥६७३।। प्रतिपालक्क जगदीश हैं, सर्वभान परमान । अधिक शिरोमरिग लोकगुरु, पुजत नित कल्याण ॥ &४ ह्रीं अहूँ पुरारापुरुषाय नमः अ्रध्यें० ॥६७४॥ धर्म सहायक हो प्रभू, धर्म मार्ग की लोक । शुभ सर्यादा बन्ध प्रति, करण चलावन ठोक ॥ ३ ह्वीं अहेँ धर्मंता रथये नम: भ्रघ्यं० ॥६७५॥ शिवमारग दिखलाय कर, भविजन कियो उद्धार । धर्म सुयश विस्तार कर, बतलायो शुभ सार ॥ उ+ ढ्रीं महू शिवकोतिजिनाय नमः अध्यं० ॥६७६॥ मोह श्रन्ध हन सूर्य हो, जगदीश्वर शिवनाथ। मोक्षमार्ग परकाश कर, नम््‌ जोर जुग हाथ ॥ ३ हों अहँ मोहांघकारविनाशकजिनाय नमः प्रष्यें० ॥६७७॥ मन इन्द्री व्यापार बिन, भाव रूप विध्वंश। ज्ञान अतोन्द्रिय धरत हो, नमत नशे श्रघवंश ॥ 3 हों अहूँ भ्रतीन्द्रियज्ञानरूपजिना यनमः श्रघ्ये ० ॥६७८॥ पर उपदेश परोक्ष बिन, साक्षात्‌ परतक्ष । जानत लोकालोक सब, धारें ज्ञान श्रलक्ष ॥ 3 ह्वीं अहूँ केवलज्ञानजिनाय नमः भ्रध्यें०॥६७६॥ व्यापक हो तिहूं लोक में, ज्ञान ज्योति सब ठौर । तुमको पुजत सावसों, पाऊं भवदधि झोर 0 3* ह्लीं अहु विश्वभूतये नमः श्रघ््यं० ॥६८०॥॥ श्रष्टण पूथा ] | रध३ इस्रदिक कर पुज्य हो, मुनिजन ध्यान धराव। तोन लोक नायक प्रभू, हम पर होठ सहाय ॥ 8४ ही अहूँ विध्वतायकाप नसः प्रष्यं० ॥६६९॥ तुम देवन के देव हो, महावेव है नास। बिन समत्व शुद्धात्मा, तुम पद करू प्रखाम ॥ 9 ही अहूँ दिगस्वराय नमः भ्रध्यं० ।६८२! सर्व ध्यापि कुमतोी कहें, करो सिन्‍न विभास । जगसों तजी समीपता, राजत हो शिवधास ॥ # हीं प्रहं निरन्‍्तरजिनाय नमः प्रध्यं० ॥६८३॥ हितकारो झ्ति मिष्ट हैं, श्रथं सहित गम्भीर । प्रियवाणोी कर पोखते, दहादश सभासु तौर ॥ “5 हीं प्रहूं भिष्टविव्यध्वयनिजिनाय नमः पश्रध्यें० ॥६८४॥ भवसागर के पार हो, सुखसागर गलतान । भव्य जीव पूजत चरत, पावें पद निरवान ॥ $# ह्रीं अहुूँ सवांतकाय नमः ध्रध्यं० ॥६८४॥ नहीं चलाचल माव हैं, पाप कलाप ने लेश ॥ दृढ़ परिणत निज प्रात्मरति, पूजू' श्री मुक्तेश | # हीं भप्रहूँ वृढ़ुब्नताय नम: प्रध्यं०॥६८६॥ अ्संख्यात नय भेद हैं, यथायोग्य बच ह्ार। तिन सबको जानो सुविध, महा निपुणा सति नार ॥ % हीं अहूँ नय|त्तु गाय नम: प्रध्यें० ॥६८७॥ क्रोधादिक सु उपाधि हैं, श्रात्म विभाव कराय। तिनको त्याग विशुद्ध पद, पायो पूजू पांय ॥ 55 हीं अहूँ निषक लंकाय नमः अध्यें० ॥६८८॥॥ ज्यों शजशि-किरण उद्योत है, प्रण प्रमा प्रकाश । कलाधार सोहें सु इम, पुजत शभ्रघ-तम नाश ॥ #हीं मह पूर्णंकलाधराय नमः अध्यं० ॥६८९॥ बड़ । [ सिदचआ किलाल बरस रश को झादि ले, जग में क्लेश महान । किसके हंंता हो प्रभू, भोगत सुख निर्वाख ॥ 5 हो महू सर्रक्लेशहराब मन: भ्रध्यं० ।६६९०॥ पाब स्वरूप बिर हैं सदा, कभी श्रन्त वहों होथ । अध्यावाध चिराजते, पर सहाय को खोय॥। ७9 हों प्रहेँ श्रोग्यरूयजिनायथ नस: भ्रध्यें० ॥६६ १॥ व्यय उत्पाद सुमाव हैं, ताकों गौण कराय। अचल अनन्त स्वभाव सें, तोन लोक सुलवाय ॥ # हो श्रहें अक्षतान स्ल€्वन् वाल्मकजिन /य नमः भ्रध्यं० ।।६६ २।। स्‍्थें शौनादि चतुष्ट पद, हृदय साहि विकसाय । 'धोहत हैं शुभ चिन्हूं करि, भवि आनन्द कराय ॥ 2» हों ब्रहूँ श्रोवत्सलांछनाय नभः श्रध्यं० ॥६६९३॥। धर्म रीति परकट कियो, युग की आदि मंझार । भविजन पोधे सूख सहित, श्रावि घर्मझ्वतार ॥। ३ ह्रीं भ्रहेँ ग्रादिनवरहाएं तमः भ्रध्य० ॥६६९४॥ चतुरानन परसिद्ध हैं, दर्श होय चहूं शोर । चउ श्रनुयोग बखानते, सब दुख नासो मोर ॥ ४० हुं प्रहूँ चतुमु खाय नमः अध्यं० ॥६६५॥। जगत जीव कल्याण कर, धर्म भर्याद बखान। ब्रह्म ब्रह्म भगवान हो, सहापुनीं सब सान ॥। 5» हीं स्‍भहूं बहार नम: प्रध्यं० ॥६९६॥ प्रजापति प्रतिपाल कर, ब्रह्मा विधि करतार। सस्मथ इन्द्री वश करन, बन्द” सुख झाधार 0 <& हीं प्रहूं विधात्रे नमः अध्यं० ॥६९७॥ तीन लोक की लक्षमी, तम चरखाम्बुज वास । शरीपति श्ीधघर नाम शम, दिव्यासन सखरास ॥| ४» हो प्रहेँ कमलासनाय नमः प्रध्यं० ॥६६८॥ श्रेर्टम॑ पूजा | [३४५ बहुरि न जग में भ्रमण है, पंचम गति में बस । नित्य ध्रसरता पाहइयो, जरा-मसृत्यु को ताक्ष ॥ # हु झहूँ अजस्मिने नमः प्रध्य ० ॥३६१९॥ ! पांच काय पुदगलमई, तासें एक न होथ । केवल प्रात्म प्रदेश हो, तिष्ठत हैं दुल सोथ ॥ 9 हुं भहँ आत्सभुवे नमः अध्यें० ॥॥७००॥ * लोक शिखर सुखसों रहैं, ये ही प्रभुता जान । धारत हैं तिहु लोकमें, प्रध्िक प्रभा परणाल ॥। ऊ हो झहूँ लोक शिखरनिवासिने नमः अच्ये० १:७० १॥ अ्रधिक प्रताप प्रकाश है, मोह तिमिर को नाश । शिवमग दिखलाबत सही, सुरज सम प्तिभास ॥ 5 हु प्रहेँ तुरज्येष्ठाय नमः श्रध्य॑० ॥७०२॥ प्रजापाल हित धार उर, शुभ सारण बतलाय। सत्यारथ ब्रह्म कहें, तुमरे बन्दू' पाय ॥ $ हीं भ्रहूँ प्रमापतये नमः प्रध्य॑ं० ॥७०३॥ गर्भ समय षड़सास हो, प्रथम इन्द्र हर्षाय । रत्नवृष्टि नित करत हूं, उत्तम गर्भ कहाय ॥ 5» हों अहूँ हिरण्यगर्भाय नमः झक्‍्रध्यं० ।॥७०४॥ तुम हि जार शनुयोग के, श्रंग कहें पुनिराज । तुमसों प्रण श्रुत सही, नान्‍तर संगल काज ॥ & हु भ्रहँ वेदांगाय नम: प्रध्ये० ॥७०५॥ तुम उपदेश थकी कहें, द्वादशांग गरणराज। प्रण जाता हो तुम्हों, प्रशभ्‌ में शिवकॉज॥॥ # हू अहूँ पुरावेवशानाथ नम: भ्रध्ये० ॥७० दी ' हे पार भयें मयसिधु के, तथा सुबर्ों सलोन । उत्तन निर्मल थूति धरें, नमत कर्मेमल होन # हों झहें भवतिघुपारंगाय नमः भ्रध्ये० ॥॥७४७॥ * श्ष् | [ सिदचक्र विधान सुखाभास पर-तिमिततें, पर-उपाधितें होत। स्वत: सुभाव धरो सही, सत्यानन्द उद्योत ॥ # हीं ग्रह सत्यानसदाय नमः प्रध्यें० । ७०५॥ मोहादिक परबल महा, सो इसको तुम जोत। झोरन की गिनती कहां, तिष्ठो सदा भ्रमोत ॥ # हीं अहूँ प्रजयाय नमः भ्रध्यं० ॥७०९॥ दिव्य रत्ममय ज्योति हो, भ्रभ्िित भ्रकंप झ्डोल । मनवांछित फलदाय हो, राजत प्रखय भ्रमोल ॥ # हों अहँ मनवांछितफलवदायकाय नमः प्रध्यं० ।७१०॥ वेह धार जीवन मुकत, परमातस भगवान । सुर्थ समान सुदीप्त धर, महा ऋषीश्बर जान ॥ ७ हीं महेँ जीवनमुक्तजिनाय नमः अध्य॑० ॥७११॥ स्व-मय प्रादिकसे परे, पर-भय श्रादि निवार। पर उपाधि बिन नित सुखी, बन्दु भाव सम्हार ॥ # हुए प्रहूँ शतातन्‍्दाय नमः श्रध्यें० ॥७१२॥ ईदवर हो तिट्ठुं लोक के, परम पुरुष परथान | ज्ञानानन्द स्वलक्ष्मी, भोगत नित झमलात ॥। 9 हुउें प्रहें विष्णवे नम: अध्यं० ।.७१३॥ रत्नन्नय पुरुषां करि, हो प्रसिद्ध जयवन्त । कर्मदान्रु को क्षय कियो, शीश्ष नमें नित 'सन्‍्त' ॥ # हु भ्रह जिविक्रमाय नमः प्रध्यं० ॥७१४।॥ सूरण हो शिवराह के, फर्म दलन बल सूर। संशय कैतुनि प्रहणा सम, महा सहज सुखपुर ॥ # हुं झहे मोक्षमार्ग प्रकाशकादित्यकूपजिनाय नमः भ्रध्यं० ॥७१४॥ सुभग अनन्त चतृष्टपद, सोई लक्ष्मी भोग। स्वामी हो शिवनारिके, नम! जोरि तिहुं योग ॥ 35 हीं प्रहूँ भोपतये नमः श्रध्य ० ॥७१६॥ भ्रष्टम पृथ्रा ] ॥ रै४७ इरद्रादिक जत जिन्हें, पंचकल्याणक थाप। प्रदूभुत पराक्मकों धरें, नमत नसें भव पाप ॥ 35 हु भ्रहँ पुरषोत्तमाय नम: प्रष्यं० ॥७१७॥ निज प्रदेश में बसत हैं, परमातम को वास । श्राप मोक्ष के नाथ हो, श्राप हि मोक्ष निवास ॥ 3 हों अहँ वेकुण्ठाधिपतये नम: अध्यं० ॥|७१८५॥ सर्व॑ लोक कल्याणकर, विष्ण,_ नास भगवान । श्री भ्ररहन्त स्व लक्ष्मी, ताके भरता जान। 3 हो भ्रह सर्वलोकश्रेयस्करजिनाय नमः भ्रष्यं ० ॥७१६॥ समुनिसन कुमुदनि सोदकर, भव सन्‍्ताप विनाश । पुरण चन्द्र ब्िलोक में, प्रण प्रभा प्रकाद ॥ 5» हीं अहूँ हृषीकेशाय नमः अध्यं० ॥७२०॥ दिनकर सम परकाशकर, हो देवन के देव । ब्रह्मा विष्ण | कहात हो, शशि सम दुति स्वयसेव ॥ % हीं भ्रहूं हर॒ये नमः भ्रध्यं० ।।७२१॥ स्वयं विभवके हो धनी, स्वयं ज्योति परकाश। स्वयं ज्ञान दूग वीय॑ सुख, स्वयं सुमाव विलास ॥ # हीं प्रहुं स्वयंभुवे नमः प्रध्यं० ॥॥७२२॥ धमं-भारधर धारिणी, हो जिनेन्द्र भगवान। तुमको पूजों भावसों, पाऊं पद निर्वाणण ॥ $# हों श्रहेँ विश्वम्भराय नम्तः अर्घ्यं० ॥७२३॥ झ्रसर काम श्रर हास्य इन, श्रादि कियो विध्वंश । महाश्र ष्ठ तुमको नम्‌, रहे न श्रघ को श्रंश ॥ # छो भ्रहें असुरध्व॑सिने नमः भ्रध्यं० ॥॥७२४॥ सुधाधार दो अमरपद, धर्म फूल को बेल। शुभ मति गोपिन संग में, हमें राख निज गेल ॥ # हों अहूँ माधवाय नमः अध्यं० ॥७२५॥ ई४८ || सिद्धचक् विधान विषय कषाय स्ववश करी,बलि वहा कियो ज्ुु काम । महा बलो परसिद्ध हो, तुम पद करू प्रणाम ॥ क हो अहूँ बलिबन्धनाय नमः अध्यं ० ॥७२६॥ तीन लोक भगवान हो, निजपर के हितकार । सुरनर पशु पूजत सदा, भक्ति भाव उर धार ॥ # हुं ग्रहें भ्रीक्षणाय नमः भ्रध्य॑ं० ॥७२७॥ हितमित मिष्ट प्रिय वचन, श्रमुत सम सुखदाय । धर्म मोक्ष परगट करन, बन्दूु तिनके पाय ॥ & हों भरहूँ हितमितप्रियवचनजिनाय नमः ध्रध्यं० ॥७२५॥ निज लोला में मगन हैं, सांचा कृष्ण सु नाम । तोन खण्ड तिहूँ लोक के, नाथ करूं परणाम ॥ 3 हों श्रहें केशवाय नमः प्रध्यं० ॥७२६॥। सुखे तुरा सम जगत की, विभव जान करवास । धर सरलता जोग में, करें पाप को नाश॥ ४ ह्वीं अहँ विष्टरथ्वसे नमः अध्ये० ॥७३०॥ श्री कहिये श्रातम विभव, ताकरि हो शुभ नीक । सोहत सुन्दर बदन करि, सज्जनचित रमरीक ॥ 3 ह्वीं अह_ भीवत्सलांछनाय नमः भ्रध्यं० ॥७३१॥ सर्वोत्तम श्रति श्रेष्ठ हैं, जिन सन्‍्मति थुति योग । धर्म मोक्षमारण कहें, पूजत सज्जन लोग ॥॥ # हों प्रहें श्रोमतये नमः अध्यं० ॥७३२॥ अविनाजशी अ्रविकार हैं, नहीं लिगें निज भाव । स्वयं सु ग्राभ्य रहत हैं, में पूज घर चाव ॥ # ह्रीं भ्रहँ अच्युताय नम: झ्रध्यें० ॥७३३॥ लाशोी लोकिक कासना, निर-इच्छुक योगीश। नार श्यूमार न मन बसे, बन्दत हूँ लोकोश ॥ 9 हों प्रह॑ं ऋरकान्तकाय नमः पभ्रध्यं० ।।७३४॥ कम पूँणा | | २४६ व्यापक लोकालोक में, विषम, रूप भगवान । घमंरूष तर लहिलहै, पूजत हूं धरि ध्यान ए हीं अहूँ विश्वतेनाय नम: प्रच्ये० ॥७३५॥। धर्मंचक़ सनन्‍्मुख चले, भिथ्यामति रिपु घात। तीन लोक नायक प्रभू, पूजत हूँ दिनरात ॥ 8४5 ह्वीं अहूँ चक्रपाणये नमः अध्यें ० ।७३६॥ सुभग सुरूपो श्रेष्ठ श्रति, जन्म धर्म झवतार। तोन लोक की लक्षमी, है एकन्र उधार ॥ 35 हीं भरहूं पद्मननामाय नमः अध्यें० ॥७३७॥ मुनिजन श्रावर जोग हो, लोक सराहन योग । सुर नर पशु आ्रानन्दकर, सुभग निजातम भोग ॥ 5 हीं अहं जनादंनाय नम: श्रष्यं० ॥ 3३८॥ सब देवन के देव हो, महादेव विख्यात । ज्ञानामृत सुखसों खिरं, पीवत भवि सुख पात ॥ % हीं भहं श्रीकण्ठाय नमः भ्रध्यं० ॥७३६॥ पाप-पुञ्ज का नाश करि, धर्म रीत प्रगठाय । तोन लोक के श्रधिपती, हम पर दया कराय ॥ * हुं प्रहँ तिलोकाधिपशंक राय नमः अ्रध्ये० ७४० । स्वयं व्यापि निज ज्ञान करि, स्वयं प्रकाद्य झनृप । स्वयं. भाव परमातमा, बन्दू स्वयं सरूप ॥ 3 हु अहं स्वयंप्रभवे नमः झ्रष्यं० ।।७४१॥ सब देवन के देव हो महादेव है नाम। स्‍्व॒ पर सुगन्धित रूप-हो, तुम पद करूं प्रशाम ॥ ३5 हीं प्रहें लोकपालाय नसः झषध्य ० ॥७४२॥। धर्मप्वजा जग फरहरं, सब जग माने झ्लान। सब जग शीक्ष नमें चरण, सब जगको सुखदान ।॥॥ # हो महू वृधभकेतवे नमः भ्रध्यें० ॥७४३॥ २४० ] [ सिदधचक् विभाने जन्म-जरा-मृत जीतिकें, निएचल प्रव्य रूप । सुखसों राजत नित्य हो, बन्दू' हूँ शिवभूष ॥ 3 हीं भ्रहं म॒त्युडजयाय नमः भ्रध्ये० ॥७४४॥ सब इन्द्री-नन जीति के, फरि दीनो तुम व्यय । स्वयं ज्ञान इन्द्री जग्यो, नम सदा शिव श्रर्थ ॥ # हों अहं विरूपाक्षाम नमः अध्यें० ॥७४५॥ सुन्वररूप सनोज्ञ है, मुनिजनन सन वहकार। अ्रसाधारण शुभ श्रणु लगे, केवलज्ञान मंकार ॥ 55 हीं श्रहं कामदेवाय नमः अध्ये० ॥७४६॥ सम्यरदर्शन ज्ञान श्र, चारित एफ सरूप। धर्म मार्ग दरशात हैं, लोकत रूप श्नप ॥ 5 हों अहँ त्रिलोचनाय नमः अध्ये ० ।७४७॥ निजानन्द स्व-लक्ष्मी, ताके हो भरतार। शिवकामिनि नित भोगते, परमरूप सुखकार ॥ 3» ह्रीं प्रहू उमापतये नम: भ्रष्यं० ।७४८।॥। जे भश्रश्षानी जीव हैं, तिन प्रति बोध करान। रक्षक हो षट्काय के, तुम सम कौन महान ॥ 3 ह्वीं प्रहूं पशुपतये नमः भ्रष्ये० ७४६॥ रमरण भाव निज शक्ति सो, धरें तथा दुति काम । कासदेब तुम नाम है, महाशक्ति बल धाम ॥ 3 हीं अहँ शम्बरारये नमः अध्य ० ॥॥७५०॥॥ कामदाह को दम कियो, ज्यों श्रगनी जलधार। निजञ्रातम झ्ाचरण नित, महाशील श्रियसार ॥ % हो अहू त्रिपुरान्तकाय नमः अध्यं ० ॥७५१॥ निज सन्‍्मति शुभ नारसों, मिले रले श्ररधांग। ईइबर हो परमातमा, तुम्हें नमूं सर्वाग ॥ ऊ# हों झ्हूँ अंनारीबबराय नमः प्रध्यं० ॥७५२॥। भैध्टने पूजा ] [२५१ नहीं चिंगे उपयोग से, महा कठिन परिसखास । सहाबीयं धारक नमूं, तुमको पश्राठों जाम ॥ # ह्रीं झहे दद्ााय तमः अच्यें० ॥॥७५३॥। गुरा-पर्यायश्रनन्त युत, वस्तु स्वयं परदेश । स्वयं काल स्व क्षेत्र हो, स्वयं सुमाव विशेष ॥ 55 हीं प्रहें भावाय नमः अध्यं० ॥७५४॥ सुक्षम गुप्त स्वगुरा धरे, महा शुद्धता घार। चार ज्ञानप्रर नहीं रखे, में पृजूं सुखकार ॥ % हू श्रहेँ ग्भेकल्याणकजिनाय तम: भ्रध्यं० ॥७५५॥ शिव तिय संग सदा रसें, काल श्रनन्त न श्रोर । अ्रविनाशी श्रविकार हो, महादेव शिरमोर ॥ 9 हों झहँ सदाशिवाय नमः अध्ये ० ॥७५६॥ जगत कार्य तुमसों सर, सब तुमरे श्राधीन। सबके तूम सरदार हो, श्राप धनो जगदोीन ॥ 5 छ्वों अहँ जगत्कत्रें नमः अध्यं ० ॥७५७॥ महा घोर अ्रंषियार है, मिथ्या मोह कहाय । जग में शिवमग लुप्त था; ताको तुम वरश्ञाय ॥ % हीं महू प्रग्धकारांतकाय नमः झध्यं० ।।७५८।। सनन्‍्तति पक्ष जुदी नहीं, नहीं श्रादि नहिं श्रन्त । सदा काल बिन काल तुम, राजत हो जयवन्त ॥ # हीं अहू अनादिनिधनाय नमः भ्रध्य ० ॥७५६।॥ तीन लोक आ॥आआाराष्य हो, महां यज्ञ को छाम । तुमको पुजत पाइये, महा मोक्ष सुखधास ॥ # हों भहूँ हराय तमः अष्यं० ।॥७६०॥ महा सुभट गुणरास हो, सेवत हैं तिह्ठु लोक । शररगागत प्रतिपालकर, चररणांबुज दूं धोक ॥। 2४ हों अहूं महासतेनाय तसः प्रष्यें० ॥॥७६१॥ २४४२ | सिह चंधाविशत गरणाधरादि सेव चरण, महा गरापती नाम । पार करो भव-स्िधुतें, मंगलकर सुखधास ॥ 35 हुं अहूँ महागरापतिजिनाय नमः प्रघ्यं० ।७६२॥ चारसंघ के नाथ हो, तुम पश्ाज्ञा शिर धार। घ॒मं मार्ग प्रवर्त्त कर, बन्यू! पाप निवार ॥॥ %* हीं भरहँ गणनाथाय नमः प्रष्य॑० ॥॥७६३॥ सोह-सर्प के दसत को, गरुड़ समान कहाय। सबके श्रादरकार हो, तुम गणपति सुखदाय ॥। 3 डर भ्रहँ महाविना यकाय नम: अ्रध्ये० ॥७६४।॥ जे प्लोही भ्रल्पक् हैं, तिनसों हो प्रतिकूल । धर्माधम॑ विरोध कर, धरू शीक्ष पग धूल ४ #% हीं भ्रहँ विरोधविनाशकलिनाय नमः प्रध्य ० 0७६५४ जितने दुख संसार में, तिनको वार न पार। इक तुम हो जानो सही, ताहि तजो दुखभार ॥ & हीं अहँ विपषद्विनाशकजिनाय नमः अध्यें० ॥७६६। सब विद्या के बीज हो, तुम वाणी परकाश। सकल प्रविद्या मूल तें, इक छिन में हो नाश ॥ & दरों अहं द्वादशात्मने नभः श्रध्यं० ॥७६७।। पर-निमित्त से जीव को, रागदिक परिणाम । तिनको त्याग सुभाव में, राजत हैं सुलधाम ॥ 5 ह्रीं जहूँ विभावरहिताय नमः अध्यं० ॥॥७६५॥ भ्रन्तर-बाहिर प्रबल रिपु, जीत सके नहीं कोय । निर्भय भ्रचल सुथिर रहें, कोटि शिवालय सोय ॥॥ # हुं झहँ दुर्जेयाय नमः भ्रध्यं० ॥॥७६६।। घन सम गजंत वचन हैं, भागे कुनय कुवादि । प्रबल प्रचण्ड सुवीय है, धर सुगुरा इत्यादि ॥ ४ हों अहँ वहुदृभावाव नमः प्रध्यं० ।७७०।॥॥ कड़क पूरा | | शथ३ पाप सप्नन बस, दाह दव, सहादेव दिव ताल । प्रहुल .अभा धार महा, तृ॒म पद करू प्ररधाम ॥॥ #9 हों जहें चिऋतनये नमः भ्रष्व० ।७७१।॥। तुम अ्रश्नन्त बिन मृत्यु हो, सदा रहो पश्रविकार। ज्यों के त्यों मरि। दोप सम, पूजत हूं मनधार ॥। 5 हीं अहँ प्रजरामरजिताय नम: अध्यं० ॥॥७७२॥ संल्कारादि स्वगुर सहित, तिन करि हो आराध्य । तुमको बन्दों भाव सों, सिटे सकल दुख व्याध्य ॥ 5 ह्रीं अह द्विजाराध्याध्याय नमः अध्यें० ॥७७३॥ निज झ्रातम तिज ज्ञान है, तामें रुचि परतीत । पर पद सौं हैं भग्ररचिता, पाई अ्रक्षय जीत ॥ # हों अहूँ सुधाशोचिषे नम: अध्यें० ॥७७४॥ जन्म-मरण को भ्ाादि लें, सकल रोग को नाश । दिव्य श्रोषषि तुम धरो, श्रमर करन सुख॒राप्त ॥॥ 89 हों अहूँ औषधीशाय नमः अध्यें० ॥७७५॥। पुरणा गुण परकाश कर ज्यों शशि करण उद्योत । मिथ्यातप निरवारतें, वशित शब्रानन्द होत ७ 89 हों जहूँ कमलानिधये नमः प्रध्ये० ७७७६७ सूर्य प्रकाश धर सही, धर्म मा्गं दिखलाय । चार संघ नायक प्रभू, बन्दू तिनके पाय॥ 9 छ्र भहूँ नक्षत्रनाथाय नम: प्रध्यं० ॥७७७॥ भव-तप-हर हो चन्द्रमा, शीतलकार कपूर । तुमको जो नर सेवते, पाप कर्म हो दूर॥ # हु हूँ शुधांदवे नमः अध्यं० ॥७७८॥। स्वर्गाविक को लक्षमो, तासों मो जु ग्लान। स्‍्वे-पद सें झानन्द है, तोन लोक भगवान ॥ # हुं प्रहँ सोस्प्रभावरताय नमः प्रध्ये॥७७९॥ २५४ | [ सिदचक विधान पर-पदार्थ को इष्ट लखि, होत नहीं श्रभिमान । हो श्रबन्ध इस कमंतें, स्व-प्रानन्‍नव निधाव ॥ 3 हों प्रहँ कुमुदबांधबाप नम: भ्रध्यं० ।।७८०।। सब विभाव को त्याग करि, हैं स्वधर्म में लीन । तातें प्रभूवा पाइयो, हैं नह बन्धाधीन ॥ 5 हीं अहँ धर्मरतये नम: अध्यें० ॥७८१। झ्ाकुलता नहों लेश है, नहीं रहे चित भंग । सदा सूखी तिहुं लोक में, चरन नम सब अंग ॥॥ ३ छं श्रहूँ आकुलता रहितजिनाय नप्त: अध्यें& ॥|७८२॥ शुभ-परिणति प्रकटाय के, दियो स्वर्गको दान । धर्म-ध्यान तुमसे चले, सूमरत हो शुभ ध्यान ७ 8 हीं अहूँ पृण्यजिनाय नम्त: भ्रध्यं० ॥७६३॥ भवषिजन करत पवित्र श्रति, पाप मंल प्रक्षाल। ईइबर हो परमातमा, नमूं चरन निज भाल ॥ ३» हीं अहूं पुण्यजिनेश्वराय नम: श्रध्यं० ।७८४॥ श्रावक या मुनिराज हो, धर्म आपसे होय। धर्मराज शुभ नीति करि, उन्माग्ग न को खोय ७ 5» हों अहे घममंराजाय नमः भ्रष्ये० ॥७८५॥ स्वयं स्व-आतम रस लहो, ताही कहिये भोग । भ्रन्य कुपरिणति त्यागयों, नम पदाम्ब॒ज योग ॥ 9 हों श्रह भोगराजायनमः ग्रध्य॑० ।७८६।॥ दर्शन ज्ञान सुभाव धरि, ताही के हो स्वामि। सब मलोनता त्यागियो, मये शुद्ध परिणासि॥ # हीं अह दर्शनलानचारित्रात्मजिनाय नमः अध्यें० ॥७८६७॥ सत्य उचित शुभ न्याय में, हे श्रानन्द विशेख । सब कुनीति को नाशकर, सर्ब॑ जीव सुख देख ॥ 22[छीं अह भूतानन्दाय नम्नः भ्रध्यें० ॥७८६॥ धष्दंम पूजा | [ १५५ पर-पदार्थ के संग्र से, दुल्चित होत सब जीव । ' “ताके भयसों भव रहित, भोगें सोक्ष सदोव ॥ 5 हो अह सिद्धिकान्तजिनाय नमः अध्यं ० ॥७८९॥। जाको कभी न श्रन्त हो, सो पायो प्रानन्द । झचलमछूप निज श्रात्मव, भाव श्रभावों दन्द ॥। उ हों भ्रह अक्षपानन्दाय नमः अध्यं० ॥७६०७ शिवमारग प्रकट कियो, दोष रहित वरतायव । दिव्यध्वनि करि गर्ज सम, सर्व अर्थ दिखलाय ॥ 5» हों प्रह वहतांपतये नमः अध्य ० ॥७६१॥ चोपाई हितकारक भ्रपुृ्वं उपदेश, तुम सम श्रौर नहीं देवेश । सिद्धसमृह जजू मनलाय, भव-भवमें सुखसंपतिदाय ॥ढेका॥। ३» हीं प्रह अपुर्वदेवोपदेष्टू नमः अ्रध्यं० ॥७६२॥ कर्म विष संस्कार विधान, तोनलोकसमें विस्तारजान ॥सिद्धतपूह०॥ 5 ह्रीं श्रह सिद्धतमुहेम्पो नमः भ्रध्यं० ७६ ३॥ धर्म उपदेश देते सुखकार, महाबुद्ध तुम हो श्रवतार ॥सिद्ध०॥। 3» ह्रीं अहँ शुद्धबुद्धाय नमः अध्यं० ॥७६४॥ तीन लोकसमेंहो शशिसूर, निजकिरणावलि करितमचूर ॥सिद्ध ० 5 हो प्रहेँ तमोमेदने नमः अध्यें० ॥७६५॥ धर्मंमा्ग उच्योत करान, सब कुवादकों कर हो हान ॥सिंद्ध ०) 55 ह्वो श्रहँ धर्ममार्गदर्शे क जिनाय नम: अध्ये ० ॥७९६॥ सर्व शास्त्रमसिथ्या वा सांच, तुम निज दृष्टि लियो हैं जांच ॥सिद्ध ० 3 हीं प्हूँ सर्वेशास्त्रतिर्णायक जिनाय नमः अरध्यें० ।१७६७॥ पंचसग्रति बिनश्रेष्ठ न और,सोतुम पायतन्रिगजशिरसोर॥सिद्ध ० # हों अहूँ पंघचगतिजिनाय नम; प्रष्यं० ॥७६५॥ २४६ ] [ सिद्धचक्र वियात श्रेष्ठ सुधित तुमही हो एक, शिवमारण को जानो ठेक। सिद्ससूहू जजू सनलाय, भव-भव्सें सुखसंपतिदाय ॥ ३5 हीं ग्रहूँ श्रेष्ठपुमतिदाजिजिताय नमः प्रध्यें० ।॥७६६॥ बष सर्जाद मली विधि थाप, भविजन मेंटे सब संताप ॥ सिद्ध ०॥ 5* हीं झहँ सुगतये नमः अध्यं ० ॥६००॥ श्रेष्ठ करे कल्याण सु ज्ञान, सम्पुरणण संकल्प निशान ॥सिद्ध०॥ # हुं भ्रहं श्रेष्ठकल्याराक,रकजिनाय नमः प्रध्यं० ॥८०१॥ निज ऐश्वर्य धरो संपूर्ण,पर विभूति बिन हो श्रध चर सिद्ध ०॥ # हुं प्रहं परमेश्वरीयपम्पन्नाय नमः भ्रष्ये० ॥६०२॥ श्रेष्ठ शुद्ध निजब्रह्म रसाय, मंगलमय पर मंगलदाय ॥सिद्ध ०१ % हीं अहूँ परबग्रह्म॒णो नमः अध्यें० ।॥८०३॥। श्री जिनराज कर्मरिपु जीति, पूजनीक हैं सबके मोत सिद्ध ०॥। 5 ह्वीं अहँ कर्मारिजिताय नमः अध्यें० ॥८०४॥ घट पदार्थ नवतर्व कहाय, धर्म-प्रधमं भलीविधि गाय ॥ सिद्ध ०॥। 55 हीं प्रह॑ तर्वशास्त्रश्षजिनाय नमः भ्रध्यं ० (६०४॥ है श्रुम लक्षण मय परिणाम, पर उपाधिको नह कछ काम ॥ सिद्ध ० # हीं प्रहँ सुलक्षणजिनाय नम: श्रध्य॑० |८०६। सत्य ज्ञानमय है तुम बोध, हेय श्रहेय बतायो सोध ॥सिद्ध ०१ $$ हीं प्रहे सवंबोधसत्वाय नम: प्रध्य॑० ॥६०७॥ दृष्टानिष्ट न राग न द्वंष, ज्ञाता दुष्टा हो अ्विशेष ॥सिद्ध०॥ 55 हीं अहँ निविकल्पाय नम: श्रष्यं० ।८०८१ दूजो तुम सम नहिं मगवान, धर्माधर्म रीति बतलान ॥सिद्ध ०॥ 8» हीं भप्रहं श्रद्वितोयवोषजिनाय नस: झ्रध्यं० ॥८०६९॥ महादुखी संसारी जान, तिनके पालक हो भगवान "सिद्ध ०॥ #$ ह्रीं अहूँ लोकपालाय नम: भ्रघ्य॑ ० ॥८६०॥ जगविभूति निरइच्छुक होय,मानर हित श्रातमरत सोय ॥सिद्ध ०॥। 9 हो भ्रहूँ प्रात्मरसरतजिनाय नमः भ्रध्यें० ॥८ ११॥ अच्यम पूथा || | ९५७ ज्यों शशि तापहरे भ्रनिव।र,भ्रतिशय सहित शांति करतार ॥घिद्धा। 9 हुं भ्रह॑ शांतिदात्रे नमः भ्रध्यं० ॥८१२॥ हो निरमेद प्रछेद भ्रशेष, सब इकसार स्वयं परदेश ॥सिद्ध ० ४ ह्रीं अहँ अमे्याछेद्च--जिनाय नमः प्रध्य ० ॥८१३॥।। मायाकृत सम पांचों काय, निजसों भिन्‍न लखो सत भाय ॥सिद्ध ० ४5 हीं अहूँ पंचरकधमयात्मदृश नमः ग्रध्य० ॥८१४।॥ बीती बात देख संसार, भव-तन-मोग विरक्त उदार ॥सिद्ध ० #& हों भ्रहुँ मृताथंभावनासिद्धाय नमः श्रध्यं० ।६१४॥ धर्माधर्मं जान सब ठोक, मोक्षपुरी दिखलायो लीक ॥सिद्ध ०७ &# हों अहू चतुराननजिनाय नमः भ्रध्यं० ॥८१६॥ वोतराग सर्वज्ञ सु देव, सत्यवाक वक्ता स्वयमेव ॥सिद्ध ०१ 55 हों प्रहूँ सत्यवक्त्रे नमः अध्यं० ॥८१७॥ मसन-वच-काय योग परिहार, कमंवर्ग णा नाहि लगार ॥सिद्ध ०७ # हुं भ्रहूँ निराश्रवाय नसः प्रध्य ० ॥६१८॥ चार श्रनुयोग कियो उपदेश, भव्य जीव सुख लह॒त हमेश ॥। सिद्ध ०॥ & हो प्रहूँ चतुम्‌ सिकशासनाय नमः अध्यें० ॥८१९॥ काहू पदसों मेल न होय, श्रन्वय रूप कहावे सोय ।सिद्ध ०॥ 5 हों भ्रहूँ प्रव्वयाय नम: अध्यें० ॥८५२०॥ हो समाधिमें नित लवलोन, बिन ग्राश्रय नित ही स्वाधीन।सिद्ध॑ ० 39 ह्रीं प्रहँ समाधि--निमरतजिनाय नमः प्रध्यं० ॥८२१।। खोक भाल हो तिलक श्रनूप, हो लोकोत्तम शेष स्वरूप ।सिद्ध ०॥ 5 हो भरहूँ लोकभालतिलकजिन'य नम्त: घ्य ० ॥८२२॥ ग्रक्षाधीन हीन हैं शक्त, तिसको नाश करी निज व्यक्त ॥सिद्ध ०॥ 35 ह्रीं अहूँ तुच्छभावलिदे नभ: ध्यं० ॥८२३॥। जीवादिक षट द्रव्य सुजान, तिनकौ भलोमांति है ज्ञान ।सिद्ध ०॥ # ही अहँ षड़द्रव्यव॒त्े नमः अध्यें० ॥८२४॥ विकुलरूप नय सकल प्रमाण, वस्तु भेद जानो स्वज्ञात । सिद्धसमह जजू' मन लाय, भव-भवसें सुख-संपतिदाय ॥ . ४ हीं भ्रह सकलबस्तुविज्ञात्रे नमः अ्रध्यं० ॥८२५॥। सब पदार्थ दांव त्‌म बंत,संशयहूरण कररा सुख चेन ।।सिद्ध ० & हों अहूँ घोडशपदार्थवादिने नमः धयें० ॥८२६॥ वर्णान करि पंचासतिकाय, भव्य जीव संशय विनशाय ॥ सिद्ध ०॥। # हीं भ्रह पंचास्तिकायबोधकजिनाय नमः प्रध्यं० ॥८२७॥। प्रतिबिबित हो श्रारति मांहि,ज्ञानाध्यक्ष जान हो ताहि ॥सिद्ध ०७ # हों अहूँ ज्ञानाध्यक्षजिनाय नमः अ्रध्यं० ॥८२८॥। जामें ज्ञान जीव को एक, सो परकाशो शुद्ध विवेक ॥सिद्ध ०॥ 35 ह्रीं अहँ समवाय तार्थंक जिनाय नमः अध्यं ० ॥८२६॥ मक्तिके हो साध्य सु कर्म, श्रन्तिम पौरुष साधन धर्म ॥सिद्ध ०॥॥ 55 ह्रीं ग्रहें सक्‍्तेकसाधनधर्माय नमः अध्यें० ॥5३०॥ बाकी रहो न गुर शुभ एक, ताको स्वाद न हो प्रत्येक ।सिद्ध ० 35 ह्रीं भ्रहें निरवशेषगुण।मृताय नमः श्रध्यं० ॥८३१॥ नय सुपक्ष करि सांख्य कृुवाद, तुम निरवाद पक्षकर वाद ॥सिद्ध ० & हीं भ्रहँ सांख्यादिपक्ष विध्वंसकजिनाय नमः अध्यें० ।।६३२॥ सम्परदर्शन है तुम बेन, वस्तु परीक्षा भाखों ऐन सिद्ध ०॥ 5 हीं भ्रहूं समोक्षकाय नमः अध्यें० ॥८४३३॥ धर्मज्ञास्त्र के हो कर्तार, श्रादि पुरुष धारो अवतार ॥सिद्ध ०४ 55 हों झ्रहँ अआदिपुरुषजिनाय नमः श्रघ्यें० ८३४) नय साधत नेयायक नाम, सो त्‌म पक्ष धरो श्रभिराम ॥सिद्ध ० * हुं प्रहू पंचाविशतितत्त्ववेदकाय नमः श्रष्य ० ॥॥८३५॥ स्वपर चतुष्क वस्तु को भेद, व्यक्ताव्यक्त करो निरखेद ।/सिद्ध ०॥। 5 ह्वीं अहूँ व्यक्ताव्यक्तज्ञानविदे नमः अ्रध्ये० (८३६१ दर्शन ज्ञान भेद उपयोग, चेतनामय है शुभ योग ॥सिद्ध ०॥ 35 हों अ्रह ज्ञावचत न्यमेरद्‌शे नमः अ्रष्यं० ॥८३७॥ सध्टस पूष्ता ]] [| २५१ स्वसंवेदन शुद्ध धराव, ग्रन्य जोबव हैं मलित कुमाय ।लिद्ध ०॥ # हीं प्रहँ स्वसंवेदनशानवादिने नमः अध्यें० ॥८३५८॥ दादश समा करें सतकार, श्रादर योग बंन सूखकार ॥सिंडध ०॥ 5 ही भ्रह तमवस रण--द्रावशस भापतये नमः झ्ध्यं० ॥८३६९॥। श्रागम श्रक्ष अनक्ष प्रमान, तीन भेदकर तम पहचान ॥सिद्ध ०॥ & हुं प्रहूं त्रिप्र माणाय नमः प्रध्ये० ॥८४०॥ विशव शुद्ध मति हो साकार,त्‌ृम को जानत हैं सु बिचार ॥सिद्ध ०॥ # हो प्हें अध्यक्ष प्रमाखाय नमः भ्रध्यं० ॥८४१॥ नयसापेक्षक हैं शुभ बेन, हैं भ्रशंस सत्यारथ ऐन ॥सिद्ध ०॥॥ * हों अहूँ स्थाहादवादिने नमः भ्रध्यं० ॥८४२॥ लोकालोक क्षेत्रके मांहि, श्राप ज्ञान है सब दरशाहि ॥सिद्ध ०१ 3» ह्वीं अहूँ क्षेत्रशाय नमः प्रध्यें ० ॥८४३॥। प्रन्तर-बाह्म लेश नहीं भ्रौर, केवल श्रातम मई भ्रघोर ॥सिद्ध ० # हु अहेँ शुद्धात्मजिनाय नमः प्रघ्यं० ।॥|८४४।॥। प्रन्तिम पोरुष साध्यो सार, पुरुष नाम पायो सुखकार ॥सिद्ध ०७ 5 हुं भ्रहूं पुरघात्मजिनाय नमः प्रध्यं० ।।८४५॥ चहुंगतिमें नरदेह मार, मोक्ष होत तुम नर श्राकार ॥सिद्ध ० 3 ह्लीं अहें न॒राधिपाय नमः अच्यें० ॥८५४६॥ दर्श ज्ञान चेतन की लार, निरावरणं तुम हो भ्रविकार ॥सिद्ध ०॥ 5» हीं भ्रह निरावरणचेतनाय नसः श्रध्यं० ॥८४७॥। भावन वेद वेद नरदेह, मोक्ष रूप है नहिं सन्देह ॥सिद्ध ०॥ & छ्रों अहँ मोक्षरूपजिनाय नमः अध्यं ० ॥८४८॥ सत्य यथारथ हो सब ठीक, स्वयं सिद्ध राजो शुम नीक ॥सिद्ध ०४ & ही परहँ अकृत्रिमजिनाय नमः घ्यं० (८5४६॥ दोहा जाकरि तुमको जानिये, सो है श्रगम अलक्ष । निगु रा यातें कहत हैं, मव-मयतें हम रक्ष ॥ # हो अहूँ निगु णाय नमः प्रध्यं० ॥६५०॥ २६० | [ सिडचकआ विभाग चेतनमय हैं भ्रष्टगुग, सो तुम्र में इक नाम ॥ शुद्ध प्रमूरत देव हो, स्व-प्रदेश चिदराम। ४» ह्रीं अहँ अमूर्ताय नमः प्रध्यें० ॥८५१॥ उम्मापती त्रिभुवन धनी, राजत सर भरतार। निमानन्द को श्रादि ले, महा तुष्ट निरधार ॥ 5 हीं अहे उमापतये नमः प्रध्यं० ॥८५२॥ व्यापक लोकालोक में, ज्ञान-ज्योति के द्वार। लोकशिखर तिष्ठत झ्चचल, करो भक्‍त उद्धार ॥ & हीं अहँ सर्वगताय नमः अध्यं० ॥८५३।॥। योग प्रबन्ध निवारियों, राग द्ेष निरवार। देहरहित निष्कम्प हो, भये श्रक्रिया सार 0 3 हीं श्रह अक्रियाय नसः अध्यं० ॥८५४० सर्वोत्तम श्रति उच्च गति, जहां रहो स्वयमेव । देव वास है मोक्ष थल, हो देवन के देव ॥ 5 हों भ्रह॑ देवेष्टजिनाय नमः अध्यं० ॥८६५४५॥ मवसागर के तीर हो, अ्रचलरूप श्रस्थान। फिर नहीं जगमें जन्म है, श्रचलरूप सुखथान ॥ 55 हीं प्रह॑ तटत्थाय नमः प्रध्यें० ॥८५६॥ ज्यों के त्यों नित थिर रहो, श्रचलरूप श्रविनाश । निजपदमय राजत सदा, स्वयं ज्योति परकाश ॥ 5 हीं भ्रहूँ क्टस्थाय नमः प्रध्यं० ॥८५७॥ तत्त्व-प्रतत््व प्रकाशियो, ज्ञाता हो सब भास। ज्ञानमुति हो ज्ञानघन, ज्ञान ज्योति श्रविनाद्य ॥ 3» ह्वी अह ज्ञात्र नमः अध्यं० ॥८५५॥ पर-निरमित्त के योगतें, व्याप॑ नहों विकार। निज स्वरूप में थिर सदा, हो भ्रवाध निरधार ॥ #% हो प्रहें निराबाघाय नमः अध्यें० ॥६५६॥ प्रष्टम पृथा || | २६१ चारवाक वा सांस्यमत, झूठी पक्ष धरात। प्रल्प मोक्ष नहीं होत है, राजत हो विश्यात ॥ $ ही झहूँ निराभावाय नमः अ्य ० ॥८६०४ तारण तरण जिहाज हो, श्रठुल शक्तिके नाथ । भव वारिधि से पारकर, राखो अपने साथ ॥ ३» ही झहँ सववारिधिपारकाय तमः प्रध्यं० ।॥८६१॥। बन्ध-मोक्ष की कहन है, सो भो है व्यवहार । तुम विवहार श्रतीत हो, शुद्ध वस्तु निरधार ॥ $ ह्वों अहूँ बन्धमोक्षरहिताय नभः प्रध्यं० ॥८६२॥ चारों पुरुषारथ विधें, मोक्ष पदारथ सार। तुम साधो परधान हो, सब में सुख झाधार 0७ ० हो भ्रह मोक्षतआाधनप्रधान जिनाय नम: प्रध्यं० ।।६६३॥ कर्म-सेलप्रक्षाल के, निज आातस लवलाय। हो प्रसन्‍न शिवथल विधें, पश्रन्तरमल विनशाय ॥ 5+ ह्वों अह कर्ंध्याधिविनाशकणजिताय नमः अध्ये ० ॥८६४॥ निज सुभाव निज वस्तुता, निज सुभाव में लोन । बन्दू' शुद्ध स्वभावमय, प्रस्थ कुभाव सलीन ॥ 5 हों भह निजश्वावस्थितजिनाय तमः प्रध्यं० ॥|८६५॥ निज स्वरूप परकाश है, निरावर्ण ज्यों सुर। तुमको पूजत भावसों, मोह कर्म को चूर 0 3 ह्रीं अहँ निराव रणसूर्यजिनाय नमः प्रष्य॑० ॥८६६॥। निज भावनतें मोक्ष हो, ते ही भाव रहात। स्वगुण स्वपरजाय में, थिरता भाव धरात ७ 5 ही अहूँ स्वरूपछदुजिताय नमः भ्रध्यं० ॥८६७। सब कुभाव को जोतियो, शुद्ध भये निरमूल। शुद्धातत कहलात हो, नसमत नशे शह्रघ शूल ॥ 55 हु प्रहूं प्रकृतिभियाय नमः प्रध्यें० ॥८६६५॥ २६६-॥ | सिदचचक विश्ार: निज सम्मति के सन्‍मती, निज बुध के बुधवान। शुभ ज्ञाता शुभ ज्ञान हो, पूजत सिथ्या हान ॥ '# हों भहू विशुद्धसन्मतिमिनाय नमः भध्यं० ॥८६६॥ कर्म प्रकृति को भ्रंश बिन, उत्तर हो या मूल । शुद्धरूप श्रति तेज घन, ज्यों रवि बिम्ब झ्धूल ॥ # हीं अहूँ शुद्धर्पजिनाय नमः भ्रध्यं० ॥८७०॥ ग्रादि पुरुष श्रादीश जिन, श्रादि धर्म भश्रवतार 3 आदि मोक्ष दातार हो, श्रादि कर्म हरतार॥ # हु प्रहँ आद्ववेदसे नम: अषध्ये० ॥८७१।॥ नहिं विकार श्रावं कमी, रहो सदा सुखरूप । रोग शोक व्यापे नहीं, निवर्से सदा अ्रनूप ॥ 5 हों अहूँ निविकृतये नमः भ्रध्यं० ॥८७२॥ निज पौरुष करि सूर्य सम, हरी तिमिर मिथ्यात । तुम पुस्षारथ सफल है, तीन लोक विख्यात ॥ &# ह्वीं अहूँ मिथ्यातिमिरविनाशकाय नमः अध्यं० ॥८७३॥ वस्तु परोक्षा तुम बिना, और भूठ कर खेद । भ्रन्ध कप में श्राप सर, डारत हैं निरभेद ॥ # हीं अहँ मीमांसकाय नमः अध्ये ० ॥॥८७४॥ होनहार या हो लई, या पहये इस काल ! श्रस्तिरूप सब वस्तु हैं, तुम जानो यह हाल ॥ #४ हों अहूं अस्तिसवेज्ञाय नमः अध्यं० । ८७४॥ जिनवाणी जिनसरस्वती, तुम गुरासों परिपुर। पूज्य योग तुमको कहूँ, करें मोह मद चूर॥ &# हों अरहँ भुतप्ज्याय नमः भ्रष्यं० ॥८७६॥ स्वयं स्वरूप श्ानन्‍्व हो, निजपद रसन सुभाव। सद्रा विकासित हो रहें, बन्दू' से सुमाव ॥। ४७ हुं भ्रहं सदोत्सवाय नमः स्व (च७आ 0 देने पृषा | [२६६ मन इन्द्री जानत नहों, जाको शुद्ध स्वरूप । बचनांतीत स्वगुरा्सहित, श्रमल श्रकाय भ्ररूप 0 ३ हो भ्रह परोक्षज्ञानागम्याय नमः प्रध्यं० ॥८७८।॥ जो श्रुतशान कला धर, तिनको हो तुम इष्ट । तुमको नित प्रति ध्यावते, नाशे सकल श्रनिष्ट ॥ 3» हो अहूँ इष्टपाठकाय नमः अध्यें० ॥८७६॥ निज समरथ कर साधियो, निज पुरषारथ सार। सिद्ध भये सब काम तुम, सिद्ध नाम सुखकार 0 # ही प्रह सिद्धकमेक्षयाय नम: भ्रध्यं० ।८5८०॥। पृथ्वी जल श्रगनो पवन, जानत इनके भेद । गुर भ्रनन्त पर्याय सब, सो विभाग परिछेद ॥ ३» छी अहूँ मिथ्यामतनिवारकाय नमः भअ्रध्यं० ॥८८१॥ निज संवेदन ज्ञान में, देखत होय प्रत्यक्ष । रक्षक हो तिहुं लोक के, हम शरणागत पक्ष ॥ # हुं अहू प्रत्यक्षेकप्रमाणाय नम: प्रध्यं० ॥८८२॥ विध्वमान शिवलोक में, स्वगुरण पर्य समेत । कहें श्रभाव कुमती मती, निजपर धोका देत ॥ ४ ही अहूँ अस्तिमुक्ताय नमः अध्यं० ॥८८३॥ तुभ्॒ श्रागम के मूल हो, भ्रपर गुरू है नाम। तुम वानो श्रनुराग हो, भये शास्त्र अभिरास ॥ 5७ ही अहूँ गुरुअ्न॒तये नमः प्रध्यं० |।८८४। तीन लोक के नाथ हो, ज्यों सुरगण में इन्द्र । निजपद रमन स्वभाव घर, नमें तुम्हें देवेन्द्र ॥ 55 हीं अहूँ त्रिलोकनायाय नमः श्रध्यें० ॥८८५॥ सब स्वभाव अ्रविरुद्ध हैं, निजपर घातक नाहि। सहचारी परिणाम हैं, निवसत हैं तुम माहि ४. ७ छो अहूँ स्वस्वभावाबिरद्धजिनाय नम: प्रध्यं० ।॥८८६।॥ ब्रहा ज्ञान को वेद कर, भये शुद्ध अविकार। पुरण ज्ञानी हो नम, लहों वेद को सार ॥ $ हीं अहूं ब्रह्मविदे नमः भ्ध्यं० ।।८६८७॥ दब्द ब्रह्म के ज्ञानतें, आतम तत्व विचार। शुक्लध्यान में लय भमए, हो भश्रतक॑ अ्रविचार ॥ 5 हु प्रहें शब्द।हं तब्रह्मरों नमः अ्रध्यें० ।॥८८५८॥ सुक्ष्म तत्व परकाशकर, सुक्षम कर्म श्रच्छेद । मोक्षमागं परगट कियो, कहो सु श्रन्तर भेद ॥ # हो झहँ सृक्ष्मतत्त्वप्रकाशजिनाय नमः अध्ये ० ॥८५८९॥ तीन शतक त्रसठ जु हैं, सब. माने पाखण्ड । धर्म यथारथ तुम कहो, तिन सबको करि खण्ड ॥ & हों भ्रहूँ पासण्डसण्डकाय नमः भ्रच्यं० ॥८६०॥ करांसप करतार हो, कोइक नयके हार। सुरसुति करि पूजत भए, माननीक सुखकार॥। % हीं श्रहे नयाधीनजे नमः श्रष्यं० ॥॥८६१॥ केवलज्ञान उपाइक, तदनन्तर हो मोक्ष । साक्षात्‌ बड़माग में, पूजू इहां परोक्ष ७ $ ह्लीं भहेँ अन्तकृते नमः अध्यें० ।॥६६२॥। शरणागतको पार कर, देत मोक्ष अभिराम। तारण-तरण सु नाम है, तुम पद करूं प्रशाम ॥ # ही अहँ पारकृते नमः अध्यं० ॥८६३॥ भव-समुद्र गम्भीर है, कठिन जासको पार। निज पुरुषारथ करि तिरे, गहो किनारो सार॥ & हो प्रह तोरप्राप्ताय नम: अ्रध्ये० '।८६४॥ एक बार जो शरण गहि, ताके हो हितकार । यातें सब जग जोब के, हो प्रानन्द दातार ॥ & हुं श्रह॑ं प१रहितत्थिताय नम: भ्रध्य॑० |६६५॥ भ्रष्ट पृथा |. | २६६ रत्नश्रय निज नेत्र सों, मोक्षपुरी पहुंचात। महादेव हो जगत पितु, तोन लोक विल्यात ॥ * हीं प्रहं रत्नत्रयनेत्रजिनाय नमः प्रध्यं० ॥६६६॥ तीन लोक के नाथ हो, महा ज्ञान भण्डार। सरल भाव, बिन कपट हो, शुद्ध -बुद्ध प्रविकार ॥ 5» हों अह शुदबुद्धजिनाय नम: अ्रध्यं० ॥८६७। निशजये वा व्यवहार के, हो तुम जाननहार। वस्तुरूप निज साधियो, पूजत हूं निरधार ॥ # ही प्रह॑ं जञनकर्म ममुच्चयिने नमः भ्रध्यं० ॥८६८॥ सुर-नर-पशु न श्रघावते, सभी ध्यावते ध्यान । तुमको नितही ध्यावते, पार्वें सुख निर्वाण ॥ 5 छ्वीं जहूँ नित्यतृप्तजिनाय नमः भ्रष्यं० ॥६६६॥ कर्म-संल प्रक्षाल करि, तीनों योग सम्हार। पाप-श्षेतल चकचूर कर, भये श्रयोग सुखार ॥ 35 ह्रीं ग्रह पापमलनिष।रकजिताय नमः प्रध्य॑ं० ॥६००॥ सूरज हो निज ज्ञानघन, ग्रहरा उपकद्रव नाहि। बेखटके शिवपंथ सब, दीखत है जिस साहि ॥ 3 हीं भ्रहूं निरावरणज्ञानघतजिनाय नम: प्रध्यं० ॥६०१॥ जोग योग संकल्प सब, हरो देह को साथ। रहो श्रकंपित थिर सदा, में नाऊं निज माय ॥ ३४ हीं अहू उच्छिन्नयोगाय नम: श्रष्यें० !६०२॥ जोग सुथिरता को हरे, कर आगमन कसे। तुम तासों निलेंप हो, नशो सोह पद झार्म ॥ 55 हो अहूँ योगक्ृतनिरलेपाय नमः अध्यं ० ॥६० ३॥ निज प्रातसमें स्वस्थ हैं, स्वपद योग रसाय। निर्भय तुम निर-इच्छु हो, नम जोर कर पांय ॥ 35 ही भू स्वस्थलयोग रतांजनाय नमः अध्यं० ॥६०४॥ २६६ | | सिठ चक्रधियांते महादेव गिरिराज पर, जन्म समे जिम सूर। योग किरण विकसात हो; शोक तिमिर कर दूर॥ &# हीं अहं गिरिसयोगजिनाय नम: प्रध्ये० ॥६०४॥ सुक्षम निज परदेश तन; सुक्ष्म क्विया परिणाम | चितवत मन नहिं वच चले; राजत हो शिवधाम ॥। & हुं अहं सुक््मीकृतवपु:क्रियाय नमः भ्रध्यं० ॥६०६॥ सुक्ष्म तत्व परकाश हैं, शुभ प्रिय बचनन द्वार । सविजन को आनन्दकरि, तीन जगत गुरुसार ॥ 5 ही अ्रह सुक्षवाकूमितयोगाय नमः प्रध्यं० ॥६०७। फर्म रहित शुद्धात्मा, निशुचल क्रिया रहात। स्वप्रदेश मय थिर सदा; कृत्याकृत्यः सूख पात ॥। & हों अहँ निष्कर्मशुद्धात्मजिनाय नमः श्रध्यं० ॥६०८॥ विद्यमान प्रत्यक्ष है, चेतनराय प्रकाश । कमं-कालिमासों रहित, पुजत हो श्रध नाश ॥ & हीं प्रह भुताभिव्यकतचेतनाय नमः भ्रध्यं० ॥६०६॥ गृहस्थाचरएण सुभेद करि, धर्मरूप रसराश। एक तुम्हीं हो धर्म करि, पायो शिवपुर वास 0 # हीं महँ धर्मरासजिनाय नमः प्रध्यं० ॥६१०॥ सूर्य प्रकाशन मोह तस, हरता हो शुभ पन्‍्थ। पाप क्रिया बिन राजते, महायती निरग्रन्थ ॥ # हो भ्रह परमहंसाय नमः प्रध्यं० (।६ ११७ बन्ध रहित सर्वस्व करि, निर्मेल हो निर्लेप । शुद्ध सुबर्ण दिपे सदा, नहीं मोह सल लेप ॥ 5» ह्रीं श्रह परमसंबराय नम: भ्रध्यं० ॥६१२॥ मेघ पटल बिन सुर्य जिम, दीप्त श्रनन्त प्रताप । निरावरण तुम शुद्ध हो, पूुजत मिटि है पाप ॥ # हुं प्रहें तिरावरणाय नमः अध्यं० ॥६१३॥ इहंठम पूजा ] [| २६७५ कर्म अंश सब भर गिरे, रहो न एक लगार। परम शुद्धता घारकं, तिष्ठो हो श्रविकार ७ 5» ह्रीं अहँ परमनिज राय नमः प्रध्यं० ॥६१४॥ तेज प्रचण्ड प्रभाव है, उदय रूप परताप। अन्य कुदेव कुपश्रामिया, जुग जुग घरत कलाप ॥ ३» हीं अहँ प्रज्वलितप्र भावाय नमः अध्ये० ॥६१५॥ भय्ये निर्थक:ं कर्म सब, शक्ति भई है होन। तिनको जीते छिनक में, भये सुखी स्वाधीन ॥ # हों भ्रहें समस्तक्म क्षयजिनाय नम: श्रध्यें० ।!१६१६॥ कर्म प्रकृतिक रोग सम, जानो हो क्षयकार। निजस्वरूप आ्रानन्द में, कहो विगार निहार 0७ # हीं भ्रहें कमंविस्फोटकाय नमः अ्ध्यं० ॥६१७॥ हीन शक्ति परमाद को, आप कियो हैं श्रन्त। निज पुरुषार्थ सुवोयं यों, सुखी भए सु श्रनन्त ॥ &» ह्रीं भ्रहें अनन्तवीयं जिनाय नमः श्रध्य॑० ॥६१८॥ एकरूप रस स्वाद में, निर ग्राकुलित रहाय। विविधरूप रस पर निमित, ताको त्याग कराय ॥ 35 ह्वों प्रहें एकाकार रसास्वादाय नमः भ्रष्यं ० ॥€१६॥॥ इन्द्री मन के सब विषय, त्याग दिये इक लार। निजानन्दमें सगन हैं, छांडो जग व्यापार ॥ ३* हीं श्रहूं विध्वाकारर ताकुलिताय नमः भघ्यें० ॥६२०॥ पर सम्बन्धी प्राण बिन, निज प्राणनि झ्राधार। सदा रहै जीतव्यता, जरा मुत्यु को ठार ॥ ३» हो भ्रहँ सदाजीविताय नमः भ्रघ्यं० ॥६२१॥ निजरस के सागर धनी, महा प्रिय स्वादिष्ट । भ्रमर रूप राजें सदा, सुर मुनि के हो इृष्ट ४ # हुं भरह अमृताय नमः अध्यं० ॥६२२॥ रद | [ सिद्धलश्ा विधा पुरण निज प्रानन्द में, सदा जागते श्राप । नहिं प्रमाव में लिप्त हैं, पूुजतत विनसे पाप ॥ # ड्डी प्रहँ[जाग्रते नमः प्रध्यं० ॥६२३।॥ क्षीण ज्ञान नानावरण, कर जोवको नित्य । सो श्रावण विनाशियों, रहो श्रस्वप्न सुवित्य ॥ ४ ह्रीं अहूँ असुप्ताय नमः अध्यं० ॥॥६ २४! स्व-प्रमाण में थिर सदा, स्वयं चतुष्टय सत्य । निराबाध निर्भवय सुखी, त्यागत भाव प्रसत्य ॥ 5* हों प्रहूँ स्‍प्रमणल्यिताय नमः प्रघ्यं० ॥६२५।॥ अ्रमकरि नहीं श्राकुलित हो, सदा रहो निरखेव । स्वस्थरूप राजो सदा, वेदों ज्ञान अमभेद ॥ 5 ह्लीं अहं निराकुलितजिनाय नमः अध्यं० ।६२६७ सन वच तन व्यापार था, तावत रहो दारीर। ताको नाश श्रकम्प हो, बन्दू! मन धर धीर॥ # हीं प्रहें अयोगिने नमः भध्ये० ।६ २७॥॥ जितने शुभ लक्षण कहे, तुममें हैं एकत्र । तुमको बन्द भाव सों, हरो पाप सत्र ॥ & हां भ्रहूँ चतुरशी तिलक्षण।य नम: भ्रध्यं० ॥६२८।॥ तुम लक्षण सुक्षम महा, इन्द्रिय विषय श्रतोत । वचत भ्रगोचर गुण धरो, निमुरा कहत सुनीत ॥ 5 हुं भ्रहें श्रगुणाय नमः अध्यं० ।६९२६॥ श्रगुबलघू पर्याया के, भेद श्रनन्तानन्त । गुरा भ्रनन्‍त परिणशामकरि, नित्य नमें तम 'सन्‍्त' ॥ 3 हू भ्रहँ प्रनन्तानन्तपर्याय नमः अध्यें० । ६३० 0 राग हेष के नाशतें, नहीं पूर्व संस्कार । निज सुभाव में थिर रहैं, भ्रन्य वासना टार॥ हूं भ्रहूँ पूर्वंसंईकारनाशकाय नमः अध्यं० ॥६३ १0 झष्ठस पृच्ा [ २६९ गुर चतुष्ट में बुद्धता, भई प्रनस्तानम्त १ तम सम झौर न जगत में, सदा रहो जयवन्त ॥ 5 हों भहेूँ भ्रनन्‍्तच्रतुष्ठबद्धाय तमः प्रध्यं० ।६३२॥ कथित उत्तम वचन, धर्म मार्ग अरहन्त । सो सब लाम कहो तुम्हीं, शिवमारग के सन्‍्त ७ # ही ,अहूँ प्रियय बनाय नमः भ्रध्ये० ॥६३३॥ महाबद्धि के धाम हो, सुक्षम शुद्ध भश्रवाच्य । चार ज्ञान नहिं गम्य हो, वस्तुरकूप सो सांच्य ७ 3 छह झहेँ निरवच प"ोयाय नमः अ्रष्यें ० ॥॥६३४॥ सुक्षम तें सुक्षम विष, तुमको है परवेश | झाप॑ सृुक्षम रूप हो, राजत निजञ परदेश ॥ क हो झहँ अनोश्ाय नम: भ्रध्यं० ॥६३५॥ कर्म प्रबन्ध सुबन पटल, ताको छांय निवार । रविघन ज्योति प्रकट भई, प्रणता विधि धार ४ ३» हों प्रहूँ प्रतर/पर्यायाय नमः प्रष्य ० ६३६॥। निज प्रदेश में थिर सदा, योग निमित्त तिवार। झग्रवल शिवालय के विें, तिष्ठ सिद्ध श्रपार ॥ # हीं अहूँ स्थेयसे नमः अध्यें० ॥६३७॥ सन्‍त नमन प्रिय हो भ्ति, सज्जन वल्लभ जान । मुनि जन मन प्यारे सहो, नमत होत कल्यारा 0 ३ ड्वीं अहँ प्रेष्ठाय नमः प्रध्यं० ॥६३८।। काल प्रनन्तानन्‍्त लोॉं, करें शिवालय वास । प्रव्यय ध्विनाशी सुधिर स्वयं ज्योति परकाश ॥॥ 35 ही अहूँ ल्थिरजिनाय नमः अध्ये० ॥६३६॥ स्व-झातम सें वास है, रलत नहों संसार। ज्यों के त्यों निश्यल सदा, बन्दत भवदधि पार ४ # हु प्रहूँ निनात्मतर्वत्तिष्ठाय तमः प्रष्य॑० ॥६४०।। [ सिद्धथंह विधान सुभग सराहन योग्य हैं, उत्तम भाव धराय। तीन लोक में सार है, सुनिजन बन्दित पाय ॥ 55 हों अहूँ श्रेष्ठभवघा रकजिताय नमः प्रध्यें ० ॥६४१॥ सब के श्रग्नसर भये, सब के हो सिरताज। तुमसे बड़ा न झौर है, सबके फर हो काज 0 5 हीं प्रहूँ ज्येष्ठाय नमः अ्रध्यें० ॥ ६४२॥ स्व-प्रदेश निष्कम्प हैं, द्रव्य-माव विधि नाश। इृष्टानिष्ट निमित धरे, निज श्रानन्द विलास ४ 3 हीं भ्रहूँ निष्कम्पप्रदेशजिनाय नम: श्रष्यं० ॥६४३॥ उचित क्षमादिक श्र सब, सत्य सुन्याय सुलब्ध । तिन सबके स्वासी नम्‌, पुरणण सुखी सुश्रब्ध ॥ 5 ह्रीं अहूँ उत्तमक्षमाविगुणाब्धिजिनाय तमः प्रध्यं० ।६४४॥ महा कठिन दुःशक्य है, यह संसार निकास १ तुम पायो पुरुषार्थ करि, लहो स्वलब्धि श्रवास ॥ ३ ह्वों भ्रह॑ पुज्यपादजिनाय नम: श्रध्यं० ॥॥६४५॥ परमारथ निज गुण कहें, मोक्ष प्राप्ति में होय । स्वारथ इन्द्रिय जन्य है, सो तुम इनको खोय ॥ 55 ह्रीं अहूँ परमार्थगुणनिधानाय नम: भ्रष्यें० ।|६४६॥ पर-निमित्त या भेद करि, या उपचरित कहाय । सो तुम में सब लय भये, मानों सुप्त कराय ॥ 5» हीं अहूँ व्यवहारसुप्ताय नमः घ्य० ॥६४७॥। स्व-पद में लित रमत हैं, श्रप्रमाद श्रधिकाय । निज गुरा सदा प्रकाश है, भ्रतुल बली नप्‌' पाय ॥ # हीं अह अतिनागरूकाय नमः अध्यं० ॥॥६४८॥ सकल उपद्रव सिटि गये, जे थे परकी साथ । तिभंय सदा सूखी भये, बन्दु' नसि निजसाथ ॥ # हो अह भ्रतिधुत्थिताय नमः अध्ये० ॥९४९॥ भ्ष्दम पूजा ] [ २७१ कहे हुवे. हो नेमसें, परमाराष्यः झ्नादि। तुम महातमा जगत के, और कुदेव कुवादि ॥ 55 हु अहूँ उश्तोदितमाहात्म्याय नमः अध्यें० ॥६५०॥। तस्वशञान भ्रनुक्ल सब, शब्द प्रयोग विचार । तिसके तुम अ्रध्याय हो, श्रर्थ प्रकाशन हार ॥ छ9 हीं अहूँ तत्तज्ञानानुकूलजिनाय नमः अध्ये ० ॥६५१॥। ना काहू सों जन्म हो, ना काहू सों नाश। स्वयंसिद्ध बित पर-निमित्त, स्व-स्वरूप परकाश ॥। छ हों अहू अकृत्रिमाय नमः अध्ये० ॥६५२॥ श्रप्रमारण ध्त्पन्त है, तुम सन्‍मति परकाश। तेजरूप उत्सव मई, पाप तिमिर को नाश ७ ३5 हीं प्रहूं अप्े यम हिम्ने नम: प्रध्यं० ॥६५३।॥। रागादिक सल को हरें, तनक नहीं श्रावास। महा विशुद्ध श्रत्यन्त हैं, हरो पाप-अ्रहि-डांस ॥ <» डी भहूँ अत्यन्तशुद्धाय नम: अध्यें० ॥६५४॥ स्वयंसिद्द भरतार हो, शिवकामनि के संग। रमसरत माव निज योग में, सानों भ्रति श्ानन्द ४ ४> ह्रीं ग्रह सिद्धिस्वयंबराय नम: प्रध्यं ॥६ ५५॥। विविध प्रकार न धरत हैं, हैं श्रजन्म श्रव्यक्त । सुक्षम सिद्ध समान हैं, स्वयं स्वभाव सब्यक्त ॥। 35 हो भ्रहूँ तिद्धानुजाय नम: प्रध्यं० ।!६५६॥ मोक्षरूप शुम वास के, श्राप सांग निरखेद । भविजन सुलभ गन करें, जगत वास को छोद ॥ «5 ही भ्रहँ शिवपुरोपन्थाय नमः ध्रध्यें० 6५७॥ गुरा समृह अ्रत्यन्त हैं, कोई न पाब॑ पार। थक्तित रहे श्रुतकेवली, निज बल कथन श्रगार ७ # हुं अहूँ प्रवस्तवुण पमुहुजिताय नमः अध्ये ० ॥ ६५८१ २७२ || [ शिट क्विधान इक श्रवगाह प्रदेश में, हो श्रवगाहु भ्रनन्त । पर उपाधि निग्नत कियो, मुख्य प्रधान श्नन्‍्त ॥ 5» हो अहू पर-उपाधिनिप्रहकारकजिताय समः श्रध्यं० ॥६५६॥ स्वयंसिद्ध निज वस्तु हो, आग इन्द्रिय ज्ञान । कर्तादिक लक्षण नहीं, स्वयं स्वभाव प्रमान ॥॥ क हों अहूँ स्वयं सिद्धजिनाय नमः अ्ध्य० ॥६६०॥ हो प्रछुन्न इन्द्रिय श्रमम, प्रकट न जाने कोय । सकल श्रगुण को लय कियो, निज श्रातम में खोय ॥ $% हीं भ्रह इन्द्ियागम्यजिनाय नमः श्रध्यं० ॥।६६१॥। निज गुण करि निज पोषियो, सकल क्षुद्रता त्याग । प्रण निज पद पाय करि, तिष्ठत हो बड़भाग ॥ ** हीं अह पुष्टाय नमः प्रध्यं० ।।६६२॥ ब्रह्मचर्थ पुरण धरे, निजपद रमता धार। सहस श्रठारह भेद करि, ज्ञील सुभाव सु सार ॥ * हीं अ्रहें अष्टादशस हस्नरशोलेश्वराय नमः अ्रध्यं० ॥६६३॥ महा पुन्य शित्रपर कमल, ताके दल्ल विकसान। मुनि सन अमर रसरा सुथल, गंघानन्द महान ॥ $# हीं प्रहूँ पुण्यसंकुलाय नमः प्रध्यं ७ (।६६४॥ सति श्रुत श्रवधि त्िज्ञान युत, स्वयंबुद्ध भगवान । क्तयुग में मुनि ब्रत धरो, शिव साधक परधान ॥ % हो जहूँ ब्रताग्रयुगयाय नमः अध्यें० ।।६६५। परम शुक्ल शुभ ध्यान में, तुम सेवन हितकार। सन्‍त उपासक आपके, क्ं-बन्ध छटकार ॥ # हों भहूँ परमशुक्लध्यानिने नमः भ्रध्य ० ॥६६६॥ फारवार इस जलधि को, शोघ्र कियो तम ध्रस्त । गोखुरकार उलंधियो, घरो स्व भज बलवन्त ॥ # हू भहँ संसारसमुद्रतारकजिनाय नम: अध्य ५ ।६६७॥ झ्रष्ठम पूजा |. [ २० एक समग्र सें गसन कर, कियो शिवालय वास । काल अन्त झचल रहो, मेंटो जग भ्रम भ्रास ॥) ४ हो भहें क्षेपिष्ठाप नमः अध्यं० ।'९६८॥ पंचाक्षर लघु जाप में, जितना लागे काल। हान्तिम पाया शुक्ल का, ध्याय बसे जग भाल ॥ #% हीं हूं पत्च तष्वक्ष रस्थितये नमः झ्रष्य० । ६६९॥ प्रकृति त्रयोदश शेष हैं, जब तक मोक्ष न होयथ । सर्व प्रकृति थिति समेटक, पहुंचे शिवपुर सोय ॥ 8 हीं अहूँ त्रयोवशप्र कृतिध्यितिविनाश काय नमः ध्यें ० १९७०॥ लेरह विधि चारित्र के, तूम हो प्रण श्र। निज पुरुषारथ करि लियो, शिवपुर आानन्व पुर 0 ३ हो अह त्रयोरशचारित्रपृणंताय नमः भ्रध्यें० ॥६७४१॥। निज सूख में शभ्रस्तर नहीं, परसों हानि न होय । स्वस्थरूप परदेश जिन, तिन पूजत हूं सोय ७ ३ हीं अहूँ अच्छेशजिताय नमः अच्यें० ॥६७२॥। निज पूजनतें देत हो, शिव सम्पति भ्रथिकाय । यातें पूजन योग्य हो, पूजूं मन-वच-काय !। ढ हों पहँ शिवदात्रीजिनाय नमः प्रध्यं० ॥६७३॥ मोह महा परचण्ड बल, सके न तुमको जींत। नमूं तुम्हें जयवन्त हो, धारस्‌ उर में प्रीत ॥ 3» हो ग्रह श्रजयजिनाय नमः अध्ये० ।६७४॥ यग विधान में जजत हो, श्राप मिले निधि रूप । तूम समान नहों भौर धन, हरत दरिद दुखकप ॥। डी ग्रह याज्याय नमः ध्रध्यं० ॥6€७५॥ लोकोत्तर सम्पद विभव, है सरवस्व श्रधाय । तुमसे श्रधिक न झौर है, सल विभति शिवराय ॥ उ> हों प्रहुेँ अनव्येतरिप्रहाय तत। प्रध्यें० ॥६७६॥ २७४ ] [ सिद्धचआ विधान तुमरो भ्राह्नानन यजन, प्रासुक विधि से योग। ज्िजग श्रमोलिक निधि सही, देत पर्म सुखभोग ॥ 55 हों प्रहूं अनध्यहेतवे नमः भ्रध्य ० ॥॥६७७॥ एक देश मुनिराज हैं, सब देश जिनराज । भव-तन-भोग विरक्‍्तता, निर्ममत्व सूख साज ॥। ४5 ह्वीं अहूँ परतनिष्प्हाय नमः अध्यं० ॥६७५॥ परदुख में दुख हो हो जहां, मोह प्रकृति के द्वार । दया कहें तिसको सुमति, सो तुम सोह निवार ॥ # हों झहँ अत्यन्तनिर्मोहाय नम: अध्यें० ॥६७६।॥ स्वयंबुद्ध भगवान हो, सुर सुनि पूजन योग। बिन शिक्षा शिवमा्ग को, साधो हो धरि योग ७ 3३% ह्वीं श्रहं अशिष्याय नमः अध्यें० ।६८०॥ तुम एकत्व प्रन्यत्व हो, परसों नहीं सम्बन्ध । स्वयंसिद्ध श्रविरद्ध हो, नाशों जगत प्रबन्ध ॥ 85 हीं भ्रहं परसम्बन्धविनाशकाय नम: भ्रध्य॑० ॥॥६८१॥ काहू को नह यजन करि, गुरु का नहिं उपदेश। स्वयंबुद्ध स्व-शक्ति हो, राजो शुद्ध हमेश ॥ 5 हीं भ्रहें अदीक्षाय नसः अध्यें० ॥६८२॥ तुम त्रिभुवन के पूज्य हो, यजों न काहू और। निजहित में रत हो सदा, पर-निमित्त को छोर ॥ 55 हों अह त्रिभुवनपुज्याय नमः अध्यं० ॥६८३॥ प्ररहन्तादि उपासना, मोह उदयसों होय। स्वयं ज्ञानमें लय भए, मोह कम को खोय ॥ ३ हों अहूँ अदीक्षकाय नमः अ्रध्यें० ।।६८४।। गोण रूप परिणाम है, सुख श्रुवता गुण धार। प्रक्षय श्रविनश्वर स्वपद, स्वस्थ सुथिर पभ्रविकार ॥ #% ह्रीं अहु अक्षयाय नमः भ्रध्य ० ॥६८५॥ प्रष्टम पूजा ] [ २७४ सुक्षम शुद्ध स्वभाव है; लहै न गरधर पार। इस्त्र तथा धरहमिसरद्र सब, अ्रभिलाधित उरघार ॥ 3४ हों अहू अगमकाय नमः प्रष्यें०॥।६८६॥ प्रचल शिवालय के विष, टंकोत्कोर्श समान । सदा विराजो सुखसहित, जगत अमराकों हान ॥ 3 छ अहूँ अगस्याय नमः प्रध्यं० ।६८७॥ रमण योग छदमस्थ के, नहिं प्रलिग सखूप ॥ पर प्रवेश बिन शुद्धता, धारत सहज प्रत्ृप ॥ 55 हीं भ्रहूँ अरम्याय नम: श्रध्यं० ॥६८८॥ पर-पदार्थ इच्छुक नहीं, इष्टानिष्ट निवार। सुथिर रहो निज प्रात्म में, बन्बत हूँ हितघार ॥ : 8४ छो अह निजात्मतुत्यिराय नमः अध्यें० ॥६८९॥ जाको पार न पाहयो, श्रवधि रहित पभ्रत्यन्त । सो तुम ज्ञान महान है, श्राशा राखे 'सत्त' ॥ 55 हीं भ्रह ज्ञाननिभेराय नमः अध्यें० ॥६६०॥ सुनिजन जिन सेवेन करें, पावे निजपद सार। महा शुद्ध उपयोग मय, वरतत हैं सुखकार ७ 5& ह्लीं अहं महायोगोश्व राय नमः अध्यें ० ॥६१९१॥ भाव शुद्ध सो देह में, द्रव्य शुद्ध बिन देह। कर्म वर्गंणा बिन लिये, पूजत हूं धरि नेह ॥ & हों भ्रह द्रव्यशुद्धाय नम: श्रध्यं ० ॥६६२॥ पंच प्रकार शरोर को, मूल कियो विध्वंश। स्व॒प्रदेशमय राजते, पर मिलाप नहों पअ्रंश ७ 3 हो भ्रहूं अदेहाय नमः भ्रध्यं० ॥६६३। जाको फेर न जन्म है, फिर नाहों संसार | सो पंचसगति शिवमई, पायो तुम निरधार ॥ #%# हीं अहँ अपुनर्भवाय नमः अध्य ० ।:६६४॥ २७६ | [ सिडचकर विधान सकल हन्द्रियाँ व्यय करि, केवलशान सहाय । लब॒द्रव्यनि को ज्ञान है; गुरा भ्रनस्त; पर्याय_॥ & हो अहँ शानेक्विदे नमः अध्यं० ॥६९५॥ जीव सात्र निज धन सहित, गुण समृह मश्ति खान । हधनन्‍्य विभाव विभव नहों, महा शुद्ध श्रविकार ॥ 9 डॉ झहेँ जोवधनाय नमः अध्यं० ।६६६॥ सिद्ध भये परप्तिद्ध तुम, निज पुरुषारथ साध | महा शुद्ध निज श्रात्ममय, सदा रहे निरबाध ॥ 85 हों प्रहँ सिद्धाय नमः अध्यं० ॥६६७॥ लोकशिखर पर थिर भए, ज्यों मन्दिर मणि कुम्भ । निजशरीर श्रवगाह में, भ्रचल सुथान श्रलुम्भ ॥ 55 छ्वों भर लोक प्रस्थिताय नमः श्रध्यें० ६€८॥ सहज भमिरामय भेद बिन, निराबाध निस्संग। एक रूप सामान्य हो, निज विशेष मई अंग 0७ # हुं प्रहूं निदवंन्दाय नमः भ्रध्यें० ६६६९॥ जे श्रविभाग प्रछेद हैं, इक ग्रुण के सु श्रनन्त। तुम सें प्रण गुण सही, परो पअ्नन्तानन्त ॥ ४ ह्वीं भ्रहेँ अनन्तानन्तगुणाय नमः अ्रध्यं० ॥१०००॥ प्र मिलाप नहीं लेश है, स्वप्रदेशमय रूप । क्षयोपद्षम ज्ञानो तुम्हें, जानत नहीं स्वरूप ॥ ४ हीं अहूँ आत्मरू्पाय नभः अ्रध्यं० ॥१०० १॥ क्षमा प्रात्मको भाव है, क्रोध कम्ंसों घात। सो तुम कर्म लिपाइयो, क्षमा सुमाव धरात॥ ४» ह्वीं जहूँ महाक्षमाय नमः झध्य० ॥॥१००२॥। शोल सुभाक सु झात्मको, क्षोभ रहित सुखदाय। निर श्राकुलता धार है, बन्द तिनके पांध॥ ऋ# हीं भहँ महाशोलाय नमः श्रप्यं० ॥१००३॥ अष्टम पूजा || ..॥ २३४ शक्ति स्वभाव ज्यों श्ांतिधर, और न शांति धराय 4 झञाप शांति पर-शांतिकर, भवदुख वाह मिदाय ७ # हीं भ्रहँ महाशांवाय नमः प्रध्यं० ॥१००४॥ तुम सम को बलवान है, जीत्यो सोह प्रचण्ड ।. धरो प्रनन्त स्व-वीयंको, निजपद सुथिर भ्रखण्ड ४ ४ हों अहूँ अनन्तवीर्यात्मकाय तमः अध्य ० ॥१००४५॥ लोकालोक विलोकियो, संशय बिन इकबार । खेद रहिक निशचल सूखी, स्वरुछ झारसो सार ॥ 3 हीं प्रह॑ लोकज्ञाय नमः झ्रध्यें० ॥१००६॥। निरावर्ण सवे गुण सहित, निजानन्द रस भोग । प्रव्यय भ्रविनाशी सदा, भ्रज॑र प्रमर शुभ योग ॥ 5 छ्वीं अहँ निरावरखाय नम: अं ० ॥१००७॥ परम मुनोश्वर ध्यान धर, पार्वे निजपद सार। ज्यों रविबिम्ब प्रकाशकर, घठ-पट सहज निहार ॥ 5 हो प्रहूँ ध्येयगुणाय नमः अध्यं७ ॥१००४॥ कबलाहारो कहत है, महा मसृढ़ सति मनन्‍्द। प्रश्न झसाता पीर बिन, श्राप भये सुखकन्द ॥ ३४5 हीं अहूँ अशनदस्धाय नमः श्रष्यं० ॥१००६॥ लोक श्लीत्ष छवि देत हो, धरो प्रकाश भ्रनूष । बुधजन श्रादर जोग हो, सहज प्रकस्प सरूप 0४ 85 हीं भहूँ त्रिलोकमणये तसः अध्यं० ॥१०१०॥ महा गुणन को रास हो, लोकालोक प्रजन्त ॥ सुर सुनि पार न पावते, तुम्हें नें नित 'सन्‍्त' ॥ ४ हीं अहूँ अनन्तगुशप्राप्ताय तम्रः अध्यं० ॥१०११॥। परम सुगुरा परिपूर्ण हो, मलिन भाव नहीं लेश । जगजीवनपध्राराध्य हो, हम तुम यही जिशेष 0 # हीं अहू परमात्मने नमः अध्यं० ॥१०१२॥ श्७द | [ सिडचक्र विधा केवल ऋद्धि महान है, श्रतिशय युत तप सार। सो तुम पायो सहज हो, सुनिगरण बन्दनहार ॥ क हों प्रहँ महा ऋषये नम: भ्ध्यं० ॥१०१३॥।। भूत भविष्यत्‌ कालकों, कभी न होवे प्रन्त । नितप्रति शिवपद पाय-कर, होत श्रनन्तानन्त ॥ 5 हु प्रहूँ अनन्त सिद्धेभ्यो नमः अध्यं० ॥११० १४॥ निर्भव निर-प्राकुलित हो, स्वयं स्वस्थ निरखेद । काहू विधि घबाहुट नहों, निज श्रानन्द श्रभेद ॥ ३» हों प्रहें अक्षोमाय नम: भ्रध्यं॥१०१५॥ जो गुण-गुणणी सुभेद करिं, सो जड़ मतो श्रजान । निज गुरा-गुणी सु एकता स्वयंबुद्ध भगवान ॥ 3» हों श्रहँ स्रयंबुद्धाय नम: श्रध्यं० ।।१०१६।। निरावरण निज ज्ञान सें, सर्व स्पष्ट दिखाय। संशयबिन नहिं भरम है, सुथिर रहो सुखपाय ॥ 5 हीं भ्रहूं निरावरण ज्ञान|य नम: श्रध्य॑ं० ॥१०१७॥ राग दहंष के शप्रन्त में, मत्सर भाव कहात। सो तुम नासो मूल हो, रहै कहाँ सो पात ॥ ४» हों भ्रह बीतम॒त्सराय नमः भ्रध्यं० ॥१ ० १८।॥। भ्रणुवत्‌ु लोकालोक है, जाके ज्ञान मंकार। सो तुम ज्ञान श्रथाह हैं, बन्दू में चित धार ॥ # छू अहूं अनन्ता-न्तश्ञानाय नमः प्रध्य ० ॥१०१६।। हस्तरेख सम देख हो, लोकालोक सरूप । सो अनन्त दहंन धरो, नमत सिर्ट भ्रम कप ॥ 8 ह्वीं जहें अनतानन्तदशनाय नमः भ्रध्यें० ॥१०२०॥ तोन लोक का पृज्यपन, प्रकट कहेँ दिखलाय । लीन लोक दिरवास है, लोकोत्तम सुखदाय ॥ # हों प्रहूं लोफशिक्षरवासिने नमः प्रध्यं* ॥१०२१॥ भ्रष्टम पूथा | है २७६ निजपद में लवलीन हैं, निज रस स्वाद झह्घाय । परसों इह रस गुप्त है, कोटि यत्न नहीं पाय ॥ 5 हीं अहं सगुप्तात्मने नम: भ्रध्यं० ॥ १०२२॥ कर्म प्रकृति को मूल नहीं, द्रव्य रूप यह भाव। महा स्वच्छ निर्मल दिपे, ज्यों रवि मेघ प्रभाव ४ 5 हु प्हूँ पुतात्मने नमः अध्यं० ॥१०२३॥ हीन अभाव न शक्ति है, कर्संबन्ध को नाश । उदय भये तुम गशासकल, महा विभव को राश ॥ 5 हीं भ्रहें महोदयाय नमः अ्रध्य ० ॥१०२४।॥ पाप रूप दुख नाशियो, मोक्ष रूप सुख रास। दासन प्रति मंगलकररा, स्वयं सन्त” है दास ॥ ४ हु पहू महामंगलात्मकजिनाय नमः अध्यं० ॥१०२५॥ दोहा कहें कहाँलों तम सुगुण, अश्रंशमात्र नहीं अभ्रन्त । संगलीक तुम नाम हो, जानि मर्ज नित 'संत' ॥ 5 हीं पुर स्वगुणजिनाय नमः पूर्णाध्य निर्वषामोति स्वाहा । अंथ जयमाल दोहा होनहार तुम गुणा कथन, जीभ द्वार नहीं होय । काष्ठ पांवसें श्रनिल थल, नाप सके नहों कोय ॥१॥ सुक्षम शुद्ध-स्वरूप का, कहना है व्यवहार । सो व्यवहारातीत हैं, यातें हम लाचार ॥१॥ पे जो हम फछ कहत हैं, शान्ति हेत भगवन्त । बार बार थति करन में, नह पुनरक्त मनन्‍्त ॥३॥ ४८० || | सिडचक विदार्म पढ़ड़ी जय ह्वयं शक्ति श्राधार योग, जय स्वयं स्वस्थ श्रानस्थ भोग । जय स्वयं विकास भ्राभासत भास,जयस्वयंसिद्ध निजपद निवास ॥४ जय स्वयंबुद्ध संकल्प टार, जय स्वयं शुद्ध रश्गादि जार । जय स्वयं स्वगुण आचार धार, जय स्वयं सुखी प्रक्षय प्रपार ॥५ जय स्वयं चतृष्टय राजमान, जय स्वयं भ्रनन्‍्त सुगुरा! निधान । जय स्वयं स्दस्थ सुस्थिर ध्रयोग, जय स्वयं स्वरूप मनोग योग ॥६ जय स्वयं स्वच्छ निज ज्ञान पुर, जय स्वयं वीय॑ रिपु वच्च च्र। जय महामुनिन श्राराध्य जान, जय निपुरणामती तत्वज्ञ मान ॥७ जय सन्‍्तनि मन आानन्दकार, जय सज्जन चित बल्‍लभ श्रपार । जय सुरगरण गावत हर्ष पाय,जय कवि यशकथन न करि प्रधाय॥८ तुम महातीर्थ भवि तरण हेत, तुम महाधर्म उद्धार देत । तुम महासंत्र विष विध्त जार, भ्रध रोग रसायन कहो सार ॥६ तुम महाशास्त्र का मूल शेय, तुम महा तत्व हो उपादेय । तिहुं लोक महामंगल सु रूप, लोकत्रय सर्वोत्तम झनूप ॥१० तिहुं लोक शररा भ्रघ-हर महान, भवि देत प्रसपद सुख निधान। संसार महासागर श्रथाहू, नित जन्म मररणा धारा प्रवाह ॥११॥ सो काल भ्रनस्त दियो बिताथ, तामें भफोर दुख रूप खाय । मो दुखी देख उर दया श्रान, इस पार करो कर ग्रहण पान ॥ १२ तुम ही हो इस १२ षार्थ जोग, श्र हे भ्रशक्त करि विषय रोग । सुर नर पशु दास कहे प्रनन्त, इनमें से भी इक जान 'सरत' ॥१३ घृत्ता--कबित्त । जय विधन जलधि जलहनन पवनवल सकल पाप मल जारन हो । जम मोह उपल हुन वच्छ असल दुख भ्रनित्र ताप जल कारन हो ॥। परष्टम॑ पृधा | .' [२६६ ज्यूं पंगु खढ़े गिर, गंग भरे सुर, भ्रभुज सिन्धु तर कष्ट भरे। त्यों तुम थुति काम महा लज ठाम, सु भ्रंत 'संत' पररपाम करे ॥ ४ ही श्रह चतुविशःयधिकसहल्पुणयुक्त सिद्धेभ्यों नमः अध्ये निर्वपामिति स्वाहा । इति पूर्णाष्यंभ । दोहा तीन लोक चूड़ामरि, सदा रहो जयवन्त । विध्नहरण मंगलकरन, तुम्हें नमें नित 'सन्‍्त' ॥ १॥ इत्दाशोर्वादः । यहां पर १०८ बार '४# हों जह प्रति आउ सा नभः' मन्त्र का जाप कर । अडिल्ल पुरण मंगलरूप महा यह पाढ है; सरस सुरुचि सुखकार भक्त को ठाठ है। शब्द-प्रथ॑ में चूक होय तो हो कहां; थुतिवाचक सब शब्द-भ्रथ॑ यामें सही ।१॥ जिनगुणकरण आरम्भ हास्य को धाम है; वबायस का नहिं सिंधु उत्तोरण काम हे। पे भक्तनि की रीति सनातन है यही; क्षमा करो भगवन्त शान्ति पुरणमहो ॥२॥ परिपृष्पांजलि क्षिपेत्‌ । इति श्री सिद्धाचक्रपा5 प्राषा--कवि भ्री सन्‍्तलालजो कृत समाप्त । इसके पश्चात्‌ चोबीस तीर्थंकर पुजा, सरस्थती व गुरु पूजा, व फिर हुवन करता चाहिए। अर | २८२ | || सिडभक्र विधांध हवन विधि हवन के लिए क्िसों काफी लंबे चोड़े स्थान में तोन कुण्ड बनावे वे कुण्ड इस प्रकार हों-प्रथम तोथंकरकुण्ड एक प्ररत्नि (मुश्टि बंधे हाथ को भ्ररत्नि कहते हैं) लंबा इतना हो चोड़ा चौकोर हो और इतना ही गहरा हो इसको तीन कठनो हों पहली ४ श्रंगुल की ऊंची, चौड़ी, दूसरो ४ श्र गुल को, तीसरी ३ भ्रगुल को हो। इस कुण्ड के दक्षिण की श्रोर त्रिकोण कुण्ड उसी प्रमाण से लंबा चोड़ा गहरा हो तथा उत्तर की ओर गोल कुण्ड उतनी ही लम्बाई चौड़ाई गहराई वाला हो प्रत्येक कुण्ड का एक दूसरे से भ्रन्तर चार चार श्रंगुल का होना चाहिए। इन कुण्डों के चारों भ्रोर कटनियों पर ३४३» 8३5 ४ रं रंरर॑ं लिखना चाहिए । ये कुण्ड कच्ची इंटो से एकदिन पहले तंयार करा लेने चाहिए भ्रोर इन्हें भ्रच्छे सुन्दर रंगों से रद्ध देना चाहिए भीतर का भाग पीली या सफेद मिट्टी से पोत देना चाहिए। कुडों की तीनों कटनियों पर चार २ पतलो खूटी गाढ़े या छोटे छोटे गिलास रक्‍खे जिनमें कलावा लपेटा जा सके ; कलावा लपेटते समय यह मन्त्र बोलना चाहिए। # हों प्रहूं पंचवर्रसूत्रेण त्रीन्‌ वारान्‌ वेष्टयमि। इस प्रकार एक खूंटो से दूसरी खूंटी श्रोर दुसरी से तोसरी चौथी खूंटो तक कलावा लपेटे । कुण्डों के पास दक्षिण या पश्चिचम में एक बेदी लगावे जंसे पाठ के मांडले के पास लगाई थी उसमें सिद्धयंत्र विराजमान करे | बेदी के पास एक चौको रक्‍खे जिस पर मड्भल कलश हथन करते हुए । यु पाठ के पर्चात सिद्धचक् विधान ] | २८६ रबखा जाय । तथा एक बड़ी संदली पर एक बड़ा और कुछ छोटे कलश (गिलास) जल से भरे रखकर मंत्र द्वारा जल शुद्ध करे। हवन सामग्री बादाम, पिह्ता, छुवारा, नारियल का खोपरा, दाख, लोंग, कपुर, सफेद चंदन, लाल चंदन तथा चिरोंजी, सुगन्ध वाला, देवदारु, श्रगर, तगर, बालछड़, पानड़ी, कपुरकचरी, तागरमोथा, छार छबोला, इत्यादि सुगन्धित द्रव्यो का चूरों तथा धान, तिल, मूंग, उड़द, गेहूं, जौ, चना इन्हें भी खरल में कूटकर घी तथा बूरा मिला कर ठोक कर लेना चाहिए तथा झ्राहुति के लिए श्रजग वर्तेन में घो व लकड़ी का चस्मच चाहिए। “मंत्र जितने जपे हों उनके दक्शांशा श्राहुतियां उठी मंत्र की होती हैं उनके सिवाय पीठिका श्रादि मंत्रों की श्राहुतियां होती हैं।” इन सब श्राहुतियों के प्रनुसार हवन सामग्री तंयार करनी चाहिए। तथा झाक, ढाक, श्राम, पीपल, बड़, सफेद चन्दन तथा लाल चंदन को सुथी छोटी पतली लकड़ियां भी रखनी चाहिए। जल शुद्धि मंत्र हाथ में चंदन लेकर कलझ्ों पर छिड़के । 5 हां हों हे. हों हः नमो 5हुंते भगवते पद्ममहापद्नति- गिडछुकेसरिपुण्डरीकसहापुण्रीकर्ग गा सिन्धु रो हिठ्ो हितास्याह्रिद्ध- रिकान्तासीतासोतोदानारीन रकान्तासुवर्ण रुप्यकूला र क्ता रक्तोदा- पयोधिशुद्धजलसुवरणंघटप्रक्षालितनवरत्नग धाक्षतपुष्पा चितसामो - रैद४ | [ सिड़थक्र विधान प॑ पंद्राद्रांद्रींदींहुंसः स्वाहा । इस मंत्र से जल शुद्धि करे । वेदों के पास जो चौकी है उस पर श्रक्षत बिछाकर बड़ा मड़ूल कलश स्थापन करे तब यह इलोक श्रोर मंत्र पढ़े । वेद्या मूले पंचरत्नोपशोभं, कंठ लंबान्‌ साल्यसादश्शयुकतं। मारिक्याभं कांचन पुगदर्भस्रकवासोभ सदघर्ट स्थापयेद्‌ वे ॥ 5» हीं अहूं मड़लकलशश्थापन करोमि स्वाहा । अब चार छोटे कलश कुष्डों पर स्थापन करे तब यह मंत्र पढ़े । ऊ हु स्व॒स्तये चतुःकलशान्‌ संस्थापयामि स्वाहा । फिर क॒ण्डों पर चार चार दीपक जलाकर धरे तब यह मंत्र पढ़े । ४ ही भ्रशानतिमिर हर दीपक संस्थापथासि । फिर पूजा की सामग्री तथा हवन सामग्री शुद्ध करे तब यह मंत्र पढ़े । 5» छ्लीं पविच्रतरणलेन शुद्धि करोमि स्वाहा । फिर डाभ के फूल से हवन की भूमि को भाड़ तब यह मंत्र पढ़े | % ही बायुकुमाराय सर्वविध्नविनाशाय महों पूता कुरु कुरु हू फद्‌ स्वाहा । फिर डाभ का पूला जल में भिगोकर पृथ्वी पर छिड़के तब यह मन्त्र पढ़े। # ही समेघकुमाराय घरां प्रक्ालय प्रक्षालय प्म॑ हूं त॑ पं त्व॑ कई भा यं छः फद्‌ स्वाहा । तिक्षणक विधान ] ह [ २६५ किर यन्त्र का प्रक्षाल करे सब यह मंत्र पढ़े । कक भूर्भुषः स्वरिष्व एतद्विघ्मोघवा रकष यन्त्रभहूं परिचय मि । फिर यन्त्र को पूजां करे। इसके बाद श्रर्तिकष्ड में सांथिये बनावे या < लिखे। पीछे कण्ड में कपूर भ्रोर डाभ के पूले से झग्नि स्थापित करे तब यह मंत्र पढ़े । हक ४5% ४४ रं रं रं रं अगि संत्यापयामि स्वाहा । फिर कुण्डों में एक एक श्रघ॑ दे। प्रथम चतुष्कोण की पुजा। श्रीतीयंनाथपरिनिव तिपुज्यकाले, झागत्य वहिसुरपा भुकुटोल्लसद्धि:। वह्लित्नज जिनपदे5हुपुदा रभकत्या, देहुस्तदग्निमहम्च यितु द्धासि ॥ 5$ हुं प्रथमेचतुरेलतीर्थक रण्डे गाहुपत्याग्तयेध्ष्यं निरवंपामीति स्वाहा । तबनन्‍तर-- गशाधिपातां शिवयातिकालेश्नोन्द्रोत्तमाड़्ुस्फुरदग्निरेषः । संस्थाप्य पृज्यक्च समयाहवनोयो, विध्नौधशान्त्ये विधिना हुताश:॥ १ # हों भों बत्ते द्वितोगगणधरकुण्ड प्राह्ययतोयास्नयेष्यं निवंप/मीति स्वाहा, यह पढ़ऋर भ्रध चढ़ावे । श्रोबक्षिणा ग्नि: परकेवलिस्व-, शरी रनिर्वाशनुताग्निदेव- । किरोटसंस्फुयंदसो मयापि, संस्थाप्य पृज्यो हि विधानश्ञान्त्पे ॥२॥ 55 हो थ्रों त्रिकोणे तृतोषसापास्यकेवलिकुण्ड दक्षिणास्तये़््यं निर्वपाम्ोति स्वाहा, यह पढ़कर अध खढ़ावें। तदनस्तर-निम्नलिलित मंत्रों को पढ़ते हुए पुष्पों का क्षेपरा करें। श्रों हों भ्रहुदूघः स्वाहा । भ्रों हीं घिद्ेम्यः नमः। ह्रों हो सुरिस्यः स्वहु। । श्रों हों पाठकेस्यः स्वाहा । मो हीं साधुस्य: २६५६ | [ घिड़ चक्रविधान स्वाहा । हों हों जिनधरमेंस्यः स्वाहा | करों हों निजागमेम्यः स्थाहा । झ्रों हों जिनबिस्वेग्यः स्वाहा । भ्रों हों जिनचेत्यालयेन्यः स्वाहा । भ्रों हीं सम्यकचारित्राय स्वाहा । (साकल्यसे प्राहुतियां देवें। मंत्र के बाद स्वाहा शब्द का उच्चाररा स्पष्ट करे । पीठिकामंत्राः थों सत्यजाताय नमः स्वाहा । श्रों भ्रहंज्जाताय नमः स्वाहा । *# परमजाताय नमः स्वाहा। श्रों श्रनुपमजाताय नपः स्वाहा । प्रों स्वप्रधानाय नमः स्वाहा । श्रों श्रचलाय नमः स्वाहा। प्रों श्रक्षयाय नमः स्वाहा । श्रों भ्रव्याबाधाय नमः स्वाहा । श्रों श्रनन्तज्ञानाय नमः स्वाहा । ओ प्रनन्त- बरशताय नमः स्वाहा । श्रों प्रनन्तवीर्याय नमः स्वाहा। श्रों झनसन्तसुखाय नमः स्वाहा। भ्रों नोरजसे नमः स्वाहा। श्रों निम्म- लाय नमः स्वाहा | प्रों भ्रच्छेश्याय नमः स्वाहा | श्रों प्रभेद्याय नमः स्वाहा । प्रों श्रजराय नमः स्वाहा। श्रों श्रमराय नमः स्वाहा । श्रोंश्रप्रमेयाय नमः स्वाहा । श्रों श्रगर्भवासाय नमः स्वाहा । श्रों श्रक्षोमाय नमः स्वाहा। झ्रों अविलीनाय नमः स्वाहा । भ्रों परमधनाय नमः स्वाहा। श्रों परमकाष्ठायोगरूपाय नमः स्वाहा । श्रों लोकाग्रनिवासिने नमो नमः स्वाहा। श्रों परम- सिद्धेम्यों तमो नमः स्वाहा श्रों भ्रहेत्सिद्धेम्यो नमो नमः स्वाहा । करों केवलिसिद्वेम्यो नमो नमः स्वाहा। श्रों भ्रन्तःकृतधिद्धेभ्यो नमो नमः स्वाहा । श्रों परम्परासिद्धेम्यों नमो नमः स्वाहा । श्रों श्रनादिपरम्परासिद्धेस्घो नमो नमः स्वाहा । श्रों भ्रनाद्यनुपस- सिद्धेम्यों नमो नमः स्वाहा। श्रों सम्यर्दुष्टे श्रासन्नगव्यनिर्बारण- ; परजाहुंश्रग्नोन्द्राय स्वाहा । सिद्चक् विधान |] [ २६७ सेवाफल घट्परमस्थानं भवतु अपमृत्युविनाशनं सवतु समाधिमररणं भवतु स्वाहा । जातिमंत्रा: श्रों सत्यजन्मन: शरणां प्रपथ्चे स्वाहा । प्रों प्रहंज्जन्मनः शररां प्रपद्चे स्वाहा । श्रों भ्रहुन्मातुः शररां प्रपद्चे स्वाहा । श्रों श्रहंत्‌- सुतस्य शररां प्रपद्चे स्वाहा । श्रों श्रनगादिगमनस्य शरण प्रपत्ये स्वाहा । भ्रों प्रनुपम जन्मनः शरणं प्रपद्य स्वाहा । ग्नों रत्नत्रयस्य शरणां प्रपद्य स्वाहा | श्रों सम्यग्दुष्टे सम्परदृष्टे ज्ञानसूर्ते ज्ञान- मूर्त सरस्वति सरस्वति स्वाहा । सेवाफल षट्परमस्थानं मवतु श्रपसृत्युविनाशनं भवतु समा- घिमररणं मवतु स्वाहा । निस्तारकमंत्रा: ञ्रों सत्यजाताय स्वाहा श्रों श्रहेज्जाताय स्वाहा । ्रों षट्‌- कमेण स्वाहा । श्रों ग्रामपतये स्वाहा। श्रों श्रनादिश्रोत्रियाय स्वाहा। श्रों स्‍्वातकाय स्वाहा। श्रों श्रावकाय स्वाहा । भ्रों देव- ब्राह्मणाय स्वाहा । श्रों सुब्राह्मणाय स्वाहा। श्रों श्रनुपमाय स्वाहा । श्रों सम्पर्दुष्टे सम्यर्दुष्टे निधिपते निधिपते बैश्रवरण वेश्रवरा स्वाहा । सेवाफल षट्‌परमस्थानं मवतु श्रपमृत्युविनाशनं भवतु समा- घिमरणं मवतु स्थाहा । ऋषिमन्त्रा: थ्रों सत्यजाताय नमः स्वाहा। श्रों ध्रहंज्जाताय नमः स्वाहा । भ्रों निर्मन्थाय नमः स्वाहा । थ्रों बीतरागाय नमः स्वाहु । भ्रों महाव्रताय नमः स्वाहा। श्रों त्रिगुप्ताय नम; श्द् द् [ सिज्चचक् विधान स्वाहा | भ्रों महायोगाय नमः स्वाहा । भ्रों विवधयोगाय नमः स्वाहा । भ्रों विवद्ध ये नमः स्वाहा । भ्रों प्रद्गधराय नमः स्वाहा। ओरों पुबंधराय तमः स्वाहा। श्रों गरधराय नमः स्वाहा । हों परमषिस्थो नमो नमः स्वाहा। श्रों प्रनुपमजाताय नमो नमः स्वाहा । भ्रों सम्परदुष्टे सम्यरदृष्टे भूपते नगरपते नगरपते काल- श्रमशा कालअमरा स्वाहा । सेवाफल॑ षद्परमस्थान भवतु श्रपमृत्युविनाशनं सवतु समाधिमरणं भवतु स्वाहा । सुरेन्द्रमन्‍्त्रा: ग्रों सत्यजाताय स्वाहा | श्रों प्रहंज्जाताय स्वाहा । पश्रों दिव्यजाताय स्वाहा। श्रों दिव्यचिजाताय स्वाहा । श्रों नेमिना- थाय स्वाहा । भ्रों सौधर्माय स्वाहा । भ्रों कल्पाधिपतये स्वाहा । श्रों ग्रनुचराय स्वाहा। श्रों परम्परेन्द्राय स्वाहा । ओं भ्रहुं सिन्द्राय स्वाहा । श्रों परमाहुंताय स्थाहा | श्रों श्रनुपमाय स्वाहा । भ्रों सम्यरदुष्टे सम्यग्दष्टे कल्पते कल्पते दिव्यमूर्ते दिव्यभृर्ते बद्धनामान्‌ वच्चनामान्‌ स्वाहा । सेवाफल घट्परमस्थानं भवतु श्रपमृत्युविनाशन भवतु समाधिमररशां मवत्‌ वाहा । परमराजादिमन्त्राः प्रों सत्यजाताय स्वाहा । श्रों श्रहंज्जाताय स्वाहा । श्रों झनुपसेन्द्राय स्वाहा । भ्रों विजयाच्य जाताय स्वाहा । श्रों नेमि- नाथाय स्वाहा । भ्रों परमजाताय स्वाहा । ह्रों परमाहंताय स्वाहा । ह्रों अ्रनुपमाय स्वाहा। श्रों सम्परदृष्टे सम्यरदृष्टे उग्रतेजः उप्रतेजः: विशाव्जन विज्ञाज्जन नेमिविज्य नेमि- विजय स्वाहा । /खिद्धबक्ष विभरन | .[ २६५६ सेबाफ़लं बट्परमस्थानं भवतु अ्रपसृत्युवितादान सवत्‌ ससरा- घिसरणं भवत स्वाहा 22 हि परमेध्ठिमन्वाः थ्रों सत्यजाताय नमः स्वाहा । श्रों भ्रहंज्नाताय नमः स्वाहा | भ्रों परमजाताय नमः स्वाहा । श्रों परमाहुंताथ गबः स्वाहा! भ्रों परमरूपाय नमः स्वाहा श्लों परमतेजसे नमः स्वाहा । भ्रों परमगुणाय तमः स्वाहा । भों परण स्थानाथ नमः स्वाहा । ओं परमयोगिने नमः स्वाहा । भों परममाग्याथ नमः स्वाहा | भ्रों परमदंये नमः स्वाहा | प्रों परमप्रसादाय नमः स्वाहा श्रो' परमकां क्षिताय नमः स्वाहा । श्रो परम विजयाय नमः स्वाहा। श्रों परमविज्ञानाय नमः स्वाहा। श्रों परमद्शनाय नमः स्वाहा । भ्रों परमवीर्याय नमः स्वाहा। श्रों परमसुखाय नमः स्वाहा। श्रों परससवंज्ञाय नमः स्वदाह। श्रों अहेते नमः स्वाहा । हो परमेष्ठिने नमः स्वाहा। झ्रो' परमनेश्रे नमोनसः स्वाहा। श्रो' सम्परदुष्टे सम्यग्दुष्टे तलोक्यविजय त्रेलोक्यविजय धर्ममृर्त धर्म" मृ्ते धर्मनेसे धर्मनेमे स्वाहा । सेवाफल षट्‌यरमस्थानं भवतु प्रपम्त्युविनाशनं भवत्‌ समाधिररणं भवत्‌ स्वाहा । तदनन्तर “जिस मंत्र का जितना जप किया हो, उसको दच्षांश पुष्पों द्वारा भ्राहुतियां देना चाहिए।” यह मंत्र प्रतिष्ठा- चाय मन में बोलकर स्वाहा शब्द का उच्चारण करें और तद- नन्‍्तर इन्द्रादि बनने बाले सब महाशय स्वाहा बोलकर पुष्प प्रपंशा करे । ; समापन वितवि समाप्त होने पर ज़ो घद स्यापित किया था श्ृ० | [ सिद्ध अक्विधान उसे हाथ में लेकर भ्राचार्य बहुच्छान्तिधार! दें । उसके बाद जल- धारा देते हुए निम्नलिखित पुण्पाहवाचन करें। पुण्याहवाचन श्रो' पुण्याहं पुण्याहूं लोकोद्योतनकरा भ्रतीतकालसंजाता निर्वाशसागरमहासाधुविमलप्रभशुद्धामश्रीधरसुदत्तामलप्रभोद्धरा- ग्निसन्मतिशिवकुसुमाजलिशिवगरणोत्साहज्ञानेश्वरप रमेशव र विम- लेब्वरयशोधरक्षष्णमतिज्ञानम तिशुद्धमतिश्री भद्रकांताइचेति चतु- विशतिभूतपरमदेवाइच वः प्रीयन्तां प्रीयन्ताम्‌ ॥ धारा ॥१॥ ह्रो' सम्प्रतिकालश्रेय कर वर्गावतरण नन्माभिषेकपरिनिष- क़मराकेवलज्ञाननिर्वाणकल्याणविभूषितमहाम्युदया: श्रोवषमा- जितशंभवाभिननंदनसुम तिपकमप्रभसुपाइवंचंद्रप्रभपृष्पदं तशी तल- श्रेपोवासुपृज्यविमलानंतधर्मशां तिकु थ्वरमल्लिमुनिसुश्नतन मिनेमि- पाइ्वंवर्धमानाश्चेति वर्तमानचत्‌ विशतिपरमदेवाइच वः श्रीयन्तां प्रीयन्ताम्‌ ॥ धारा ॥२॥ शों भविष्यत्कालास्युदयप्रभवा: महापग्यसुरदेवसुप्रमस्वय॑- प्रभसर्वायुधजयदेवोदयदेवप्रभादेवो द ड्धूदे वप्रबनकी तिज यकी तिपुरां - बुद्धनिःकषायवियलप्रभवहुल निर्मलचित्रगुप्तसमाधिगरुप्तस्वयंभू- कंद्पंजयनाथविमलनाथदिव्यवागनंतवीयश्चि तिचतुविश तिभवि- व्यत्परमदेवाइच वः प्रीयन्ता प्रीयन्ताम्‌ ॥ धारा ॥३॥ श्रों त्रिकालवरतिपरमधम स्युदया: सीम॑धरयुग्मंधरबाहुसु बाहु- संजातकस्वयं प्रभऋषभेश्व रानं तवीयंसुर प्रभविशालकी तिवच्भधर- चंद्राननचंद्रबवाहुभुजंगेश्व रनेमिप्रभवो रसेनमहामद्र जय दे वा जि तवी- यह्चिति पंचविदेहक्षेत्रविहरमाणा विशतिपरमदेवाइच वः प्रीय- स्तां प्रीयन्ताम्‌ ॥ धारा ॥४॥ सिद्धचक्र बिप्राव ] [ १६१ शो बृषभसेनादिगरणघरदेवा: वः प्रीयन्तां प्रीयस्ताम्‌ ॥ धारा ॥५॥ शो कोष्ठबीजपादानुसारिबुद्धिसं भिन्नथ्ोतृप्रज्ाअभवराइच बः प्रोयन्तां प्रीयन्ताम्‌ ॥ धारा ॥६॥ शो श्रामषक्वेडजल्लविडुत्सगेंंसवौषधिऋद्धयशच वः प्रीयन्तां प्रीयन्ताम्‌ ॥ धारा ॥७॥ थ्रो' जलफलजंघातस्तुपुष्पश्नेरिपत्रारितिशिखाकाद चारणाइच बः प्रीयन्तां प्रीयन्ताम्‌ ॥ धारा ॥८॥ झो प्राहाररतवदक्षीणमहानसालयाइच वः प्रीयन्तां प्रीयन्ताम ॥ धारा ॥६॥ भ्रो. उप्रदीप्ततप्तमहाघो रानुपमतपसश्च॒ वः प्रीयन्तां प्रीयन्ताम्‌ ॥ धारा ॥१०॥ झ्रो' मनोवाक्कायबलिनइ्च वः प्रीयंतां प्रीयन्तांम्‌ ।धारा॥ ११ श्रो' क्रियाविक्नियाधारिशइच वः प्रीयंतां प्रीयंताम्‌ ॥ घारा ॥१२॥ हो मतिभ्‌ तावधिमनःपर्यययकेवलज्ञानिनश्च बः प्रीयन्तां प्रीयन्तामू ॥ धारा ॥१३॥ शो प्रंगांगबाह्मज्ञानदिवाक राः कुन्दकुन्दाद्यनेक दिगंबर देवा - इच वः प्रीयन्तां प्रीयन्ताम्‌ ॥ धारा ॥११४।॥ हु वाइस्यनगरप्रामदेवतासनुजाः सर्वे गुरुभक्ता: जिनधर्म- परायणाभवंतु ॥ धारा ॥१४५॥ दानतपोवीर्यानुष्ठानं नित्यमेवात्तु ॥ धारा ॥१६॥ मातृपितृज्ञातृपुत्रपो त्रकलत्नसुहृत्स्वजनसंब न्धिस हितेम्य झमु- १११ ] [ सिद्धचक्ष विधान केस्य'''ते धनपान्येश्वयंबललतियशाप्रमोदोत्सवा:''''*' प्रवर्दे- ताम्‌ ॥ धारा ॥१७॥ तुष्टिरस्तु, पुष्टिरस्तु, वृद्धिरस्तु, कल्याणमस्तु, श्रविध्त- मस्त, प्रायुष्यमस्तु, आरोग्यमस्तु, कर्मसिद्विरस्तु, दृष्टसस्पत्ति- रस्तु, काममाड्गल्योत्सवा: सन्‍्तु, पापानि शास्यन्तु, घोराणि शाम्पन्त, पुृण्यं बधंताम्‌, धर्मों वर्धवाम्‌, भ्रीबंधंताम्‌, कुल गो चामिवर्धेताम्‌, स्वस्ति भद्ं च भवतु, ढ्ष्वों क्ष्वीं हुं सः स्वाहा । श्री मज्जिनेन्रचरणारविन्देष्वानन्द भक्तिः सदास्तु । तदनन्तर ज्ञान्ति पाठ और विसर्जन पाठ पढ़ें । शांति पाठ ज्ञांतिवा5 बोलते समय पुष्प क्षेपण करते रहना चाहिए। शांतिनाथ मुख शशि उनहारो, शोल गुणतव्रत संयमधारो । लखन एकसोश्राठ बिराजें, निरखतत नयन कमलदल लाजे ॥१॥ पंचम चक्रवति पदधारी, सोलम तीथंकर सुखकारो। इन्द्र नरेन्द्र पुज्य जिन नायक, नमो शांति जिनजश्ञांति विधायक ॥ २॥ दिव्य बिटप पहुपन की बरषा, दुन्दु सि श्रासन वाणी सरसा । छुत्र चमर भामण्डल भारो, ये तुब॒प्रातिहायं मनहारोी ॥३॥ शांति जिनेश शांति सुखदाई, जगत पृज्य पूनो शिरनाई । परम शांति दीज हम सबको, पढ़ें तिन्‍्हें पुनि चार संघको ॥४॥ बसंततिलका-पूर्जे जिन्हें मुकुट हार किरीट लाके । इन्द्रादि देव श्ररु पूज्य पदाव्ज जाके । सो शांतिनाथ बरबंश जगत्प्रदीप । मेरे लिए करहि शांति सदा अनूप ॥५॥ सिद्ंचक् विधान | [ १६६ इन्द्रध्वजा ह संपूजकों को प्रतिपालकों को यतीनकों को यतिनायकों को । राजा-प्रजा राष्ट सुदेशको ले कौजे सुखी हूँ जिन शांतिकों दे ॥ सग्धरा छुत्द होगे सारी प्रजाको सुखबल युत हो धमंधारी नरेश्ञा। होवे वर्षा समे प॑ तिलमर न रहे व्याधियों का श्रंदेशा ॥ होवे चोरी न जारी सुसमय वरते हो न दुष्काल भारी। सारे ही देश धारें जिनवर वृषकों जो सदा सौख्यकारी ॥७॥ दोहा--घातिकर्म जिन नाश करि, पायो केवलराज । शांति करो सब जगत में वषभादिक जिनराज ॥ अ्रथेष्ट प्राथता (मन्दाक़रास्ता) शास्त्रों का हो पठन सुखदा लाभ सत्संगतो का। सद॒ब॒तों का सुजन कहके, दोष ढांकू सभी का॥ बोलूं प्यारे बचन हित के श्रापका रूप ध्याऊं। तोलों सेऊं चरण जिनके मोक्ष जोलों न पाऊं झ्रार्य्या तब पद मेरे हियमें, मम हिय तेरे पूनित चरणों में। तबलों लीन रहों प्रभु जबलोौ पाया न मुक्ति पद मैंने ।१०। झक्षर पद मात्रा से, दृषित जो कछु कहा गया मुभसे। क्षमा करो प्रभु सो सब, करुएया करि पुनि छुडाहु भव दुखसे । है जगबन्धु जिनेदवर, पाऊं तव चरण दारण बलिहारी। मरण समाधि सुदुलंभ कर्मों का क्षय सुबोध सुखकारी (१२। परिपुष्पार्जाल क्षेपण (यहां पर नो बार रामोकार मंत्र जपना घाहिए) - १६४ | [ सिद्धचक विधान विसजंन विन जाने वा जानके रही टूट जो कोय। तुम प्रसाद तें परमगुरु, सो सब पुरण होय ॥१॥ पुजनविधि जानों नहीं, नहीं जानों प्राह्नान । श्रौर विसंजन हु नहों क्षमा करहुँ भगवान ॥२॥ सन्त्रहीत धनहोत हूं क्रियाहीन जिनदेव । क्षमा करहु राखहु मुझे, देहूँ चरणको सेव ॥३॥ भ्राये जो-जो देवगरा, पूजे भक्ति प्रमाण । ते सब मेरे मन बसों, चोवीसो भगवान ॥४॥ ॥ इत्याक्षीवादः ॥॥ प्राशिका लेना-श्री जिनवर की आ्राशिका, लीज शीश चढ़ाय भव-भव के पातक कटें, दुख दूर हो जाय ॥१॥ भाषा स्तृति पाठ तुम तरणतारण भवनिवारण, भविकमन प्रानंदनो। श्रीनाभिनंदन जगतवंदन, श्रादिनाथ निरंजनों ॥१ तुम श्रादिनाथ अनादि सेऊं, सेय पद पूजा करू। कैलाश गिरिपर रिषभजिनवर, पवकमल हिरदे धरूं ॥२ तुम श्रजितनाथ श्रजोत जीते, श्रष्टकर्म महाबलो। इह विरद सुनकर सरन श्रायो, कृपा की नाथजी ।३ तुम चन्द्रवदन सु चन्द्रलच्छेन, चन्द्रपुरि परमेश्वरो। महासेननंदन जगतबन्दन चन्द्रनाथ जिनेदवरों ॥४ तुम शांति पांचकल्याण पूजू, शुद्धअभनवचकाय ज्‌। दुभिक्ष चोरी पापनाशन, विघन जाय पालाय जू ॥५ चिद्धचक् विधान ] [ ग९४ तुम बालब्रह्म बिबेकसागर, भव्यकमल विकाशनों। श्रीनेमिनाथ पवित्र दिनकर, पापतिमिर विनाशनों ॥६ जिन तजो राजुल राजकन्या, कामसेन्या वश करो। चारित्ररथ घढ़ि भये दुलह, जाय शिव रमर्ी वरो ॥७ कन्दर्प दर्प सुसपंलच्छुन, कमठ शठ निमंद कियो । ग्रदवसेननन्दत जगतबंदन, सकलसंघ मंगल कियो ४८ जिन धरी बालकपरों दीक्षा, कमठ मानविदारके । श्रोपाइबं नाथ जिनेन्द्र के पद, में नमों सिरधार के ॥९ तुम कमंघाता मोक्षदाता, दीन जानि दया करो। सिद्धार्थनंदन जगत बंदन, महावीर जिनेश्वरों ॥१० छुत्र तीन सोहैं सुरनर मोह, बीनतो भ्रवधारिये। कर जोड़ि सेवक वीनवे, प्रमु श्रावागमन निवारिये ॥११ तुम होउ भवभव स्वाभि मेरे, मैं सदा सेवक रहों। कफरजोड़ यो वरदान मांगूं, मोक्षफल जाबत लहों ॥१२ जो एक माहों एक राजत, एकर्माहि पअ्नेकनों ।। हक श्रनेक की नाहि संख्या, नमूं सिद्ध निरंजनों ॥१३ चौ०-मैं तुम चरशकमल गुरगाय, बहुबिधिभक्ति करी मनलाय । जनम जनम प्रभ पाऊं तोहि, यह सेवाफल दीजे मोहि ॥१४ कृपा तिहारी ऐसी होथ, जामन सरन भमिटावों मोय। बार बार में विनतो करूं, तुम सेयें भवसागर तरूँ ॥१५ नाम लेत सब दुख मिट जाय, तुब वन देख्या प्रभु भ्राय । तम हो प्रभु देवन के देव, में तो करू च*णा तव सेव ॥१६ में श्रायो पुजन के काज, मेरो जन्म सफल भयो श्राज । पूजा करके नवाऊं शीश, सुर भ्रपराध क्षमहु जगदीश ॥१७ १६६ ] [ सिद्धचक विधान दोहा सुख देना दुख मेटना, यही तुम्हारी बान । मो गरीब की वीनती, सुन लोज्यों भगवान ॥१४ . पूजन करते देव की, श्रादि मध्य भ्रवसान । सुरगन के सुख मोगकर, पा मोक्ष तिदान ॥१& जंसोी महिमा तुप्र विषे, श्रौर धरे नह कोय। जो सुरज में जोति है, तारन में नह सोय ॥२० नाथ तिहारे नामतें, प्रध छितर्माह पलाय । ज्यों दिनकर परकाशते, अ्रंधकार विनपाय। २१ बहुत प्रशंता क्‍या करूं, में प्रभु बहुत श्रजान । पुजाविधि जानूं नहों, सरन राखि भगवान ॥२२ ॥ श्री सिद्धधक्र की आरती ॥। जय सिद्धचक्र देवा जय सिद्धचक्र देवा, करत तुम्हारों निश दिन मन से सुर नर मुनि सेवा ॥ ॥जय सिद्धचक्त देवा० ॥ ज्ञानावर्ण दर्शवावरणो मोह प्रंतराया, नाम गोत्र वेदतों श्रायु को ताशि मोक्ष पाया ॥ ॥जय सिद्धचक्क ०३१४ ज्ञान अ्रनंत भ्रनंत दर्श सुख बल श्रनंतवारी, प्रव्याबाध श्रपृति श्रगुरुलघु श्रवगाहुन घारी ॥जय सिद्ध०॥२ तुम श्रशरीर शुद्ध चिन्पूरति स्वातव रसभोगो, तुम्हें जप श्राचार्योपाष्याय सर्व साधु योगी ॥जय सिद्ध 9३॥ ब्रह्मा विष्णु महेश सुरेश गरशश तुम्हें ध्यावें, भवि झलि तुम चरणास्बुज सेवत निर्भयपद पा्वे ॥जय०॥४ विद्धछक्र विधान ] [ २६७ संकट ठारन श्रधम उधारन सावर तररतां, प्रष्ट दुष्ट रिकु कर्म नष्ट'करि जन्म मरर हरणा ॥जय ०४५ दोन दुखी अलतमर्थ दरिद्री मिर्धन तन रोगी, विड्धचक़ को ध्यान भये ते सुर नर सुख भोगो तजप०।॥६॥ डाकिनि आकितनि भूत विश्ववितनिव्यंतर उपसर्गा, नाम लेत भबि जाय छितक्ें कब देवी दुर्गा ।ज पसिद्ध ०५७॥॥ बन रन शक्रः फ्रश्निजल पव॑त क्विखर पंचानने, मिर्टें सकल भय कथ्ट करें जे सिद्धाचक्क सुर्सिरन ॥जय ० ॥८॥ मेना सुम्दरि कियो पाठ यह पर्व प्रष्ठाइनिमें, पति युत सात ग़तक कोढ़िम का गया कुष्ठ'छिनसें ॥जथ०॥६ फातिक फागुन साढ़ झ्राठ दित खिद्धचक़् पूजा; कर शुद्ध भावोंसे मक्खन लहैँ न भव दूजा ॥जमसिद्ध ०४१० ॥ दृक्ति 0 । भजन ।|। श्रो सिद्धचक्र का पाठ करो दिन श्राह्न, ठाठ से प्रानी, फल पायो मना रानी 0टेक। सेत्रा सुन्दरि इक नारो थो, कोढ़ो पति लखि दुखियारो थो, नहि पड़े चेन दिन रंन व्यथित प्रकुलानो ॥ फल पायो० ॥ जो पति का कष्ट मिटाऊंगी, तो उभय लोक सुख पाऊंगो, नहिं भ्रजागलस्तनवत निष्फल जिदगानी ॥ फल पायो० ।* इक दिवस गई जिन सन्दिर में, दर्शन करि श्रति हर्षो उर में, फिर लखे साधु निम्नंस्थ दिगम्बर ज्ञानी ॥ फल पायो० ७ रध्द | [ सिद्धचक्र बधान बेठी मुनिको करि नमस्कार, तिज निन्‍दा करती बार बार, भरि श्रश्नु नयन कही मुनि सों दुखद कहानी ।। फल पायो०॥। बोले मुनि पुत्रो धयं धरो, श्री सिद्धचक्त का पाठ करो, नहिं रहे कुष्ठ की तन में नाम निज्ञानी ॥ फल पायो० ॥ सुनि साधु बचन हर्षो मना, नहिं होंथ भूठ सुनि के बंना, करि के श्रद्धा श्री सिद्धचक्र की ठानी ॥ फल पायो० ॥। जब पर्व भ्रठाई आया है, उत्सवयुत पाठ कराया है, सब के तन छिड़का यंत्र न्हृवन का पानी ॥ फल पायो ० ॥ गंधोदक छिंड़कत वसु दिन में, नहिं रहा कुष्ठ किचित तन में, भई सात शतक की काया स्वर्ण सथानी ॥ फल पायो० ।॥ भव भोग भोगि योगेश भये, श्रीपाल कम ह॒नि सोक्ष गये, दूजे भव मेनरा पावे शिव रजधानों ॥ फल पायो० ॥ जो पाठ करें मन बच तन से, वे छूटि जांय भव बंधन से, मक्खन सत करो विकल्प कहा जिनवानों। फल पायो०॥ पर?